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त्रैमासिक शोधपत्रिका
अनेकान्त
Pasculine
ON
सम्पादक-मण्डल
डा० प्रा.ने. उपाध्ये
डा० प्रेमसागर जैन
वर्ष २७
यशपाल जैन
किरण १
NEL
प्रकाशचन्द्र जैन
मई १९७४
प्रकाशक सांस्कृतिक सचिव
वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली
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विषय-सूची | वीर सेवा मन्दिर का अभिनव विषय पृ०
प्रकाशन १. मिद्धस्तुतिः
जेन लक्षणावली भाग दूसरा २. तत्वार्थमूत्र का लघु सस्करण
चिर प्रतीक्षित जैन लक्षणावली (जैन पारि-अनूपचन्द न्यायतीर्थ भाषिक शब्दकोश) का द्वितीय भाग भी छप चका ३. धर्म की बिक्री
श्रीठाकुर | है। इसमें लगभग ४०० ग्रन्थों से वर्णानुक्रम के अन
मार लक्षणों का सकलन किया गया है। लक्षणों के ४. जैन सस्कृति -प्रेमचन्द जैन एमom.
|मकलन मे ग्रन्थकागे के कालक्रम को मूख्यता दी ५. जनमत मे मूर्तिपूजा की प्राचीनता एव
| गई है। एक शब्द के अन्तर्गत जितने ग्रन्थो के विकास -शिवकुमार नामदेव १२
लक्षण मगहीन है उनमें से प्रायः एक प्राचीनतम ६. पुण्यतीथं गपोग
. मुधेश १६ ग्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में हिन्दी ७. राजल . मिश्रीलाल जैन १६ । अनुवाद भी दे दिया गया है। जहाँ विवक्षित
लक्षण मे कुछ भेद या हीनाधिकता दिखी है वहा ८. जैन दर्शन की महज उद्भति : अनकान्त
उन ग्रन्थो के निर्देश के माथ :-४ ग्रन्थो के प्राथय ----जयकुमार जलज २०
|में भी अनुवाद किया गया है। इस भाग में केवल १. प्रोमिया का प्राचीन महावीर मन्दिर
| 'क मे प तक लक्षणों का सकलन किया जा -श्री अगरचन्द जैन नाहटा २३ | सका है। कछ थोड़े ही समय में इसका तीसरा १०. विदिशा में प्राप्त जन प्रतिमाये एव गुप्त नरेश भाग भी प्रगट हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ सशोधको रामगुप्त
-शिवकुमार नामदेव २६ के लिए तो विशेष उपयोगी है ही, साथ ही हिन्दी ११. वीर सेवा मन्दिर विधान का स्मरण पत्र
अनुवाद के रहने से वह सर्वसाधारण के लिए भी
उपयोगी है । द्वितीय भाग बड़े आकार में १२. वीर सेवा मन्दिर के वर्तमान पदाधिकारी नथा
८५८.८ .-२२ पृष्ठो का है। कागज पुष्ट व कार्यकारिणी समिति के सदस्य
टा.५ ३
| जिल्द कपडे की मजबूत है। मूल्य २५.०० रु. है। यह प्रत्येक यूनीवर्सिटी, सार्वजनिक पुस्तकालय मन्दिरो मे सग्रहणीय है। ऐसे ग्रन्थ बार-बार नही छप सकते। समाप्त हो जाने पर फिर मिलना अशक्य हो जाता है।
प्राप्तिस्थान वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
दिल्ली-६ भनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मण्डल उत्तरदायी नहीं है। । ---- व्यवस्थापक एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा
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ॐ महम्
3ণকাল।
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
मई
वर्ष २७ किरण १
। ॥
वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण सवत् २४९६, वि० सं० २०३०
१६७४
सिद्धस्तुतिः
ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून प्राप्ताः पदं शाश्वतं, येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सोमापि नोल्लङ्घयते । येष्वश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमज्ञानादिसंयोजितं, ते सन्तु त्रिजगच्छिखाग्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे ।। सिद्धो बोधमितिः स बोध उदितो ज्ञघप्रमाणो भवेत । ज्ञय लोकमलोकमेव च वदन्त्यात्मेति सवस्थितः। मुबायां मदनोज्झिते हि जठरे यादग नभस्तादशः।
प्राक्कायात् किमपि प्रहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति ।। अर्थ-जो सिद्ध परमेष्ठी अपने कर्मरूपी कठोर शत्रुनों को जीतकर नित्यपद को प्राप्त हो चके है; जन्म जरा एवं मरण प्रादि जिनकी सीमा को भी नहीं लांघ सकते। तथा जिनमें असाधारण ज्ञान आदि के द्वारा अचिन्त्य एवं अद्वितीय अनन्त चतुष्टय स्वरूप ऐश्वर्य का संयोग कराया गया है। ऐसे वे तीनों परमेष्ठी मेरे कल्याण के लिए होवे । सिद्ध जीव अपने ज्ञान के प्रमाण हैं, और वह ज्ञान ज्ञेय के प्रमाण कहा गया है । वह ज्ञेय भी लोक एवं अलोक स्वरूप है। इसी से प्रात्मा सर्व व्यापक कहा जाता है। सांचे में से मैन के पृथक हो जाने पर उसके भीतर जैसा शुद्ध प्रकाश शेष रह जाता है ऐसे आकार को धारण करने वाला तथा पूर्ण शरीर से कुछ हीन ऐसा वह सिद्ध परमेष्ठी सदा प्रानन्द का अनुभव करता है।
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तत्त्वार्थसूत्र का लघु संस्करण
अनूपचन्द न्यायतीर्थ
तत्वार्थसत्र जनों का एक महान् सूत्र पथ है जिसकी इस ग्रन्थ का दूसरा नाम मोक्ष शास्त्र भी है। रचना प्राचार्य उमास्वामि ने तीसरी शताब्दी मे की थी। तत्वार्थ मत्र इतना जोर यह ग्रन्थ इतना महत्वपूर्ण है कि इसका प्रचार दिगम्बर दिन पाठ करना प्रत्येक श्रावक के लिए आवश्यक समझा या वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायो मे समान रूप से है। जाता है । इसके अतिरिक्त ऐमा भी विश्वास है कि तत्वार्थ सोही इसे एकमत होकर स्वीकार करते है। इसका सूत्र का एक बार पाठ करने से एक उपवास का स्वत लोकप्रियता का पता तो इससे ही चल सकता है कि इसकी ही फल मिलता है। इसलिए महिला ममाज या तो इसका
या ग्राज भी ग्रन्थ भण्डारो मे उपलब्ध है तथा स्वयं पाठ करती है या फिर अन्य किसी से इसके पाठ को उनका अनेक भाषाओं में भाष्य, टीका और भावार्थ प्रका
मुनती है। पयूषण पर्व के दिनो मे भी इमक एक-एक शित हो चुका है। इस ग्रन्थ की जितनी अधिक प्रतियाँ
मूत्र के प्रथों का प्रतिपादन दस दिनो तक किया जाता है। हस्तलिखित व प्रकाशित भंडारो मे मिलती है उतनी अन्य
दम दिन मे दम मूत्रो का अर्थ वाचन पूरा हो जाता है। किसी की शायद ही मिले ।
ज्यो-ज्यो इस महान ग्रथगज का प्रचार बढ़ा लोगो श्रद्धालु जन प्रतिदिन इमका पाठ करते है। कितनी ने इसे कण्ठस्थ किया तथा इसे और भी छोटे रूप मे ही महिलाएं तो अाज भी इसका स्वाध्याय किये बिना देखना चाहा । सम्भव है इसके पाठ करने में अधिक समय भोजन तक नहीं करती है । खुद पढ़ती है अथवा औरों के लगने के कारण ही कुछ छोटे सूत्र ग्रथो का भी निर्माण मख से इसका पाठ सुन लेती है। इस पथ पर अनेक किया गया और उसमे दस के स्थान पर पांच ही अध्याय भाचार्यो एव पडितो ने भाष्य संस्कृत टीकाए तथा भावार्थ कर दिये गये हो। लिखे है जो इसकी महानता का द्योतक है।
अभी राजस्थान के दिगम्बर जैन शास्त्र भडारों के इस महान ग्रन्थ पर बड़े-बड़े प्राचार्यो तथा विद्वानो ग्रथो की सूची बनाते समय कुछ ऐसे ही ग्रथ उपलब्ध हुए ने लेखनी चलाई है तथा इसके महह्नतम तल मे प्रवेश कर जिनमें तत्वार्थ सूत्र को सक्षिप्त कर दिया गया है। इसका नये तथ्यउद्घाटित किये है। भट्यकलक देव का तत्वार्थ- नाम 'लघ तत्वार्थ सूत्र', 'लघु पंच सूत्र' तथा 'महंत प्रवराजवातिक, पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि, विद्यानन्द को चन'नाम मिलता है। उक्त तीनों ग्रथो मे ५ ही अध्यायों श्लोकवार्तिक, योग देव की तत्वार्थ वृत्ति, प० सदासुख जी में दस सूत्रो का समावेश कर दिया गया है। उक्त तीनो की अर्थ प्रकाशिका, श्रुत सागरी संस्कृत टीका तथा अन्य ग्रंथो में केवल नाम भेद है सूत्र भेद नही। प्रस्तुत लेख मे पचासों टीकाएँ एवं भाष्य उपलब्ध होते है। इसकी अनेक 'लघु तत्वार्थ सूत्र' पर ही प्रकाश डाला जा रहा है। सुन्दर टीकाएं लिखी गई है। यही नहीं इसकी ग्रंथकर्ता अथवा रचनाकार का नामोल्लेख नही होने कितनी ही स्वर्णाक्षरी तथा रूपान्तरी प्रतियाँ देश के से यह तो नहीं कहा जा सकता कि इसके रचनाकार कौन विभिन्न भण्डारों में सुरक्षित है।
है किन्तु इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि इसका रचना प्राचार्य उभास्वामि ने उस ग्रथ की रचना कर गागर कार कोई प्रतिभाशाली निर्भय प्राचार्य अथवा विद्वान हो मे सागर भरने की कहावत चरितार्थ की है । उन्होने सारे सकता है जिसने परम्परागत मान्य तत्वार्थ सूत्र के दस जैन सिद्धान्त को इस ग्रंथ में सूत्र रूप मे गूथ दिया है। अध्यायों को पाच ही अध्यायो मे और वह भी बहुत
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तत्वार्यसूत्र का लघु संस्करण कम सूत्रों में सीमित कर दिया। यह कार्य किसी अधि- वैमानिक कल्पवासी तथा महमिद्रो के वर्णन के मतिकारी विद्वान का ही हो सकता है। इस ग्रंथ की प्रतियां रिक्त ५ जीवगति, पाठ प्रकार आत्मसद्भाव, ५ शरीर, हमें निम्न भण्डारों से उपलब्ध हुई है
पाठ ऋद्धि, ५ इन्द्रियां, ६ लेश्या तथा दो प्रकार के शील लघुतत्वार्थ सूत्र-शास्त्र भंडार गोधों का मन्दिर, जयपुर। का वर्णन है। सं. ३८५ (गुटका नं०६३)
५ वें अध्याय मे तीन योग, चार कषाय, तीन दोष, लघु पंच सूत्र-शास्त्र भंडार मंदिर चौधरियो का, ५ प्रास्रव, ३ प्रकार संवर, २ प्रकार की निर्जरा, ५ जयपुर स. ९६३ ।
लब्धिया, ४ प्रकार के बंध तथा ५ प्रकार के बध का लघु तत्वार्थ सूत्र-पामेर शास्त्र भडार, जयपुर स. कारण, त्रिविष मोक्ष मार्ग, ५ प्रकार के निग्रंथ साधु,
(अर्हत् प्रवचन) १५७४ (गुटका) १२ अनुयोग द्वार, पाठ सिद्धों के गुण, दो प्रकार सिद्ध, उक्त तीनों ग्रंथो मे ५ ही अध्याय है तथा वर्ण्य विषय तथा वैराग्य का वर्णन मिलता है। भी एक सा है। ग्रंथ का नाम 'लघ तत्वार्थ सूत्र' है किन्तु प्रस्तुत लघु तत्वार्थ सूत्र मे कुछ ऐसे भी वर्णन है जो पुष्पिका में 'अर्हत् प्रवचन' लिखा है। 'लघ पंच मत्र की मूल तत्वार्थ सूत्र में नहीं है। तीसरे अध्याय में साढ़े पुष्पिका मे भी अर्हत् प्रवचन का उल्लेख है। लघ पंच सुत्र तीन द्वीप समुद्र, चौदह कुलकर, चौबीस तीर्थकर, नौ मे प्रारम्भ तथा अंत में विशेष पाठ दिया है। प्रारम्भ मे बलदेव नौ वासुदेव, नौ प्रति वासुदेव, ग्यारह रुद्र, बारह "त्रकाल्य द्रव्यपटक......... तवाण माराहणा भणिया" चक्रवर्ति, नौ निधि, नथा चौदह रत्नो का उल्लेख है । तक तथा प्रत मे " मोक्षमार्गस्य नेतार" देकर श्रत इसके अतिरिक्त तत्वार्थ सूत्र मे वणित अनेक अंशों भक्ति का उल्लेख किया गया है, जिसे प्रति के पाठ भेद मे को छोड भी दिया गया है- औपशमिकादि भाव, पुद्दिखाया गया है।
गल कर्म तथा मोक्ष तत्व का वर्णन आदि । प्रस्तुत ग्रथ मे ५ अध्याय है। प्रथम अध्याय में वैसे ग्रथाकार ने दस अध्यायो मे वर्णन करने का भगवान महावीर को नमस्कार कर अहत् प्रवचन सूत्र की पूरा प्रयास किया है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की गई है। इसमे षट्जीव काय, अध्याय मे वर्ण्य विषय को ४ अध्यायो मे तथा पांचवे से १२ व्रत, तीन गुप्ति, पांच ममिति, दश धर्म, सोलह दसवें अध्याय तक के वर्णन को पाचवें अध्याय में सम्मिकारण भावना, १२ अनुप्रेक्षा तथा २२ परीषहो का वर्णन लित किया गया है। तत्वार्थ मूत्र तथा लघु सूत्र के है । दूसरे अध्याय में पदार्थ, ७ तत्व, ४ प्रमाण, ६ द्रव्य,
अध्यायो में किये गये वर्णन का विवरण निम्न तालिका से
अध्याया म किय गय व पंचास्तिकाय, पाच ज्ञान, ४ दर्शन, १२ अंग, १४ पूर्व १२
स्पष्ट हो जाता है। ५ वें अध्याय में प्रास्रव, बध, संवर, तप, १२ प्रायश्चित, ४ प्रकार विनय, १० वैयावृत्य, ५
निर्जरा का वर्णन किया गया है । सभव है मोक्ष तत्व को प्रकार स्वाध्याय तथा चार ध्यान और दो व्युत्सर्ग का
मिद्ध वर्णन में ले लिया गया है। पुद्गल तत्व का कही वर्णन है।
उल्लेख नहीं है। ' तीसरे अध्याय मे तीन काल, छ प्रकार काल समय
तत्वार्थ सूत्र
लघु तत्वार्थ सूत्र प्रथम अध्याय
प्रथम अध्याय तीन लोक, साढे तीन द्वीप समुद्र, १५ क्षेत्र, १५ कर्म भूमि, ३४ वर्ष धर पर्वत, ३० भोग भूमिया, सप्त प्रयो
ज्ञान दर्शन तथा तप आदि १२ व्रत, छह काय के जीव
तत्वों का वर्णन। गुप्ति ममिति आदि का भूमि तथा ७ नर्क, १४ कुलकर, २४ तीर्थकर, ६ बलदेव,
वर्णन । ६ वासुदेव, ६ प्रति वासुदेव, ११ रुद्र, १२ चक्रवर्ती, नव द्वितीय अध्याय
द्वितीय अध्याय निधि, १४ रत्न तथा दो प्रकार के पुद्गल का वर्णन जीव के भाव, जीव लक्षण ज्ञान, दर्शन, तप, पंचास्तिमिलता है।
तथा गति आदि वर्णन । काय, अंग पूर्व आदि का चौथे अध्याय मे भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क,
वर्णन ।
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४, वर्ष २७, कि०१
अनेकान्त
सुतीय अध्याय तृतीय अध्याय
लघु तत्वार्थ सूत्र अधोलोक, मध्यलोक द्वीप, अधोलोक, मध्यलोक, द्वीप
दृष्ट' चराचरं येन केवलज्ञानचक्षुषा' । समद्रादि तथा कर्म भूमि समुद्रादि, सठशलाका, पुरुष
तं प्रणम्य' महावीरं वेदिकान्त प्रचक्षते ।। का वर्णन । आदि का वर्णन।
___ 'अथातोर्हत प्रवचन सूत्र व्याख्यास्यामः । स्तद्यतो तत्र चतुर्थ अध्याय चतुर्थ अध्याय
इमे पट जीवनिकाय । पच महाव्रतानि । त्रिणि गुणवदेवगति, स्थिति, उर्ध्व देवगति स्थिति, ५ प्रकार तानि चत्वारि शिक्षात्रतानि तिस्त्रो गुप्त."। पंच समिलोक प्रादि का वर्णन। शरीर, ५ इन्द्रिया, लेश्या नय"। दशधर्मानुभावना" षोडष भावना । द्वादशानुप्रेक्षा
आदि का वर्णन । स्वर्गादि द्वाविशति परीपहा । इत्यहतप्रवचने"प्रथमोध्यायः । का वर्णन नही है)।
तत्र नव पदार्थाः मप्ततत्वानि चतुर्विधन्यास' मप्तनया:"
चत्वारि प्रमाणानि" षट् द्रव्याणि । पचास्ति काया । पंचम अध्याय पंचम अध्याय
द्विविधो गुणः । पंच ज्ञानानि । चत्वारि दर्शनानि द्वादशांपुद्गल द्रव्य वर्णन। अाधव, बंध, सवर और निर्जरा का वर्णन (मोक्ष का
गानि । चतुर्दश पूर्वाणि द्विवि"तप । द्वादस प्रायश्चिउल्लेख कर सिद्ध का वर्णन (ख) लघ पंच सूत्र । प्रारम्भ मे (ख) प्रति में ही किया है)।
निम्न पाठ विशेष है- "ॐ नमः सिद्धम्य । अथ श्री छठा-सातवां अध्याय
लघु सूत्र जी लिख्यते ॥ काल्य द्रव्य षटक .......... आस्रव तत्व वर्णन, भेद
तवाण माराहणा भणिया ॐ नम. सिद्धेभ्य ।। प्रभेद तथा कारण, महा
१ (ख) दृष्टश्चरंयेन । व्रतों का वर्णन।
२ (क) भास्कर। पाठवां अध्याय
३ (ख) प्रणमामि महावीर । बंध तत्व, भेद, कारण, कर्म
४. (क) वेदकाति प्रचक्षते (ख) बेदिकाते प्रवक्षते । उदय तथा सत्ता प्रादि ।
५. (ख) अथातोहत प्रवचनं सूत्रं व्याख्यास्यामि । (ख) नोवां अध्याय
अर्हत् प्रवचने पानयामि । संवर भेद कारण, निर्जरा
६. (क) तय्यमथा तत्र मे षट् जीवनि काया। (ख) तत्र कारण भेद आदि का
षट् जीवनिकाया। वर्णन।
७. (क) (ख) विशेष पाठ-पचाणुव्रतानि । बसवा अध्याय
८. (क) त्रण (ख) तीन । मोक्ष तत्व वर्णन।
६. (क) सख्या। प्रस्तुत 'लघु तत्वार्थ सूत्र' को पाठकों की जानकारी १०. (ख) गुप्तः । हेतु पूर्ण रूप से यहां दिया जा रहा है। मूल पाठ गोंधो के ११. (क) सुमतयः (ग्व) सुमितयः । मन्दिर की प्रति का है। मामेर शास्त्र भण्डार की 'लघ १२. (ख) दशविधो धर्मः ।। तत्वार्थ सूत्र (प्रर्हत् प्रवचन)' की प्रति का उल्लेख (क) १३. इति तत्वार्थ अर्हत् प्रवचने तथा चौधरियों के मंदिर की प्रति 'लघु पंच सूत्र' का १.४ (ख) द्विविधो सप्त नया च । उल्लेख (ख) संकेत से किया यया है। मूल पाठ के नीचे १५. (ख) चत्वारि प्रमाण । पाठ भेद भी दे दिया गया है। जिस पाठ का मूल प्रति में १६. विशेषपाठ (क) त्रीणि अज्ञानानि (ख) तीन ज्ञानानि उल्लेख नहीं हुआ हैं उसे D से दिया है।
१७. (ख) द्वादशविध तपः ।
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तानि चतुविधो विनयः । दश वैयावृत्यानि पंच विधः स्वाध्यायः । चत्वारि ध्यानानि द्विविधोः पुत्सर्ग। इत्यत् प्रवचने द्वितीयोध्यायः' ।
1
तत्वार्थ सूत्र का लघु संस्करण
।
त्रिविधकालः विध काल समय त्रिविधो लोक षड् तृतीया द्वीप समुद्रा' पंच दश क्षेत्राणि चतुस्त्रिंशत् वर्ष घर पर्वताः पंच दम कर्म भूमयः त्रिशद् भोग भूमया मना' भूमय व महा नरका चतुईश कुलकरा. । चतुविशति तीर्थकरा | नव कुलदेवा नव वासुदेवाः नव प्रतिवासुदेवा । एकादश रुद्रा । द्वादशचक्रवर्तिनः । नव निधयः । चतुर्दश रत्नानि द्विविधा पुद्गला ।
मप्ताधो
। ।
॥ इत्यत् प्रवचने तृतीयोध्याय ' ॥
I
देवाश्चतुणिकाया । भवन वासिनो दश विया व्यंतरा अष्ट विधा ज्योति पचविधा द्विविध वैमानिका । द्विविधा' कल्प स्थिति अहमिन्द्रश्चति । पचजीव गतयः । अष्ट विध प्रात्म सद्भाव । पच विधं शरीर । श्रष्ट" गुणाद्धि पंचेन्द्रियाणि षट् लेश्या । द्विविधशील" ।
१. (ख) इति तत्वार्थ तु प्रवचने द्वितीयोध्यायः ॥ २. ( ख ) विशेष पाठ -- त्रिविध काल प्रमाण । ३. (ख) विशेष पाठ --- मनुष क्षेत्र । ४. (स) त्रिगत भागानुम ।
५. (स) विशेष पाठ सप्नधानुत्तयः ।
६. (ख) सप्ताघोघा सप्त महा नरका ।
-
७. (ख) द्विविध पुस ।
८. इति तत्वार्थाधिगमे मोक्ष शास्त्रे तृतीयोध्यायः ।
६. (ख) ग्राम सद्भाव: (द्विविधा.......२ चेति के स्थान पर) ।
१०. (क) भ्रष्ट गुण सिद्धा ।
११. (ख) द्विविधशील वैराग्यानि ।
|| इस्वत् प्रवचने चतुर्योध्याय. " ॥
:1
त्रिविधो योगः । चत्वारि कषायाः । त्रयो दोषाः । पंचाश्रव । त्रिविध" संवरा । द्विविध निर्जरा पंच लब्धयः । चतुविधो बंध | पंच लब्धयः। चतुविधो वंघः । पंच । विध बंध हेत" विविधो" मोक्षमार्ग"। पंचविध नियं विविध सिया राजेति । थाः । द्वादश सिद्धस्यानुयोग" द्वाराणि प्रष्टा सिद्धगुणाः ।
।
॥ इत्यर्हत् प्रवचने पचमोध्याय " ॥ + इति लघु तत्वार्थ मूत्र समाप्त ।
५
१२. ( ख ) इति तत्वार्थं श्रहंत् प्रवचने चतुर्थोऽध्यायः । १३. (स) द्विविध सवरा
१४. (क) विशेषपाठ पंचविणे बंध हेतव ।
१५. (क) (ख) विशेष पाठ घण्टो क्रमणि, द्विविधो मोक्ष |
१६. (क) विशेष पाठ चत्वारि मोक्ष हेतवे । १७. (प) द्वादशसिद्धानुयोगनामानि । १८. ( ख ) यह सूत्र ही नही है ।
१९. ( प ) इति तत्वार्थ महंतु प्रवचने पंचमोध्यायः ॥ (ख) प्रति मे निम्न प्रतिम पाठ विशेष है ।
माक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्म भूभूतां ज्ञातारं विश्व तत्वानां वंदे तद्गुण लब्धये ॥ पूर्वाणिक पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल कर्म क्षयार्थ भाव पूजा वंदना स्तव समेत श्री भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहं । णमो अरिहंताणं इत्यादि पठत । कोटिशत द्वादस चैव कोटया ।
अरहंत मा० गुरुवः पातुवः ॥ इति श्री लघु पंच सूत्र जी संपूर्ण ।
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धर्म की बिक्री
श्री ठाकुर
सुनने वाला पूछता-क्यो विष्णु मुह क्यो छिपाता देवकोटपुर की जनता को सहसा विश्वास ही नही फिरता है, क्या उसने वह धन वापिस नही देना चाहा ? हुआ कि चारो वेदों का पाठी और पारगामी विद्वान् सोम- विष्णुदत्त उत्तर देता-अगर न देना चाहता तो मुझे शर्मा जैन मुनि बनकर काफी समय पश्चात् यहाँ आया सन्तोष होता, लेकिन मुझे तो आज उससे ही मालूम है। और जब उसने यह सुना कि मुनि सोमशर्मा अपना हुआ कि व्यापार मे उसे लाभ नहीं हुआ। बस, उसने धर्म बेच रहे है तो उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा। मित्रता छोड़ दी। ऋण से मुह मोड़ लिया। अपना धर्म
सोमशर्मा को जो जानते है, उनकी धारणा थी कि छोड़ दिया और नंगटा हो गया। सुनने वाले तन्मयता से वह अत्यन्त उच्चकोटि का विद्वान् है। अत्यन्त शान्त, सुनते । सच-झठ से उन्हें कोई मतलब न था। उनमें से मननशील और विचारक है। क्षणिक पावेश या भावकता कोई एक कहता-उसके पितामहो ने भी कभी व्यापार में वह कभी कोई काम नहीं करता । उसने स्वयं ही अपने किया है या वही करेगा । वेद घोके है और किया ही क्या दोनो पुत्रो--अग्निमूर्ति और वायुमूर्ति को अध्ययन कराया है। चले थे लक्ष्मीपति बनने । है। जिनकी विद्वत्ता की कीति का सौरभ सारे पूर्व देश में इस व्यंग्य को सुनकर एक कोई बद्ध कह उठते । पर व्याप्त है। तब जिसने अपने पैतृक धर्म को, उस धर्म को सरस्वती और लक्ष्मी में तो सहज विरोध है। जिसका तलस्पर्शी ज्ञान उसे स्वय भी था। तिलाञ्जलि तीसरा बीच में ही बोल उठा-क्यो भाई विष्णु ? देकर जैन धर्म को अगीकार किया वह अवश्य ही जैन धर्म तुमने उससे अपना धन नहीं मांगा ! के सत्य का साक्षात्कार करके किया होगा और जैन मनि विष्ण उत्तेजित हो उठता और कहता-तुम भी बनने के बाद जिसने धर्म को बेचना चाहा, वह रहस्य से क्या कहते हो--मांगा नहीं। अरे, मै छोड़ने वाला था खाली तो न होगा।
उसे । जो मन्त्र दृष्टा महषियो की वाणी को ठुकरा कर इस रहस्य का उद्घाटन किया सोमशर्मा के मित्र मंगटो की शरण में जा पहुचा, उस पर मैं अपना धन छोड़ विष्णुदत्त ने। वह सब कही कहता फिरता था--तुम्ही देता। आज वह इधर होकर निकला जा रहा था, मैने देखो न, विश्वासघात की भी हद होती है। मोमगर्मा को बीच में ही पकड लिया। मैंने तो कह दिया-मेरा धन तो तुम जानते ही होगे, वही कर्म-काण्डी चतुर्वेदी। अरे दे दो तब छोडूगा। वहीं तो, जिसके शतसहव शिष्य है। मन्त्र घोकने-धोकते वह विष्णदत्त के पास और खिसक पाए। वे एक जन्म बीत गया । उसने जितना हवन किया है अगर उसके साथ ही बोले--तब उसने क्या जवाब दिया? धुए का काजल बनाया जाता तो मनो बन जाता। एक जवाब क्या देता खाक | कहने लगा-- मेरे पास धन बार मेरे कहने से ही उसने व्यापार करने की सोची। नहीं है। सासारिक बातो से अब मुझे कोई प्रयोजन भी मैने उसे व्यापार के निमित्त बहुत-सा धन दे दिया। वह नहीं । मेरे लडके समर्थ है। वे तुम्हारा ऋण चुका देंगे। लेकर वाल्हीक पुरुषपुर की ओर चला गया। मैने सोचा लेकिन मै इन चलताऊ बातो में आने वाला नहीं था। --कोई बात नहीं है। मेरे धन से मेरे मित्र को लाभ मैने साफ कह दिया--मुझे तुम्हारे लड़कों से कोई मतलब होता हो तो मुझे प्रसन्नता ही है । लेकिन उसका विश्वास- नहीं । मैंने ऋण तुम्हे दिया है । तुमसे ही मै लगा। घात तो देखो--प्रब मुह छिपाता फिरता है।
एक श्रोता ने उत्सुक होकर पूछा--जब वह मुनि बन
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धर्म की बिक्री
गया है, तब धन चुकाएगा कहाँ से ? विष्णुदत्त कुटिल हास्य के साथ बोला-विष्णुदत्त कच्ची गोली कभी नहीं सूर्य देव तप्त कांचन का पिण्ड बने हुए देवकोटपुर के खाता। मैने देखा, धर्म परिवर्तन का प्रतिशोध लेने का श्मशानमें निकले, उस कांचन की दीप्ति ने दसों दिशाओं इससे अच्छा अवसर फिर नही मिलेगा। अत: मैने कह को पालोक से भर दिया। दिया- तुम्हारे पास जो भी मूल्यवान वस्तु हो, उसे बेच भूत-चडलों की भयानक किवदन्तियों ने रात्रि में कर तुम ऋण चका सकते हो। अगर कुछ भी नही है तो जिन्हे प्रतीक्षा की कठोर आग में तपाया था, वे इस आलोक तुम्हारा धर्म तो है ही, उसे बेच दो।
को पाकर श्मशान की ओर चल पडे । सब विस्मय मे एक साथ बोल उठे-धर्म बेचकर वरुण
विष्णुदत्त बहसंख्यक जनता की श्रद्धा का मंजल भार देवता? क्या कलिकाल पा गया ?
उठाए विशाल ममूह के साथ उधर जा रहा था उसके पैरों विष्णदत्त खिलखिलाकर हंस पड़ा--परे धर्म बेचकर
का भार आग, वायु उठा रही थी। ऊंचा आकाश उसके वह कहाँ से पायेगा। पाखिर आना पड़ेगा उसे मेरे पास
मस्तक को अपनी गोद मे लिए सहला रहा था। सारे दी। तब उसे फिर महर्षियो की वाणी का अनुसरण व्यक्ति उसकी अपेक्षा बौने बन गये थे। आज वह पुरातन करना होगा। मेरे धन का क्या है। वह तो मै कमाता । ऋषियो की नाव की पतवार संभालने का गौरव पाने ही रहता है। अगर सोम न बना रहा तो उसके दोनो गगन मे उडा जा रहा था। मोमदेव आज उसकी कृपा पूत्र भी जैन बने विना न रहेगे। कल प्रात काल ऋण
का भिखारी था। सोम को सत्य-मनातन अपौरुषेय वाणी चकाने का वचन तो दे गया है किन्तु पायगा कहाँ से।
के त्यागमय ग्लानि थी। वह पश्चात्ताप से विह्वल हुआ मेरा नाम भी विष्ण दत्त नही, अगर मैने उसे अपौरुषेय
उसके चरणों मे खडा रो रहा था। और वह ? वह अपना वाणी का उपासक न बना दिया।
हाथ उठाए ग्राश्वासन अकस्मात् उमका ध्यान भीषण सब विष्णदत्त की वणिक बद्धि की सराहना करते जन सभा
जन रव से भग हो गया। सामने मुनिराज खड्गासन में
तो या हुए कहने लगे-धन्य है विष्णुदन | धर्म के लिए इतना
ध्यानावस्थित खडे है । उसके चारों ओर रत्नोका विशाल बड़ा त्याग क्या कोई कर सका है। एक सोम के बिना
स्तूप खड़ा है । मुनिराज के मख के चारों ओर प्रभा का जो हमारे यज्ञ अधूरे है। हमारे धर्म का तो वह प्रावार था।
वर्तुल खिच गया है उससे ही मानों वह स्तूप उद्भासित उसे लाकर एक बार वेदो की पवित्र ध्वनि से चारो ।
है। श्मशान में व्याप्त आलोक भी मानो उस वर्तुल मे दिशामो को गुजित करना ही चाहिए।
फूट-फूट कर बह रहा है। चारो ओर विशाल जनभेदिनी और यो विष्णु दत्त के मुह से निकली साधारण सी
मनिराज के आगे श्रद्धा का अर्घ लिए खड़ी है। विष्णघटना देवकोटपुर की वीथियो और प्रासादो मे कहानी
दत्त अवाक् देग्वता रहा। सारी इन्द्रियां मानों निश्चेतन बन कर गूज गई । सब पाकुल उत्सुकता से धर्म की विक्री
हो गई। ज्ञान-तन्तु मानों वर्फ बन गए। उसे जब चैतन्य देखने को लालायित हो उठे।
आया तो उसके मन में एक ही प्रश्न चिन्ह था- रत्नों की देवकोटपुर का श्मशान आज जनता के प्राकर्षण का इतनी बड़ी राशि वह कहाँ से पा गया। केन्द्र बन रहा है। शोक के अवसर को छोड़कर नगर मनिराज थे ध्यानस्थ, अचल अडिग मौन । की जनता कभी श्मशान गई हो, ऐसा दावा तो वहाँ किन्तु तभी उसके प्रश्न का उत्तर प्राया ॥ के वृद्ध जन भी नहीं करते। वह स्थान ऐसा है भी नही गुरु गम्भीर निर्घोष दिशामो में व्याप्त हो गया। जिसकी अधीरता से स्पृहा की जाए। किन्तु आज ऐसी मनिराज अपना धर्म बेच रहे थे। किन्तु जैन धर्म की ही स्पृहा वहाँ के जन-जन में जाग उठी है। मुनिराज अनन्त सत्य का मूल्य चुका सके, ऐसी शक्ति किसमें है। सोमशर्मा वहीं मिलेंगे। धर्म की बिक्री वे कैसे करते है, किन्तु अपनी भक्ति की यह ब्याज देकर मैं आज धन्य हो सबको यही देखना है । यही देखने को व्याकुलता है। गई। मुनिराज के चरणो मे इमे निवेदन करके मैं मानों
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जैन संस्कृति प्रेमचन्द जैन एम. ए.
