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जैन दर्शन में हेतु लक्षण
अनुमान वाक्य में पर्वत “पक्ष" है, अग्नि “साध्य" है तथा धूम "हेतु" है। धूम हेतु, पक्ष
त में विद्यमान है, “सपक्ष" महानस आदि में प्रसिद्ध है तथा विपक्ष जलाशय आदि में उपलब्ध नहीं होता है अतः त्रैरूप्यवान् होने के कारण धूम हेतु अग्नि रूप साध्य का गमक है।
__ वैशेषिकों के समान सांख्यदर्शन में भी हेतु के त्रिरूपत्व का निरूपण किया गया है, किन्तु सांख्यदर्शन में इसकी विशेष चर्चा नहीं है।
हेतु के त्रिरूपत्व की सर्वाधिक प्रसिद्धि बौद्धदर्शन में हुई। बौद्धों ने हेतु के रूप्य पर जितना विशद एवं विस्तृत प्ररूपण किया उतना भारतीय दर्शन में अन्यत्र नहीं हुआ। दिङ्नाग (४८०-५४०) अथवा उनके शिष्य शंकरस्वामी प्रणीत “न्यायप्रवेश' में त्रैरूप्य का प्रतिपादन करते हुए कहाहै "हेतु स्त्रिरूयम्-किं पुनस्त्रैरूप्य, पक्षधर्मत्वं, सपक्षे सत्त्वं, विपक्षे चासत्त्वमिति ।२ महान् बौद्ध नैयायिक धर्मकीर्ति ( ७वीं सदी) त्रिरूपता में संभावित दोषों का निराकरण करने हेतु अवधारणार्थक ‘एव' शब्द का भी यथास्थान प्रयोग करते हुए 'न्यायबिन्दु' में कहते हैं-त्रैरूप्यं पुलिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव, सपक्ष एव सत्त्वमसपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम्'३ अर्थात् लिंग अनुमेय (पक्ष ) में होता ही है, सपक्ष में ही होता है तथा विपक्ष ( असपक्ष ) में होता ही नहीं है। ये तीनों रूप जिसमें निश्चित हों वही लिंग है। हेतु की त्रिरूपता का निरूपण तीन हेत्वाभासों का निराकरण करने के लिए किया गया है। पक्षधर्मत्व के द्वारा "असिद्ध" सपक्ष सत्त्व के द्वारा "विरुद्ध एवं विपक्षासत्त्व के द्वारा “अनेकान्तिक ( व्यभिचारी) हेत्वाभास का निराकरण किया गया है। वैशेषिक दर्शन में अनेकांतिक के स्थान पर “संदिग्ध' शब्द का प्रयोग किया गया है।" पांचरूप्य परम्परा
पांचरूप्य परम्परा के प्रस्तावक एवं समर्थक गौतमीय नैयायिक ( उद्योतक ६ठीं शती) के पूर्व पांचरूप्य का उल्लेख नहीं मिलता है। पांचरूप्य हैं-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधितविषयत्व एवं असत्प्रतिपक्षत्व। न्याय-परम्परा में हेतु को द्विलक्षण एवं त्रिलक्षण भी माना गया है।६ साध्य में व्यापक तथा उदाहरण में विद्यमान होने से उसे द्विलक्षण तथा अनुदाहरण अर्थात् विपक्ष में अविद्यमान होने से उसे त्रिलक्षण कहा गया है,
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१. सांख्यकारिका-माठरवृत्ति का. ५ २. न्यायप्रवेश, गायकवाड ओरियन्टल सिरीज, बड़ौदा, पृ० १ ३. न्यायबिन्दु, २१४
हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः ।
असिद्ध विपरीतार्थ व्यभिचारिविपक्षतः ।—प्रमाणवार्तिक, बौद्ध भारती सं० ३।१५ विपरीतमतो यत्स्यादेकेन द्वितयेन वा। विरुद्धासिद्ध संदिग्धमल्लिगं काश्यपोऽब्रवीत् ॥–प्रशस्तपादभाष्य, अनुमान प्रकरण न्यायवार्तिक ( उद्योतकर ) १११।३४ एवं ११११५ डॉ दरबारीलाल कोठिया ने इसे उद्धत किया है-"जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार", पृ० १९०
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