भारत की अनेकविध संस्कृतियों में जैन संस्कृति एक रखता है, इस कारण वह श्रमण कहलाता है। प्रधान एवं गौरव पूर्ण संस्कृति है। समता प्रधान होने के श्रमण वह है जो पुरस्कार के पुष्पों को पाकर प्रसन्न कारण यह सस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है।
नहीं होता अपितु सदा मान और अपमान में सम जिसके मन में समता की सुर-सरिता प्रवाहित होतो रहता है। है वह न किसी पर द्वेष करता है और न किसी पर राग पागम साहित्य में अनेक स्थलो पर समय के साथ ही करता है अपितु अपनी मन. स्थिति को सदा सम समता का सम्बन्ध जोड़कर यह बताया गया है कि समता
ही जैन संस्कृति (श्रमण संस्कृति) का प्राण है'। ऋण पा गई। जिसका जो ऋण मुनिराज पर हो, वह
जैन संस्कृति की साधना समता की साधना है। इसमे से यथेच्छ ले लो मैं यही निवेदन करने आई है। समता, समभाव, समदृष्टि एव साम्यभाव ये सभी जैन विष्णुदत्त वे देखा-एक रूपवती नारी पारिजात के पुरुषो संस्कृति के मूल तत्व है । जैन परम्परा मे सामायिक की के पाभरण पहिने अपनी दीप्ति से प्रभा बरसाती मनि- साधना को मुख्य स्थान दिया गया है। श्रमण हो श्रावक राज के चरणो मे नतमस्तक हो रही है। उसके पैर घरती हो, श्रमणी हो या श्राविका हो, सभी के लिए सामायिक पर नहीं टिक रहे, उसके पलक नहीं गिरते, उसकी छाया की साधना आवश्यक मानी गई है। षडावश्यक में भी नहीं पड़ रही।
सामायिक की साधना को प्रथम स्थान दिया गया है। रूप की देवी उठी और देखते-देखते अन्तर्धान हो समता के अनेक रूप है। प्राचार को समता अहिसा गई।
विचारो की समता अनेकान्त है। समाज की समता अपविष्णुदत्त विस्मयाभिभूत सा खड़ा देखता रहा। रिग्रह है. और भापा की समता स्याद्वाद है। जैन उसके कानो में एक ही वाक्य गुज रहा था-जैन धर्म का
संस्कृति का सम्पूर्ण प्राचार विचार समता पर प्राधारित
संस्कृति का सम्पूण पाच मूल्य चुका सके, ऐसी शक्ति किसमे है।।
(माधृत) है। जिस प्राचार और विचार में समता का अकस्मात् ही वह गुनगुना उठा। निश्चय ही किसी प्रभाव है वह प्राचार विचार जैन संस्कृति को कभी में नहीं है। इस अमूल्य धन का मोल क्या ?
मान्य नही रहा। ___ सत्य का प्रकाश धीरे-धीरे उसके अन्तर मे भर गया।
समता किसी भौतिक तत्व का नाम नही है। मानव वह तब जागा जब उसने अपने को मुनिराज के चरणो मे
__ मन की कोमल वृत्ति ही समता तथा क्रूर वृति ही विषमता पाया। वही देवी जहाँ प्रणिपात कर रही थी। वह कह १. नत्थि य सि कोई वेसो पिभो य सम्वेसु चेव जीयेसु । रहा-भगवन् क्षमा करो। इस अमूल्य धन को प्राप एएण होई समणो ऐमो अन्नोऽवि पज्जावो ।। मुझे भी दे दे । मुझे भी अपना जैसा बना लें। मुझे भी
दशवकालिक नियुक्ति गा. १५५ इस अनन्त सत्य का वरदान दे दें।
२. वो सभ्मणो जई सुमणो भावेण प जइ न होइ पावमणो। जनभेदिनी जयघोषो से माकाश के पर्दे फाड नबी समणे प जणो य जणे समो य माणावमाणेसु ॥ वही १५६ थी।
३. न वि मुण्डिएण समणो न प्रोकारेण बम्भणो ।
न मुणी रयणवासेण, कुसचीरेण न तावसो। मुनिराज तब भी खडे थे निलेप, निस्पृह, अचल,
समणाए समणो होई बम्मचेरेण बभ्मणो। मौन।
नाणेण य मुणी होई, तवेणं होई तावसो ।।
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जैन संस्कृति
है, प्रेम समता है वैर विषमता है विष है। समता जीवन प्रमुख स्थान भी दिया है । तथापि यह स्पष्ट है कि उन्होंने है और विषमता मरण है। समता धर्म है और विषमता जैनों की तरह सूक्ष्म विश्लेषण व गम्भीर चिन्तन नही अधर्म है। समता एक दिव्य प्रकाश है और विषमता किया है । जैन संस्कृति के विधायको ने अहिंसा पर गहघोर अन्धकार है । समता ही जैन सस्कृति के विचारो राई से विवेचन किया है। उन्होने अहिंसा की एकांगी का निचोड है।
और मकुचित व्याख्या न कर सर्वांगपूर्ण व्याख्या की है। प्राचार की ममता का नाम ही वस्तुत अहिमा है। हिसा का अर्थ केवल शारीरिक हिंमा ही नही अपितु समता, मैत्री, प्रेम, अहिसा ये सभी समता के अपर नाम किसी को मन और वचन से पीडा पहचाना भी हिसा हैं । अहिसा जैन मस्कृति के प्राचार एव विचार का केन्द्र माना गया है। है अन्य सभी प्राचार और विचार उसके पास पास घूमते जैनो में प्राणी (जीव) की परिभाषा केवल मनुष्य है। जैन संस्कृति मे हिसा का जितना सूक्ष्म विवेचन और प्रौर पशु तक ही सीमित नही है, अपितु उसकी परिषि विशद विश्लेषण हया है उतना विश्व की किसी सस्कृति में एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक है। कीड़ो से लेकर कु जर नहीं हया। जैन सस्कृति के कण कण मे अहिसा की तक ही नहीं परन्तु पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, भावना परिव्याप्त है। जैन संस्कृति की प्रत्येक क्रिया वायुकाय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में भी गम्भीर हिमा-मूलक है। खान पान, रहन-सहन, बोल-चाल किया गया है। प्रादि सभी मे अहिसा को प्रधानता दी गई है । विवार अहिमा के सम्बन्ध में प्रबलतम युक्ति यह है कि सभी वाणी और कर्म सभी मे अहिसा का स्वर मुखरित होता जीव जीना चाहते है कोई भी मरना नही चाहता प्रत. है। यदि जैन सस्कृति के पास हिसा की अनमोल निधि किसी भी प्राणी का बध न करो। है तो सभी कुछ है और वह निधि नही तो निश्चय ही जिम प्रकार हम जीवन प्रिय मरण अप्रिय है, सुख कुछ भी नहीं है। ग्राज के प्रणयग में सास लेने वाली प्रिय है दुख अप्रिय है, अनुकूलता प्रिय है प्रतिकूलता मानव जाति के लिए अहिसा ही प्राण की आशा है। अप्रिय है, स्वतत्रता प्रिय है परतन्त्रता अप्रिय है, लाभ अहिमा के प्रभाव में न व्यक्ति सुरक्षित रह सकता है, प्रिय है अलाभ अप्रिय है उसी प्रकार अन्य जीवो को भी न परिबार पनप सकता है और न समान तथा राष्ट्र ही जीवनादि प्रिय है और मरणादि अप्रिय है। यह आत्मोअक्षुण्ण रह सकता है। अणुयुग मे अणुशक्ति से सत्र स्त पम्य दृष्टि ही हिसा का मूलाधार है। प्रत्येक आत्मा मानव जाति को उबारने वाली कोई शक्ति है, तो वह तात्विक दष्टि से समान है अतः मन, वचन मोर काया से अहिसा है। आज अहिसा के प्राचरण की मानव समाज किसी मन्ताप पहचाना ही हिसा है। को महती एव नितान्त आवश्यकता है। अहिमा ही जैन सस्कृति ने जीवन की प्रत्येक क्रिया को हिसा मानव जाति के लिए मगलमय वरदान है आचार विषयक के गज से नापा है । जो क्रिया हिसा मूलक है वह सम्यक अहिमा का यह उत्वपं जैन मस्कृति के अतिरिक्त कही है, और जो हिमा मूलक है वह मिथ्या है। मिथ्या क्रिया भी नही निहोरा जा सकता अहिसा को ब्यवहारिक जीवन कर्म बन्धन का कारण है, और सम्यक क्रिया कर्म क्षय में दाल देना ही गस्कृति की सच्ची-साधना है।
का कारण है । यही कारण है कि मंस्कृति में धार्मिक जैसे वेदान्त दर्शन का केन्द्र बिन्दु अद्वैतवाद और विधि विधानो मे ही हिसा को स्थान नहीं दिया अपित मायावाद है, साख्य दर्शन का मूल प्रकृति और पुरुष का जीवन के दैनिक व्यवहार में भी अहिंसा का सुन्दर विधान विवेकवाद है, बौद्ध दर्शन का चिन्तन विज्ञानवाद और किया है । अहिसा माता के समान सभी की हितकारिणी है गन्यवाद है वैसे ही जैन सस्कृति का प्राधार अहिमा और १. सव्वे जीवा इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिडं। अनेकान्तभाव है । अहिसा के सम्बन्ध मे इतर दर्शनो ने तम्हा पाणिवह घोरं णिग्गन्था वज्जयंतिण ।। भी पर्याप्त मात्रा में लिखा है उसे अन्य सिद्धान्तो की तरह
दशवकालिक ६१०
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१०, वर्ष २७, कि०१
अनेकान्त निसा के बढ़ते हुए दिन दूने रात चौगुने साधनों को देख स्यात् शब्द का अर्थ होता है वस्तु का वही रूप नहीं जो सामानवता कराह रही है, भय से कांप रही है । विश्व हम कह रहे है। वस्तु अनन्त-धर्मात्मक हैं। हम जो कह
विधाता विचिन्तित है। ऐसी विकट वेला मे रहे हैं उसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म हैं, यह सूचना स्यात् अहिंसा माता ही विनाश से बचा सकती है सम्भवतः शब्द का अर्थ है सम्भावना और शायद सम्भावना मे उतनी पहले कभी नही रही।
मन्देहवाद को स्थान है जबकि जैन दर्शन में सन्देहवाद को इस समय व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और स्थान नहीं है किन्तु एक निश्चित दृष्टिकोण है।
विश्वको पहिसा की अनिवार्य मावश्यकता है। वाद का अर्थ है सिद्धान्त या मन्तव्य । दोनो शब्दों नया के प्रभाव में न व्यक्ति जिन्दा रह सकता है और को मिलाकर प्रर्थ हया -- मापेक्ष सिद्धान्त, अर्थात् वह न परिवार, समाज और राष्ट्र ही पनप सकता है। अपने सिद्धान्त जो किसी अपेक्षा को लेकर चलता है और अस्तित्व को सरक्षिस रखने के लिए अहिसा ही एक मात्र विभिन्न विचारों का एकीकरण करता हो अनेकान्तवाद, उपाय है। व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के मुख- अपेक्षावाद, कथाचिदवाद और म्यादवाद इन सबका एक शान्ति की आधारशिला अहिसा, मैत्री और समता है। हो अर्थ है। महावीर ने कहा है कि जो दूसरो को अभय देता है वह स्याद्वाद की परिभाषा करते हुए कहा गया हैस्वय भी अभय हो जाता है। अभय की भव्य भावना से अपने या दूसरो के विचारों, मन्तव्यों, बचना तथा कार्यों दी डिसा, मंत्री और समता का जन्म होता है। मेरा में तन्मूलक विभिन्न अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान सख सभी का सुख है और मेरा दुख सभी का दुख है यह रखना ही स्याद्वाद है। इस प्रकार स्यावाद का अर्थ अहिमा का नीति मार्ग, व्यवहार पक्ष है।
हमा विभिन्न दृष्टिकोणों का बिना किसी पक्षपात के विचारात्मक अहिंसा का ही अपर नाम अनेकान्त है। तटस्थ बद्धि से समन्वय करना । जो कार्य एक न्यायाधीश अनेकान का अर्थ है बौद्धिक अहिसा। दूसरे के दृष्टि- का होता है, यही कार्य विभिन्न विचारो के समन्वय के कोण को समझनेकी भावना एवं विचार को अनेकान्त लिए म्याद्वाद का है, जैसे न्यायाधीशवादी एवं प्रतिवादी दर्शन कहते है। जब तक दूसरो के दृष्टिकोण के प्रति के बयानो को सुनकर जाच-पड़ताल कर निष्पक्ष न्याय सहिष्णता व प्रादर भावना न होगी तब तक अहिमा की देता है, वैसे ही स्यादवाद भी विभिन्न विचारो मे समपूर्णता कथमपि सम्भव नही । संघर्ष का मूल कारण ग्राग्रह न्वय करना है। है। प्राग्रह में अपने विचारों के प्रति राग नहीं होने से वह अनेकान्त का दर्शन अथवा प्रतिपादन ही अनेकान्तउसे श्रेष्ठ समझता है और दूसरों के विचारो के प्रति द्वेष वादी दृष्टि है। जैन दर्शन का मन्तव्य है कि विश्व की होने से उसे कनिष्ठ समझता है। एकान्त दृष्टि मे सदा प्रत्येक वस्तु अनेकान्त रूप है। बोद्धो के 'सर्व क्षणिकम', आग्रह से असहिष्णुता का जन्म होता है और असहिष्णुता साख्यो के 'सर्वं नित्यम्, वेदान्तियो के 'सर्व सत' और से ही हिसा और संघर्ष उत्पन्न होते है। अनेकान्त दृष्टि शून्यवादियों के सर्वम् असत् की तरह जैनों का सिद्धान्त में प्राग्रह का प्रभाव होने से हिसा और संघर्ष का भी 'सर्वमैव अनेकान्तात्मकम्' है। वस्तु केवल क्षणिक या उसमें प्रभाव होता है विचारों की यह अहिसा ही अने- केवल नित्य या केवल सत् या केवल असत ही नही है। कान्त है।
अपितु वह क्षणिक और नित्य, सत् और असत् दोनों मे __ स्यावाद के भाषा प्रयोग में अपना दृष्टिकोण बताते विरोधी धर्मों को लिए हुए है। ऐसी कोई भी वस्तु नही हुए भी अन्य दष्टिकोणो के अस्तित्व की स्वीकृति रहती है। जिसमें अनेकान्त न हो । उदाहरणार्थ-एक ही पुरुष है। प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्म वाला है तब तक धर्म का एक साथ भिन्न भिन्न पुरुषो की अपेक्षा, पिता, पुत्र, कथन करने वाली भाषा एकांश से सत्य हो सकती है मामा, भानजा, दादा, नाती, बड़ा छोटा प्रादि व्यवहृत सर्वाश से नही। अपने दृष्टिकोण के अतिरिक्त अन्य के होता है। पुत्रों की अपेक्षा पिता अपने पिता की अपेक्षा दृष्टिकोणो की स्वीकृति वह 'स्यात्' वह शब्द से देता है। पुत्र, भानजे का मामा, अपने मामा की अपेक्षा भानजा,
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जैन साहित्य
नाती की अपेक्षा दादा, दादा की अपेक्षा नाती, छोटे की हाथी खम्भे जैसा है जिसने पूछ पकड़ी वह चिल्लाकर अपेक्षा बड़ा और बड़े की अपेक्षा छोटा आदि कहा जाता कहने लगा कि हाथी रस्से जैसा है जिसने उसकी छाती है। इस तरह उसमें पितृत्व, अपितृत्व, पुत्रत्व, अपुत्रत्व, पकडी वह बोला हाथी तो दिवाल जैसा है। चौथा बोला मातुलत्व-अमातुलत्व, भागिनेयत्व-अभागिनेयत्व आदि अनेक नही हाथी तो खूटी जैसा है, जिसने हाथी के दांत पकड़े धर्म पुगल रूप में उस पुरुष में उपलब्ध है या वह उनका थे । पाचवां कहने लगा हाथी मूसल की तरह है, इसने समुदाय है। ये सभी धर्म पुद्गल इसमें स्वरूपता है कल्पित उसकी सूड ही पकड़ी थी। छठा बोला सब तुम झूठ नहीं। क्योकि उनसे तद् तद व्यहार रूप क्रिया होती है। बोलते हो, हाथी तो सूप जैसा है इसने उसके कान पकडे
अमतचन्द्र लिखते है-जैसे ग्वालिन मन्थन करने की थे उसी बीच एक पादमी प्राया जिसने अपनी पाखो से रम्सी के दो छोरो मे से कभी एक ओर कभी दूसरे को हाथी को देखा था बोला भाई ! तुम सब ठीक ही कहते अपनी ओर खेचती है, उसी प्रकार अनेकान्त पद्धति भी हो, अपनी अपनी अपेक्षा तुम सब सही हो, पर इतर को कभी एक धर्म को प्रमुखता देती है और कभी दूसरे धर्म गलत मत कहो, सबको मिलाने से ही हाथी बनता है को। वक्ता जब वचन द्वारा वस्तु के विवक्षित धर्म को
इतर का निराकरण करने पर तो हाथी का स्वरूप अपूर्ण
रहेगा। स्वाद्वाद कहता है कि अनित्यवाद, नित्यवाद, लेकर इसे कहता है तो वह वस्तु उम धर्म वाली ही नहीं
सद्वाद और असद्वाद प्रादि वस्तु के एक एक अश के प्रकाहै, उसमे उस समय अन्य धर्म भी विद्यमान है जिनका
शन है और यह तथ्य है कि अनित्य, नित्य, सद्-असद् उसे उस समय विवक्षा नहीं है । "अग्नि दाहक है", कहने आदि पूदगल धर्मो का उसमे सद्भाव है। पर अग्नि की पाचकता, प्रकाशकता प्रादि शविनयो.. ममता का भव्य भवन अहिसा और अनेकान्त को म्वभावो का लोप नही होता अपितु अविवक्षित होने में भित्ति पर ग्राधारित है जब जीवन मे हिसा अनेकान्त वे गौण हो जाते है। एकान्तवादी का मन्तव्य है कि जो वस्तु सत् है, वह
मूर्त रूप धारण करता है तब जीवन में समता का मधुर
मू कभी भी असत् नही हो सकती, जो नित्य है वह कभी भी
सगीत झंकृत होने लगता है। जैन सस्कृति का सार यही अनित्य नही हो सकती। इस प्रश्न के समाधान में
है कि जीवन मे अधिकाधिक समता को अपनाया जाय प्राचार्य समन्तभद्र ने कहा है-विश्व की प्रत्येक वस्तु
और 'तामस' विषम भाव छोडा जाय तामस समता का
ही तो उल्टा रूप है । समता जैन सस्कृति की साधना का स्वचतुष्टय की अपेक्षा लिए है और चतुष्टय की अपेक्षा
प्राण है और प्रागम साहित्य का नवजीवन है। भारत के असत् है। इस प्रकार की अव्यवस्था के अभाव में किसी
उत्तर मे जिस प्रकार चांदनी की तरह चमचमाता हुमा भी तत्व की सुन्दर व्यवस्था सम्भव नही है। प्रत्येक हिंगगिरि का उत्तग शिखर शोभायमान है वैसे ही जैन वस्तु का अपना निजी स्वरूप होता है जो अन्य के स्वरूप सस्कृति के चिन्तन मनन के पीछे समत्व योग का दिव्य से भिन्न होता है । अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव है और भव्य शिखर चमक रहा है जैन संस्कृति का यह पर वह चतुष्टय है। जैसे एक घड़ा स्वदव्य (मृत्तिका) गम्भीर उदघोष रहा है कि समता के प्रभाव मे प्राध्याकी अपेक्षा से है, पर क्षेत्र की अपेक्षा से नहीं है, स्वकाल
स नहा ह, स्वकाल त्मिक उत्कर्ष नही हो सकता और न जीवन मे शान्ति ही जिसमे वह है कि अपेक्षा से घट का सद्भाव है पर काल
ट का सद्भाव ह पर काल प्राप्त हो सकती है। भले ही कोई साधक उग्र तपश्चरण की अपेक्षा से असदभाव है। अपने स्वभाव की अपेक्षा से
करले, भले ही उसकी वाणी मे द्वादशांगी का स्वर मुखघट का भस्वित्व है, पर भाव की अपेक्षा से अस्तित्व नहीं है घट की तरह अन्य सभी वस्तुओं के सम्बन्ध मे यही
रित हो, यदि उसके आचरण मे, वाणी में, और मन मे ममझना चाहिए। जब एकान्त का कदाग्रह त्याग कर समता की सुर-सरिता प्रवाहित नही हो रही है, तो उसका अनेकान्त का आश्रय लिया जाता है तभी सत्य तथ्य का । समस्त क्रिया काण्ड और आगमों का परिज्ञान प्राण रहित सही निर्णय होता है।
ककाल की तरह है । प्रात्म विकास की दृष्टि से उसका इस अनेकान्त को प्रकट करने वाला एक दृष्टान्त कुछ भी मूल्य नहीं है। अत्मविकास की दृष्टि से जीवन और प्रस्तुत है—एक जगह छह अन्धो ने एक हाथी को के कण कण मे, मन के अणु अणु मे समता की ज्योति पकड कर अपने अपने स्पर्शानुभव से उसके स्वरूप की जगाना आवश्यक है। साध्य भाव को जीवन मे साकार अवधारणा की । जिसने हाथी के पैर पकड़े उसने कहा कि रूप देना ही जन संस्कृति की आत्मा है।
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जैन मत में मूर्ति पूजा की प्राचीनता एवं विकास
शिवकुमार नामदेव
जैन मूर्तिया दो प्रकार की बताई गई है कृत्रिम एव प्रकृत्रिम मत्रिम प्रतिमायें सारे लोकों मे फैली हुई है एवं कृत्रिम प्रतिमायें मनुष्य निर्मित है। इस काल में सबसे पहले ऋषभदेव के पुत्र प्रथम सम्राट भरत चक्रवर्ती ने जिन प्रतिमाओ की स्थापना की थी। जिस समय ऋषभदेव सर्वत होकर इस धरातल को पवित्र करने लगे तो उस समय भरत चक्रवर्ती ने तोरणो और घटाम्रों पर जिन प्रतिमाये ही बनवाकर भगवान का स्मारक कायम किया था । उपरान्त उन्होने ही भगवान के निर्वाणधाम कैलास पर्वत पर तीर्थकरों की चौवीस स्वर्णमयी प्रमताये निर्मापित कराई थी।
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जैन मन दो प्रमुख पंथों पे विभाजित है-वेताम्बर एवं दिगम्बर श्वेतावर ( जिसके देवता देवेत अबर धारण करते हों) सदैव ही अपनी प्रतिमाम्रो को वस्त्र आभूषण से सुसज्जित रखते थे ये पुष्पादि इस्यो का प्रयोग करते हैं तथा अपने देवालयों मे दीपक भी नही जला इसके विपरीत दिगम्बर ( दिकू + अम्बर) शामा की मूर्तियां नग्न रहती थीं। ये अक्षत आदि चढ़ाते हैं तथा मूर्ति के स्नान में प्रचुर जल का प्रयोग करते है एव मन्दिरों में दीपक जलाते है ।
वैदिक कालीन मूर्तिया श्रभी तक उपलब्ध नही हुई है भारत की सबसे प्राचीनतम मूर्तिया सिधु की घाटी में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा यादि स्थलों से प्राप्त हुई है। उस सभ्यता मे प्राप्त मोहनजोदड़ो के पशुपति को शैवमत का देव मानें तो हड़प्पा से प्राप्त नग्न घड को दिगम्बर की खंडित मूर्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । सिन्धु सभ्यता मे पशुओ में एक विशाल स्कंध युक्त
१. श्रादि पुराण १८ ।
२. श्री कामताप्रसाद जैन जैन सिद्धान्त भास्कर १९३२ पृ. ८ ।
वृषभ का अकन तथा एक जटाधारी का अकन है। वृषभ तथा जटाजूट के कारण इसे प्रथम जैन तीर्थकर पादिनाथ का अनुमान कर सकते हैं'।
जैनकला में स्थानक मूर्ति को कायोत्सर्ग एवं ग्रामवन मूर्ति को समवशरण कहते हैं। हडप्पा मे प्राप्त मुद्रा ३१० एव ३१८ मे प्रति प्रतिमा महिन कार्याोग मुद्रा मे हैं। उपरोक्त माध्य हमे मोहनजोदर्श
( मील) क्रमाक ३००, जानुलम्बित बाइ हड़प्पा के अतिरिक्त से भी प्राप्त होते है।
मथुरा और उदयगिरि
का पुरातत्व भी जिन मूर्तियों के प्राचीन धास्तित्वको सिद्ध कर सकते है जैन स्तूप पर मूर्तिया यकित रहती थी ईसा की पहली शताब्दी में मथुरा में वह प्राचीन स्तुप विद्यमान था जो इस काल मे देव निर्मित समझा जाता था और जिसे बुल्हर तथा स्मिथ ने भगवान पार्श्वनाथ के काल (ई. ५. ८ वी सदी का बताया था ।
नदिवर्धन जैन धर्म का अनुयायी था। उसने ममय तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया था एवं कलिग को विजितकर अनेक विधियों के साथ उसने कलिंग की जिन मूर्ति को भी ले आया था हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि एक नद राजा कलिंग से अग्रजिन की
३. सरबाइबल ग्राफ दि हडप्पा कल्चर- टी. जी अर्ग्यूसन पृ. ५५ ।
४. वत्स एम. एम. हड़प्पा, ग्रंथ १ पृ. १२६-३० फुलक ६३ ।
५. वही पृ. २८, मार्शल - मोहनजोदड़ो एन्ड इन्डस वैली सिबिलजेशन ग्रंथ १. फुलक १२ प्राकृति-१३, १४, १५, १६, २२ ।
६. जैन स्तूप एन्ड अदर एंटीक्वीसाज ग्राफ मथुरा पृ.१३ ।
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जैन मत में मूर्ति पूजा की प्राचीनता एवं विकास
प्रतिमा को मगध ले गया था उसे कलिंग चक्रवर्ती ऐल खारवेल वापस कलिंग ले प्राये थे ।
उदयगिरि एवं खन्डगिरि ( भुवनेश्वर ) के अतिरिक्त गणेश गुम्फा, हाथीगुम्का, मचपुरी, चनतगुम्फा मादि के अनुसंधान से जैन मूर्तियां प्राप्त हुई है। ग्रभिषेक लक्ष्मी जैनो द्वारा अपनाया गया प्रसिद्ध मोटिफ था । जो उदय गिरि के रानीगुम्फा तोरण पर मिलता है ।
भारतीय कला का कमबद्ध इतिहास मौर्यकाल मे प्राप्त होता है। अशोक के पत्र सम्प्रति ने जैन धर्म को ग्रहण कर उसका प्रसार किया था। इस काल में जैन कला के अवशेष उदयगिरि गुफाओ, बिहार में पटना के अासपास तथा मथुरा यादि से प्राप्त हुए है। खारवेल द्वारा कलिंग जिन मूर्ति लाने का वर्णन किया जा चुका हैं ।
इस
कुपणकालीन अनेक जैन मूर्तिया प्राप्त हुई है. काल के कलात्मक उदाहरण मथुरा के ककाली टीले की खुदाई प्राप्त मे हुए हैं। उनमें नौकरों की प्रतिमायें एवं प्रयागपट्ट प्रमुख है। प्रयागपट्ट पूजा निर्मित गोलाकार दिया है जिसके मध्य में तीर्थकर प्रतिमा एव चारो ओर पाठ जैन मन के मागनिक चिन्ह रहते है।
कुयाणकाल में प्रधानन तीवंक की प्रतिमायें गुदी है जो कायोत्सर्ग अथवा समवशरण मुद्रा में है। इस काल में ऋषभनाथ, नेमिनाथ तथा महावीर की मूर्तिता समवदारण मुद्रा में तथा दीप कायोत्सर्ग मुद्रा में प्राप्त होती
है ।
गुप्तकाल जिसे भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है मे कला प्रौढता को प्राप्त हो चुकी थी गुप्तकालीन जैन प्रतिमाये सुन्दरता कलात्मक दृष्टि से उत्तम है प्रधोवस्त्र तथा श्रीवत्स ये विशेषतायें गुप्तकाल में परिलक्षित होती है। कुमार गुप्त के एक लेख में पार्श्व नाथ मूर्ति के निर्माण का नया दगुप्त के जैन पंचतीर्थी प्रतिमा को स्थापना का वर्णन है। जो किसी भद्र द्वारा निर्मित कराई गई थी। स्तम्भों पर उत्कीर्ण प्राकृति ७. नर्जल भाफ बिहार एन्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी भाग २ पृ. १३ ।
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में आदिनाथ, शातिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर हैं' ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय काल की एक मूर्ति वैमर पहाड़ी से प्राप्त हुई थी जिस पर चन्द्र II का का लेख अ ंकित है : अभी कुछ पूर्व विदिशा के निकट एक ग्राम से गुप्त नरेश रामगुप्त के काल की लेख युक्त जैन तीर्थकरो चन्द्रगुप्त आदि की प्रतिमाये प्राप्त हुई है। मीरा पहाड़ की जैन गुफायें तथा उनमें उत्कीर्ण मनोहर तीर्थकर प्रतिमाच का निर्माण इसी काल में हुआ यहा से प्राप्त भगवान नाथ की मूर्तिगलको मत मागन मे बैठे है मे भारत कला भवन काशी में संग्रहीत राजघाट से प्राप्त धरमेन्द्र - पद्मावती सहित पार्श्वनाथ की मूर्ति कला की दृष्टि से सुन्दर है ।
उत्तर गुप्त काल मे जैन कला के अनेक केन्द्र थे अतएव उस काल की प्रतिमाये पर्याप्त संख्या में प्राप्त होती है। तात्रिक भावनाओं ने कला को प्रभावित किया शास्त्रीय नियमों में बद्ध होने के कारण जैन कलाकारों की स्वतंत्रता नही रही। इस युग मे चौबीस तीर्थंकरों से सम्बन्धित चौबीस यक्षयक्षिणी की कला में स्थान दिया
गया ।
दक्षिण भारत में जैन मूर्तिया अनेकों स्थलों से प्राप्त हुई है। प्रसिद्ध लेखक एवं पुरातत्य अन्वेषक टी. एम. रामचन्द्रन के अनुसार "दक्षिण मे जैन धर्म के प्रचार एव प्रसार का इतिहास द्रविडो को श्रार्य सभ्यता का पाठ
का इतिहास है इस महान अभियान का प्रारम्भ ३ री सदी ई. ५ में प्राचार्य भद्रबाहु की दक्षिण यात्रा से हुआ। पैठन में सातवाहन राजाओ द्वारा निर्मित दूसरी सदी ई. पू. के जैन स्थापत्य उपलब्ध है। कर्नाटक में जैन कला का स्वर्णयुग का आरम्भ गंग वंश के राजत्वकाल में हुआ । *
८. स्कंदगुप्त का कहा स्तंभलेखका इ. इ. इ. ३ पृ. ६५ ।
६. कि. रिर्पोट - नाकि सर्वे आफ इंडिया १६२५-२६
--
पृ. १२५ ।
१०. जे. श्री. श्राई. वी. मार्च ६६ पृ. २४७-५३ । ११. जैन मा० न्युमुमेंटस ग्राफ इडिया पृ. १६ ।
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खण्डकाव्य
(गतांक से मागे)
पुण्यतीर्थ पपौरा
सुधेश
दिखती 'प्रहारजी' कुन्डलपुर, 'खजुराहों, में वह मञ्जुलता । जिसको विलोक कर भक्तों के, अन्तस का कल्मष है धुलता । ३६ 'चन्देरी' 'द्रोणाचल' 'पबा' 'बधा', की जन मन मोहक झांकी है। श्रद्धालु जनों के द्वारा जो, जाती श्रद्धा से प्रॉकी है । ३७ अवलोक 'देवगढ़' 'सोनागिरि, दर्शक की दृष्टि न थकती है। 'नैनागिरि' और 'पपौरा' में, भी अनुपम छटा झलकती है। ३८ सन्देश शान्ति का देते है, युग से इन तीर्थों के पत्थर । प्रांधी, वर्षा, भूचाल, इन्हे, कर सके न अब तक भी जर्जर । ३६ हैं अभी गिनाये मात्र, कुछ जैन धर्म के तीर्थ स्थल । पर यहाँ हिन्दुओं के भी तो, है कई मनोहर पुण्य स्थल । ४० इनमें 'कुण्डेश्वर' चित्रकूट, पन्ना के प्राणनाथ' सुन्दर । है विन्ध्यवासिनी भीम कुण्ड, बालाजी और जटा शंकर । ४१ हर वर्ष सहस्रों नर नारी, करने आते इनका दर्शन । जो अपनी भक्ति मान्यता के, अनुसार किया करते अर्चन । ४२ है भरा ऐतिहासिक महत्व, के दुर्गों से भी यह प्रदेश ।
जिनमें न शत्रुओ की सेना, करने भी पाती थी प्रवेश । ४३ कालिजर और अजयगढ़ के, दुर्गम गढ़ इनमें हैं प्रधान । अपना शिर ऊँचा किये हुए, जो खड़े अडिग प्रहरी समान । ४४ इनके अतिरिक्त अनेक और, भी दर्शनीय हैं धाम यहां जा रहे लिखे है जिनमें से, केवल कुछ के ही नाम यहाँ। ४५ एरन, गढ़ पहरा, गुप्तेश्वर, झांसी, धामौनी, धुंवाधार, दतिया, राहत गढ़, मदन महल, ये दर्शनीय हैं बार बार । ४५ इन पुरातत्त्व की विधियों से, परिपूर्ण यहाँ की धलि है, जिनकी नवीनता पर मोहित, ये प्रजा यहाँ की भूली है। ४७ भू खोद निकाली जा सकती, प्रतिमाए कई अंधेरे से, मिल सकती कितनी ही कृतियां, कमनीय यहां पर हेरे से । ४८ प्राचीन काल में इस प्रदेश, के चेदि आदि हैं नाम रहे, वनवास समय में इसी प्रान्त, में प्राकर सीता राम रहे । ४६ जब लक्ष्मण को थी शक्ति लगी, ग्री होकर वे म्रियमाण पड़े, तब संजीवना जड़ी लाने, को दौड़ शीघ्र 'हनुमान' पड़े । ५०
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पुण्यतो पपोरा
उनने इसके ही द्रोणाचल, पर प्रा वह बूटी पाई थी, जिसके प्रयोग से लक्ष्मण में, तत्क्षण चेतना आई थी । ५१ है यही 'द्रोण गिरि' तो जैनों, का तीर्थ स्थान पुनीत सभी, जिसको लख अांखों के आगे, उठता है नाच अतीत अभी । ५२
आ इसी प्रान्त में पाण्डव ने, अपना बनवास बिताया था, इसके विपिनों ने उन्हे शरण, दे अपना धर्म निभाया था । ५३ कवि कालिदास ने मेघदूत, में इसे दशाण बताया था, उस समय यहाँ की राजपुरी, विदिशा को गया बनाया था।५४ उसो दशार्ण के चिन्ह-रूप, में ही घसान अब बहती है । जो अपने उस कल-कल स्वर में, उस यूग की गरिमा कहती है ।५५ प्रत्येक दृष्टि से यों इसका, इतिहास सदैव महान् रहा। हर युग में कवियो के द्वारा, होता इसका गुण गान रहा ।।५६ अब मध्यप्रान्त के अन्तर्गत, है समाविष्ट यह पुण्य मही। फिर भी इसका मौलिक महत्व, हो सका अभी भी लुप्त नहीं ।। ५७ इस ही पावन बुन्देलखण्ड, में टीकमगढ़ से तीन मील, की दूरी पर है विद्यमान, शुभ क्षेत्र पपौरा पुण्य शील ।।५८ इसके इक्यासी जिन मन्दिर, भक्तों के मन को मोह रहे । शोभित हो मानस्तम्भ रहे, मठ, मेरु, यों भरे सोह रहे ॥५६
जिस पम्पापुर का वर्णन है, श्री बाल्मीकि रामायण में । सम्भवतः बहो पपौरा अब, बन गया आज उच्चारण में ॥६० यदि यह है सत्य, यहीं तो फिर, हनुमान राम संयोग हुआ। प्रारम्भ यही से सीता के, अन्वेषण का उद्योग हुया ॥६१ कारण यह, इसके पास एक, विस्तृत वन घना रमन्ना है। जो लगता रामारण्य शब्द, हो तो अब बना रमन्ना है ॥६२ अनुमान मात्र यह, कौन आज, सकता वास्तविक रहस्य बता। पर यदि अन्वेषक खोज करे, तो इसका लगे अवश्य पता ॥६३ सभव है यह बात सिद्ध, होवे इतिहास पुराणों से । इसकी विशेषता और अधिक, जानी जा सके प्रमाणों से ॥६४ हो भले वास्तविकता जो भी, पर यह शुभ तीर्थ पुरातन है । इसकी सुख्याति नवीन नहीं, पर अति प्राचीन सनातन है ।।६५ इस पुण्य क्षेत्र के उत्तर में, जो वनस्थली लहराती है। प्रत्येक प्रकृति के प्रेमी के, मन को वह अतिशय भाती है ।।६६ कंजी, अचार, जामुन, महुवा, की तरुश्रेणी अभिराम कही। तो प्राम, प्रांवला, और चिरौल, की विटपावली ललाम कही ।।६७ बाँस औ सेमर के वृक्षों, की भी तो छटा निराली है। पो सुरभि करौंदी के फूलों, की हृदय मोहने वाली है ॥६८
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प्रावर्श महिला
राजुल मिश्रीलाल जैन
कक्ष में दीपिका जल रही थी। पवन के मन्द मन्द पलके उनीदी हो उटी । नयनाकाश के दोनो क्षितिज मिले झकोरों से बाती काप-काप जाती थी। पलंग पर दूधिया और वह निद्रा देवी की नीद में सो गई। एक पहर हुआ चादर बिछी थीं और चारो ओर पारदर्शी पर्दे लगे थे। ही था कि प्रभाती ने उसे जगा दिया। उसके मधुर स्वर कक्ष भित्तिया कलात्मक चित्रो से चित्रित की गई थी। स्पर्ग से राजुल की नीद टूट गई। वह उठ कर बैठ गई रात्रि का प्रथम पहर था। तकिए का सहारा लिए एक वातायन से अरुणोदय झाक रहा था। उठते सूरज को सुडौल लावण्यमयी रमणी बैठी थी। कक्ष जूनागढ के सुनहरी किरण पृथ्वी को चूम रही थी। स्वणिम किरणो राजमहल का था। पलंग पर लेटी यूवती थी महाराज और शहनाई की प्रभात कालीन रागिनी की मधुर ध्वनि उग्रसेन की दुहिता राजकुमारी राजुल। हथेलियो और दोनों ने प्राकृतिक वातावरण को सजीव बना दिया। पावों मे कलात्मक शैली से मेहदी रची हुई थी। वेषभूषा कुमारी राजुल झरोखे में आकर खड़ी हो गई और प्रकृति नव-बधू होने का संकेत दे रही थी। प्राँग्खो की नीद न के उस अकल्पित सौन्दर्य को अपलक देखने लगी। जाने कहा उड़ गई थी। मन मे तरह तरह की सम्मोहक मध्याह्न मे द्वारिकापुरी से प्रायी बारात अभी जूनागढ कल्पनायें फगडी खेल रही थी। नारी के मन में उमगित की सीमा पर जा पहुची। महाराज उग्रसेन तथा जूनागढ विवाह पूर्व अनुभूतियो की अभिव्यक्ति सहन नहीं है मन के गण्य मान्य नागरिक बारात की भाव भीनी अगवानी मे मधुर मपने सुखद भविष्य, पति की सुन्दर छवि का के लिए वहा उपस्थित थे। बारात का प्रभावशाली चिन्तन, उसके पौम्प की पराक्रम गाथाये सभी एक सुर से स्वागत किया गया। अनेक वाद्ययन्त्रो के सामूहिक स्वर में राजल के कोमल, तरुण हृदय में गज रहे थे। रात्रि के दिशाए गूज उठी। उल्लास, साकार हो उठा। शोभा दूसरे पहर मे निद्रा देवी के दलार भरे स्पर्श से उसकी यात्रा बड़े कलात्मक ढग से प्रायोजित हुई। सर्व प्रथम
वाद्य वृन्द चल रहा था, जिसके मधुर स्वर से सभी के मौलिश्री के भी फलों के,
हृदय प्रानन्दोल्लास मे प्रफुल्लित हो रहे थे। उसके बाद उपवन अत्यन्त निराले हैं :
पदातियो की पक्ति मार्च कर रही थी, फिर अश्वारोही या दृश्य यहाँ के सारे ही,
सैनिक चल रहे थे, इनके ठीक पीछे हाथियो की अद्वितीय मन हर्षित करने वाले है ।।६६
कतार चल रही थी। इसके पीछे रत्न जटित प्राभूषणो में गौरैया, मोर, पिकी गोष्ठी,
मुसज्जित दो हाथी एक स्वर्णरथ को खीच रहे थे। रथ करती रहती सप्रेम यहाँ ।
मे द्वारिकापुरी के अधिपति समुद्र विजय के पुत्र नेमिनाथ अभिराम हरिणियों चौकड़ियाँ,
विराजमान थे। जूनागढ़ के राजपथ पर जब रथ चलने भरती रहती सप्रेम यहा ।।७०
लगा तो पास पास की अट्टालिकाप्रो से पुष्पवृष्टि होने इसके पशुओ को अभयदान,
लगी। जूनागढ़ की प्रजा द्वारा की गयी पुष्पवृष्टि से तो देते रहे नरेश सदा ।
वातावरण महक उठा। पर वृक्षो को भी रक्षा का,
धूम धाम से चली आ रही बारात अचानक रुक गई रखते थे ध्यान विशेष सदा ।।७१
राजपथ में बाई पोर कुवर नेमिनाथ ने अनायास देखा (क्रमशः) कि अनेक प्रकार के सैकडो पशु एक बाड़े मे बन्द थे ।
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राजुल
कुछ चीत्कार कर रहे थे। इस हृदयकंपी चीत्कार को उनकी कोमल पगलियों को बोध रहे थे। किन्तु उनको सुन, कुमार नेमिनाथ का कोमल करुण हृदय विहवल हो चुभन का भान उन्हें न था। रक्त रिसने लगा था, किन्तु उठा। वे अपने कुतूहल को रोक न पाए। उन्होंने सारथी ध्यान उधर भी न था। जब संसार के भाकर्षणों से नाता से पूछा ! सारथी, पशुओं को क्यों घेरा गया है ? टूट जाता है तब बाह्य जगत के सुख दुख प्रभावित नहीं सारथी ने नम्रता पूर्वक कहा-देव, आपके पाणिग्रहण कर पाते। तब मानव अपने महान लक्ष्य की ओर दत्त के आनन्द में प्रायोजित भोज तथा बारात के स्वागत चित्त बढ़ा चला जाता है। हृदय में एक दिव्य ज्योति भोज के हेतु इन्हें एकत्रित किया गया है। इनके मांस से उद्भासित होती है जिसके पावन प्रकाश में वह शाश्वत विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यञ्जन बनाए जाएगे। प्रात्म सुख की अनुभूति का अनुभव करता है। नेमि प्रभु नेमिनाथ के हृदय में अहिंसा बीज रूप में विद्यमान थी। गिरिनार के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गये। वहां उन्होंने साधारण सी यह घटना कुंवर नेमिनाथ की जीवन सीपी शेष वस्त्रो को भी एक ओर रख दिया और प्राकृतिक मे स्वाति-बिन्दु सी हलक गई । अहिंसा का बीज दिगम्बर वेश में आत्मचिन्तन मे निमग्न हो गए। अंकुरित हो उठा । उन्होंने कुछ स्वगत, कुछ प्रगट रूप मे हाथ पैरो में मेहदी रचाए, मंगल परिधानों में सजी एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए कहा-मेरे पाणिग्रहण के संवरी तथा प्राभूषणोसे अलंकृत वधू राजुलने जब यह सुना निमित्त इतने प्राणियों का बध, एक मानव के विवाह कि उसके भावी पति नेमि कुमार विरक्त होकर गिरिनार समारम्भ के उत्साह में इतने निरीह प्राणियो का बलिदान, चले गए है तो क्षण भर को वह निस्तब्ध रह गई। उसे क्या इन पशुओं को सुख दुःख की अनुभूति नहीं होती। लगा मानो पुरुष के अहम ने नारी के पार्कषणों को क्या मूकता ही इनका अपराध है । म ससार माग में चुनौती दी है। उसके मन ने कहा यदि वे मेरा सजाप्रवेश नही करूगा ? सारथी रथ यही रोक दो? सवरा अलंकृत रूप तथा लावण्ययुक्त देह देख भर लेते, ___सारथी ने रथ रोक दिया। नेमि कुमार ने विवाह तो क्या वह उसका मोह छोड़ सकते थे? के सूचक सभी वस्त्राभरण उतार कर रख दिए और पैदल इस विचार के पाते ही राजुल नेमिनाथ को गिरनार चल पड़े जनागढ़ की विशद पर्वत शृखला की ओर। रथ के उच्चतम शिखर से फिर भूमि तल पर लाने विचार के रुकते ही 'उग्रसेन' मत्रीगण तथा सम्मानितजन बहा करने लगी। कुछ क्षणो बाद वह उठ खड़ी हुई। इसी प्रागए सवने नेमि प्रमु की अोर साश्चर्य देखा उन्होने उन्हें समय उसके माता पिता वहां आ पहुचे । माँ ने उसे गोद रोकने के प्रयत्न किए। नेमि प्रभु एक क्षण रुके और मे भर कर कहा-बेटी राजुल हृदय को दुखी मत करो। उपस्थित जन-समूह को सम्बोधित कर बोले जो शाश्वत तुम्हारा विवाह शीघ्र ही दूसरे सुयोग्य राजपुत्र के साथ सुख के मार्ग पर चल पड़ा हो, उसे कोई शक्ति नही रोक होगा। राजुल ने कहा-मां, आत्म संकल्प से बरण किया सकती। उनकी वाणी में अपार ऊजो थी । अखि तेजस्वी हुआ पुरुष ही नारी का एकमेव पाराध्य होता है। मैंने थीं। सब चित्र लिखित से देख रहे थे और नेमिप्रभु आत्म सकल्प पूर्वक नेमि कुमार का वरण किया है। अब गिरिनार पर्वत की ओर वेग से पांव उठा रहे थे। इस जन्म में किसी और पुरुष के साथ मेरा विवाह न हो
जूनागढ़ से गिरिनार तक २४ मील का मार्ग तय सकेगा। मैं अन्तःप्रेरणा से गिरिनार जा रही हैं। यदि करना था। मार्ग अत्यन्त कठिन, कंटकाकीर्ण, पथरीला नारी के आर्कषण की जीत होती है, तो प्रभु गिरिनार के
। पथ पर नेमि प्रभु ऐसे सर्वोच्च शिखर से पृथ्वी तल पर उतर पायेगे, और यदि बढ़ रहे थे जैसे नित्य के अभ्यस्त हों रथ से नीचे उतर कर पुरुष की संकल्प शक्ति विजयिनी होती है, तो मै पृथ्वी जिनके सुकुमार चरणो ने कभी भूमि का स्पर्श तक नही तल से गिरिनार के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाऊंगी। किया था वे प्रसन्नवदन, उल्लसित चित्त उस दुर्गम वन्य पथ इतना कह कर वह चल पड़ी। मीलों मार्ग तय कर पर द्रुत गति से चले जा रहे थे, काटे और नुकीले पत्थर वह गिरिनार पहुंच गई। देखा उसके पति, उसके पारा ध्य
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१८, वर्ष २७, कि० १
अनेकान्त
ध्यानस्थ हैं। उसने स्वामी स्वामी कहकर अनेक बार है। किन्तु यह मानव मन का भावात्मक पक्ष है। जब तक पुकारा, किन्तु वहां सुनने की सुध किसे थी ? राजुल सप्तपदी न हो, नारी कंबारी ही समझी जाती है। तब समाधि टूटने की प्रतीक्षा में हाथ बांधे खड़ी रही। अपने हम दोनों तो लग्न मण्डप में भी एकत्र नहीं हो पाए थे। स्वामी के उर्जास्थित मुख मण्डल को देखते ही उसके नारी अतएव सामाजिक नियमों के अनुसार माज भी माप विवाह हृदय का महम चूर-चूर हो गया। पाथिव संकल्प टूट गए करने के लिए स्वतन्त्र है। एक पवित्र विचारधारा उसके हृदय मे कोंब उठी, तभी राजुल ने कहा-नहीं, प्रभो, नहीं। इस जीवन में नेम प्रभु की समाधि टूटी। नासिकान से दृष्टि हटी। अब यह सम्भव नही, महाप्रभु ही विवाह कर मेरा उद्धार देखा, शोभन, वस्त्रालंकारों से सजी एक सौन्दर्य शलाका करें। प्रभु के महान् त्याग से जूनागढ़ राज्य के सभी सामने खड़ी है। प्रभु बोले--कंटकाकीर्ण मार्ग चल- प्रजा जन अहिंसा के अनन्य उपासक हो गए है। सभी कर इस निर्जन वन मे पाने का प्रयोजन क्या है पशुओ को मुक्त कर दिया गया है । सभी ने माम न खाने देवी?
का आजीवन व्रत ले लिया है । देव, ससार मे रह कर भी राजल नारी सुलभ-भकूटि-विलास अधरो का कुटिल अहिसा के चिरन्तन शीर्ष की प्राप्ति हो सकती है। हास्य, नयनों की मधुर चितवन जैसे सब भूल गयी । 'देवि'-प्रभु ने प्रशान्त स्वर मे कहा—केवल जूनास्वामी के प्रथम दर्शन से ही नारी सुलभ हाव भाव न गढ़ राज्य के अहिसा के पुजारी होने से मेरे लक्ष्य की पूर्ति जानेकहा तिरोहित हो गए उसने सहज सरलता से कहा- नही होगी। समस्त विश्व मे अहिंसा की दिव्य ज्योति का नाथ मैं राजुल हूं, आपकी पत्नी। निष्कलुष अनासक्त प्रसार मेरा परम लक्ष्य है, अतः जो पथ मैने स्वीकार किया भाव से प्रभ ने कहा-देवि मैंने पार्थव मार्ग छोड़ दिया है, उसका त्याग अब सम्भव नहीं। है । ऐहिक सुखोपभोग को त्याग दिया है। वैवाहिक भाव राजुल ने कहा-किन्तु देह को भी तो भुलाया नहीं
और तज्जनित भोग विलासों को मैंने तिलाञ्जलि दे दी जा सकेगा देव ! है। नारी का पत्नी भाव मेरे हृदय से तिरोहित हो गया 'देवि'–महाप्रभु ने कहा-मैंने अनुभव किया है कि है। संसार की समस्त नारियां मेरी भग्नियाँ तथा पुत्रियां देह से आत्मा पृथक् है। इन्द्रिय जनित सुख-दुख भ्राति है। अब सब मेरे लिए पूजनीय और श्रद्धास्पद है मैं दिग. मात्र है। अहिंसा के दिव्य ज्ञान को प्राप्त करना परम म्बर श्रमण हूं। मेरे लिए बाह्य सुख-दुख, जीवन-मरण, आवश्यक है। वह तभी प्राप्त हो सकता है, जब हम तथा हानि-लाभ मब समान है। देवी अभिलाषा पूरी न पार्थिव सुखो का त्याग कर दे और प्रात्मशक्ति को उपकर सकगा। आप यथा स्थान लौट जाए।
लब्ध करने के लिए घोर तपश्चर्या करें। राजल ने विनम्र होकर कहा-महा प्रभु, नारी राजुल ने दृढ़तापूर्वक कहा-यदि संसार के सूख संकल्प पर जीती है। जीवन में जो सकल्प वह कर लेती भ्रामक है तो देव, फिर अनादि काल से इस सुख के पीछे है, उसे वह आजीवन प्राणप्रन से निभाती है। जब मैने प्राणी मात्र पागल क्यों है। भ्रामक सुखों की दीवार सना कि मेरा जीवन सूत्र देव के जीवन सूत्र में बंधने जा अनन्त काल से ज्यों की त्यो क्यों खड़ी है ? ससार का रहा है तभी मेरी आत्मा ने आपका वरण कर लिया था। मार्ग ही मिथ्या है तो भाई, बहिन, पुत्र, मां और पत्नी उसी प्राणवल्लभ के मौलिक रूप और आत्मिकभाव का के सम्बन्ध युगों-युगों से अभी तक क्यों जीवित है ? पूजन करने का शाश्वत संकल्प मैंने ले लिया है । अब उस देव संसार छलना नहीं है। सामाजिक शील में बध कर सकल्प से कोई मुझे डिगा नहीं सकता। पति रूप में एक सांसारिक सुखों का उपयोग ही धर्म है। देव संसार से पुरुष को स्वीकार कर लेने के पश्चात् दूसरे पुरुष की विरक्त होने का अर्थ है, संसार के कष्टों से भयभीत होकर अभिलाषा व्यभिचार मात्र है।
उससे पलायन करना, कष्टों से दूर भागने का अर्थ है प्रभु ने गम्भीर स्वर में कहा-देवी का कथन सत्य कायरता
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राजुल
राजुल का प्रावेश देख महाप्रभु की मुख पर एक स्वीकार किए गए व्रत, संयम, आवेश उतरने पर भंग हो मधुर मुस्कान खेल गई । उन्होंने कहा देवि भावावेश में जो जाते है। आपकी मनोदशा स्वस्थ नही है। कुछ दिन कुछ तुमने अभी कहा वह सासारिक मनुष्यो के लिए समी- विचार करे । मुक्ति का द्वार सदैव खुला है देवि ।। चीन है । संसारी मानव यदि उनसे दूर भागता है, तो वह राजल ने अविचल मुद्रा में कहा-नही प्रभो नारी वास्तव में कायर है। त्याग के बिना उज्ज्वल साधना, को किसी संकल्प से विमुख करना असम्भव नहीं है । मैं अहिंसक जीवन की परमोज्ज्वल साधना सम्भव नही है। यहाँ गिरनार पर बिना अन्न जल ग्रहण किसे दीक्षा की प्रात्म और अनात्म का विश्लेषण करो देवि ! देखो, पृथ्वी प्रतीक्षा करूंगी। मैं अडिग विश्वास पूर्वक इस दुर्गम पथ से परे भी कुछ है। आत्मा के अजस्र शक्ति कोश को का अनुसरण कर रही हूँ। आप दीक्षा दीजिए। उन्मुक्त करने का प्रानन्द उपलब्ध करो देवि ।
नेमि प्रभु ने नारी का दृढ़ संकल्प देख उन्हे प्रायिका राजुल ने भावविह्वल होकर कहा-प्रभो ! आपकी
पदा की दीक्षा दी । गुरु चरणरज स्पर्श कर राजुल लौटी। वाणी से मैं कृतार्थ हई। यदि मैने आपको वरण किया है किन्तु गिरनार के नीचे नही। वही एक गुफा में चट्टान ' तो अपने इस आत्म संकल्प पर स्वयं को निछावर कर ।
सोना पर बैठकर तपश्चर्या करने लगी। दोनों ने अपनी साधना देना मेरा परम कर्तव्य है । मै अब लौटकर नही पाऊँगी। स ससार स मुक्ति पायो ।
से संसार से मुक्ति पायी और अपनी दिव्य वाणी से जनमेरा सकल्प था कि या तो मुनि को आपके चरणो का जन का उद्धार किया। स्पर्श कराऊँगी या फिर गिरनार से नीचे नही उतरूंगी। गिरनार की सभी चोटियां आज भी महाप्रभु नेमि यदि मै प्रभु को लौटा नहीं सकी तो प्रभु मुझे न लौटा और महासती राजुल की गौरव-गाथा सुानती है। सकेंगे। मुझे चरणों की रज समझ कर दीक्षा दीजिए आज गुफा मुख पर राजुल की मूर्ति साकार है। जिसे प्रभो।
देख भावभीने प्रणाम में हाथ स्वयं जुड़ जाते हैं। और महाप्रभु ने राजुल की दृढ़ता की थाह पाने की दृष्टि श्रद्धा भाव से मस्तक अनायास झुक जाता है। से कहा-देवि एक बार पुनः सोचें। क्षणिक आवेश में
रचनाएं भेजिए अनेकान्त के स्वरूप से आप सुपरिचित हैं। इस पत्र का एक विशेषांक शीघ्र प्रकाशित करने की योजना है । उक्त विशेषांक में जैन तत्त्वों पर आधारित मौलिक उच्चस्तर के शोध निबन्धों के साथ ही भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव से सम्बन्धित सामग्री भी प्रकाशित करने की योजना है । लेखकों, विद्वानों, व्रतियों एवं मुनिगण से प्रार्थना है कि उक्त विशेषांक के लिए अपनी अमूल्य रचनाएं शीघ्रातिशीघ्र भेज कर अनुगृहीत करें।
प्रकाशक
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जैन दर्शन की सहज उद्भूति : अनेकान्त
महावीर ने वस्तु की विरारता और हमारे सामर्थ्य की सीमा स्पष्ट करके हमारे अहंकार को तोड़ा है। उन्होंने कहा, वस्तु उतनी ही नहीं है जितनी तुम्हें अपने दृष्टिकोण से दिखाई दे रही है। वह इतनी विराट है कि उसे मतन्त दृष्टिकोणोंसे देखा जा सकता है। अनेक विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म उसमें युगपत विद्यमान है। -जयकुमार 'जलज']
अनेकान्त जैन दर्शन की सहज अनुभूति है। जैन अनेक गुण वाली ये वस्तुए अनन्तमयी है । वस्तु के दार्शनिकों के द्रव्य पदार्थ सत्ता या वस्तु का जैसा विवे- गुणों को गिना जा सकता है। गुण वस्तु के स्वभाव हैं, चन किया है उससे उन्हें अनेकान्त तक पहुचना ही था। वस्तु मे ही रहते है और स्वयं निर्गुण होते है। उनकी उनका द्रव्य-विवेचन एक अत्यन्त तटस्थ वैज्ञानिक विवे- सत्ता सापेक्ष है। इसके विपरीत वस्तु के धर्म अनन्त है। चन है। परवर्ती सूत्र विज्ञानों से दूर तक उसका समर्थन वे वस्तु मे नही रहते। उनकी सत्ता सापेक्ष है। इसलिए होता है। जैन दर्शन के अनुसार तथ्य के अनेक (अनन्त वे किसी की सापेक्षता में ही प्रकट होते है । सापेक्षता नहीं नही) गुण है-जैसे जीवद्रव्य के ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्य तो वह धर्म भी गया। परिप्रेक्ष या दृष्टि बिन्दु के बदलते प्रादि और पुद्गल द्रव्य के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श प्रादि । ही दश्य बदल जाता है। दूसरे परिप्रेक्ष्य से देखने पर वस्तु या द्रव्य आकार में कितना भी छोटा हो लेकिन हम दूसरा दृश्य होता है। धर्म व्यवहार क्षेत्रीय है । वस्तु का उसे सम्पूर्णतः नही देख सकते । मैं उसके एक गुण को छोटा होना, बड़ा होना, पति, पिता, पुत्र आदि होना देखता हू, आप दूसरे गुण को, और लोग तीसरे, चौथे को व्यवहार और सापेक्षता का विषय है। इसलिए रूप, रस, भी देख सकते है। लेकिन एक व्यक्ति युगपत् सभी गुणों गन्ध आदि जहा गुण है वही छोटापन, बड़ापन, पतित्व, को देखने में समर्थ नही है। सबके देखे हुए का लोप नही पितृत्व, पुत्रत्व आदि गुण नहीं, धर्म है । किया जा सकता और लोप हो भी जाय तो भी वह सभी दर्शकों के लिए विश्वसनीय कहां हो पाएया? कई खण्ड
अनन्त वस्तुप्रो के कारण अनन्त सापेक्षताएं निर्मित ज्ञान मिलकर एक अखण्ड ज्ञान की प्रामाणिक प्रतीति
होती है। सापेक्षतानों के गुण, मात्रा, लम्बाई, चौड़ाई, शायद ही करा पाएं ! जगह-जगह टूटी हुई रेखा एक
ऊंचाई, स्थान, काल आदि अनेक प्राधार होते है। वस्तु
का अच्छा, भारी, लम्बा, चौड़ा, ऊँचा, दूर, प्रचीन आदि अट रेखा का भ्रम ही पैदा कर सकती है। वह वस्तुतः
होना किसी सापेक्षता मे ही होता है। सापेक्षता प्रस्तुत भट्ट रेखा नही होती। इस प्रकार वस्तु अधिकाशतः भदेखी रह जाती है।
करने का कार्य केवल उसी धर्म की वस्तु नही अन्य वर्गों
की वस्तुएं (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) वस्तु के गुण परिवर्तनशील है। गुणों का परिवर्तन ।
उनके भेद और उनकी अनन्त सस्थाएं करती है। अनन्त ही वस्तु का परिवर्तन है। इसीलिए वस्तु कोई स्थित
सापेक्षताओं से वस्तु के अनन्त धर्म निर्मित होते है। एक सत्ता नहीं है । वह उत्पाद और व्यय के वशीभूत है। हर
ही वस्तु अनन्त भूमिकाओं में होती है। एक ही व्यक्ति क्षण उसमें कुछ नया उत्पन्न होता है और कुछ पुराना
पिता, पुत्र, भाई, गुरु, शिष्य, शत्रु, मित्र, तटस्थ आदि व्यय होता है। वह अपने पर्याय बदलती है-पूर्व पर्याय
कितने ही रूपों या धर्मों में प्रकट होता है। हम किसी को त्यागती है और उत्तर पर्याय की प्राप्ति करती है।
एक कोण से देखकर वस्तु का नामकरण कर देते हैं। यह क्रम अनादि अनन्त और शाश्वत है। यह कभी
नामकरण वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को संकेतित नहीं करता। विच्छिन्न नहीं होता। हम पहले क्षण जिस वस्तु को देखते
वस्तु के नाना धर्मों से उसके केवल एक धर्म पर ही टिका हैं दूसरे क्षण वही वस्तु नही होती। नदी के किनारे पर
होता है। नाम । शब्दो पर व्युत्पत्ति और प्रर्थ की दृष्टि खड़े होकर हम एक ही नदी को नहीं देखते। हर क्षण दूसरी नदी होती है।
१. द्रव्याश्रय निर्गुणा गुणाः । -तत्त्वार्थसूत्र ५१४०
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बन बर्शन को सहन उद्भति : अनेकान्त
से विचार करते हए पाठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के भारतीय इसी महंकार को तोड़ा है। उन्होंने कहा, वस्त उतनी ही प्राचार्य यास्क ने वस्तु की इस अनन्त धर्मिता को अपने नहीं है जितनी तुम्हें अपने दृष्टिकोण से दिखाई दे रही उग से अनुभव किया था-स्थूण (खम्भा) शब्द की है। वह इतनी विराट् है कि उसे अनन्त दष्टिकोणों से व्यत्पत्ति स्था (खडा होना) घातु से मानी जाती है । यदि देखा जा सकता है। अनेक विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म खम्भे को खड़ा होने के कारण स्थूणा कहा जा जाता है उसमें युगपत् विद्यमान है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी जो उसे गड्ढे में फंसे होने के कारण दरशया (गड्ढे में मालूम पड़ता है उसे निर्मित करने वाला धर्म भी वस्तु में घसा हा) और बल्लियो को सँभालने के कारण सज्जनी है। तुम ईमानदारी से-थोड़ा विरोधी दष्टिकोण से (बल्लियों को सँभालने वाला) भी कहा जाना चाहिए'। देखो तो सही। तुम्हें वह दिखाई देगा । एकान्त दष्टि के
क्या हम वस्तु के एक धर्म को भी ठीक से देख पाते विपरीत यह अनेकान्त दृष्टि है। यही अनेकान्तवाद है। हैं ? मैं समझता हं, नहीं देख पाते । उदाहरण के लिए यह विचार या दर्शन है। एक ओर वस्तु के अनेक गण अध्यापक को लें। यह नाम व्यक्ति के एक धर्म पर प्राधा- बदलते पयोय और अनन्त धर्मिता का और दूसरी मोर रित है। हमने उसके अन्य सभी धर्मों को नकार दिया। मनुष्य-दृष्टि की सीमानो का दोष होते ही यह सहज दी सौदा खरीदते समय वह खरीदार है, पूत्र को चाकलेट उद्भूत हो उठा। विचार मे सहिष्णता आई वो भाषा में खिलाते समय पिता है। हमने इस सबकी ओर ध्यान नही उसे पाना ही था। विचार मे जो अनेकाता है वही वाणी दिया। तहाँ तक कि कक्षा पढ़ाने से सफलतापूर्वक बचते में स्याद्वाद है। समय भी उसे अध्यापक कहा । लेकिन उसके इस एक स्यात् शब्द शायद के अर्थ मे नही है। स्यात का धर्म अध्यापन के भी तो अनेक स्तर है-कभी उसने बहुत अर्थ शायद हो तब तो वस्तु को स्वरूप-कथन मे सनितेजस्वी अध्यापन किया होगा, कभी बहुत शिथिल और श्चितता नही रही। शायद ऐसा है, शायद वैसा है यह इन दोनों के मध्य अध्यापन के सैकड़ो कोटि क्रम है। इन तो बगले का झांकना हुआ। पाली और प्राकृत में स्यात सब पर हमारी दृष्टि कहा जा पाती है।
शब्द का ध्वनि-विकास से प्राप्ति रूह "सिया' वस्तु के सुनि___इस प्रकार वस्तु के अनेक गुण है । वह निरन्तर परि- श्चित भेदों के साथ प्रयोग में आया है। किसी वस्तु के वर्तनशील है और उसके अनन्त धर्म है । क्या हम वस्तु को धर्म कथन के समय स्यात् शब्द का प्रयोग यह मूचित उसकी सम्पूर्णता मे देख सकते है, जान सकते ? सम्भव ही करता है कि यह धर्म निश्चित ही ऐसा है, लेकिन, अन्य नहीं है।
सापेक्षतामों सुनिश्चित रूप से सम्बन्धित वस्तु के अन्य जितना भी हम देखें और जान पाते है वर्णन उससे धर्म भी है। इन धर्मों को कहा नहीं जा रहा है, क्योकि भी कम कर पाते है । हमारी भाषा दृष्टि की तुलना मे शब्द सभी धर्मों को युगपत् संकेतित नही कर सकते ।
और भी असर्थता, अपर्याप्त, अपूर्व और सयथार्थ है। यानी स्यात् शब्द केवल इस बात का सूचक है कि कहने नाना धर्मात्मक वस्तु की विराट् सत्ता के समक्ष हमारी के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह गया है इस प्रकार वह दष्टि और दृष्टि को सूचित करने वाली भाषा बहुत बोनी सम्भावना, प्रनिश्चय, भ्रम प्रादि का द्योतक नहीं सुनिहै वह एक ट्टी नाव के सहारे समुद्र के किनारे खड़े होने श्चितता और सत्य का प्रतीक है। वह अनेकान्त चिन्तन की स्थिति है। लेकिन हम अपने अहंकार में अपनी इस का वाहक है और हमें धोखे से बचाता है। स्थिति को समझते ही नहीं है। महावीर ने वस्तु की महावीर ने अनेकान्त को यदि चिन्तन और वाणी विराटता और हमारे सामर्थ्य की सीमा स्पष्ट करके हमारे का ही विषय बनाया होता तो हमें उससे विशेष लाभ १. निरुक्त १-११ ।
नहीं था। अनेकान्तवाद और उसका भाषिक प्रतिनिधि २. भाषा पदार्थों को अपूर्ण और अयथार्थ रूप में लक्षित स्याद्वाद अनेक वर्षों में एक वाद और बन जाता है। करती है।
उसकी किताबी महत्ता ही होती है, लेकिन महावीर
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२२ वर्ष २७, कि० १
अनेकान्त किताबी व्यक्ति थे ही नहीं। दर्शन और ज्ञान तो समय से प्राज का समय अधिक जटिल है। आज हम उनके लिए रास्ता था। इस रास्ते से वे चारित्र्य तक अधिक जटिल और परोक्ष प्रर्थ तथा राज व्यवस्था के पहुचे थे। मुक्ति का मार्ग भी उन्होंने इसी प्रकार निरू- अन्तर्गत रह रहे है । हमे पता ही नही चलता और हमारी पित किया है- 'सम्यग् दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः ।' सम्पत्ति तथा सत्ता अन्य हाथों केन्द्रित हो जाती है। इन चारित्र्य सर्वोच्च स्थान पर है। उस पर विशेष बल है। हाथो के स्वामी एक स्वय के द्वारा संचालित जयजयकार यह स्वाभाविक ही था कि ऐसा व्यक्ति अनेकान्त चिन्तन से घिर जाते है । मालाएँ, अभिनन्दन, चमचे, भाट, अफको प्राचार का विषय भी बनाता है। अनेकान्त चिन्तन सर और चपरासी, सट्टा और कालाबाजार उन्हें सर्वज्ञ ही प्राचार मे पहिसा के रूप में प्रकट हुआ।
बना देते है। यह अपनी औकात को भूलना है। वस्तु के अनेक प्रहकार के कारण हम अपने आपको ही विराट
स्वरूप की नासमझी है। यहाँ आम आदमी को केवल समझते है। शायद हम अपने आपको अपेक्षाकृत अधिक
एक ही कोण से देखा जा रहा है। और उसे असहाय देख पाते है इसलिए अन्य वस्तुओं की तुलना मे जिन्हे हम
समझा जा रहा है । यह उसका दोष नही । हमारी दृष्टि अधिक नहीं देख पाते, अपने आपको बड़ा मान बैठते है।
का दोष है। काश हम उसे अन्य कोणों से भी देख पाते। महावीर ने वस्तु की विराटता को अनेक गुण, बदलते
व उतना ही नही है जितना हमे दिखाई देता है। निश्चित पर्याय और नाना धर्मात्मकता के आधार पर इस प्रकार
रूप से वह उसके अलावा भी है। वह अनन्तधर्मा विराट् स्पष्ट किया कि हमें उसके लिए-दूसरो के लिए हाशिया महा
महाशक्ति है। उसके लिए अपनी सत्ता और सम्पत्ति के छोड़ना पड़ा । उन्होने न तो आदेश दिया, न वस्तु के धर्म परिग्रह को कम करें। यही अनेकान्त दृष्टि का, लोकको प्रव्याकृत कहकर आव्याख्यायित रहने दिया-उन्होंने व्यवहार का रूप है। महावीर ने इसे अपने जीवन में वस्तुस्वरूप की विराटता से हमे परिचित कराया। घटित किया । वे परिग्रह से सर्वथा मुक्त हो गए। उन्हे उन्होने विषय का ऐसा विवेचन किया कि हमने अहिंसा न धन का परिग्रह था, न सत्ता का और न यश का । को अपने भीतर से उपलब्ध कर लिया। अहिसा को यदि आज गृहस्थ ही नही सन्यासी भी इन परिग्रहो से मुक्त अनेकान्त के रूप में उन्होंने बैचारिक प्राधार न दिया नही है । संन्यासियो के यश बटोरने की ही होड लगी हई होता तो वे एक दार्शनिक निराशा की सृष्टि करते । बिना
है और यश पा गया तो शेष सब कुछ तो स्वतः पाता वैचारिक प्राधार के अहिंसा बहत दिन तक टिक नहीं
रहता है। परिग्रह हजार सूक्ष्म पैरों से चलकर हमारे पास पाती । उसका भी वही होता जो बहत विचारहीन आचारों
प्राता है और हम गफलत में पकड़ लिए जाते है। हम का होता है । इसके विपरीत यदि अनेकान्त केवल विचार
संग्रह विश्वासी बन गए है। त्याग कर ही नही सकते। का ही विषय रहता तो वह पण्डितो के बाद-विवाद तक
त्याग करते भी है तो और अधिक परिग्रह के लिए त्याग ही सीमित होकर रह जाता।
करते है । धन को त्याग कर यश और यश को त्याग कर
घन घर मे रख लिया जाता है। महावीर की समाजयही अनेकान्त समाज-व्यवस्था के क्षेत्र में अपरिग्रह
व्यवस्था अपरिग्रह पर आधारित है और एक न एक दिन का रूप ग्रहण करता है। इस प्रकार एक निजी प्राचार
हमे उसी की शरण में जाना होगा । तक ही वह सीमित नही है। सम्पत्ति का संग्रह हिंसक कार्य तो है ही वह एकान्त और अस्याद्वादी कार्य भी है। इस प्रकार अनेकान्त सम्पूर्ण जैन दर्शन की प्राधारजब हम अपने लिए संग्रह करते हैं तो दूसरों की सापेक्षता शिला है। चिन्तन, वाणी, प्राचार और समाज-व्यवस्था में कुछ सोचते ही नहीं है। अपने आपको महत्त्व केन्द्र सभी के लिए वह एक सही दिशा है। लेकिन वह प्रारोमान लेते है । दूसरों के लिए हाशिया न छोड़ने के कारण पित नही है। वस्तु-स्वरूप को वैज्ञानिक ढंग से समझने विस्फोट और क्रान्ति होना स्वाभाविक है। महावीर के का सहज परिणाम है।
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ओसियां का प्राचीन महावीर मन्दिर
श्री प्रगरचन्द जंन नाहटा
राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार कबसे हुना ? यह एक अन्वेषणीय विषय है। वैसे तो राजस्थान कई स्थानों के लिए यह मान्यता है कि भगवान महावीर वहां पधारे थे पर ऐतिहासिक दृष्टि से वह बात प्रमाणित नही होती । अतः इस बात को मध्यकालीन लोकमान्यता या धारणा ही कहा जा सकता है । पर मज्झिमका नगरी जो चित्तौड़ के पास है, वहाँ के उल्लेख वाला एक प्राचीनतम जैन शिलालेख है । वह वीर सम्वत ८४ का प्रोझा जी ने बतलाया था । उनकी यह मान्यता थी कि इसकी लिपि मे अशोक आदि के लेखो मे प्रयुक्त ब्राह्मी लिपि से भी कुछ पुरानी मोड़ है । वर्तमान विद्वान उस शिलालेख को उतना पुराना नही मानते फिर भी वह प्राचीन तो है ही ।
प्राचीन जैन ग्रागमो मे राजस्थान के किसी ग्राम नगर का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता। पीछे के कई उल्लेखों से मालूम होता है कि राजस्थान का श्रीमाल या भिन्नमाल नगर काफी प्राचीन है। इसी तरह मज्झमिका से भी जैन श्रमण संघ की एक शाखा निकली है । भिन्नमाल के सम्बन्ध मे यह उल्लेख उपकेशगच्छ प्रबन्ध मे मिलता है कि भगवान पार्श्वनाथ के संतानीय स्वयंप्रभ मूरि वहाँ पधारे और जैन धर्म का प्रचार किया। उनके शिष्य रत्नप्रभ सूरि ने ओसियाँ मे बहुत बड़ी संख्या में नये जैनी बनाये, जो आगे चलकर 'प्रोसवाल' कहलाये । श्रीमाल नगर के जैनी 'श्रीमाल' कहलाये और श्रीमाल नगर के पूर्व भाग मे रहने वाले जैनी 'प्रागवाट पोखाड़' कहलाये ।
उपकेशगच्छ प्रबन्ध १४वीं शताब्दी की रचना है मौर उसमे लिखा है कि वीर निर्वाण के ७० वर्ष बाद रत्नप्रभ सूरि ने उपकेशपुर यानि प्रोसिया भौर कोरण्ट प्रर्थात् कोरदा दोनों नगरों में एक साथ ही महावीर बिम्बों की प्रतिष्ठा की। उपकेशगच्छ पट्टावली यही बात
कह रही है :
"सप्तत्या वत्सराणां चरमजिनपतेमुं क्तजातस्य वर्षे, पञ्चम्या शुक्लपक्षे सुरगुरुदिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते । रत्नाचार्यः सकलगुणयुतं सर्वसंघानुज्ञातः श्रीमहावीरस्य बिम्बे भवशतमथने निमितेयं प्रतिष्ठा ॥ उपकेश च कोरण्टे, तुल्यं श्रीवीरबिम्बयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्तया, श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥ "
उपकेशगच्छ प्रबन्धके अनुसार तो राजस्थान में भगवान महावीर के प्राचीनतम मंन्दिर व मूर्तियाँ वीर निर्वाण के ७० वर्ष बाद ही ओसिया और कोरण्टामे प्रतिष्ठित हो गई थी त राजस्थान मे इन्ही को प्राचीनतम महावीर मंदिर और मूर्तियाँ मानी जा सकती है । पर ऐतिहासिक दृष्टि से प्रोसिया नगर मे जैनेतर मन्दिर आदि प्राचीन अवशेष मिले है, वे आठवी-नवी शताब्दी से पुराने नही है । राजस्थान के महान ऐतिहासिक विद्वान गौरीशकर जी श्रोभा ने अपने जोधपुर राज्य के इतिहास के प्रथम भाग में सिया का विवरण देते हुए लिखा है कि यह ओसवाल महाजनों का मूल स्थान । यहाँ एक जैन मन्दिर है जिसमे विशालकाय महावीर स्वामी की मूर्ति है । यह मन्दिर मूलतः स० ८३० (सन् ७८३) के लगभग पडिहार राजा वत्सराज के समय में बनाया गया है । उसके उत्तर पूर्व में मानस्तम्भ है जिसमें सं० ६५२ का लेख है । पहले इसका नाम मेलपुर पट्टण था, श्री हेमचन्द्राचार्य के शिष्य श्री रत्नप्रभाचार्य ने यहाँ के राजा और प्रजा को जैन बनाया । मोझा जी के उल्लखित मानस्तम्भ के ६५२ वाला लेख का तो मुझे पता नही है पर महावीर मन्दिर मे जो प्रशस्ति लगी हुई है। वह सम्बत १०१७ की है । उसमें वत्सराज का उल्लेख है उसी के श्राधार से वत्सराज के समय को देखते हुए श्रोभा जी ने सम्वत ८३० के लगभग श्रोसिया के महावीर मन्दिर बनाने का
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प्रनेकान्त
२४ वर्ष २७, कि० १
उल्लेख किया लगता है । सम्वत १०१७ वाला प्रशस्ति लेख इस दृष्टि से जीर्णोद्धार या नवीन मंडप देहरियों आदि की स्थापना का सूचक होगा। जैन तीर्थ सर्व संग्रह में सिया का विवरण देते हुए लिखा है कि यहाँ सोधशिखरी विशाल मन्दिर बड़ा रमणीय है । मूलनायक श्री महावीर प्रभु की प्रतिमा ढाई फुट ऊँची है । मन्दिर के रंग मंडप में १०१३ वि० स० का शिलालेख: है जिसमें जिन्दक या उनके पुत्र भुवनेश्वर श्रावक के मंडप बनाने का उल्लेख है । सम्भव इस जैन मन्दिर का उद्धार उसने करवाया है। इस शिलालेख के अतिरिक्त यहाँ संवत १०३५, सं० २०८८, सं० १२३४, सं० १२५६, संवत १३३८, स० १४६२, संवत १५१२, सं० १५३४, स० १५३६, सं० १६१२, सं० १९८३, सं० १७५८ के लेख मूर्तियो व स्तम्भों पर प्राप्त है। दसवी शताब्दी के पहले अलग-अलग शैली के शिल्प इस मन्दिर मे विद्यमान है जो इस मन्दिर की प्राचीनता के सूचक है ।
मन्दिर के जीर्णोद्धार करते समय पाये में से एक खण्डित पादुका मिली थी, जिसकी चौक पर सं० १५०० का लेख है । निकटवर्ती धर्मशाला का पाया खोदते हुए श्री पार्श्वनाथ की धातु-प्रतिमा मिली थी जो अभी स्व० पूज्यचन्द्रजी नाहर के नम्बर ४८ इण्डियन मीर स्ट्रीट, कलकत्ता के मन्दिर में विद्यमान है। जिस पर सम्वत १०११ का लेख खुदा हुआ हुआ है और उसमें उपकेशश्रोसिया के चैत्यग्रह का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है ।
"ॐ० सवत् १०११ चैत्र सुदी ६ कक्काचार्य शिष्य देवदत्त गुरूणा उपकेशीयचैत्यगृहें प्रश्वयुजचैत्यषष्ठयां शांतिप्रतिमा स्थापनीया गन्धोदकान् दिवालिका भासुल प्रतिमा इति ।। "
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ओसियाँ का महावीर मन्दिर, नवमी शताब्दी जितना प्राचीन तो है ही । श्रोसवालों का यह मूल स्थान है पर प्राज वहाँ एक भी श्रोसवाल या जैनों का घर नही है केवल प्राचीन मन्दिर ही विद्यमान है और वहां एक जैन विद्यालय काफी समय से चल रहा है। इससे इस प्राचीन मन्दिर की देखभाल भी ठीक से हो रही है, सैकड़ों विद्यार्थी वहाँ पूजासेवा कर रहे है ।
श्रोसवाल वंश की स्थापना रत्न प्रभ सूरि ने की, यह तो सर्वमान्य तथ्य है। परवर्ती प्राचार्यों ने जो नये जैन बनाये, वे श्रोसवाल वंश में ही सम्मिलित होते रहे । फलतः ओसवाल वश का विस्तार खूब होता रहा । आज भी लाखों व्यक्ति ओसवाल कहलाते है और इस वंश के गोत्रों की संख्या १४४४ तक पहुच जाने का प्रवाद है । सैकड़ों गोत्र तो आज भी विद्यमान है। श्रोसवाल, प्रायः सारे हमारे भारत मे ही फैले हुए है । उपकेशगच्छ प्रबन्ध के अनुसार रत्नप्रभ सूरि जी ने प्रतिबोध देकर यहाँ बहुत बड़ी संख्या मे नये जैन बनाये मे, राजा और मन्त्री भी जैन बन गये थे । इससे पहले यहाॅ की चण्डिका देवी के उपासक शाक्त थे । और वहाँ देवी मन्दिर मे पशु बलि बड़ी जोरो से होती थी, कहा गया है कि नये जैनी तब अहिसा धर्म के उपासक बन गये तब पशु बलि देना उनके लिए सम्भव ही नहीं रहा अतः उन पर देवी कुपित होकर उपद्रव करने लगी । तब जैनाचार्यों ने देवी को भी समझा-बुझाकर शान्त किया । पशु बलि या मास के बदले मिष्ठान्न व फल-फूल आदि से उसकी पूजा करने का विधान नये जैनियों की ओर से कर दिया अतः आज भी बहुत से प्रोसवाल घरानों मे नवरात्रि के दिनों मे देवी की पूजा प्राराधना की जाती है। और बहुत से श्रोसवाल अपने बालकों के झडूले आदि उतारने के लिए श्रोसिया की यात्रा भी करने जाते रहते है । उस चाण्डिका देवी का नया नाम जैन आचार्य ने सच्चिका रख दिया और इसी नाम का उल्लेख करते हुए कई स्तुति श्लोक भी बनाये गए। और उस देवी की अन्य मूर्तियां स्थापित व प्रतिष्ठित की गई ।
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कुछ वर्ष पहले मुझे कुछ हस्तलिखित मिले थे जिनमे एक पत्र में ओसवालो की का उल्लेख करते हुए लिखा था ।
"X X ऊहड प्रोसिया बसाई । स्वत् १०११ दसै इग्यारोत्तरं प्रोसिया माता सुप्रसन्न थई श्रोसर्व सनी थापना की थी । सं. १०१७ तर श्रीवीरप्रासाद प्रोहडसा कराण्यो, ते श्राज वर्तमान काल तीर्थ छई । देहरानी प्रसस्तिमांहिसु विस्तर लिख्योछई । धर्मराज ( रत्नप्रभसूरि ) भट्टारकाना सूर प्रतिबोध्या इति शेठ ५ ।। "
पत्र ऐसे भी उत्पत्ति का
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प्रोसियां का प्राचीन महावीर मन्दिर
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इस उल्लेख के अनुसार तो सम्बत १०१७ में यहाँ मूर्ति के लिए कर दिया गया है। सम्प्रति के समय का का महावीर मन्दिर बनाया गया था। इसमें सम्बत १०११ भी कवि ने जो उल्लेख किया है, वह इतिहास को कुछ में पोसवाल वंश की स्थापना का उल्लेख किया गया है। मेल नहीं खाता। वह मन्दिर बनाने का न होकर जीर्णोद्धार का सूचक है। उपरोक्त विवरण इस उल्लेख मे देने का मतलब यही
प्रशस्ति के सम्वत के आधार पर ही श्री हीरउदय के है कि प्रोसियां का महावीर मन्दिर काफी पुराना नवीं शिष्य नयप्रमोद कवि ने प्रोसिया वीर स्तवन सम्वत शताब्दी के लगभग का है। उसके सम्बन्ध में समय-समय १७१२ में बनाया है। उसमें सम्वत १०१७ के माघ वदी पर बहुत सी किवदन्तिया जुडती गई, कई तरह की को मन्दिर बनाकर उसमे मृति प्रतिष्ठित करने मान्यताएं बन गई। पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी राजका उल्लेख है, पर साथ ही नय प्रमोद के स्तवन में इसकी स्थान के प्राचीन महावीर मन्दिरो में भी प्रोसिया के इस प्राचीनता का भी उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार
महावीर मन्दिर का विशिष्ट स्थान है, यह तो मानना ही प्रोसिया के वीर मन्दिर की प्रतिमा मूलतः सम्प्रति राजा
पड़ेगा। प्रोसवाल वंश का उत्पत्ति स्थान होने के कारण ने बालू की बनवाई थी। उसकी पूजा करने के बाद
प्रोसिया का वैसे भी बहुत महत्त्व है। प्रासातना के भय से उस महावीर मूर्ति को भण्डारित कर प्रोसियां गांव वर्तमान मे छोटा सा है पर वहां के दी गई और वह ११६४ वर्षों तक जमीन में ही रही। कई जनेतर मन्दिर भी बहुत प्राचान पार कलापूर्ण है फिर ऊहड ने जब प्रोसिया नगर बनाया और रत्नप्रभ
अतः कला की दृष्टि से उनका विशेष महत्त्व है। जैनेतर सुरि ने ऊहड के पूत्र को संकट से बचाकर जैनी बनाया, मन्दिरो के सम्बन्ध में राजस्थान पुरातत्त्व विभाग के तब इस मूर्ति को जमीन में से निकाला गया। पहले तो डायरेक्टर श्री रत्नचन्द्र अग्रवाल आदि के कई लेख प्रकामहादेव के मन्दिर मे रखी गई, फिर स्वतन्त्र जैन मन्दिर शित हो चुके है। राजस्थान की प्रचीन मन्दिर व स्थाबन गया तब उसमें स्थापित कर दी गई। कवि नय पत्य कला का यहाँ बड़े सुन्दर रूप में दर्शन होता है। प्रमोद ने लिखा है कि १७५६ वर्ष की पुरानी इस बीर ओसियाँ स्टेशन जो जोधपुर से फलौदी जाने वाली प्रतिमा को देखकर बड़ा आनन्द होता है। पर कवि की रेलवे लाइन के बीच मे पड़ता है । प्रोसिया में जैन विद्याये बातें सुनी-सुनायी या प्रचलित प्रवाह के आधार पर लय होने के कारण यात्रियों को वहाँ ठहरने और खाने की लिखित है अतः सम्प्रति के बनाने का उल्लेख जैसे अन्य कोई असुविधा नहीं है। बहुत सी मूर्तियों के लिए किया जाता है, वैसे ही इस
मृत्यु पर दान स्व० सेठ ज्ञानचन्द्र जैन (लखनऊ किराना कं०) के निधन पर निकाले गये दान द्रव्य में से बीस रुपये उनके सुपुत्र कैलाशचन्द्र जैन ने अनेकान्त पत्र को दान में दिये।
धन्यवाद !
मत्री
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विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं गुप्त नरेश रामगुप्त
शिवकुमार नामदेव
मध्य प्रदेश के महत्त्वपूर्ण प्राचीन ऐतिहासिक नगर स्त्री बाद में चन्द्रगुप्त की रानी बनी। उपरोक्त ऐतिविदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से कुछ वर्ष पूर्व जैन धर्मके हासिक कथा का वर्णन वाणकृत 'हर्ष चरित', हर्ष चरित ३ लेख एवं कुछ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं। भारतीय इतिहास पर शंकराचार्य की टीका, राजशेखर कृत 'काव्य मीमांसा', विशेषकर गुप्त काल के इतिहास मे इन प्रतिमानों का मह- धारा नरेश भोज के 'शृंगार प्रकाश' एवं अब्दुल हसन त्वपूर्ण स्थान है।
अली के 'मुजमलुत तवारीख' से भी प्राप्त होता है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् इस विशाल साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त भभिलेखीय एवं गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी कौन हुआ, इस विषय में मुद्रा सम्बन्धी साक्ष्य भी इस कथा की पुष्टि करते हैं। विद्वानो ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये थे । अर्द्धशताब्दी से परन्तु अधिकांश विद्वान रामगुप्त की ऐतिहासिकता का भी अधिक समय तक भारतीय इतिहास मे रामगुप्त की ठोस प्रमाण के प्रभाव में विरोध करते थे। अभी तक ऐतिहासिकता सर्वमान्य नही थी। किन्तु विदिशा से प्राप्त रामगुप्त की ऐतिहासिकता को स्वीकार न करने का इन जैन प्रतिमानो ने उस विवाद को सुलझाने में महत्व- प्रमुख कारण पुरातात्विक साक्ष्यों का प्रभाव था। परन्तु पूर्ण योगदान दिया है।
पिछले कुछ वर्षों मे रामगुप्त की जो मुद्रायें ताल बेहट रामगुप्त का ऐतिहासिक विवरण
(झांसी) एरण एवं बेस नगर (विदिशा) आदि से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात होता है कि गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त हुई है, वे उसे गुप्त सम्राट सिद्ध करती है। के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त जो गुप्त वश के रामगुप्त की ऐतिहासिकता के विरोध में जो मत महान शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता था प्रस्तुत किये गये है उनमे एक उसकी स्वर्ण मद्रा की प्राप्ति सिहासनारूढ हा । उसके काल मे शको का आक्रमण का न होना भी है। परन्तु जैसा कि हमे ज्ञात है कि हा और रामगुप्त पराजित होकर अपनी पत्नी ध्रुवदेवी गमगुप्त का शासन अल्पकालीन एवं प्रशान्तिपूर्ण था, को शक नरेश को सौपने को बाध्य हुआ । परन्तु रामगुप्त अतः इस कारण वह स्वर्णमुद्रा का प्रचलन न कर सका के ज्येष्ठ भ्राता चन्द्रगुप्त ने इस बात को सहन न किया। हो तो कोई आश्चर्य की बात नही होनी चाहिए। विरोकर स्वयं प्रवदेवी का वेष धारण कर शक नरेश के खेमे धियों का दूसरा तर्क यह है कि रामगुप्त की मद्रानो पर मे गया और शक नरेश का वध कर दिया। तत्पश्चात् भिन्न-भिन्न नाम मिलते है तथा वे भिन्न-भिन्न प्रकार की अपने ज्येष्ठ भ्राता को मारकार उसकी पत्नी ध्रुवदेवी से है, इसके अतिरिक्त मुद्राओं पर उसके चित्र नहीं मिलते। विवाह कर लिया।
इन विरोधों के अन्तर में इतना ही कहना पर्याप्त उपरोक्त ऐतिहासिक विवरण का वर्णन विशाखदत्त होगा कि एक पोर तो यह स्थानीय प्रभाव का कारण हो वारा रचित 'देवी चन्द्रगुप्त' नामक नाटक से प्राप्त होता सकता है और दूसरी ओर उस अंशातिकाल के मुद्राकारों है। इस नाटक के कुछ अंश हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र- की कार्य अकुशलता मानी जाती है । गुणचन्द्रकृत 'नाट्य दर्पण' में प्राप्त होते है। जिससे समस्यानों के निराकरण में लेख युक्त जैन प्रतिमानों का ज्ञात होता है कि "रामगुप्त समुद्रगुप्त के पश्चात् योगदान : राजा बना जिसने ध्रुवस्वामिनी से विवाह किया। यही विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम में मिली इन लेख
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विदिशा में प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं गुप्त नरेश रामगुप्त
२७ युक्त तीन जैन प्रतिमाओं में से एक प्रतिमा अर्हत पुष्पदंत का अच्छा प्रसार था। की तथा शेष दो जैन धर्म के पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ की जहां तक लक्षण शास्त्रीय अध्ययन का प्रश्न है उपहैं । प्रत्येक प्रतिमा में पादपीठ पर चार पंक्तियों का लेख रोक्त तीन प्रतिमाओं में से दो जैन धर्म के पाठवें तीर्थकर उत्कीर्ण है । ऐतिहासिक दृष्टि से इन लेखों का महत्वपूर्ण चन्द्रप्रभ की तथा एक अर्हत पुष्पदंत की है। यद्यपि योगदान है। यद्यपि अभिलेख तिथी हीन है परन्तु इनके मूर्तियां काफी भग्न हो गई है परन्तु उनका कलात्मक मक्षर चन्द्रगुप्त द्वितीय के सांची लेख से साम्य रखते है। वैभव बरवस ही कलाप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित लिपि शास्त्रीय अध्ययन के दृष्टिकोण से हम इन्हें ४ सदी किए बिना नही रहता। चन्द्रप्रभ की प्रथम मूर्ति के दक्षिई० में रख सकते है।
ण कर्ण में कड़ा एवं वक्ष पर श्रीवत्स चिन्हाकित है । मूर्ति प्रभिलेख में हमें महाराजाधिराज श्री रामगप्त अंकित ध्यानावस्था में पद्मासनारूढ़ है मूर्तितल पर मध्य में मिलता है। परन्तु लेख में उसके वंशादि का कोई विवरण चन्द्र एवं दोनों ओर सिह की प्राकृतियां बनी हुई हैं। प्राप्त नहीं होता है। परन्तु लिपि एवं प्रतिमा शास्त्रीय __ मस्तक के पीछे भामण्डल है जिसका मात्र अर्धभाग ही अध्ययन की दृष्टि से इस नरेश को हम गुप्त वंशीय शा. शेष है । चन्द्रप्रभकी द्वितीय प्रतिमा का मुखभाग भग्न है सक रामगुप्त मान सकते है। इस नरेश का शासन विद- पृष्ठभाग में तेजोमण्डल है। पादपीठ पर मध्य मे चक भं तक विस्तृत था यह उपरोक्त लेखों की प्राप्ति स्थान एवं दोनों ओर मूर्ति के चामरधारी उत्कीर्ण है। तृतीय से सिद्ध होता है। उपरोक्त तीनों जैन प्रतिमा लेख गुप्त प्रतिमा प्रहंत पुष्पदंत की हैं जो उपरोक्त प्रतिमानो की सम्राट रामगुप्त के सर्व प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है तथा ही तरह है । तीनों प्रतिमाओं के पादपीठ पर चक्र उत्कीइस लेख पर उल्लखित विरुद्ध 'महाराजाधिराज श्री राम- र्ण किए गए हैं। तीर्थकर प्रतिमानों में उनके लांछन गुप्त' उसे गुप्त सम्राट सिद्ध करते है इसके पूर्व रामगुप्त उत्कीर्ण नहीं किए गए है। के सम्बन्ध मे जो यह मान्यता थी कि वह गुप्त सम्राट निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि विदिशा से नहीं अपितु मालवा का स्थानीय शासक था, इस भ्राति प्राप्त लेख युक्त इन जैन प्रतिमाओं ने भारतीय इतिहास का अंत हो जाता है।
की उस समस्या को कि रामगुप्त कौन था, के चले प्रा उपरोक्त जैन धर्म की लेख यक्त प्रतिमानो से हम रहे लगभग अर्द्धशताब्दी से भी अधिक के इस विवाद को इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि यद्यपि गप्त सम्राट वैष्णव सुलझाने में विशष्ट योगदान प्रदान किया है। इन प्रतिधर्मावलम्बी थे तथा 'परमभागवत' विरुद धारण करते थे मानो से हमें रामगुप्त के प्रथम अभिलेख ज्ञात होते है। उनमें पर्याप्त मात्रा मे धर्म के प्रति सहिष्णता थी। इन प्रतिमाओं में उल्लिखित रामगुप्त का विरुद 'महाराजा प्रतिमाओं की विदिशा मे प्राप्ति इस बात की अोर घिराज श्री रामगुप्त निःसंदेह गुप्त सम्राट की महानता 'इंगित करती है कि ४ सदी ई० मे मालवा में जैन धर्म की पोर इंगित करते है।
शान्ति कोई मूर्तिमान् पदार्थ नहीं, वह तो एक निराकुल अवस्था रूप परिणाम है । यदि हमारी इस
रीर से भिन्न प्रात्म प्रतीति हो गई तो कोई थोडी वस्त नहीं। जब कि अग्नि की छोटी सी भी चिनगारी सघन जंगल को जला सकती है तो आश्चर्य ही क्या यदि शान्ति का एक अंश भी भयानक भव वन को एक क्षण में भस्मसात् कर दे।
-वर्णो वाणी
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वीर सेवा मन्दिर विधान का स्मरणपत्र
१. इस सोसाइटी का नाम वीर-सेवा-मन्दिर होगा। (घ) देशी तथा विदेशी भाषाओं में जैन ग्रंथों का २. सोसाइटी का प्रधान कार्यालय देहली राज्य में रहेगा
समुचित अनुवाद । और शाखायें यथावश्यक भारत के दूसरे स्थानों तथा
(ङ) जैन संस्कृति के पुरातन केन्द्रों की खोज । विदेशों में भी खोली जा सकेंगी।
(च) अनेकान्त और अहिंसा के प्रचारार्थ लोक-हित३. सोसाइटी के उद्देश्य निम्न प्रकार होगे।
कारी पम्पलेट व ट्रैक्टों का प्रकाशन । (क) जैन और जनेतर पुरातत्व सामग्री का अच्छा
(छ) जैन साहित्य, इतिहास और संस्कृति सम्बन्धी संग्रह, संकलन और प्रकाशन ।
अनुसंधान एवं नई पद्धति से ग्रंथनिर्माण के (ख) महत्व के प्राचीन जैन-जनेतर ग्रन्थो का
कार्यों में अभिरुचि उत्पन्न करने और यथाउद्धार ।
वश्यकता शिक्षण (ट्रेनिग) दिलाने के लिए
योग्य विद्वानो को स्कालरशिप (वृत्तियाँ) (ग) लोक-हितानुरूप नव-साहित्य का सृजन, प्रकटी
देना। करण और प्रचार।
(ज) योन्य विद्वानों को उनकी साहित्यिक (घ) 'अनेकान्त' पत्रादि द्वारा जनता के प्राचार । विचार को ऊचा उठाने का सुदृढ़ प्रयत्न ।
सेवाओं तथा इतिहासादि-विषयक विशिष्ट
खोजों के लिए पुरस्कार या उपहार देना । (ङ) जैन साहित्य, इतिहास और तत्वज्ञान-विषयक
(झ) जैन संस्कृति साहित्य इतिहास और पुरातत्वादि अनुसन्धानादि कार्यों का प्रकाशन और उनके
विषयक गवेषणामों के प्रकाशनार्थ सोसाप्रोत्साहनार्थ वृत्तियो का विधान तथा पुरस्का
इटी का एक मुखपत्र रहेगा। रादि का प्रायोजन ।
(अ) सोसाइटी के उद्देश्यों में रुचि रखने वाली ४. अपने उक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सोसाइटी निम्न
संस्थानो व ट्रस्टो का सहयोग प्राप्त करने के योजनायें करेगी:
लिए उनसे सम्बन्ध स्थापित करना । (क) जैन सस्कृति, साहित्य, कला और इतिहास के
५. यह वीर-सेवा-मन्दिर अर्थोपार्जन करने वाली संस्था अध्ययन में सहायक विभिन्न ग्रंथो, शिलालेखो
नही है और इस दृष्टि से वह सव आमदनी जो प्रशस्तियों, मूर्तियों, ताम्रपत्रो, सिक्को, यन्त्रों,
किसी भी मार्ग से प्राप्त होगी और संस्था की समस्त स्थापत्य और चित्रकला के नमूनों आदि
चल-अचल सम्पत्ति केवल संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति सामग्री का लाइब्रेरी तथा म्यूजियम आदि के
के लिए काम में आएगी और उसका कोई भाग रूप में विशाल संग्रह।
संस्था के सदस्यो में उनके व्यक्तिगत उपयोग के लिए (ख) लुप्तप्राय प्राचीन जैन साहित्य, इतिहास, तत्व
नहीं बांटा जाएगा; वे सब प्रानरेरी कार्यकर्ता शान, कला और जन संस्कृति का उसके मूल
होंगे। रूप में अनुसंधान तथा अनुसंधान के आधार ६. प्रथम कार्यकारिणी समिति में निम्न सदस्य होंगे। पर नये मौलिक साहित्य का निर्माण ।
क्र. सं. नाम व पता पेशा-प्रवृत्ति पद (ग) जैन ग्रन्थों का वैज्ञानिक पद्धति से उपयोगी १. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, सरसावा प्रकाशन ।
(सहारनपुर)
लोकसेवा सदस्य
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बोरसेवा मन्दिर का स्मरणपत्र
२. बा. छोटेलाल जैन, २६ इन्द्र
सदस्य ८. प्रेमचन्द जैन, २३ दरियगंज विश्वास रोड़ कलकत्ता-३७ व्यापार ,
व्यापार Premchand Jain ३. बा. जयभगवान जैन, एडवोकेट
वीर सेवामन्दिर को नियमावली (१९७२ में संशोधित) पानीपत
वकालत , १. इस सोसायटी का नाम वीर सेवा मन्दिर होगा। ४. ला. राजकृष्ण जैन, २३ दरियागंज
२. सोसायटी का प्रधान कार्यालय भारत की राजधानी दिल्ली
प्रापर्टीडीलर , दिल्ली रहेगा और शाखायें यथा आवश्यक देश के ५. ला. कपूरचन्द जैन, किराचीखाना,
दूसरे स्थानों तथा विदेशों में भी खोली जा कानपुर
टिम्बर मचेंट , सकेंगी। ६. ला. जुगलकिशोर कागजी, चावड़ी
३. सोसायटी के उद्देश्य निम्न प्रकार होंगे: बाजार, दिल्ली
पेपर मर्चेन्ट , (क) जैन जैनेतर पुरातत्व सामग्री का प्रच्छा ७. बा. जिनेन्द्रकिशोर जौहरी,
संग्रह, संकलन और प्रकाशन । ५४५ एसप्लेनेड रोड, दिल्ली जौहरी
(ख) महत्व के प्राचीन जैन-जनेतर ग्रन्थों का ८. बा. नेमचन्द वकील, बड़तल्ला,
उद्धार। सहारनपुर
वकालत
(ग) लोक-हितानुरूप नव-साहित्य का सृजन, प्रकहै. सेठ छदामीलाल जैन, फिरोजाबाद मिल मालिक ,
टीकरण और प्रचार । १०. डा. श्रीचन्द जैन, संगल, एटा डाक्टरी , (घ) 'अनेकान्त' पत्रादि द्वारा जनता के प्राचार ११. जयवंती देवी जैन नानौता
विचार को ऊंचा उठाने का सुदृढ़ प्रयत्न । (सहारनपुर)
भूतपूर्व जमीदार ,, (ङ) जैन साहित्य, इतिहास और तत्व-ज्ञान-विषहम विभिन्न व्यक्ति जिनके नाम नीचे दिए गए है
यक अनुसंघानादि कार्यो का प्रकाशन और इस बात के इच्छुक है कि उक्त संस्था (सोसाइटी) भार
उनके प्रोत्तेजनार्थ प्रवृत्तियों का विधान तथा तीय सस्था रजिस्ट्रेशन एक्ट नं० २१ सन् १८६० के
पुरस्कारादि का आयोजन। अधीन इस स्मरणपत्र के अनुसार रजिस्टर्ड होवे ।
४. अपने उक्त उद्देश्यो की पूर्ति के लिए सोसायटी] क्र.सं. नाम व पता पेशावृति हस्ताक्षर
निम्न योजनाएं करेगी: १. जुगलकिशोर मुख्तार, सरसावा
(क) जैन सस्कृति, साहित्य, कला और इतिहास (सहारनपुर) लोकसेवा जुगलकिशोर
के अध्ययन मे सहायक विभिन्न ग्रन्थों, शिला २. छोटेलाल जैन, २६ इन्द्र
लेखो, प्रशस्तियों, मूर्तियों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, विश्वास रोड कलकत्ता व्यापार छोटेलाल जैन
यन्त्रों, स्थापत्य और चित्रकला के नमूनों ३. राजकृष्ण जैन, २३ दरियागंज
आदि सामग्री का लाइब्रेरी तथा म्यूजियम दिल्ली व्यापार राजकृष्ण जैन
आदि के रूप मे विशाल संग्रह। ४. जयवन्ती देवी ननौता
(ख) लुप्तप्राय प्राचीन जैन साहित्य, इतिहास तत्व जिला सहारनपुर जमीदारी जयवन्ती
ज्ञान, कला और जैन सस्कृति का उसके मूल ५. उल्फतराय न. ७/३३
रूप में अनुसंधान तथा अनुसंधान के आधार दरियागंज, दिल्ली सर्राफ उल्फतराय
पर नए मौलिक साहित्य का निर्माण । प्रेमचन्द जैन, ७/३२ दरिया
(ग) जैन ग्रन्थों का वैज्ञानिक पद्धति से उपयोगी गंज, दिल्ली दुकानदारी प्रेमचन्दजेन
प्रकाशन। ७. दयाचन्द जैन, १६ दरिया- रिटायर्ड Dayachand (घ) देशी तथा विदेशी भाषाओं में जैन ग्रन्थों का गंज, दिल्ली रेलवे आफीसर Jain
समुचित अनुवाद।
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३०, वर्ष २७, कि०१
भनेकान्त
(ङ) जैन संस्कृति के पुरातन केन्द्रों की खोज। (च) अनेकान्त और अहिंसा प्रचारार्थ लोक हित
कारी पैम्पलेट व ट्रैक्टों का प्रकाशन । (छ) जैन साहित्य, इतिहास और संस्कृति-सम्बन्धी
अनुसन्धान और नई पद्धति से ग्रंथ निर्माण के कार्यों में अभिरुचि उत्पन्न करने और यथा आवश्यकता शिक्षण (ट्रेनिग) दिलाने के लिए योग्य विद्वानों को स्कालरशिप
(वृत्तियां) देना। (ज) योग्य विद्वानों को उनकी साहित्यक सेवामो
तथा इतिहासादि-विषयक विशिष्ट खोजों के
लिए पुरस्कार या उपहार देना। (झ) जैन-जनेतर संस्कृति, साहित्य, इतिहास और
पुरातत्वादि-विषयक गवेषणाओं के प्रकाशनार्थ सोसायटी का एक मुख पत्र रहेगा, जिसका
नाम 'अनेकान्त' होगा। (ब) सोसायटी के उद्देश्यों में रुचि रखने वाली
संस्थानों व ट्रस्टों का सहयोग प्राप्त करने . के लिए उनसे सम्बन्ध स्थापित करना ।
मास तक उसकी प्रस्वीकृति न हो तो सदस्यता स्वीकृत समझी जाएगी। उन विशिष्ट व्यक्तियों को जो सोसायटी के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशेष उपयोगी समझे जायें, कार्यकारिणी समिति द्वारा दो वर्ष के लिए निःशुल्क “सम्मानित सदस्य" बनाया जा सकता है। सदस्य बनने पर इन सदस्यों के अधिकार अन्य सदस्यों की भांति
ही होंगे। (६) नए सदस्य कार्यकारिणी द्वारा सदस्यता स्वी
कार किए जाने के तीन मास बाद ही मत:
दान के अधिकारी होगे। (७) प्रत्येक सदस्य को केवल एक मत देने का
अधिकार होगा। दिल्ली राज्य से बाहर रहने वाले सदस्य, प्रतिपत्री (प्राक्सी) द्वारा भी मतदान कर सकते है। प्रतिपत्री को मतदान का अधिकार साधारण पत्र द्वारा दिया जा सकेगा। प्रतिपत्री को सोसायटी
का सदस्य होना आवश्यक है। (८) सदस्यो को सोसायटी के पत्र-पत्रिकायें तथा
ट्रैक्ट निःशुल्क तथा अन्य प्रकाशन ३३-१/३%
कम मूल्य पर प्राप्त होगे। (६) साधारण सदस्य वार्षिक शुल्क अग्रिम देगे।
यदि तीन माह तक शुल्क प्राप्त न हो तो उनको वोट देने का अधिकार नही होगा । कार्यालय साधारणत: शुल्क समाप्ति की
सूचना भेजेगा। (१०) यदि किसी सदस्य का आचरण अथवा
गतिविधि सोसायटी के हितों के प्रतिकूल अथवा सोसायटी के उद्देश्यो की पूर्ति या कार्य में बाधक समझे जाएं तो उसकी सदस्यता कार्यकारिणी के प्रस्ताव पर प्राम सभा में ३।५ बहुमत से, समाप्त की जा
सकती है। (११) किसी सदस्य के निधन पर उसकी सदस्यता
स्वयमेव ही समाप्त हो जाएगी।
५. सदस्यता(१) प्रत्येक व्यक्ति जो सोसायटी के उद्देश्यों से सह
मत हो और कम से कम १८ वर्ष की अव. स्था का हो, सोसायटी का (१) साधारण (२) प्राजीवन, (३) विशिष्ट अथवा
(४) संरक्षक सदस्य बन सकता है। (२) सदस्य बनने से पूर्व प्रत्येक व्यक्ति को अघो
लिखित उपधारा (३) में वर्णित शुल्क निर्धा
रित आवेदन पत्र के साथ देना होगा। (३) सदस्यता शुल्क इस प्रकार होगा।
(१) साधारण सदस्य रु. १२ वार्षिक (२) आजीवन सदस्य रु. २५१ एकबार (३) विशिष्ट सदस्य रु. १००० एकबार
(४) संरक्षक सदस्य रु. ५००० एकबार (४) सदस्यता आवेदन पत्र कार्यकारिणी समिति
द्वारा स्वीकृत होने पर ही कोई व्यक्ति सोसायटी का सदस्य माना जायगा। यदि चार
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वीरसेवामन्दिर विधान का स्मरणपत्र
नया विषय न हो । स्थगित मीटिग में कम से
कम ३ सदस्य अवश्य उपस्थित होने चाहिए। (७) साधारणतः कार्यकरिणी समिति की बैठक के
लिए तीन दिन का नोटिस दिया जाएगा परन्तु विशेष परिस्थितियों में बैठक अल्प
नोटिस पर भी बुलाई जा सकती है। (0) कार्यकारिणी समिति की वर्ष में कम से कम
दो बैठक अवश्य होंगी।
७. पदाधिकारी
(१२) कोई भी सदस्य, त्यागपत्र देकर सोसायटी
की सदस्यता छोड़ सकता है। ६. कार्यकारिणी समिति । (१) सोसायटी के उद्देश्यों, योजनाओं व कार्यक्रमों
की व्यवस्था करने के लिए प्रामसभा द्वारा एक कार्यकारिणी समिति चुनी जाएगी जिसमे अधिक से अधिक २१ सदस्य होंगे। (उप घारा (४) मे वणित अन्य ट्रस्टों से लिए गए सदस्य इनके अतिरिक्त होंगे)। इनमें से एक तिहाई प्रतिवर्ष अवकाश प्राप्त करेंगे और उनके स्थान पर नए सदस्य चुने जायेंगे । अवकाश प्राप्त सदस्य भी फिर चुने जा
सकेंगे। नोट : पहले दो वर्षों में लाटरी के अनुसार सदस्य
अवकाश प्राप्त करेंगे। (२) विशेष आवश्यकता पड़ने पर कार्यकारिणी
समिति स्वय अधिक से अधिक पाँच और सदस्य कार्यकारिणी समिति में सहयोजित (कोप्राप्ट) कर सकती है। यह सहयोजन
अगले चुनाव पर समाप्त हो जायेंगे । (३) किसी भी कारण से वर्ष के मध्य में स्थान
रिक्त होने पर उसकी पूर्ति कार्यकारिणी स्वयं
करेगी। (४) चुने गए सदस्यों के अतिरिक्त, यदि किसी
अन्य ट्रस्ट का वीर सेवा मन्दिर में विलीनीकरण होता है तो प्रत्येक ट्रस्ट के अधिक से अधिक पांच ट्रस्टी भी कार्यकारिणी के सदस्य
बनाए जा सकते है। (५) कार्यकरिणी द्वारा समय-समय पर उसको परा
मर्श देने अथवा किसी कार्य विशेष को सम्पन्न करने के लिए उप समितियां बनाई जा सकती
(१) प्रामसभा में निर्वाचित कार्यकारिणी के द्वारा
अपने सदस्यों में से तीन वर्ष के लिए निम्नलिखित पदाधिकारी चुने जायेंगे : (क) अध्यक्ष (ख) उपाध्यक्ष (एक या अधिक) (ग) महासचिव (घ) सचिव (एक या अधिक)
(ङ) कोषाध्यक्ष। नोट :प्रथम दो वर्ष में लाटरीके अनुसार अवकाश प्राप्त
करने पर पदाधिकारी भी स्वय ही अवकाश प्राप्त कर लेंगे चाहे उन्होने ३ वर्षकी कालावधि पूर्ण न की हो । उनके स्थान पर नए पदाधि
कारी पुनः तीन वर्ष के लिए चुने जाएंगे। (२) अध्यक्ष सोसायटी के उद्देश्यो और योजनाओं
की समुचित प्रगति के लिए उसके समस्त कार्यों की देखभाल करेंगे, प्रेरणा देंगे और नियन्त्रण रखेंगे तथा कार्यकारिणी समिति की बैठकों और साधारण सभा व अधिवेशनों की अध्यक्षता करेंगे। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष उपयुक्त
दायित्वो का निर्वाह करेंगे। (४) महासचिव (क) अध्यक्ष के निर्देशानुसार
सोसायटी के प्रस्तावों को कार्यरूप में परिणत करेंगे, (ख) सोसायटी की ओर से सब प्रकार का पत्र व्यवहार करेंगे, (ग) सोसायटी के कार्यालय का नियन्त्रण और उसके विभिन्न विभागों का नियन्त्रण करेंगे तथा उसके सम्पूर्ण रिकार्ड को सुरक्षित रखेंगे। (घ) सोसायटी की सम्पत्ति का समुचित प्रबन्ध
कार्यकारिणी समिति की बैठकों के लिए कोरम कम से कम सात होगा । परन्तु स्थगित मीटिंग के लिए कोरम की आवश्यकता नही होगी बशर्ते कि स्थगित मीटिंग का दुवारा नोटिस दिया जाए और उसके एजेण्डे में कोई
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२ वर्ष २७, कि० १
करेंगे। (ङ) यथा आवश्यक कार्यकारिणी समिति की तथा साधारण सभा की बैठक बुलायेंगे और इन बैठकों की कार्यवाही को उचित रीति से रजिस्टर में दर्ज करेंगे । (५) सचिव, महासचिव के कार्यों में सहयोग देंगे और उनकी अनुपस्थिति में उनके दायित्वों का निर्वाह करेंगें ।
अनेकान्त
(६) कोषाध्यक्ष नियमानुसार सोसायटी की निधि व सब प्रकार की प्राय को सुरक्षित रखेंगे । सोसायटी के खर्च के लिए महासचिव को स्वीकृत रकम देंगे, भाय-व्यय का समुचित हिसाब रखेंगे और सब बाउचरों और फाइलों को सुरक्षित रखेंगे।
(७) प्रध्यक्ष यदि चाहे तो किसी भी प्रकर्त्तव्यनिष्ठ पदाधिकारी से कार्यकारिणी के धनुमोदन पर त्यागपत्र मांग सकते है अथवा उसको पद से च्युत कर सकते है ।
८. साधारण सभा
(१) साधारण सभा वर्ष में एक बार महासचिव द्वारा बुलाई जायगी ।
( २ ) विशेष सभा आवश्यकता पढ़ने पर अध्यक्ष या महासचिव द्वारा अथवा कम से कम दस सदस्यों के लिखित अनुरोध पर बुलाई जायगी।
(३) साधारण सभा का कोरम प्रपत्रियों के प्रति
रिक्त सोसायटी के कुल बंध सदस्यों की सख्या का कम से कम छठा भाग अथवा ५१ सदस्य (जो भी कम हों) होगा। स्थगित मीटिंग के लिए कोरम की आवश्यकता नहीं होगी । परन्तु उसमें कम से कम पांच सदस्य उपस्थित होने चाहिए ।
(३) साधारण सभा के लिए कम से कम १० दिन का नोटिस दिया जाना आवश्यक है । (४) सोसायटी की नियमावली में परिवर्तन साथारण सभा में उपस्थित सदस्यों तथा प्रतिपत्रियों की संख्या के कम से कम ३ / ५ बहुमत किया जा सकेगा ।
से
(५) लेखा निरीक्षक की नियुक्ति साधारण सभा द्वारा एक वर्ष के लिए की जाएगी। लेखा निरीक्षक कार्यकारिणी का सदस्य नहीं होगा । ६. निषि, सम्पत्ति तथा कर्मचारी
(१) सोसायटी की समस्त नकदी किसी राजकीय बैंक में जमा रखी जाएगी। बैंक अकाउण्टों का संचालन अध्यक्ष, महासचिव, सचिव व कोषाध्यक्ष मे से किन्ही दो के हस्ताक्षरों से किया जाएगा।
(२) साधारणतः एक हजार से अधिक रुपया कोषाध्यक्ष, अपने पास नही रखेंगे।
(३) वार्षिक बजट महासचिव पेश करके कार्य
कारिणी समिति से पास करायेंगे। कार्यकारिणी के द्वारा पास किए गए व्यय के प्रतिरिक्त एक बार मे अधिक से अधिक रु० २०० तक व्यय महासचिव द्वारा किया जा सकेगा जिसकी सूचना अगली कार्यकारिणी मे दी जाएगी।
( ४ ) सोसायटी का वित्तीय वर्ष एक जुलाई से तीस जून तक होगा ।
(५) सोसायटीकी समस्त चल अचल सम्पत्ति की देख भाल महासचिव के अधीन होगी और कानू नी कार्रवाई महासचिव अथवा सचिव के हस्ताक्षरो से की जाएगी। किसी विशेष कार्य के लिए कार्यकारिणी इनके अतिरिक्त भी किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है। (६) सभी कर्मचारियों की नियुक्ति अथवा सेवा
मुक्ति अध्यक्ष की अनुमति से महासचिव उस वेतनमान के अन्तर्गत करेंगे जो कार्यकारिणी से पास किया गया हो । (७) वीर सेवा मन्दिर दि सोसायटीज रजिस्ट्रेशन
एक्ट १८६० के अर्न्तगत क्रमांक एस / ७५७१९५४-५५ पर पंजीकृत है और यह नियमावली उक्त एक्ट की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करती। उक्त एक्ट की धारायें ४, ५, १२, १३ और १४ वीर सेवा मन्दिर पर विशेषतः लागू मानी जाएंगी।
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अध्यक्ष
उपाध्यक्ष
(१)
(२)
वीर सेवा मन्दिर के वर्तमान पदाधिकारी
तथा
कार्यकारिणी समिति के सदस्य
श्री (साहू) शान्ति प्रसाद जैन, टाईम्स हाऊस, बहादुरशाह जफर मार्ग, नई दिल्ली ।
श्री शाम लाल जन (उकेदार), ४-६, टोडरमल रोड, नई दिल्ली । श्री इन्दर सैन जन, गली मुरारीलाल, ४ दरियागज, दिल्ली । श्री महेन्द्र सेन जैनी, मनोरजन भवन, ११ दरियागंज, दिल्ली । श्री ओमप्रकाश जैन, २३ दरियागज, दिल्ली ।
महासचिव
सचिव (कार्यालय)
सचिव (सांस्कृतिक कार्य ) श्री गोकुल प्रसाद जन, ३ गमनगर, नई दिल्ली । श्री हेमचन्द जन, १३।२६ शक्तिनगर, दिल्ली-७ ।
सचिव (पुस्तकालय)
कोषाध्यक्ष
श्री नन्हे मल जैन, ७।३३ दरियागज, दिल्ली ।
सदस्य
श्री उल्फतराय जैन, ७३३ दरियागज, दिल्ली ।
श्री पन्नालाल जैन, ३८७० चवालान, चावड़ी बाजार, दिल्ली ।
श्री बाबूलाल जैन, 'सन्मति विहार', २ दरियागंज, दिल्ली ।
श्री पारस दास जैन (मोटर वाले), नावल्टी सिनेमा के पीछे, दिल्ली । श्री यश पाल जैन, ७८ दरियागंज, दिल्ली ।
श्रीमती जयवन्ती देवी, जैन महिलाश्रम, दरियागज, दिल्ली ।
डा० गोकुल चन्द जैन, ४६ विजय नगर कालोनी, भेलुपुर, वाराणसी ।
श्री ( राय साहब) जोती प्रसाद जैन, १४ लिंक रोड, जंगपुरा एक्सटेन्शन,
नई दिल्ली ।
श्री श्रीपाल जैन, २६४४ गली पीपल वाली, धर्मपुरा, दिल्ली ।
श्री रमेशचन्द जैन, २४६६ सीताराम बाजार, दिल्ली- ६ ।
श्री लक्ष्मी चन्द जैन, भारतीय ज्ञान पीठ, त्री० ४५-४७ कनाट प्लेस,
नई दिल्ली ।
श्री शान्तिलाल जैन, २१४, अन्सारी रोड, दरियागंज, दिल्ली ।
श्री शील चन्द जैन, मित्र भवन, ११ दरियागंज, दिल्ली ।
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R. N. !0591/82
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से प्रलकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Forward) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी.लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपन सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
...
२-०. स्तुतिविधा : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने को कला, मटीक, सानुबाद मौर श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० पुनत्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुआ था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १२५ धोपुरपार्श्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व को स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित ।
'७५ शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १६ शसाब्दी को रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य प्रोर गवेषणात्मक प्रस्तावना से यक्त, सजिल्द । .. ३.०० जनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० १: मस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
सहित अपूर्व मग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और १० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, मजिल्द । ... समाधितन्त्र भोर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित । अनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दी की महत्त्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तत्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
___ २५ भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ ।
१.२५ महाबीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : प. प्राशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जनप्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १२.०० भ्याय-दीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु। ७.०० बन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्य कसायपाहुबसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बडे साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द ।
... २०.०० Reality : मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में मनूवाद ब प्राकार के ३०० पृ. पक्को जिल्द बन निबग्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
५.०० प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
४.००
'२५
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त्रैमासिक शोध पत्रिका
अनेकान्त
सम्पादक-मण्डल
डा. आ. ने. उपाध्ये
वर्ष २७ किरण ३
डा० प्रेमसागर जैन
यशपाल जैन गोकुल प्रसाद जैन
नवम्बर १६७४
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली .
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विषय-सूची
पृ.
| वीर-सेवा-मन्दिर का अभिनव
प्रकाशन जैन लक्षणावली (दूसरा माग) ६६ ।
ऋ.सं. विषय १. ऋषभस्तोत्रम्-मुनि पद्मनन्दि २. प्राचीन ऐतिहासिक नगरी : जूना (बाहड़मेर) ___-भूरचन्द जैन, बाड़मेर (राजस्थान)
चिर प्रतीक्षित जन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक ३. चम्पापुरी का इतिहास और जैन पुरातत्त्व
शब्दकोश) का द्वितीय भाग भी छप चुका है। इसमें लग
भग ४०० जैन ग्रन्थों से वर्णानुक्रम के अनुसार लक्षणों का श्री दिगम्बरदास जैन एडवोकेट, सहारनपुर ।
संकलन किया गया है। लक्षणों के संकलन में प्रन्थकारों ४. कुण्डलपुर की अतिशयता : एक विश्लेषण
के कालक्रम को मुख्यता दी गई है । एक शब्द के अन्तर्गत -श्री राजवर जैन 'मानसहस', दमोह
| जितने ग्रन्थों के लक्षण सगृहीत हैं, उनमें से प्रायः एक ५. महान् मौर्यवंशी नरेश : सम्प्रति
प्राचीनतम प्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में -श्री शिवकुमार नामदेव, डिण्डौरी (मण्डला) ७३ | हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है। जहां विवक्षित लक्षण ६. नरवर की श्रेष्ठ कलाकृति 'सहस्रकट जिनबिम्ब' में कुछ भेद या होनाधिकता दिखी है वहां उन अन्यों के
निर्देश के साथ २-४ प्रन्थों के प्राश्रय से भी अनुवाद -प्रिंसिपल कुन्दनलाल जैन, दिल्ली ७६
किया गया है। इस भाग में केवल 'क से प' तक लक्षणों ७. श्री सहस्रकूट चैत्यालय पूजन
का संकलन किया जा सका है। थोड़े ही समय में -श्री बसन्तलाल जी हकीम
इसका तीसरा भाग भी प्रगट हो रहा है। प्रस्तुत ८. एक अन्तर्राष्ट्रीय जैन शोध-सस्थान की
प्रन्थ संशोधकों के लिए तो विशेष उपयोगी है ही, आवश्यकता--डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री,
साथ ही हिन्दी अनुवाद के रहने से वह सर्वसाधारण नीमच
८३ | के लिए भी उपयोगी है। द्वितीय भाग बड़े प्राकार १. मध्यप्रदेश के जैन पुरातत्त्व का संरक्षण
में ४१८++२२ पृष्ठों का है। कागज पुष्ट व जिल्द -श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर
८५ | कपड़े की मजबूत है । मूल्य २५-०० रु. है। यह प्रत्येक १०. भारतीय पुरातत्त्व तथा कला में भगवान
यनीवसिटी, सार्वजनिक पुस्तकालय एवं मन्दिरों में संग्रहमहावीर-श्री शिवकुमार नामदेव,
णीय है। ऐसे ग्रन्थ बार-बार नहीं छप सकते । समाप्त हो डिण्डौरी (मण्डला)
८७ | जाने पर फिर मिलना अशक्य हो जाता है। ११. भगवान महावीर की भाषा-क्रान्ति
जैन लक्षणावली का तृतीय भाग मुद्रणाधीन है। --डा. नेमीचन्द जैन, इन्दौर
प्राप्तिस्थान १२. ऐतिहासिक जैन धर्म-विद्यावारिधि डा.
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, ज्योतिप्रसाद जैन ६५
दिल्ली-६
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा
भनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं है।
-सचिव
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मोम् महम्
Bীকাল
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यग्धसिन्धुरविधानम् । सकलनपविलसितामा बिरोधमधनं नमाम्यनेकारतम् ॥
वर्ष २७
किरण ३
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, बिल्ली-६ वीर-निर्वाण संवत् २५००, वि० सं० २०३१
नवम्बर । १६७४
ऋषभ-स्तोत्रम्
कम्मकलंकचउक्केणठे णिम्मलसमाहिमईए । तुह जाण-दप्पणेच्चिय लोयालोयं पडिफलियं ॥१६॥ प्रावरणाईणितए समूलमुम्मूलियाइ बठ्ठणं । कम्मचउक्केण मुयं माह भीएण सेसेण ॥२०॥ णाणामणिजिम्माणे देव ठिमो सहसि समवसरणम्मि। उार व संणिविट्ठो जियाण जोईण सम्वाणं ॥२१॥
-मुनि पपनन्दि।। अर्थ-हे मगवन् ! निर्मल ध्यानरूप सम्पदा से चार घातिया कर्मरूप कलंक के नष्ट हो जाने पर प्रगट हुए मापके ज्ञान (केवल ज्ञान) रूप दर्पण में ही लोक और प्रलोक प्रतिबिम्बित होने लगे थे ॥१६॥ हे नाथ ! उस समय ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों को समूल नष्ट हुए देख कर शेष (वेदनीय, प्राय, नाम और गोत्र) चार प्रघातिया कर्म भय से ही मानो मरे हए के समान (अनुभाग से क्षीण) हो गए थे ।।२०।। हे देव! विविध प्रकार की मणियों से निमित समवसरण में स्थित पाप जीते गए सब योगियों के ऊपर बैठे हुए के समान सुशोभित होते हैं।
विशेषार्थ-भगवान् जिनेन्द्र समवसरण सभा में गन्धकुटी के भीतर स्वभाव से ही सर्वोपरि विराजमान रहते हैं। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उन्होंने चूंकि अपनी माभ्यन्तर व बाह्य लक्ष्मी के द्वारा सब ही योगीजनों को जीत लिया था. इसीलिए वे मानों उन सब योगियों के ऊपर स्थित थे ॥२१॥
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प्राचीन ऐतिहासिक नगरी : जूना (बाहड़मेर)
0 भूरचन्द जैन, बाड़मेर
राजस्थान का पश्रिमी सीमावर्ती रैगिहानी हिता अनुसार ११ीं प्रताब्दी के आस-पास इस क्षेत्र पर ब्राह्मण बाड़मेर ऐतिहासिक एव पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण शासक बप्पड़ का प्राधिपत्य था और उसने अपने नाम पर स्थल रहा है। इस जिले में भग्नावशेषों के रूप में अनेकों इस नगर का नामकरण बाप्पड़ाऊ रखा। बप्पड़ ब्राह्मण इतिहास प्रसिद्ध स्थल आज भी अपने पुराने वैभवस्वरूप के वंशजों से १२ वी शताब्दी में परमार धरणीबराह के प्राचीन शिल्पकलाकृतियों को संजोये हुए विद्यमान हैं। वंशज बाहड़-चाहड़ ने लेकर इसका नाम बाहडमेर- वाहड़इस क्षेत्र का विख्यात जना (बाहड़मेर), वर्तमान बाड़मेर मेरु रखा।
-मुनाबा रेलमार्ग पर स्थित जसाई रलवे स्टेशन से बाहड़मेर की प्राचीनता के सम्बन्ध में बहुत-सी लगभग चार मील दूर पहाड़ियों की गोद में बसा हुमा महत्वपूर्ण जानकारी का उल्लेख मिलता है। कर्नल टाड है। यह बाड़मेर नगर से १४ मील और शिल्पकलाकृतियो के अनुसार, वि० स० १०८२ में महमूद गजनवी के द्वारा के बेजोड़ इतिहास-प्रसिद्ध किराड़ से दक्षिण-पूर्व मे १२ गुजरात जाते समय चौहानो के इस दुर्ग जुना का भी मील की दूरी पर स्थित है । पहाड़ियों की गोद में बसा विश्वास किया गया। उद्धरण मन्त्री सकुटुम्ब वि० सं० जूना माज सूना है । यहा वर्तमान में प्राचीन नगरी की १२२३ में हुआ । इसके पुत्र कुलधर ने बाहडमेरु नगर मे अनेक इमारतों और भग्नावशेष के रूप में तीन मन्दिरो उत्तुग तोरण का जैन मन्दिर बनाया जिसका उल्लेख श्री के प्रारूप दृष्टिगोचर हो रहे है । यह प्राचीन स्थल १०वीं क्षमाकल्याणकृत खतरतगगन्छ पट्टावली में इस प्रकार शताब्दी तक आबाद रहा है। विशाल पहाड़ियों के बीच किया हुआ है :में यह नगरी बसी हुई थी, जिसके अवशेष प्राज भी जूना "उद्धरणमन्त्री सकुटम्ब: खतरवच्छीयावच (सं० की पहाड़ियों पर दस मील के घेरे मे बने किले की १२२३) बभूव । तस्य च कुलधरनामा पुत्रो जातः येन प्राचीरों एवं इमारतों से अवगत हो रहे हैं। ये पुरातत्व को बाहड़मेरु नगरे उत्तुंगतोरणप्रासादः कारितः ॥" दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण बने हुए है, किन्तु उनका वि० सं० १२३५ (ई. सन १९७८) मे चौहानों से अभी तक किसी प्रकार का सर्वेक्षण नहीं हुआ है। संघर्ष लेते हुए शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी ने मुल्तान से
वर्तमान जना के नाम से विख्यात ऐतिहासिक स्थल लोदवा देवका किराडू जूना पर पाककण किया । किराडू प्राचीन समय में जना, बाहणमेर, बाहड़मेरु, बाहडगिरि, के विख्यात सोमनाथ मन्दिर को तोड़ा और लूटा। बाप्पडाऊ आदि अनेक नामों से विख्यात नगर रहा है। मन्दिर को तोड़ने के साथ मन्दिर के चारों और भीषण इस नगर की स्थापना परमा धरणीवारह या धरणीगर अग्निकाण्ड भी किया गया। जूना के दुर्ग एवं जैन मन्दिरों राजा के पुत्र बाहड़ (वाग्भट्ट) ने विक्रम की ग्यारवी को भी इन्ही के द्वारा तोड़ने की वारदात की गई। शती के उत्तरार्द्ध में वि० सं० १०५६ के पश्चात् की वि० सं० १२२३ में उद्धरण मन्त्री के पुत्र कुलघर मुंहता नैणयो ने भी धरणीवराह के पुत्र बाहड़-छाड़ होने द्वारा बाहड़मेरु में बनाये उत्तुंग तोरण के श्री आदिनाथ का उल्नेख किया है। "वाग्भटमेरु" शब्द का उल्लेख भगवान के जैन मन्दिर पर श्री प्राचार्य जिनेश्वर सूरिजी चौहान चाचिग देव के संघामाता मन्दिर के वि० सं० ने वि० सं० १२८३ माह वदी २ के दिन ध्वजा फहराई। १३१६ के शिलालेखों में मिलता है । भाट साहित्य के श्री प्राचार्य जिनेश्वर सूरिजी के तत्वाधान में वि० सं०
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प्राचीन ऐतिहासिक नगरी : चूना (बाहड़मेर) १३०१ माघ सुदि १०के दिन पालनपुर में प्रतिष्ठा- प्रमोदार्य पाश्वंतिचत ठिकादयंकारितं ॥पाचंद्रवर्क नंद. महोत्सव प्रायोजित हुपा और सेठ सहजाराम के पुत्र तात ॥ शुभमस्तु । बच्छड ने बाहड़मेर पाकर बड़े उत्सव के साथ दो स्वर्ष ४ -"संवत् १६६३ वर्षमय (मार्ग०) सुब बिय कलशों की प्रतिष्ठा करवा कर श्री आदिनाथ मन्दिर के (ख) रतरगच्छ ५० सीरराजमनि पं० गिरराजमुनि पं. शिखर पर चढ़ाये । वि० सं० १३१२ में श्री जिनेश्वर सूरि हिरांण (नं.) वपमुखसाधुसहितयात्रा कृता संतमानके शिष्य चण्डतिलक ने "अभयकुमार चरित्र" महाकाव्य पाकारि (?)॥" यहां भारम्भ किया। प्राचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि ने यहा
___ जूना के खण्डहरो की बस्ती में भाज पुरातत्व एवं वि० सं० १३३५ मार्ग शीर्ष बदी चतुर्थी के दिन पद्यवीरि,
शिल्पकलाकृतियों की दृष्टि के लिए श्री आदिनाथ भगवान सुधाकलश, तिलककीति, लक्ष्मीकलश, नेमिप्रभू, हेमतिलक
का जैन मन्दिर ही अपने प्राचीन पाषणों को लड़खड़ाती और नेमोतिलक की बड़े समारोह के साथ दीक्षित किया। जूना (बाहड़मेर) के वर्तमान खण्डहरो के रूप में
हालत में सजोये हुए है। मदिर के मूलगम्भारे का
विशाल शिखर सदियो पहले ही धरातल पर पा चुका है। विद्यमान जैन मन्दिर में आज भी वि० स० १३५२ का
इसके पाश्वं भाग के गोखों पर क्षतिग्रस्त कई प्रतिमाएँ एक, १३५६ के दो एवं २६६३ का एक, कुल मिलाकर चार शिलालेख विद्यमान है जो इस प्रकार है
बनी हुई है। गूडमण्डप का प्रागे का भाग गिर चुका है। १-ॐ॥संवत १३५२ वैशाख मधि४ श्री बाहर सभा एव भूगार मडल के अनेको खम्भे अब भी विद्यमान
है। कई खम्भों पर उक्त शिलालेख दृष्टिगोचर हो रहे मेरी महाराजकुल श्रीसामंतसिंहदेवकल्याण राजे तन्नियुक्तश्री २ करणो मं० बोरा सेल [0] बेला तुल [.] भाँ
है। खम्भों के निचले भाग पर कुछ सुन्दर महिलागिगनप्रभृतयो धर्माक्षराणि प्रयच्छति यया । श्री प्रादि
प्राकृतियों में प्रतिमाएं बनी हुई है। खम्भो के ऊपरी नाथमध्ये सतिष्ठामानश्रीविन्धमर्द क्षेत्रपालवीचड- भाग को शिल्पकला की दृष्टि से सजाने-सवारने का
शिल्पकार ने अथक प्रयल किया है। स्थानीय विषैले राजदेवपो उभयमार्गीवसमायतसार्थ उष्ट्र १० वृष २०
जन्तुमो की प्राकृतिया इन खम्भों पर बनी पूई है । खम्भों उभयादपि ध्वं सार्थ प्रति द्वयोदेवयोः पाइलापदे धीमप्रिय
भौर मन्दिर की छतो के बीच बाले पाषाणों पर कुछ देवीवश विशोपका प्रबोवन महोतव्याः प्रसौं लागा महाजनेन ।
देवतापो की पाकृतियां भी दिखाई देती है। मन्दिर के म (भा) निता ॥ यथोक्त' बहुभिवसुधा भुक्ता राजभिः
ऊपरी गोलाकार गुम्बज के प्रांतरिक भाग की शिल्पकला सगरादिभिः । यस्य पस्य सदा भूमिः तस्य तस्य तदा
प्रत्यन्त ही सूक्ष्म एवं सुन्दर बनी हुई है जो प्राब के फलं ॥१॥
देलवाड़ा एव राणकपुर के जैन मन्दिरों की छतों से कुछ २--ॐ ॥ संवत् १३५६ कातिवयां श्री युगादि
मिलती-जुलती है। कुछ गुम्बज गिराये जा चुके है और देवविधिवत्यै श्रोजिनप्रबोधसूरिपट्टालंकारश्रीजिनचंद्रसूरि
कुछ गिरने की स्थिति में है। इन गुम्बजों के पास के सुरूपदेशेन सा० गाल्हणसुत सा. नागपालश्रावकेण सा.
पाषाणो में बनी लक्ष्मी, सरस्वती एवं अन्य देवी प्रतिमाएं गहणाविपुत्रपरिवृतेन मध्यचतुहिकका स्व० पुत्र सा.
अत्यन्त ही सुन्दर बनी हुई है। इस मन्दिर के अतिरिक्त मूलदेवयोर्थ ससंघप्रमोदार्य कारिता । प्राचंद्रवर्क
दो अन्य मन्दिर भी विद्यमान है, लेकिन उसके पार्श्व भाग नंदतात् ।। शुभमस्तु ।"
के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । पास में विखरे खंडहर ३-ॐ ॥ संवत् १३५६ कातिश्यां श्रीयुगाविवेव.
इनकी प्राचीनता एवं विशालता का अवश्य ही परिचय दे विधिपत्ये श्री जिनप्रबोजरिपट्टालंकारधीजिनचंद्रसरि. पुदुरूपदेशेन सा०पाहणसुत सा. राजदेवसत्यत्पुत्रेण सा० रहे है। लखणधावकेण सा. मोकलसिंह तिहूणसिंहपरिवृतेन १० दिसम्बर, १९७० को जो प्राचीन एव धार्मिक वामातः सा पउमिणपिसुश्रावकायाः अयोथं सर्वसंध. जैन मूर्तियाँ जना की एक पहाड़ी पर बन Fram
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अनेकान्त
श्रमिकों द्वारा वृक्ष लगाते समय प्राप्त हुई, वे भी बहुत ही होता रहा। यहां के मोसवाल पारख-गोत्रीय देकोशाह पुरानी एवं खंडित हालत में हैं। यह स्थान पूना के मूल के पुत्र ने वि० सं० १५२१ मे दीक्षा ग्रहण की जो प्रागे मन्दिरों से करीबन एक फलोग दूर पहाड़ी पर स्थित है। चलकर श्री प्राचार्य जिनसमद्रसूरि के नाम से लोकप्रिय इस पहाड़ी के भग्नावशेषों एवं अन्य स्थलों का अवलोकन हए। करने पर ऐसा अनुभव होता है कि यहां पर विशाल एवं
वि. सं. की १७वी शताब्दी तक यही स्थान बाह्ड़मेर शिल्पकलाकृतियों का अत्यन्त ही सुन्दर जैन मन्दिर था।
के नाम से जाना जाता रहा। मौरंगजेब के समय वि. यहाँ के अवशेषों को देखनेसे मन्दिर का प्रवेश-द्वार-शृगार
सं० १७४४ के लगभग यहाँ पर वीर दुर्गादास राठौड़ का चौकी, रंग-मंडप, सभा-मंडप, मल गम्भारा, परिक्रमास्थल,
निवास रहा। राठौड़ दुर्गादास ने बादशाह औरंगजेब के मन्दिर के चारों ओर बनी प्राचीरें और नीचे उतरने
पौत्र, अकबर के पुत्र और पुत्री बुलन्द अख्तर और एवं चढ़ने के लिए पहाड़ी के दोनों तरफ विशाल पक्की
सफियायुनिसा को यहीं जूना के दुर्ग में सुरक्षित रखा पाषाणों की पगडण्डी माज भी तितर-बितर अवस्था में
था। जूना का प्राचीन दुर्ग परमारों और चौहानों की देन विद्यमान है।
है। "ऐतिहासिक घटना-चक्रों के बीच इस पर छोटेजैन धर्मावलम्बियों का जूना (बाहड़मेर) तीर्थस्थल
बड़े माक्रमण बराबर होते रहे जिसके कारण इसका पतन रहा है। यहां कई प्राचार्य महात्मानों ने पाकर चातुर्मास
होना प्रारम्भ हो गया और धीरे-धीरे यहाँ के लोग आसकिये और कई जैन धार्मिक ग्रन्थों की रचना भी की।
पास के स्थानो पर जाकर बसने लगे। वि० सं० १६४० श्री प्राचार्य कुशलसूरि ने वि० सं० १३८२ में साचोर से
तक इस नगर के प्राबाद होने के कारण वर्तमान जना पाकर बाहड़मेरू में चातुर्मास किया। श्री प्राचार्य पम
ही बाहड़मेर कहा जाता था। वि० सं० १६०८ में रावत सूरि बाहड़मेर आये जिनका स्वागत तत्कालीन चौहान ।
भीमजी ने स्वतन्त्र रूप से बाड़मेर बसाया जो प्राजकल राणा श्री शिखरसिंह, श्रावक साह, परतापसिंह, साह
राजस्थान प्रदेश का जिला मुख्यावास है। सातसिंह भादि ने किया। इस प्रकार, जैन साधु-सन्तों, प्राचार्य-महात्मानों का इस नगरी में बराबर प्रागमन
DD जूनी चौकी का बास बाड़मेर (राजस्थान)
भावश्यक सूचना अनेकान्त "महावीर निर्वाण विशेषांक' मागामी दो अंक (फरवरी १९७५ अंक एवं मई १९७५ प्रक) सम्मिलित रूप से महावीर निर्वाण विशेषांक के रूप में योजित हैं एवं शीघ्र ही प्रकाशित होंगे।
महावीर निर्वाण विशेषांक के लिए जिन विद्वानों एवं मनीषियों ने अपने लेख एवं रचनाएं पभी तक नहीं भेजी हैं उनसे सानुरोध निवेदन है कि वे शीघ्र ही भेजने की कृपा करें।
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चम्पापुरी का इतिहास और जैन पुरातत्त्व
श्री दिगम्बर दास जैन, एडवोकेट, सहारनपुर
अन्तिम भोग भूमि की समाप्ति और कृषि-काल के प्रभावित होकर वह समस्त राजपाट और सांसारिक सुखों भारम्भ मे प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभ देव के जीवन काल का मोह त्यागकर दिगम्बर मुनि हो गया और इतना घोर में जिन ५२ देशों की रचना इन्द्र ने की थी, उनमें एक तप किया कि वह अपनी योग्यता से भगवान का गन्धर्व अंग देश भी था, जिसकी राजधानी चम्पापुरी (भागल बन गया। पुर) थी, जहाँ इस वर्तमान युग के प्रारम्भ में प्रथम
रामायण-काल में मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ-काल में विश्व सम्राट भरत ने (जिसके नाम पर हमारा देश महाराज TTM को भारतवर्ष कहलाता है) अनेक विशाल जैन मन्दिर निर्माण जिन्होंने चम्पापुरी में अनेक विशाल जैन मन्दिर बनकराये। समस्त जनता जैन धर्म का पालन करती थी वाये। -और शताब्दियों तक चम्पापुरी का राज्यधर्म जैन धर्म
महाभारत के समय बाइसवें तीर्थङ्कर नेमीनाथ के
समय चम्पापुरी का राजा दान-वीर, जैनधर्मी कर्ण था दसरे तीर्थदर अजित नाथ के समय चक्रवर्ती सम्राट् जिसने अपने राज्य में जैन धर्म को राज्य-धर्म ना दिया सागर ने चम्पापुरी में जैन मन्दिर बनवाये।
था । पुराने किले की उत्तर की ओर आज भी जैन मन्दिर तीर्थर वासुपूज्य के समय मिथलापुरी का राजा पम- के चिह्न शेष हैं। हरिवंश पुराण, सर्ग २२ के अनुसार, रथ था। एक दिन वहक्रीड़ा को वन मे गया। वहाँ उसने स्वयं कृष्ण जी के पिता वसुदेव ने चम्पापुरी मे बासपज्य सूधर्म नामक दिगम्बर जैन महामनि को ध्यान मे देखा। तीर्थङ्कर की पूजा की। महाराजा कर्ण के बनवाएर राजाने उनकी शान्त मुद्रा को देखकर अत्यन्त शान्ति मनुभव भनेक जैन मन्दिरों के चिह्न माज भी कर्णगढ पर्वत की और वन्दना करके उनसे पूछा कि क्या आपके समान दिखाई देते है। इस संसार मे और भी कोई शान्त-चित दिगम्बर मुनि
भगवान महावीर के समय चम्पापुरी का सम्राट से प्रत्यन्त शान्त मदा के प्रजातशत्रु था जो बड़ा बलवान और योद्धा था। जब धारी, उत्तम ज्ञान के स्वामी, महागुणवान् सर्वज्ञ बारहवें भगवान महावार स्वामी का समवशरण चम्पापुरी में तीर्थङ्कर श्री वासुपूज्य है जिनके दर्शन मात्र से शांत भाव भाया तो इसने शाही ठाट-बाट से भगवान का स्व दर्पण के समान स्पष्ट दिखायी देते हैं। राजा दो मन्त्रियों किया और उनके उपदेश से प्रभावित होकर दिगम्बर को साथ लेकर उनके समवशरण की ओर चल दिया। देवो ने परीक्षारूप में उन पर प्रत्यन्त भयानक उपसर्ग चम्पापुरी का नगर सेठ वृषभदत्त जैन धर्मी था किये। दोनों मन्त्री भयभीत होकर वापिस चले गये। जिसका सुभग नामक एक ग्वाला था। एक दिन उसने एक किन्तु राजा पपरथ अटल रहे। देव ने राजा की भक्ति और नग्न साधु को रात्रि में तप करते हुए देखा । मोस के श्रद्धा से प्रसन्न होकर उसको समवशरण में पहुंचा दिया, कारण उनका शरीर गीला था। मुनिराज की शान्त मुद्रा जहाँ वह शेर को बकरी से प्यार करते हुए और मोर को से प्रभावित होकर वह सारी रात उनके गोले शरीर को गर्प से खेलते हुए तथा शेरनी के बच्चे को गाय के थन चूसते पोंछता रहा। दिन निकलने पर मुनिराज जाने लगे तो हुए देखकर चकित रह गया। भगवान के उपदेश से उन्होंने ग्वाले को णमोकार मन्त्र दिया, जिसको बह निर
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७०,
वर्ष
२७ ०३
अनेकान्त
धनद नामक एक ग्वाला ने एक दिन सरोवर से एक हजार पंखड़ियो का बड़ा सुन्दर कमल तोड़कर अपने स्वामी को भेंट करना चाहा उसने कहा कि सर्वश्रेष्ठ पुरुष को भेंट करो। उसने राजा को भेंट किया। राजा ने कहा कि मुझसे श्रेष्ठ दिगम्बर मुनि है । वह मुनिराज को भेंट करने लगा । उन्होंने कहा कि सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर भगबान होते है। उसने वह फुल बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य को भेंट किया जिससे उसे इतने विशेष पुण्य का बहुआ कि वह पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर के तीर्थंकाल मे चम्पापुरी देश का बड़ा प्रतापी और पराक्रमी जैन सम्राट् कुरकुण्ड हुआ, जिसने अपनी राजधानी चम्पापुरी में बड़ा विशाल पौर दर्शनीय मन्दिर वासुपूज्य भगवान का बनवाया ।
महाराजा बसुधर्म के राज्य काल मे चम्पापुरी मे धन कुबेर सेठ, भट्ट सम्पत्ति का स्वामी त्रिपदत्त रहता था। उसकी पुत्री धनन्तवती इतनी सुन्दर थी कि कुडल मंडित नामक विद्याधर राजा ने उसे हर लिया तथा उत्तम भोगों और सुखों का लोभ तथा मरण का भय देकर उसे अपनी पटरानी बनाना चाहा। अनन्तवती के शील प्रभाव से बन देव ने उसकी सहायता की, तो मिल्लराज नामक भीलों के सरदार ने उसे अपनी रानी बनाना चाहा, परन्तु वह शीत से न हिंदी और समस्त जीवन बाल ब्रह्मचारिणी रही। वह संसारी भोगों से उदासीन, सम्यग्दर्शन के निका क्षित श्रंग में सुप्रसिद्ध महिला रत्न चम्पापूरी की निवासी थी ।
गौरी शंकर बाजार, सहारनपुर
जन्तर रटता रहा जिसके प्रभाव से मर कर इसी चम्पा
चम्पापुरी के
पुरी में सम्राट् पवाडी वाहन के राज्य काल में वह उसका नाम सेठ के यहाँ सुदर्शन नामक पुत्र हुम्रा, जो इतना धर्मात्मा था कि गृहस्थ काल में भी भ्रष्टमी तथा चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान भूमि में ध्यान लगाता था और इतना सुन्दर था कि चम्पापुरी की महारानी भी उस पर मोहित हो गई थी, परन्तु वह शील से नही डिगा । नाराज होकर रानी ने उस पर झूठा कलंक लगा दिया और राजा ने उसे सूली का दण्ड दिया, परन्तु सुदर्शन के शील के प्रभाव से सूली का सिंहासन इसी चम्पापुरी नगरी में बन गया।
घरवपति सेठ भानदस थे जिनकी सुमना था। इनके पास नामक पुष था जो सोलह करोड़ दीनारों से विदेशों तक में व्यापार करता था । उसने विदेशों तक में जैन धर्म का प्रचार किया।
चम्पापुरी की पवित्र भूमि में काम भावना नष्ट करने करने की इतनी शक्ति है कि इसने इस युग में प्रथम बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकर वासुपूज्य को उत्पन्न किया। इसके प्रभाव से धनन्तवती जैसी उत्तम बाल ब्रह्मचारिणियां व सेठ सुदर्शन जैसे ब्रह्मचारी का जन्म चम्पापुरी में हुआ जिनके शील से प्रभावित होकर स्वर्ग के देव उनकी बन्दना करने के लिए चम्पापुरी प्राते थे ।
समस्त संसार में केवल चम्पापुरी ही एक ऐसी पवित्र और महान नगरी है कि जहाँ वासुपूज्य तीर्थंकर के पांचों कल्यानक हुए है। किसी दूसरे तीर्थकर के पाँचों कल्याणक माज तक एक नगरी में नहीं हुए ।
समस्त संसार में केवल चम्पापुरी ही एक ऐसी धार्मिक नगरी है, जहाँ समस्त २४ तीर्थंकरों के समवशरण धाये। महातपस्वी मुनिराज धर्मघोष ने चम्पापुरी में केवलज्ञान प्राप्त किया।
प्राह्निका पर्व में स्वर्ग के देव और विद्याधर, हरिव पुराण, सर्गे २२, इलोक ३ के अनुसार, तोर्थंकर वायुपूज्य की पूजा तथा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण, कल्याणक मनाने के लिए चम्पापुरी माया करते थे !
इस प्रकार, हम देखते हैं कि इस युग के शुरू से ही चम्पापुरी जैन धर्म का अत्यन्त प्रभावशाली केन्द्र रहा है जिसका वर्णन यति वृषभ ने तिलोमपणत्ति में, प्राचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण में प्राचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में तथा तदुपरात पडित सुमेरचन्द दिवाकर ने अपनी रचना "निर्वाण भूमि चम्पापुरी" में किया। ऐसी महान धार्मिक, ऐतिहासिक नगरी का कथन कोई पानी कैसे कर सकता है। यह गुणीजनों के अनुग्रह का ही प्रताप है कि हमें ऐसी पवित्र निर्माण भूमि चम्पापुरी का वर्णन करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ ।
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कुण्डलपुर को अतिशयता : एक विश्लेषण
D श्री राजधर जैन 'मानसहंस', दमोह मूर्ति चाहे पाषाण की हो, काष्ठ को हो, मृत्तिका या महावीर की मूर्ति का अण-परमाण या उसका अंतिम से धातु को हो, वह पाषाण, काष्ठ या घातु ही है। केवल प्रतिम लघु घटक भी महावीर की ज्योति मे ज्योतिर्मय शिल्प उसे मूर्त रूप दे देता है, तथा वह जिसके प्राकार हो चुका है और वह ज्योति निरन्तर प्रत्यावर्तित होती का प्रतीक बनती है उसके गुणों की अवधारणा करना रहेगी। किसी भी प्रात्मा के समीप पहुचने पर मूर्ति मे भारम्भ कर देती है। मूर्ति मे प्राण-प्रतिष्ठा हम करते है। बैठी वह महान् मारमा उसे प्रभावित करने लगती है। जब हम उसे ईश्वर या परमात्मा के नाम रूप से सम्बो- महावीर की मूर्ति में यही अतिशयता है और यही उस धित करना शुरू कर देते है तो यह प्राण-प्रतिष्ठा कोई मूर्ति का प्राचीनता का बोध भी है। समस्त प्राचीन एक व्यक्ति द्वारा नही, प्रत्युत परमात्मा को उस नाम- मूर्तियाँ भी इसी तरह अतिशय को प्राप्त हो जाती है। रूप से प्रतिष्ठित करने वाले लाखों करोड़ों धर्मानुयायियों
कुण्डलपुर से संबंधित जो अतिशय की चर्चायें है, एवं दर्शनाथियों द्वारा होती हैं, जो हजारों वर्षों से पने
उनका प्राधार यही वैज्ञानिक प्रक्रिया है। प्रध्यात्म-विज्ञान, प्राणों की निष्कलुप ऊर्जा मूति पर प्रक्षेपित करते रहे हैं
विज्ञान का एक खण्ड है। विज्ञान का यह ऊपरी रूप और इस तरह मूर्ति अनन्तानन्त प्रात्मानो की शुद्धता में
जिसे हम विज्ञान कहते है, केन्द्रित परम विज्ञान की व्याप्त हो जाती है। कालान्तर में ये विशुद्ध पात्मायें
परिधि पर एक प्राधिक उपलब्धि है। समस्त ब्रह्माण्डीय एकाकार होकर मूर्ति मे ऊजस्वित होती है और वह
वैज्ञानिक प्रक्रिया में अभी तक जो भी अधिक से अधिक मूर्ति भी उस दिव्य ज्योति को विकीर्ण करने लगती है
उपलब्धि हो सकी है, वह केवल अध्यात्म-विज्ञान की है। जिसकी वह मूर्ति प्रतिमूर्ति है। तब ऐसा होता है कि ।
इसलिए प्रध्यात्म-विज्ञान की शोधो के समक्ष भौतिक मूर्ति के समक्ष यदि कोई भूला-भटका पादमी भी पहुंचता
विज्ञान की खोज नगण्य है। किन्तु फिर भी, भौतिक है तो उन अनन्त प्रात्मानो की केन्द्रित प्रज्ञा-किरणें उस
विज्ञान असम्बद्ध नहीं, बल्कि अध्यात्म-विज्ञान का सरलीमादमी पर प्रत्यावर्तित होकर उसे प्रभावित करने लगती
कृत प्रत्यक्ष दर्शन है। प्रतः भौतिक विज्ञान के माध्यम से है और वह व्यक्ति धीरे धीरे विशुद्धता में रूपान्तरित होने
अश्यात्म-विज्ञान को सरलता एवं सहजता से पकड़ा जा लगता है। कुण्डलपुर में स्थित भगवान महावीर मूर्ति के
सकता है और ग्रहण किया जा सकता है। जैन दर्शन पूर्ण समक्ष पहुंचने पर मन एक निर्मल शान्ति से प्रोत प्रोत
वैज्ञानिक दर्शन है जिसमे चेतन, अचेतन, जीव, पुद्गल होने लगता है। उसका कारण केवल यही है कि भगवान
और मोक्ष की धारणा विज्ञान का पूर्ण रूप है। प्रतः महावीर की मूर्ति ने उम अतिशय निधि को उपलब्ध कर
भौतिक विज्ञान से हटकर केवल अध्यात्म बिज्ञान का लिया है जिसमें महावीर के जीवन-दर्शन से प्रभावित
मूल्यांकन नहीं हो सकता। अनन्त प्रात्मामों ने महावीर को मूर्ति में पूर्ण रूप से प्रक्षेपित कर दिया है। वह मूर्ति, मूर्ति नहीं रह गई है. कुण्डलपुर से संबंधित एक अतिशय की चर्चा हैं कि महावीर हो चुकी है। यही उसका वैज्ञानिक परिवेश है।
जब मूर्ति विध्वंश का बीड़ा उठाये औरंगजेब की सेना
भारत के अनेक पवित्र मन्दिरों में विराजमान मूर्तियो का जो मूति जितनी प्राचीन होगी, उसमें उतनी ही दीर्घ- विनाश करती हुई, कुण्डलपुर स्थित महावीर की मूर्ति कालिक विशुद्ध मात्मामों का प्रक्षेपण होता रहा होगा। को तोड़ने के लिए अग्रसर हुई, तो वहाँ वृक्षों पर बैठी
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७२,२७,०३
अनेकान्त
मधुमक्खियों ने समस्त सेना को बाहत कर दिया और सेना को वापिस भागना पड़ा। क्या कारण है ? इसका उत्तर केवल यही है कि महावीर की मूर्ति के प्रासपास का सारा वातावरण, समग्र जड़-चेतन जगन्मूर्ति में विरा जमान महावीर की विशुद्ध धात्मा से प्रभावित था । मनुष्य की अपेक्षाकृत अन्य योनियों का जीवन सरलता के बोध के कारण शीघ्र प्रभावित होता है। मनुष्य पंचेन्द्रिय जीव है। धन्य योनियों का जीवन, जैन सिद्धान्त के धनुसार, भिन्न-भिन्न प्रकार की इन्द्रियों का समुच्चय स्वरूप है । प्रतएव मनुष्य को ज्ञानेन्द्रिय इच्छा जगत् के वशीभूत हो गई है। आदमी की निर्ममता अन्य प्राणियों की अपेक्षा प्राच्छन है और इसी कारण मनुष्य को प्रभावना अंग के लिए इस प्रकाश की अनवरत अपेक्षा है, जबकि अन्य जीवन सरलता से तत्काल प्रभावित हो जाता है। धौरंग जेब की सेना को मनुष्य पीछे नहीं हटा का, मधुमविलय सम्मिलित रूप से इसके प्रतिकार में समर्थ हुई।
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एक और चर्चा है कि महावीर की मूर्ति को तोड़ने के लिए जैसे ही मूर्तिभंजक मुगल सैनिक ने महावीर के अंगूठे पर नी से चोट की, दूध की धारा मूर्ति के अंगूठे से प्रवाहित हो गई सैनिक प्रवाह रह गया। मूर्ति तोड़ना बन्द हो गया। दुग्ध-धारा के निकलने का अर्थ है शरीर की पवित्रतम वस्तु-जो हिंसा के लिए नहीं, निर्माण के लिए कार्य करती है, प्रकट हो गई थी। दुग्ध जीवनदायिनी शक्ति है, वह सृष्टि का पोषण करता है, उसे सरसता एवं पवित्रता प्रदान करता है। विध्वंसकारियों को विध्वंस का उत्तर मिलता है कि विध्वंस की अपेक्षा जीवन का अभयदान मात्र ही गौरव की बात है। महावीर जिनका जीवन श्रहिंसा का साकार रूप था, हिंसा के उत्तर में इस अहिंसात्मक उत्तर के सिवाय और क्या दे सकते थे। मूर्ति तोड़ना देखने में मात्र पत्थर तोड़ना है, उसमें कोई जीव हिंसा नहीं, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में
सेठ भोजराज का बाड़ा. सिविल वार्ड नं० १. दमोह ( म०प्र०).
तोड़ने वाले की जघन्य वैचारिक हिंसा का स्पष्ट प्रतिविम्ब है, जिसकी अपनी हिंसा की भावना इतनी तीव्रतर हो चुकी थी कि उसकी तुष्टि मानव सहार से भी निम्नतर स्थिति में पहुंच कर मूर्तियो के तोड़ने तक पहुंच गई थी । तब इस असाधारण हिंसा की लोलुपता को दबाने के लिए साधारण अहिंसा का पाठ पढ़ाना कठिन कार्य था, दूध की धारा प्रवाहित करना उतना ही शक्तिपूर्ण समाधान
था ।
यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि बुन्देलकेशरी महाराजा छत्रसाल देश के गौरव श्रौर संस्कृति को मुसलमानों द्वारा विध्वंस से बचाने के लिए जीवन भर सचेष्ट रहे। उनकी वृद्धावस्था का लाभ उठा कर मुगल उन्हें दबाने लगे थे। महाराजा छत्रसाल भूमि, संस्कृति और जनजीवन की रक्षा के लिए पुनः समर्थजान हो सकने की भावना को लेकर महावीर के चरणों में बंट गये। उन्हें पुनः वह धारमशक्ति प्राप्त हुई कि वे विजातीय मुगल शासन को पराजित करने में समर्थ हो सके । विजातीय किसी भि अर्थ में नहीं, केवल उस अर्थ में है जिसमें प्रांताओं का मस्तिष्क हिंसा की जघन्य वासना से भर जाता है ।
मैं कभी किसी मभीप्सा से कुण्डलपुर नही गया, किन्तु जब भी गया हूँ और एकान्त मे महावीर की मूर्ति के दर्शन किये है- एक अद्भुत मन शान्ति की उपलब्धि हुई है। मूर्ति से विकणित किरणें एकांत में व्यक्ति को चारों श्रोर से प्रभावित करने लगती हैं, जब किमस्य दर्शनार्थियों के समक्ष प्रजाती है, विकेन्द्रित हो जाती है और प्रस्थापति प्रक्षेपण सके न्द्रित नहीं हो पाता। प्रभाव तो पड़ता है किन्तु जो सर होकर मूर्ति के समक्ष पहुंचता है, वह तत्काल पूर्णतया हृदय से कलुषता एवं यहं का परित्याग करके निर्विकार रूपान्तरित हो जाता है; अन्य को अनवरत दर्शन की अपेक्षा रह जाती है ।
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महान् मौर्यवंशी नरेश : सम्प्रति
0 श्री शिवकुमार नामदेव, डिण्डोरी (मणला)
सम्प्रति का जैन साहित्य में वही स्थान है जो बौद्ध जा रहे थे। जब रथ-यात्रा राजप्रासाद के सम्मुख पाई, साहित्य में प्रशोक का। मौर्य वंश के इतिहास में सम्प्रति तब राजा सम्प्रति की दृष्टि प्राचार्य सुहस्ती पर पड़ी का महत्त्व भी चन्द्रगुप्त और अशोक के समान है । मौर्य उन्हे ऐसा प्रतीत हुया कि प्राचार्य सुहस्ती से वे भली भाति नरेश दशरथ की मृत्यु के पश्चात् सम्प्रति लगभग २२३ प.चित है. परन्तु यह परिचय कब और कहाँ हुआ, ई० पूर्व में मगध के सिंहासन पर प्रारूढ़ हुआ। पाटलि- इसमा उन्हें स्मरण नहीं पाया। सोचते-सोचते राजा पुत्र गर कल्प' में लिखा है कि "पाटलिपुत्र मे कुणाल के सम्प्रति मूच्छित हो गया। जब उसकी मूर्छा भंग हुई तो पुत्र, भारत के महाराज सम्प्रति का राज्य था। इसने उसे स्मरण पाया कि प्राचार्य सहस्ती से उसकी भेट श्रमणों के लिए अनार्य राष्ट्रों में भी मठ बनवाये ।" डा. पिछले जन्म में हुई थी। प्राचार्य सुहस्ती भी राजा को वी० ए० स्मिथ का कथन है कि सम्प्रति का राज्य प्रवन्ती देख कर पहचान गये और उन्होंने यह बताया कि पिछले से लेकर पश्चिमी भारत तक फैला हुआ था। जैन साहित्य जन्म में सम्प्रति कौशांबी में भीख मांग कर अपना जीवनसे ज्ञात होता है कि सम्प्रति का राज्य केवल पाटिलपुत्र निर्वाह करता था। सहस्ती की प्रेरणा से उसने जैनधर्म तक ही सीमित न होकर उज्जैन तक विस्तृत था।
को स्वीकार कर लिया था, और मृत्यु के पश्चात् अब उस पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर प्रारूढ़ होने के पूर्वी
__ रंक ने कुणाल के घर जन्म लिया है। कौशांबी का वह सम्प्रति उज्जयिनी का कुमागमात्य भी रह चुका था। रंक ही पब सम्प्रति के रूप में उज्जयिनी के राजमिहासन उज्जयिनी के कुमारामात्य के रूप मे उसने वहाँ जैन पर प्रारूढ है। सहस्ती के बतलाने से सम्प्रति को अपने सम्प्रदाय को पूर्णत: संगठित कर लिया था। संभवतः पर्व जन्म की सब बातें याद मा गई, और उसने इस बात सम्प्रति ने जैन धर्म के उत्कर्ष में राज्यशक्ति यह सोच कर को स्वीकार किया कि इस जन्म में उसे जो भी सुखलगाई हो कि कालांतर में वह इन्हीं अनुयायियो के माध्यम
समृद्धि एव राज-सुख प्राप्त है, वे सब प्राचार्य सुहस्ती से साम्राज्य को सरलता पूर्वक प्राप्त कर सके।
की कृपा एवं जैन धर्म की महिमा के कारण हैं। उसने __ सम्प्रति का जैन साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है।
हाथ जोड़ कर सुहस्ती से प्रार्थना की कि पिछले जन्म के जैन साहित्य के अनुसार, वह जैन धर्म का अनुयायी था।
समान इस जन्म में भी पाप मेरे गुरु बनना स्वीकार करें, उसने इस धर्म के प्रचार में महान उद्योग किया। जैन
मोर मुझे अपना धर्म-पुत्र समझ कर कर्तव्य की शिक्षा ग्रंथों में भी यह प्रतिपादित किया गया गया है कि राजा सम्प्रति 'त्रिखण्ड भरताधिप' था।
दें। इस पर सुहस्ती ने सम्प्रति को जैन धर्म की दीक्षा दी, सम्प्रति के जनधर्म-ग्रहण करने की बात जैनग्रंथ
पौर अणुव्रत, गुणवत प्रादि उन व्रतों का उपदेश दिया
जिनका पालन उसे धावक के रूप में करना चाहिए।' 'परिशिष्ट पर्द' और 'बृहत्कल्पसूत्र' में वर्णित है। परिशिष्ट पर्व (११२३-६४) के अनुसार : "एक समय उज्जयिनी
जैन धर्म ग्रहण करने के पश्चात् सम्प्रति ने धर्म के नगरी में जीवंत स्वामी की प्रतिमा की रथ-यात्रा निकल प्रचारार्थ जो महान् प्रयास किया, उनका भी वर्णन हमें रही थी, और प्राचार्य सुहस्ती उसके साथ रथयात्रा में परिशिष्ट पर्व से प्राप्त होता है। उक्त ग्रंथ के अनुसार १. मध्य भारत का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ० २३७। २. सत्यकेतु विद्यालंकार : मौर्य साम्राज्य का इतिहास,
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७४ वर्ष २७ कि..
अनेकान्त
"एक बार रात्रि के समय सम्प्रति के मन में यह विचार जैन धर्म के व्यापक उत्कर्ष और प्रचारार्थ सम्प्रति ने माया कि प्रनार्य देशों में भी इस धर्म को प्रचारित किया लगभग वही उपाय किये जो बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ उसके जाये, ताकि वहाँ भी जैन साधु स्वच्छंद रूप से विचरण पूर्वज सम्राट अशोक ने किये ये । यद्यपि यह सत्य है कि कर सकें। प्रत. उसने अनार्य देशों को, जो उसके अधी. अशोक एवं सम्प्रति की तुलना धर्म प्रचार के कार्य में नस्थ थे, यह मादेश दिया कि मेरे द्वारा भेजे हुए पुरुष नहीं हो सकती, परन्तु सम्प्रति की राजनीतिक एवं अन्य जैसे जैसे मार्ग प्रदर्शित करें, तदनुरूप प्राचरण किया परिस्थितियों को दृष्टि में रखने हए उसके द्वारा किये गये जाय। तत्पश्चात् उसने जैन साधुनो को जैन धर्म के प्रचार के लिए प्रार्य देगो ने भेजा। साधुनों ने राज
परिशिष्ट पर्व' से ज्ञात होता है कि सम्प्रति ने जैन कीय प्रभाव से शीघ्र ही अनार्य देश के निवासियों को
धर्म के प्रचार के लिए उज्जयिनी के चतुकि मुख्य तोरणों जैन मतानुयायी बना लिया। इस कार्य के लिए सम्प्रति
पर अपनी ओर से महासत्रों की स्थापना कराई, जहाँ ने भनेको लोकोपकारी काम किये। निधनों को मुफ्त
बिना भेदभाव कोई भी भोजन प्राप्त कर सकता था। भोजन-वितरण हेतु अनेक दान शालायें खुलवाई। अनेक
नक सम्प्रति ने नगर के व्यापारियों को यह प्रादेश दिया था जैन ग्रंथों में यह भी वणित है कि सम्प्रति ने जैन धर्म के माध लोग तेल. अन्न, वस्त्रादि जो भी ग्रहण करना प्रचार के लिए अपनी सेना के योद्धानों को साघु का वेश
चाहें, उन्हें मुफ्त प्रदान किया जाये और उनका मूल्य बना कर धर्म प्रचार के लिए भेजा था।
राज्यकोष से प्राप्त कर लिया जाये। 'परिशिष्ट पर्व' से ज्ञात होता है कि जिन अनार्य
सम्प्रति के द्वारा जैन धर्म के प्रचार के लिए देशों में सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया था, वे प्रान्ध्र का किये गये, उनका वर्णन हमें बृहत्कल्पसूत्र एवं पौर मिल (द्रविड़) थे। जैन धर्म का दक्षिण भारत उसकी टीका में भी मिलता है। उक्त ग्रंथो के अनुसार, में जो प्रचार हुमा, उसका श्रेय सम्प्रति को ही है। जैन उसके द्वारा किये गये कायं इस प्रकार थे :-(१) नगर धर्म का प्रचार का केन्द्र पश्चिमी भारत था। सम्प्रति ने के चारों तोरणों पर दान की व्यवस्था; (२) वणिजों मध्यदेश गुजरात, दक्षिणपथ तथा मैमूर मे जैन धर्म का विवणिजो' द्वारा साधुनों को बिना मूल्य वस्त्रादि प्रचार किया। सम्प्रति ने जैन साधुनों के लिए पच्चीस में देने की व्यवस्था; (३) सीमांत शासकों को राज्यो को सुगम बना दिया था।
प्रामन्त्रित कर उन्हे विस्तारपूर्वक 'धर्म' का अर्थ बताना ३. सम्प्रतिश्चिन्तयामास् निशीथ म मयेऽन्यदा ।
समणभद्रभाविण्मु ते सूरज्जेसु राषणादिसु । अनार्येष्वपि साधना बिहार वर्तयाम्यहम् ॥८६॥
साहू सुतं विहरिया तेगं चिय भद्दजाने प्रो॥ इत्यनार्यानादिदेश राजा दद्ध्व करं मम ।
___- श्री बृहत्कल्पसूत्र । तथा तथाग्मत्पुरुषा मार्गयन्ति यथा यथा ॥१०॥ ४. परिशिष्ट पर्व : ११ ततः प्रर्ष दन येषु सानुवेशधरान्नसन् ।
५. श्रमणो सिको गजा कान्दविकानथादिशत् । ते सम्प्रत्याज्ञयानार्यानवमन्वशिष-भूशम् ॥११॥
तलाज्यदधिविक्रेतृत्वनविक्रायकानपि । भविता सम्प्रतिस्वामी कोपयिष्यत्यन्यथा पुनः ॥६॥
रकिञ्चिदुपकुरुते साधनां देयमेव तत् । तत. सम्प्रतिगजस्य परितोषार्थ मुद्यताः ।
तन्मूल्यं व प्रदास्यामि मा स्म सूध्वमन्यथा ।। ते तु तत्पुरुषादिष्टमन्वतिष्ठन् दिने दिने ॥१४॥
-'परिशिष्ट पर्व' : ११.११०-१११। महासत्रण्य कार्यन्त प्रदरिषु चतुर्वपि ॥१०३।।
६. जो दुकान पर बैठ कर माल बेचते थे, उन्हें 'वणिज' अयं निजः परो वायमित्यपेक्षा विजितम् ।
कहा गया है। तत्रानिवारिते प्रापभोजनं भोजनेच्छवः ॥१०४॥ ७. जो दुकान न होने पर किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर
-परिशिष्ट पर्व, एकादश सर्ग। माल बेचते थे, वे विवणिज' कहलाते थे।
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महान मौर्यवंशी नरेश : सम्प्रति तथा स्वदेश लौटने पर श्रमणों के प्रति भक्तिभाव रखने विशेषण प्रयुक्त किया गया है। इस विशेषण से यह प्राशय की सलाह । सीमात शासकों ने स्वदेश लौटने पर वहाँ निकलता है कि सम्प्रति ने श्रमणों के लिए अनेको विहारों उक्त धर्म की घोषणा की तथा चैत्यो का निर्माण कराया। का निर्माण कराया था। उसके द्वारा सवा करोड़ जिना
अरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि सम्प्रति ने अपने लयों के निर्माण का वर्णन कल्पसूत्र की सबोधिका" में सीमांत प्रदेशों में भी अपने प्रभाव के फलस्वरूप जैन धर्म है। जहां तक सम्प्रति द्वारा सवा करोड़ जैन मन्दिरो के का प्रचार किया। जैन प्रथों के वर्णन के प्राधार पर यह बनवाये जाने का प्रश्न है, निश्चित ही यह कथन पतिज्ञात होता है कि वे प्रत्यंत राज्य जहाँ विवेच्य काल मे शयोक्तिपूर्ण है। सामान्यरूप से, हम यह निष्कर्ष निकाल इस धर्म का प्रचार हुप्रा था, प्रांध्र, द्रविड, महाराष्ट्र एव सकते हैं कि मम्प्रति ने बहुत से जैन मन्दिरो का निर्माण कुडक्क थे। मांध्र व महाराष्ट्र राज्य अशोक के विजित' कराया था। डा. स्मिथ का कथन है कि जिन किन्हीं (साम्राज्य) के अन्तर्गत थे, पर सम्प्रति के समय मे वे भी प्राचीन जैन मन्दिरों एवं अन्य कृतियों की उत्पत्ति प्रत्यंत राज्य हो गये थे।
एवं निर्माण प्रज्ञात हो उन्हे लोग सम्प्रति द्वारा निर्मित जैन धर्म के अनुसार, जिस ढग से साधुमों को वस्त्र मान लेते हैं"। प्रसिद्ध इतिहासकार टाड का मत है कि एवं अन्न मादि व्यापारियों द्वारा राज्य की ओर से प्राप्त राजस्थान और सौराष्ट्र में जितने भी प्राचीन जैन मन्दिर कराये जा रहे थे, वह अनुचित था। परन्तु राजशक्ति के है, उन सबके विषय में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि प्रयोग के कारण किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। उनका निर्माण राजा सम्प्रति द्वारा कराया गया था। किन्तु सम्प्रति के धर्मगुरु सुहस्ती के निकट सपर्की प्राचार्य सम्प्रति का एक उपनाम 'चन्द्रगुप्त' भी था। जैन महागिरि ने इसका विरोध किया, तदपि सुहस्ती ने सम्प्रति ग्रंथो के पनुसार, सम्प्रति (चन्द्रगुप्त द्वितीय') के शासन के कारण इन सुविधानों का समर्थन किया। परिणाम- काल में एक बड़ा प्रकाल पड़ा। यह बारह वर्ष तक रहा। स्वरूप, महागिरि ने सुहस्ती से सम्बन्ध-विच्छेद कर सम्प्रति ने मुनिव्रत ले लिया और दक्षिण में जाकर पन्त लिया।
में उपवास द्वारा इहलोक से मुक्ति प्राप्त कर ली। सम्राट अशोक की भाँति सम्प्रति ने भी जैन धर्म के
वस्तुतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैन धर्म के प्रसार के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। उसने अपने
भारत में दूर दूर तक फैलाने का श्रेय संप्रति को ही है। राज्य एवं प्रत्यंत देशों में बहुत से चैत्यों, देवालयों एवं
उसी के काल में जैन धर्म के लिए वह प्रयत्न हुपा, जो मठों का निर्माण कराया। सम्प्रति द्वारा जैन मन्दिर एवं
उससे पहले अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए किया था। विहार मादि बनवाये जाने का वर्णन 'परिशिष्ट पर्व' एवं 'पाटलिपुत्र नगर कल्प' मे किया गया है। परिशिष्ट पर्व'
व्याख्याता-प्राचीन भारतीय इतिहास के अनुसार, सम्प्रति ने 'त्रिखण्ड भरत-क्षेत्र' (भारत)
शास. महाविद्यायय डिन्डोरी (मंडला) को मैन मन्दिरों से मंडित कर दिया था। पाटलिपुत्र नगर कल्प में सम्प्रति के लिए 'प्रवर्तित श्रमणविहारः'
(म०प्र०) ८. 'सुहस्तिनमितश्चार्य महागिरिरभाषत ।
९. "प्रावताढ्यं प्रतापदयः स चकाराविकारधीः ।
त्रिखण्डं भरतक्षेत्र जिनायतनमण्डितम् ॥ वही, ११३६५ प्रनेषणीयं राजानं किमादत्से विदन्नपि ॥११॥
१०. "सम्प्रति · पितामहदत्तराज्यो रथयात्राप्रवृत्त श्रीपार्यसुहम्स्युवाच भगवन्यथा राजा तथा प्रजाः ।
सुहस्तिदर्शनाज्जात-जाति स्मृतिः... जिनालय राजानुवर्तनपराः पौरा विश्राणयन्त्यतः ॥११॥
रूपादकोटि ‘मकरोत् । भायेयमिति कुचितो जगदार्यमहागिरिः।
-कल्पसूत्र सुबोधिनी टीका, सूत्र ६ । शान्तं पाएं विसम्भोग खल्वनः परमावयोः ॥११६॥ ११. रिमय : अर्ती हिस्ट्री माफ इंडिया, पृ. २०२ ।
-परिशिष्ट पर्व, एकादश सर्ग। १२ टार: राजस्थान, प्रथम नाग, पृ०७२१-१३।
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नरवर की श्रेष्ठ कलाकृति "सहस्रकूट जिनबिम्ब"
Oप्रिसिपल कुन्दन लाल जैन, दिल्ली
Marwx.mnew-ine
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नरवर (नलपुर), जो कभी ऊदल (माल्हा-ऊदल) इस वर्ष दशहरे की छुट्रियों में झांसी जाने का सुयोग मिला। की ससुराल थी.जैन संस्कृति एवं कला का मर्वश्रेष्ठ भगवान महावीर के २५सौवें निर्वाणोत्सव पर कूछ सामग्री केन्द्र रहा है। यहां की जा मूर्तियां, पापागद एव अन्य एकत्रित करने शिवपुरी, कोनारस (कविलासनगर) भी पुरातत्त्व और इतिहास की सामग्री शिवपुरी के संग्रहालय गया, तो झांसी में सहस्रकूट जिनबिम्ब का भी निरीक्षण में सुरक्षित है। नरवर के मंत्र में मैंने 'कादम्बिनी और किया, जिसका चित्र नीचे दिया गया है। इसके ऊपरी 'महावीर स्मारिका', जयपुर नामक पत्रिकामों में विस्तार भाग में जहां चतुर्मुख प्रादिनाथ की प्रतिमा है, वहा शाके से लिखा था, जिसमें नरवर स्थित जैन संकृति, इतिहास, सं० १५०६ उत्कीर्ग है, पर चौकोर पाटियों पर सं.१५१५ पुरातत्त्व एवं साहित्य से संबंधित जो कुछ सामग्रो मुझे उत्कीर्ण है, प्रत. समय में बड़ा अन्तर मालूम पड़ता है। उपलब्ध हो सकी थी, उम सब का उल्ने । किा था। लगता है कि शिल्पी शाके और विक्रमी सं० का अन्तर
गत दो तीन वर्ष पूर्व भाती जाने का मयोग प्राप्त नहीं करपाये और ऐसी भूल कर गये है। हुपा तो वहां के बड़े मन्दिर स्थित सहस्रकूट जिनबिम्ब के दर्शनों का सुपवसर मिला । दर्शन कर मन अत्यधिक प्रफुल्लित हुग्रा । यह कृति अत्यधिक कलापूर्ण और रमणीक है, मन को भा गई तो मैंने अपने संबधी श्री लखमीचन्द्र से जो साथ में थे, इस कलाकृति के संबंध मे ऊहापोह किया। उन्होंने जो कुछ सुनाया उससे इस कृति के प्रति मेरी उत्सुकता और अधिक बढ़ गई और मै इस कलाकृति के प्रति और अधिक रुचिवान हो उठा। उन्होने बताया कि इस का वजन लगभग एक क्विन्टल होगा और यह अष्ट-धातु की बनी हुई है। इसे नरवर के मन्दिर से लगभग सौ वर्ष पूर्व सोने के धोखे मे चुरा लिया गया था और यह झासी में बर्तन बेचने वाले तमेरे को बेची गई थी। जब झासी के जैनियो को इस कलाकृति का पता लगा तो उन्होने उक्त तमेरे को उचित मुआवजा देकर खरीद ली और बड़े 30 मन्दिर जी में प्रतिष्ठत करवा दी।
चूंकि मैंने नरवर पर पर्याप्त सामग्री एकत्रित की थी और यह अनठी कलाकृति नरवर की है यह जानकर मेरी जिज्ञासा और अधिक प्रबल हो उठी और मेरा माकर्षण इसके सूक्ष्म निरीक्षण मोर अध्ययन की भोर बढ़ गया। परन्तु उस समय परिस्थितिवश इसका विश्लेषण म हो सका। इसकी चर्चा श्री हरिहर निवास द्विवेदी, लकर तथा गौरीशंकर द्विवेदी झांसी से भी की थी। सौभाग्य से
मांसी स्थित महनकट जिविस
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मरबर की मेष्ठ कलाकृति “सहस्रकूट जिनविम्ब"
यह कलाकृति पीतल, तांबा मादि कुछ धातुओं के उपर से नीचे ५, ७, ८, १०, १०, १२, १३, १५ मोर सम्मिश्रण को ढाली हुई काफी बजनदार मूर्ति है जो लग- १७ है तथा अगल-बगल के दोनों पाटों की प्रत्येक पंक्ति भग ४ या ४ फुट ऊची है। यह नो भागों में विभाजित है की प्रतिमानों का क्रम ऊपर से नीचे ५, ७, ८, ९, ११, बिन्हें जोड़कर एक शिखरबंद संपूर्ण जिनालय का स्वरूप १२, १३, १४ पौर १७ है । इस तरह ९७४२+२ दिया गया है । ये नौ भाग हिलडुल कर कहीं बिखर X२३६८ कुल प्रतिमाएं हुई। अब सबसे प्रत में प्राता न जायें इसलिए इन्हें तारों से कस कर बाँधा गया है। है नौवां भाग जिसमे चार प्रादिनाथ प्रभु की पद्मासन प्रतिसर्व प्रथम, इसमें चार इंच ऊंची चौकोर पीठिका है जिस माएं उसी प्रकार की है जिस मावार की प्रथम पारियों पर पाट खड़े किये गये है इनमें से प्रत्येक पाट दो ढाई के मध्य में स्थित है। ये चागेसपर जुड़ी हुई है और इन फुट का वर्गाकार है। ये चारों पाट परस्पर बड़ी चतुराई का मुख चारों दिशामो की भोर है। इसमें हाथी, मोर और सावधानी से कलात्मक ढग से जोड़े गए है। इन्हें तथा अन्य कलात्मक सामग्री द्वारा पूरी-पूरी सजावट की जोड़कर एक सुन्दर चौकोर कमरा-सा बन जाता है। गई है। सबसे ऊपर पतली-सी पीतल की चादर का सुंदर इनके प्रत्येक पाट पर १५३-१५३ पद्मासन प्रतिमाएं है। कलात्मक कलश भी है ।इस तरह ६१२+३८६+४= मध्य में एक बड़ी प्रतिमा है जो लगभग ८" इंच ऊची है कुल १००२ प्रतिमानों का सह स्रकूट चैत्यालय झांसी के और इस बड़ी प्रतिमा को केन्द्र मानकर इसके चारों भोर बड़े मन्दिर में विराजमान है। छोटी-छोटी १५२ प्रतिमाएं हैं जो लगभग १ या १॥ इंच
प्रथम चारों पाटों के ऊपर की कटनी पर बड़ा ऊंची हैं । विस्तृत विवरण निम्न प्रकार है।
विस्तृत लेख उत्कीर्ण है जिसमें सं० १५१५ फागुन वदी १ मध्य में स्थित बड़ी प्रतिमा के ऊपर और नीचे चार- सोमवार भूलसधे सरस्वतीगच्छे बलात्कार गणे. ..." चार पंक्तियां है जिनमें प्रत्येक पंक्ति में १४,-१४ छोटी प्रति- इत्यादि पढ़ा जा सका । पयूषण पर्व के प्रारम्भ में जब माएं हैं तथा अगल-बगल में ४.४ पक्तियां हैं जिनमें ५ विशालन्हवन होता है तब इसे खोला जाता है, तभी १ छोटी प्रतिमाएं हैं। इस तरह ५६+५६+१. इसको स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता है। सबसे अतिम +२०+१=१५३ कुल प्रतिमाएं एक पाट पर है चारों भाग मे, जहां चारों प्रतिमाएं जुड़ी है, वहां जो कुछ पाटों पर १५३४४६१२ प्रतिमाएं हुई ।इन चारों पाटों उत्कीर्ण है वह इस प्रकार है : "शाके १५०६ माघ सुदी के ऊपर फिर चार पाट इस कलात्मक ढ़ग से लगाये गये १५ बुधवार श्री मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे हैं कि वे एक शिखर का रूप धारण कर लेते हैं, इनमें कुदकुंदाचायम्निाए भट्टारक श्री धर्मभूषणोपदेशात् सि. से प्रत्येक पाट में ६, ९ पंक्तियां है इनमे से मागे पीछे के पाक सा० भार्या सिं० रूपाई सुत रामा प्रणमति । सि. दोनों पाटों की प्रत्येक पंक्ति की प्रतिमानों का क्रम रामा जी केन कारापितम"
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७८, बर्ष २७, कि०३
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नरवर के जिन मन्दिर का कलापूर्ण ऊपरी भाग
उपर्युक्त शक सं० पौर वि० संवत के अंकन में कुछ सम्प्रदाय, पृ० ५०)। इस कलाकृति का निर्माण विशुद्धभूल हो गई जैसी प्रतीत होती है । लगता है कि शिल्पी को तया तकनीकी आधार पर हुआ होगा और संभव है कि शक और विक्रमी का अन्तर ज्ञात न रहा हो, या हम ही ऐसे सहस्रकूट जिनबिंब और भी अधिक संख्या में निर्मित कहीं भूल रहे हों। प्रस्तु भ० धर्म भूषण बलात्कारगण हुए होंगे जो अन्वेषणीय हैं । इस कृति के दूसरे नम्बर के की कारंजा शाखा से संबंधित प्रतीत होते है, वैसे इस नाम पाटियों में जहां प्रतिमानों की संख्या ६६ और ६७ है, के अनेकों भट्टारक हुए हैं । शक सं० १५०३ में फागुन वहां १८, ६८ होती हो तो १००८ की संख्या बिलकुल सुदी ७ को भ. धर्मभूषण के उपदेश से चन्द्रप्रभु की ठीक हो जाती । लगता है। इस तकनीक में भी शिल्पी कहीं मूर्ति प्रतिष्ठित हुई थी जो नागपुर में है (देखिये भट्टारक भूल कर गये हैं. इस कृति का चित्र प्रारम्भ में देख चुके हैं।
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नरवर की श्रेष्ठ कलाकृति "सहनकूट जिन बिम्ब" इसके अतिरिक्त, एक सहस्रकूट की रचना दिल्ली के १८१८ छोटी प्रतिमाएं तथा एक बड़ी प्रतिमा है सो दि. जैन नया मन्दिर, धर्मपुरा में विद्यमान है, जो ३ मार्च, . कुल ५५ हुई फिर माठ पंक्तियां २१, २१ प्रतिमानों वाली सन् १९६० मे धर्मपुरा के महिला-वर्ग ने अपने धन है जो १६८ हुई। वारहवीं पंक्ति में १७, तेरहवीं में ११ संग्रह से निर्मित कराया था। इसमें ला.हर सुखराय जी और चौदहवीं में केवल एक, इस तरह ५५+१६८+१७ का भी उल्लेख है जो इस मन्दिर के मूल सस्थापक थे। +११+२५२ कूल प्रतिमा एक तरफ हैं चारों तरफ यह रचना सफेद संगमर्मर की चोकोर बेदी के रूप में २५२४४%१.०८ सख्या बिलकुल सही है। इस का है इसमें सभी प्रतिमाएं खड्गासन है । इसमें प्रत्येक दिशा नक्शा निम्न प्रकार अवलोकनीय है :में १४-१४ पंक्तियां है । नीचे से प्रथम तीन पंक्तियों में
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श्री दि० जैन नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली स्थित सहस्रकट को डिजाइन
उपर्युक्त धर्मपुरा का सहस्रकूट अत्यधिक माधुनिक लिखा था। उसमें सहस्रकूट चैत्यालयकी चर्चा की गई है, पर है। प्रतः ऐतिहासिक दृष्टि से आज उसका भले ही विशेष वहां के सहस्रकूट मे १००८ प्रतिमानों का उत्कीर्णन कैसामहत्व न हो, पर मागे चलकर सहस्रकूट रचना की कैसा हुआ है इस संबंध में कोई चर्चा नहीं की। पाशा है शृखला में यह अति महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध होगा। कि भविष्य में नीरज जी इस दिशा में कुछ प्रयत्न करेंगे।
देवमढ़ (ललितपुर के पास) में भी पत्थर का एक इसकी रचना सं० १२३७ के पहले हुई थी, क्योंकि प्रहार विशाल प्राचीन सहस्रकट चैत्यालय है जो नं.५ का मन्दिर क्षत्र स्थित भ. शान्तिनाथ के मूति-लेख में बाणपुर के कहलाता है इसका निर्माण काल सं० ११२० हैं। इसके सहस्रकूट चैत्यालय का उल्लेख है जो निम्न प्रकार है। अतिरिक्त श्री नीरज जैन, सतना ने अनेकांत के १६वें वर्ष यह मूर्ति-लेख स० १२३७ का है प्रतः बाणपुर का सहस्रके ५१ पृष्ठ पर 'वानपुरका चतुर्मुख जिनालय' शीर्षक लेख कुट चैत्यालय नि.सन्देह १२३७ से पूर्व की रचमा है।
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भनेकान्त
गृहपतिवंशसरोक्हसहबारश्मिः सहनकूटयः। पाणपुरे व्यषितासीत भोमानिह देवपालकृति ।।"
इस सहन्नकूट चैत्यालय को गृहपति वंश के श्री देवपाल ने बनवाया था। इनके ही वंशजों में से श्री गल्हण ने महार क्षेत्र में शांतिनाथ मन्दिर का तथा जगहण और उदयपद ने भ० शांतिनाथ की रमणीक मूर्ति का निर्माण कराया था (देखिये अनेकांत छोटेलाल स्मृति प्रक पृ.६३) चूंकि नीरज जी ने अपने लेख में उल्लेख किया है कि वाणपुर में सं० १.०२ का शिलालेख मिलता है अतः सभव है कि वाणपुर का सहनकट चैत्यालय सं १००२ के पास-पास ही देवपाल ने निर्मित कराया हो।
अभी हाल ही, भारतीय ज्ञानपीठ ने जैन कला और स्थापत्य के चित्रों की प्रदर्शनी मुनि विद्यानन्द हाल दरयागंज, दिल्ली में लगाई थी। उसमें कभरिया, (महसाना) के सहस्रकूट चैत्यालय का चित्र देखने को मिला। इसमें पद्मासन श्वेताम्बर प्रतिमानों का समूह है । इसमें १७ पंक्तियां हैं। नीचे से प्रथम दो पंक्तियोंमें १५, १५ प्रतिमाएँ हैं । फिर माठ पंक्तियों में ८,
प्रतिमाएं हैं। बीच में एक बड़ी प्रतिमा है, फिर दो पंक्तियों में १५, १५ प्रतिमाएं है इसके बाद १३ वीं पंक्ति, में १३, चौदहवीं में ११, पन्द्रहवीं में ,सोलहवीं में पौर सत्ररहवीं में ३ प्रतिमाएं हैं, जिनका कुल योग १६७ होता है। चारों दिशामों की १६७४४-६६८ प्रतिमाएं होती हैं। इस मूर्ति, संख्या पर 'श्रमण' अक्टूबर १९७४ में श्री अगरचन्द जी नाहटा का लेख पठनीय है कुंभरिया का नकशा नीचे प्रस्तुत है शिल्प सादृश्य एवं नकशे की डिजाइन से इसका मेल कुछ कुछ नरवर वाले सहस्रकट से मिलता जुलता सा है।
अभी लगभग दो माह पूर्व श्री भगरचन्द नाहटा दिल्ली पधारे थे । 'सहस्रकूट' शिल्प के संबंध में उनसे चर्चा हुई थी। श्रमण' में भी उन्होंने लिखा है कि श्वेताम्बर माम्नाय में सहस्रकूट संबंधी कुछ साहित्य मिलता है, पर दिगम्बर माम्नाय में इस संबंध में कोई चित्र या साहित्य या कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता है। उन्होंने कई विद्वानों से परामर्श भी किया था, पर कोई संतोषजनक उत्तर न मिल सका। इतना तो निविवाद है कि दिगम्बर सहस्रकूटों में मूर्ति-संख्या १००८ सुनिश्चित ही है। इस १००८ संख्या का प्रतीक भले ही भगवान के १००८ शुभ लक्षण हों, सहस्रनाम हों या कोई और ही कारण हो, विद्वज्जन इस दिशा में शोध करें। पर सहस्रकूट जिनालय में प्रतिमाओं की संख्या सभी जगह १००८ ही पाई जाती है। पूजामों में भी ऐसा ही उल्लेख है।
श्वेताम्बरीय सहस्रकूट में १०२४ प्रतिमामों का उल्लेख मिलता है। पर कहीं-कहीं इस संख्या में भी फेर-बदल मिलता है। इस पर श्री नाहटाजी ने अपने लेख में विस्तार से विवेचेन किया है। प्रस्तुत लेख में उन्हीं के समाधान हेतु एवं दिगम्बर सहस्रकूटों की चर्चा हेतु लिखा गया है। त्रुटियों के लिए विद्वत् जन समा करें। झांसी स्थित सहस्रकूट पर एक पूजा भी प्राप्त हुई है जो भब से मगभग ४०-५० वर्ष पूर्व स्व. श्री बसन्तलाल जी हकीम ने रची थी जो प्राये प्रस्तुत है। श्री नाहटा जी के मत से सहन्नकूट में १०२४ भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियां होती हैं, पर मेरे विचार से एक ही तीर्थकर की १००० प्रतिमाए होती हैं विद्वज्जन शोध करें।
कुंभारिया (महसाना) स्थित सहनकट की रिवाहन
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श्री सहलकूट जिन चैत्यालय पूजन
DR. भोसतनाल बीहकीम
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सहस्रकूट जिन चैत्य परम सुन्दर सुखकारी, पावन पुण्य निधान दरस जग अपहारी। रोग शोक दुख हरै विपति दारिद्र नसावे,
जो जन प्रीति लगाय नियम से नित गुण गावें। ह्रीं श्री सहस्रकट जिन चैत्यालयानि प्रत्र अवतर अवतर संवौषठ। ॐ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालयानि पत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री सहस्रकट जिन चैत्यालयानि पच मम सनिहितानि भव भव बषर
नीर गंगा को शुचि लाय के कनक कुम्भन में सुभराय के।
धार दे जिन सन्मुख हूजिये सहस्रकट जिनालय पूजिये । ॐ ह्रीं श्री सहस्रकट जिन चैत्यालयेभ्यः जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जगत में गंध सुहावनी लायकर ले प्रति मन भावनी ।
ताप हर जिन सन्मुख हूजिये सहस्रकूट ऊँ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालयेभ्यः चन्दनं निर्वामीति स्वाहा।
अमल तन्दुल श्वेत मंगाइये जास ते प्रक्षय पद पाइये।
थाल भर जिन सन्मुख हजिये सहस्रकट जिनालय प्रजिये। ॐ ह्रीं सहस्रकूट जिनचैत्यालेभ्यः प्रक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्षन के प्रति सोहने फूल कर में ले मनमोहने ।
मदन हर जिन सन्मुख हूजिये सहस्रकूट जिनालय पूजिये। ॐ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
निज सुपातम के हित कारने भूख की बाधा सु विडारने।
चरू सु ले जिन सन्मुख हूजिये सहस्रकूट जिनालय पूजिये। ॐ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जगत जीवन मोह भरो हिये तासु के तम नाथन के लिये। दीप ले जिन सन्मुख हूजिये सहस्रकूट जिनालय पूजिये ।। ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालयेभ्यः दीपं निपामीति स्वाहा । 'धूप ले धूपायन डारने प्रष्ट कर्मन के प्रष जारने । कर्म हर जिन सन्मुख हूजिये सहस्रकूट जिनालय पूजिये।
श्री सहस्रकट जिन चंत्यालयेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा। मधुर फल उत्तम संसार में शिव प्रिया हित भरकर पार में। शिवपति के सन्मुख हूजिये सहस्रकूट जिनालय पूजिये। ह्रीं श्री सहस्रकूट जिनचैत्यानयेभ्यः फल निर्वपामीति स्वाहा। जनपुपादिक द्रव्य सुषामई सुखद पदकर घर ले सही।
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१२, बर्ष २७, कि०३
मनैकान्त शुद्ध मन जि सन्मुख हूजिये सहस्रकूट जिकासच पूजिये। ॐ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालयेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
बसु विधि द्रव्य मिलाय परम सुन्दर सुखदाई । पूर्जे श्री जिन सहस्रकूट मंगलमय भाई ॥ ऋद्धि सिद्धि दातार और भव रोग मिटावें।
श्रद्धा भक्ति सहित पूर्ण अर्घ चढ़ावं । ॐ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालयेभ्यः पूर्णार्घ निर्वयामीति स्वाहा।
जयमाल दोहा-सहस्रकूट जिन भवन की भक्ति हिये में धार ।
सनो सरस जयमाल यह तज मन सकल विकार ।। पद्धरी छन्द-सहस्रकट जिन भवनसार है मध्यलोके में जे मंझार ।
'कृत्रिम सप्रकृत्रिम दो प्रकार भावं जिनवर जगनिहार ।। जिनमें जिन प्रतिमा को प्रणाम है सहस्र एक वस अधिक जान । पाषाण धातुमय अति पवित्र रचना है सुख दायक विचित्र ।। जिस नाम लेत सब हरें ताप भव भव के नाशें सकल पाप । है तीन लोक आनन्द दाय सुर, नर, खग पूजत प्राय प्राय ।। कोटीभट राजा श्रीपाल और अनेकन नप निहाल । सहस्रकट जिन भवन बंद कर्मन के काटे अमित फंद ।। सौहे रचना अद्भुत श्रीजिनालय सहस्रकूट । है बनो अनप अति विशाल ताको कछ वर्णन करहि अाज ।। है भरत क्षेत्र के मध्य धाम इक आर्य बुन्देला खण्ड धाम । ताको जु केन्द्र अति विशद गात है 'झॉसी' नगर सुजग विख्यात ।। तहाँ श्री जिन मन्दिर है महान तामें बेदी शोभे प्रधान । पर सहस्रकूट जिन भवन सार है धातु मई रचना अपार । तहाँ स्तुति बन्दन करहिं भव्य अर्चेदै नित लेकर प्रष्ट द्रव्य ।
हमहूँ तिनकी पूजन, रचाय कर रहे सकल मन वचन काय । ॐ ह्रीं श्री सहमकूट जिन चैत्यालयेभ्यः महाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
घत्ता सहस्रकूट जिन भवन अनूप ताकी सेव करें चित ल्याय । ताके मन अति सुमति प्रकाश दुर्गति जग की जाय पलाय ।। वृद्धि होय नित सम्पति गृह में तातें धर्म वृद्धि हुलसाय । पात्र धर्म का बन 'बसन्त जग अनुक्रम करके शिव सुख पाय ॥
इत्याशीर्वादः सहस्रकट पूजा व चित्र डा. राजेन्द्रकुमार जैन, झांसी
०६८ कुन्तीमागें, विश्वासनगर के सौजन्य से
शाहदरा, दिल्ली-११००३६
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एक अन्तर्राष्ट्रीय जैन शोध-संस्थान की आवश्यकता
डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच कई वर्षों से यह विचार बराबर चल रहा है कि केवल हमारे सामने ही नहीं, सरकार के सामने भी होना जैनी की कोई एक शोध व अनुसन्धान की ऐसी संस्था चाहिए । भ० महावीर की पच्चीससौवी निर्वाण शताब्दी होनी चाहिए जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो और जिसमें के उपलक्ष में यदि इस महान, स्थायी और बुनियादी की सभी जैन विषयों के अध्ययन, समीक्षा, संशोधन, तुल- लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो हम समझेगे कि हमारा नात्मक एवं ऐतिहासिक पर्यवेक्षण तथा विशद रूप से निर्वाण महोत्सव मनाना सफल हो गया है। अध्ययन-अध्यापन एवं निर्देशन की सुविधा प्राप्त हो। यह सवाल कोई पहली बार हमारे सामने नही पाया जैन धर्म तथा तद्विषयक वाङ्मय के अनुशीलन एवं है। कई बार और रूपों में जैन समाज के बनी, मानी पर्यवेक्षण से पता चलता है कि अभी तक जो समीक्षात्मक और प्रबुद्ध लोगो के समक्ष यह समस्या प्रश्नबालक चिन अध्ययन किया गया है वह अधिकतर परिचयात्मक तथा बन कर पा चुकी है। इस सम्बन्ध में सबकी सपनीमलगव्यापक विवरणात्मक है। ठोस अध्ययन रूप में निष्कर्ष, अलग ढंग की प्रतिक्रियायें हैं। हम यहाँ उन सबको ध्यान परीक्षण तथा व्यापक परिवेष में तुलनात्मक अध्ययन में रखकर यह कहना चाहते हैं कि समाज में किसी बात अभी तक नहीं के बराबर हुआ है । इन सब उपलब्धियों की कमी हमे नही मालूम पड़ती है। जो साधुसन्तों के को प्राप्त करने के लिए दो या चार विद्वान् पर्याप्त नहीं चातुर्मास के व्यय में लगने वाले लाखों रुपये के दायित्व हो सकते है। प्राय: दो-चार विद्वानों की परिकल्पना कर को अकेले वहन कर सकते हैं, जो बड़े-बड़े प्रतिष्ठा महोहम समझने लगते हैं कि शोध-संस्थान तैयार हो जायेगा। सबों में लाखों रुपये लगा सकते है और जो मन्दिर परन्तु संस्थान की पूर्णता के लिए व्यापक परिधि की निर्माण में तथा सोने-चाँदी की मूर्तियों के निर्माण कार्य पावश्यकता है।
एवं प्रभावना प्रादि में लाखो रुपये ख.कर सकते है, ल्या सुझाव और परिकल्पना
वे जिनवाणी के . उद्धार के लिए:- श्रुत की परम्परा केबल जैन विद्वान ही नहीं अन्य देश-देशान्तरों के
जीवित रखने के लिए तथा जिन घर्ष कोमजीव मौर विद्वान, शिक्षा शास्त्री तथा इतिहासविद् समय-समय पर
जनव्यापी बनाने के लिए क्या इतना त्याग-नही कर सकते इस मावश्यकता का अनुभव करते रहते है कि जैनों का
कि एक विश्वविद्यालय तैयार हो सके ? .... कोई विश्वविद्यालय होना चाहिए । अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय
प्रयोजन के न्यायाधीश बीराधाविनोदपाल और डा० कालिदास इस युग में जिनवाणी तथा प्रागम की सुरक्षा के नाम बहुत पहले ही यह बात कह चुके है। अन्य अनेक लिए शोध संस्थान से बढ़कर कोई पच्छा साधन नहीं है। विद्वान् भी इस बात पर बल देते रहे है कि जैन विश्व- जिन दृष्टाओं ने युग की इस आवश्यकता को पहले ही विद्यालय स्थापित किया जाये। काका साहब कालेलकर पहिचान लिया, वे पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, जिसन विश्वमिशन की परिकल्पना रखते हैं, उसके लालभाई दलपतभाई शोध संस्थान, अहमदाबाद मौर जैन मल में भी बनधर्म व संस्कृति एवं दर्शन का भारतीय एवं विश्वभारती, लाडनू (राजस्थान) जैसी सस्थानों को जन्म पाश्चात्यनों के साथ तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक देकर उनका विकास कर रहे है। पं० फूलचन्द्रजी जैन, विश्लेषग तथा संश्लेषण सम्मिलित है । अध्ययन व अतु- सिद्धान्त शास्त्री 'वर्णी शोध संस्थान' को भी इस रूप में सन्बान की इस नयी परम्परा को गति देने के लिए यह बहुत पल्लवित करना चाहते है । इनके अतिरिक्त 'महावीरायमावश्यक है कि व्यापक दृष्टि को ध्यान मे रखकर अन्त- तन' की योजना भी चल रही है। वैशाली में 'प्राकृत राष्ट्रीय जैन संस्थान की स्थापना होनी चाहिए। यह मन रिसर्च इन्स्टीट्युट' बहुत पहले से चल रही है। परन्तु
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६४, वर्ष २७, कि० प्रस्तावित योजना इन सबसे भिन्न है। जैनधर्म की मोर इस प्रकार विज्ञान की उन्नति में जैन व्यापकता, उदारता और सर्व स्वतंत्रता तथा समन्वय की पूर्ण योग माना जाएगा। पर व्यापक उदार दृष्टि को ध्यान में रखकर यह (५) जैन धर्म के इतिहास के विवाद पनलंबन उचित है कि ऐसी एक संस्था को जन्म दिया जाए जो कार्य भी इस संस्था के तत्वावधान में हो सकता सभी साम्प्रदायिक, पूर्वाग्रहमक्त सार्वजनीन व्यापक हित वष, दो वर्ष का कार्य न होकर कई वर्षों के ऐतिहासिक
सोधनसन्धान के लक्ष्य से अध्ययन, निरीक्षण, विश्लेषण तथा नवीन पुरातत्व की मनबद्ध हो और अनुसन्धानात्मक प्रस्थापनामों के प्राधार सामग्री पर आधारित होगा। इतिहास की प्रामाणिकता पर जनधर्म, को सर्वागीण रूप में प्रतिफलित करने अधिकतर पुरातत्त्व के माधार पर निरूपित की जाती है। वाला हो।
पागम तथा पुराणों का उपयोग केवल पुरातात्विक विषयों कुछ सुझाव
को समझाने के लिए किया जाता है। इसलिए जैन इस अन्तर्राष्ट्रीय जैन शोध संस्थान की प्रस्थापना के
साहित्य में उपलब्ध सामग्री से पुरातत्व की सामग्री का मूल में कुछ मुख्य बातें निम्नलिखित है :
ताल मेल हो और अमुक विषय को पुष्ट करने में दोनों, समर्ण जैन वाङ्मय का संकलन एक स्थान पर का समन्वित उपयोग हो। यह दृष्टि और कार्य इतिहास होना चाहिए हस्तलिखित तथा प्रकाशित रूप में जो भी विभाग के द्वारा सम्पन्न हो सकेगा।
माय उपलब्ध हो, उसकी शोध-खोज करके एक (६) इसी प्रकार से अन्य महत्वपूर्ण विषय है, जिनका विशाल पुस्तकालय का निर्माण किया जाए।
अध्ययन, अनुसन्धान व परीक्षण नई पद्धति से होना (२) प्रकाशित तथा अप्रकाशित जैन साहित्य की चाहिए। जिससे उसकी उपयोगिता और सार्वजनिक एक विस्तृत सूची का प्रकाशन होना चाहिए। यह सूची महत्व स्पष्ट रूप से संसार के सामने प्रकट हो सके। केवल नाम मात्र की न हो परन् विशिष्ट ग्रन्थों की संक्षिप्त (७) उक्त सभी अध्ययन व अनुसन्धान की प्रगति से तथा महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने वाली हो।
होने वाले परिणामों को प्रकट करने वाली कोई प्रकाशन a) सन्दर्भमाकोशमग्यों का निर्माण संस्था के व्यवस्था होनी चाहिए। प्रकाशन के अन्तर्गत प्रगतितत्वावधान में होना चाहिए। केवल दर्शनशास्त्र को ही विवरण, महत्वपूर्ण शोध निबन्धो का सार, वैज्ञानिक महत्व. नहीं, अन्य विषयों की पारिभाषिक शब्दावली का विवेचन पूर्ण उपलब्धियो तथा दार्शनिक जगत का संक्षिप्त विवरण एवं कोश मन्यों के निर्माण की माजबहुत बड़ी मावश्य- किसी पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित होना चाहिए। कता है। कई विषय तो भाव तक एकदम मछूते और इस सम्बन्ध में अभी और विस्तार से अपने विचारों उपेक्षित हैं।
को प्रकट न करके इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि (४) जैन प्रागम ग्रन्थों में बनस्पति, प्राणिविज्ञान भ. महावीर की पच्चीस सोवी निर्वाण शताब्दी के इस पादि से सम्बन्धित जो वैज्ञानिक विषय मिलते हैं, उनका पावन अवसर पर हम ऐसी संस्था को जन्म दे सके, तो तुलनात्मक अध्ययन हो और नवीन अनुसन्धानों के प्राधार निश्चय ही हमारी प्रात्मा को सुखद संतोष मिलेगा और पर पुरानी मान्यतामों का प्रामाणिक विश्लेषण किया एक ठोस व स्थायी कार्य हमारे सामने प्रकट होगा बह जाए। इतना ही नहीं, न भागमों के इन वैज्ञानिक लिखने की कोई प्रावश्यकता नहीं है कि प्रत्येक शुभ कार्य विषयों के सम्बन्ध में अब किस प्रकार के शोध अनुसन्धान में अनेक विघ्न पाते हैं। हमारे समाज में बनेका विश्न- . की दिशा में वैज्ञानिक लोग नई प्रगति का कार्य कर सकते सन्तोषी लोग हैं ! फिर अच्छे कार्यकर्ता भी सुसभ नहीं.. हैं, क्या दिशा निर्देशन हो सकता है, भविष्य के लिए हैं। विद्वानों की भी कमी है। परन्तु यह सब होने पर भी यह एक महत्वपूर्ण शोध कार्य होगा। इससे जहाँ जैन धर्म इस पवित्र कार्य को प्रस्थापित किया जा सकता है। मेरी की प्रामाणिकता वैज्ञानिक रूप से हमारे सामने पाएगी, अन्तर्चेतना इस कार्य को सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझती है। वही विश्व को विज्ञान के क्षेत्र में एक नई दिशा मिलेगी इसलिए बार-बार पाप सबसे अनुरोध करती है।100
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मध्यप्रदेश के जैन पुरातत्त्व का संरक्षण
श्री प्रगरचन्द नाहटा, बीकानेर
मध्यप्रदेश भारत का एक विशाल और महत्वपूर्ण है। वह अन्य कामो में लाखों रुपया खर्च करती है, पर जैन प्रान्त है । जैन धर्म का प्रचार भी वहां बहुत अच्छे रूप में पुरातत्व के संग्रह एवं सरक्षण का कुछ प्रयत्न वर्षों पहले रहा है और है पहले यह अनेक राज्यों में बँटा हुमा था; हुआ था, उसके बाद उल्लेखनीय कुछ भी कार्य सामने नहीं प्रतः मध्यप्रदेश के जैन इतिहास पर कोई ग्रंथ न लिखा भाया। श्री सत्यंधर कुमारजी सेठी से जब वहाँ के जैन जा सका । मालवा और बुन्देलखण्ड के जैन इतिहास पर तो पुरातत्व संग्रहालय संबंधी बात हुई तो उन्होंने कहा कि कई ग्रंथो मे अच्छा विवरण मिलता है, पर समूचे मध्य- हमारे देखने-जानने में इधर के गाँव-गाँव में जैन मूर्तियाँ प्रदेश में जैन धर्म की क्या स्थिति रही, इसकी जानकारी आदि बिखरी पड़ी थीं, उनमें से थोड़ी सामग्री ही एकत्र के लिए कोई ग्रन्थ उपलब्ध नही है। भगवान महावीर के की जा सकी, बाकी प्रायः नष्ट हो गई। उनका कहना तो २५००वें निर्वाण महोत्सव पर मध्यप्रदेश की सरकार मालवे तक ही सीमित था पर अब मैं देख रहा हूँ कि और यहाँ का जैन समाज लाखों रुपया खर्च करेगा । पर विशाल मध्यप्रदेश के अनेक स्थानो में जैन पुरातत्व बिखरा अभी तक कोई ऐसी योजना सामने नहीं पाई जिसमें पड़ा है और नष्ट हो रहा है, पर जैन समाज का उसके मध्यप्रदेश के ढाई हजार वर्षों के जैन इतिहास सम्बन्धी संग्रह एवं संरक्षण की भोर तनिक भी ध्यान नही है कोई ग्रंथ तैयार हो गया हो। यह कमी मुझे बहुत प्रखर रामवन, सतना, भोपाल, शिवपुरी मादि में संग्रहीत जान रही है। पर ऐसे विशाल पौर महत्वपूर्ण ग्रन्थ के लिए मूर्तियों की सूचना मुझे मिली है । पर मैं वहाँ जा नही केवल खर्च का ही प्रश्न नहीं है, अधिकारी लेखकों की पाया । रायपुर का संग्रहालय काफी वर्ष पहले देखा था, मण्डली जुटाना भी बहुत कठिन लगता है। अभी तक तो और ग्वालियर का सरकारी संग्रहालय भी। पर 'मध्यइस प्रदेश के इतिहास की सामग्री पर भी ध्यान नही दिया प्रदेश सन्देश' मे समय-समय पर जो लेख जैन पुरातात्विक जा रहा है तो प्राधारभूत प्रामाणिक सामग्री के बिना सामग्री की सूचना देने वाले प्रकाशित होते है उनसे काफी मध्यप्रदेश का जैन इतिहास लिखा भी कैसे जा सके ? मयी और महत्व की जानकारी मिलती रहती है। मैंने इसीलिये एक परमावश्यक सुझाव दिया जा रहा है। इसे उनमें से कुछ लेखों की सामग्री जैन पत्रिकामों में अपनी
टिप्पणी के साथ लेख रूप में प्रकाशित भी करवाई है, प्रान्तीय सरकार और जैन समाज शीघ्र ही क्रियान्वित
फिर भी मध्यप्रदेश के किसी भी जैन बंधु का उसके महत्व करे, यही अनुरोध है।
की मोर ध्यान ही नहीं गया, यह बहुत ही खेद और मैं कई वर्षों से 'मध्यप्रदेश सन्देश' का लेखक पौर प्राश्चर्य की बात है। पाठक हूँ। उसमें प्रकाशित अनेक जनेतर विद्वानों के लेखों
शिलालेखसे मुझे ऐसा लगता है कि इस प्रदेश में जैन पुरातत्व बहुत इतिहास के सर्वाधिक प्रमाणिक साधन होते है शिला. अधिक है, एवं जैन पुरातत्व सम्बन्धी जितना कार्य जैनेतरों लेख । मध्यप्रदेश की सैकड़ों-हजारों जैन मूर्तियों पर जो ने किया है, उसका दशांश भी जैन समाज ने नहीं किया, लेख खुदे हुए हैं, वे वहाँ के जैन इतिहास पर बहुत जब कि यहां की जैन समाज बहुत ही समझवार एवं महत्वपूर्ण प्रकाश डालते है। हमें खंडित मूर्तियों की इसमल है। मैं उज्जैन और इन्दौर में कई बार गया तो लिये उपेक्षा करते हैं कि वे पूजनीय नहीं है पर उन पर जो मके लगा कि वहाँ की जन समाज प्रबुद्ध और धर्म प्रेमी लेखः खुदे हुए रहते हैं, उनका बहुत महत्व है । कभी-कभी .
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१६, वर्ष २७, कि०३
अनेकान्त तो उन लेखों से इतिहास की कायापलट हो जाती है । इस- कर, प्राचार्य, भारतीय कला भवन, माधवनगर, उज्जन से लिये जैन मंदिरोंमे जो लेखवाली मूर्तियों है, वे चाहे छोटी हों पढ़वाया था। उन्होने इस शिलालेख का जो प्राशय अनुया बड़ी हों, पाषाण की हो या धातु की हो, उन सबके लेखों वाद किया है, वह निम्नानुसार हैकी नकल करने के साथ-साथ खंडित मूर्तिया भी जो इधर- "१. पहली पंक्ति-ॐ त्रैलोक्य मेरू जिनेन्द्र पमप्रभु उबर पही है. उन सबके लेखो का संग्रह भी प्रकाशित की प्रतिमा को मारू नाहट के सत नंदठठक ने निज वश करना चाहिये । किस लेख से क्या महत्वपूर्ण और नयी की यशकीति वल्ली को बढाने के लिये प्रतिस्थापित जानकारी मिल जावे, इसका अनुमान ही नहीं लगाया जा किया। सकता । उन लेखों में केवल जैन इतिहास नहीं, भारतीय २. दूसरी पंक्ति - ठठठक के पुत्र बालण (अस्पष्ट) इतिहास की भी महत्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित है। अभी-अभी हरिश्चन्द्र राजा .. जो रामगप्त के नामोल्लेख वाला जैन प्रतिमा लेख एक ३. तीसरी पंक्ति- ठटक पत्नी चारिणी प्रणाम पौर प्रकाश में आया है, उससे रामगुप्त संबंधी नये करती है । सम्बत् ११६५ वैशाख सुदी ३।। सु० महामंगल तिन का अवसर मिला है। अभी खोज करने पर जन श्री। जास्य प्रणाम करता है। सत्रधार विपाठक ने किया
र खदे हए अनेक ऐसे लेख मिलंग, जिनस अर्थात मूर्ति और लेख तैयार किया ।" । भारतीय इतिहास पर नया प्रकाश पड़ेगा।
उपरोक्त शिलालेख के पढ़ने व अनुवाद में कुछ गलमध्यप्रदेश सन्देश' का ता० ३० अक्टूबर, १९७१ का तियाँ रह सकती हैं पर ऐसे जैन लेखों मे जो स्थान और क मेरे सामने है। उसमें 'बदनावर की परमारकालीन राजानों का नाम रहता है उसका भौगोलिक और ऐतिस्मतियाँ' लेख में कई जैन प्रतिमानों के लेख छपे है । इसी हासिक महत्व है । वह ग्राम, नगर कितना पुराना है और तरह इसी अंक में 'प्राचीन ग्राम भन्नास' नामक लेख श्री कहाँ किस सम्बत् में कौन शासक था, यह जानकारी जगदीश दुबे का छपा है, उसमे भी सम्वत् ११६५ का उस प्रदेश के इतिहास के लिये महत्व की है ही। एक जैन प्रतिमा लेख छपा है। श्री जगदीश दुबे ने लिखा श्री जगदीश दुबे ने लिखा है कि उपरोक्त जैन भग्न है कि "दिगम्बर धर्मी विद्वानो के मत से यह स्थल उनके प्रतिमा के पार्श्व मे किसी भवन निर्माण हेतु जब खुदाई प्राचीन धर्मी तीयों में गिना जाता रहा है। उनके धर्म- की गई तो प्रतीत हुअा कि कोई विशाल प्रागण, प्राचीन ग्रंथों में इस प्राचीन नगर की चर्चा कही-कही दूसरे नामों मन्दिर का वहाँ है। यहाँ की कुछ मूर्तियाँ अष्ट धातुओं से होती है, जो कि एक विशद ऐतिहासिक अन्वेषण का की हरदा के दिगम्बर जैन मन्दिर में प्रतिष्ठित है, जो विषय बन सकती है।
कि तीर्थङ्कर की शिलालेख युक्त जन प्रतिमा है। होशंगाबाद जिले में हरदा तहसील स्थित भन्नास
। भुन्नास यह तो केवल दृष्टात के रूप मे उद्धरण दिया गया ग्राम की आबादी के समीप ही एक मन्दिर है, जिसके सामने है। मध्यप्रदेश में हजारों जैन प्रतिमा लेख है, जिनका के भाग में सामान्य-सी खुदाई के फलस्वरूप ५-६ वर्ष पूर्व संग्रह किया जाय तो अनेक जैनाचार्यों, गच्छों, जातियों, कछ मतियां निकली थी, इन्ही में काले प्रस्तर पर निर्मित श्रावकों आदि के सम्बन्ध में नई जानकारी प्रकाश में जैन तीर्थङ्कर पद्मप्रभु जिनेन्द्र की प्रतिमा भी है। तीर्थकुर प्रतिमा की पीठिका मे लगभग ३ फुट की लम्बाई मे मेरी राय में अभी मध्यप्रदेश में, कई जैन जैनेतर २ पंक्तियों वाला एक शिलालेख भी अंकित पाया गया । विद्वान वहाँ के जैन इतिहास लिखने में सहायक हो सकते उक्त शिलालेख की लिपि अपभ्रंश संस्कृत मे मध्ययुगीन है, जैसे श्री कृष्णदत्तजी वाजपेई सागर विश्वविद्यालय में काल की है। इसमे सम्बत् ११६५ बैशाख सुदी ३ का है, वे जैन धर्म और पुरातत्व के अच्छे विद्वान् है । रायपुर उल्लेख किया गया है । इस शिलालेख को कुछ बष पूब म्यूजियम में श्री बालचन्द जैन हैं ही। उज्जैन विश्वलेखक ने उज्जैन के प्रसिद्ध पुरातत्व वेत्ता श्री वि. वारुण
[शेष पृ० ११ पर]
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भारतीय पुरातत्त्व तथा कला में भगवान महावीर
0 श्री शिवकुमार नामदेव
जिन पूत महात्मानों पर भारतवर्ष उचित गर्व कर के ऊपर त्रिछत्र होते है, ये रत्नत्रय (दर्शन-ज्ञान-चारित्र) सकता है, जिनके महान उपदेश सहस्रों वर्ष की कालावधि के प्रतीक है। प्रत्येक तीर्थकर की माता तीर्थकर को चीरकर अद्यावधि प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं, उनमें के पूर्व स्वप्न मे कुछ न कुछ देखती है। यही देखी हुई जैनधर्म के अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर का स्थान वस्तु उस तीर्थकर का लाछन' होता है। प्रत्येक तीर्थकर ने सर्वोपरि है। उनके पुण्य स्मरण से हम निश्चित रूपेण किसी न किसी वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया था, उस गौरवान्वित होते है।
वृक्ष से उनका निकट का सम्बन्ध है। भारतीय कला के आधार पर यह कहा जा सकता है भारतीय कला मे महावीर की प्रतिमाएं सर्वत्र प्राप्त कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा अत्यधिक प्राचीन है। जैनधर्म होती है। उनका वाहन सिह है । अपराजितपुच्छा एवं वास्तुका प्रचार भारत में सर्वत्र है, अत. गुजरात, राजस्थान, सार के अनुसार इनका शासनदेव मातङ्ग है। शासनदेवी के उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश प्रादि सम्बन्ध में दोनों ग्रन्यो में दो भिन्न नाम प्राप्त होते है। राज्यों में जैन प्रतिमायें प्रचर संख्या में उपलब्ध होती अपराजितपृच्छा के अनुसार अपरा एववास्तुसारके अनुसार हैं । जैन प्रतिमानों में तीर्थंकर प्रतिमानों की ही देवी का नाम सिद्धायिका ज्ञात होता है। इसी प्रकार प्रधानता है। तीर्थकर के अतिरिक्त अन्य सभी मतियां दोनों ग्रंथों में यक्षो एवं यक्षिणियों के वाहन एवं लाछन के गौण समझी जाती है। चौबीस तीर्थकरो की प्रतिमायों विषय मे भी मतभेद है। अपराजितपृच्छा के अनुसार में साम्य होने पर भी प्रतिमाएँ लाछन, वर्ण, शासनदेवता महावीर का काचन वर्ण चित्र्य है।
और देवी (यक्ष-यक्षिणी), केबलवृक्ष तथा चामरधारी एवं महावीर की प्रतिमा कला में ईसवी सन पूर्व में चामरघारिणी के आधार पर अलग-अलग तीर्थंकरों की निर्मित नहीं मिलती है। इसका एक मात्र उदाहरण समझी जाती है।
आयागपट्ट के मध्य में खुदी प्राकृति में पाया जाता है। तीर्थकर जीवन्मुक्त महापुरुष होते है। उनके हृदयो इसमे महावीर ध्यानमुद्रा में दिखलाये गये है।' दिगम्बर पर श्रीवत्स अर्थात् चक्र रहता है। यह धर्मचक्र कहलाता मतियाँ अधिक संख्या मे मिलती है। है। इनके पासन के नीचे अकित प्रतीक धारणाधर्म के भारतीय कला का क्रमबद्ध इतिहास मौर्यकाल से प्रतीक है । इनके विग्रह के साथ त्रिशूल और सभी विग्रहो प्राप्त होता है । सम्राट अशोक का उत्तराधिकारी सम्प्रति
१. चतुर्दश स्वप्न के लाछन का विवरण इस प्रकार है- गजो वृषो हरिः साभिषेकश्री: स्रक शशी रविः । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पद्मसरः सारित्पतिः । विमानं रत्नपुञ्जश्च निधू मोऽग्नि रिति क्रमात् । ददर्श स्वामिनी स्वप्नान्मुख प्रविशतस्तदा । Jain Iconography --B. C. Bhattacharya, Lahore 1939, Chapter VI मे त्रिषष्टिशलाका और उत्तरपुराण से पृ० ५१ में उद्धृत।
२. २४ तीर्थकरो के निम्न २४ लांछन है
वसह गय तुरय वानर कुचो कमल च सस्थियो चंदो। मयर सिरिवच्छ गण्डय महिस वराहो य सेणो य । वज्ज हरिणो छगलो नन्दावत्तो य कलस कुभो य । नीलुप्पल संख फनी सीहो अजिणाण चिहाइ।
___Jan Iconography, पृ. ४६. ३. प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान-वासुदेव उपाध्याय, चित्रफलक ८१.
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८, २७, कि०३
बनेकान्त जैन धर्मावलम्बी था। बौद्ध ग्रन्थों में अशोक को जो प्रतिमानों की पीठ पर अंकित सिंह को महावीर का स्थान प्राप्त है, वही स्थान जैन ग्रंथों में सम्पत्ति को प्राप्त लांछन मानकर महावीर की पहचान करते हैं।' परन्तु वह हुमा है । मौर्यकालीन जैन प्रतिमायें लोहानीपुर मादि स्थलों विधान तर्कसंगत नही जान पड़ता, क्योंकि पीठ पर अंकित से प्राप्त हुई हैं। पार्श्वनाथ की एक कांस्य प्रतिमा जो सिंह सिंहासन के सूचक है, न कि लांछन के; और यदि कायोत्सर्ग प्रासन में है, बम्बई संग्रहालय में सुरक्षित है। वे महावीर के लांछन होते तो उन्हें पीठ के मध्य में मौर्यकाल की तीर्थकर भगवान महावीर की प्रतिमा अभी चित्रित किया जाता जैसा कि हम परवर्ती काल की जिनतक उपलब्ध नहीं हुई है।
प्रतिमामों में पाते हैं। कुषाण-युग में बौद्ध प्रतिमा के सदश ही जैन मतियाँ ।
महावीर की कुषाणकालीन एक अन्य प्रतिमा मथुरा निर्मित की गई जो बौद्ध प्रतिमानों के पीछे निर्मित हुई।
के संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें महावीर को उत्थित कुषाणकालीन मथुरा-कला में तीर्थंकरों के लांछन नहीं
पद्मासन में बैठे हुए दिखलाया गया है। मस्तक के पीछे पाये जाते, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान की जाती
ऊपर छल्लेदार केश हैं। अंगों का विन्यास ठस न होकर थी। केवल ऋषभनाथ के कंधे पर खुले केशों की लटें
लोचयुक्त है । मुख पर दिव्य छवि है।' और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्प-फणों का आटोप बनाया गया है।
गुप्तकाल धार्मिक सहिष्णुता का काल था, अतः बौद्ध कुषाणकालीन अनेक कलात्मक उदाहरण मथुरा के तथा ब्राह्मण मूर्तियों के अतिरिक्त इस कालकी जन मूर्तियाँ कंकाली टोले के उत्खनन से उपलब्ध हुए है। उसमें भी मिली हैं । गुप्तकालीन जैन प्रतिमायें कलात्मक एवं सौंदर्य प्रमोहिन द्वारा प्रदत्त पायागपट्ट की तिथि ई. पूर्व की स्थिर की दृष्टि से उत्तम समझी जाती हैं। 'अधोवस्त्र' तथा की गई है। यह गोलाकार पूजानिमित्तक शिलापट्ट है जिसके 'श्रीवत्स' दो प्रमुख विशेषता है जो गुप्तयुग में परिलक्षित मध्य में ध्यानमुद्रा में महावीर की छोटी-सी मति दृष्टि- होती हैं । जैन मूर्तियों की बनावट उत्तम कोटि की है। गोचर होती है। सम्भवतः योगी के स्वरूप को ध्यान में गुप्तयुग से जैन प्रतिमाओं मे यक्ष-यक्षिणी, मालाबाही रखकर महावीर की प्रासन मूर्ति बनाई गई हो। जैन धर्मा- गंधर्व प्रादि देवतुल्य मूतियों को भी स्थान दिया गया है। वलम्बी प्राचीन परम्परा से पृथक् न होकर कृतसंकल्प होते गुप्तकाल में जैनधर्म का भी पर्याप्त प्रचार था, इसलिए थे; इसलिए स्वदेशी परम्परा से विमुख न हए। महावीर लेखो' मे प्रर्हत-प्रतिमाओं की स्थापना तथा गुफा या लघु प्राकृति के चारों ओर जनमत के निम्न माठ मांगलिक
मंदिरों में जैन मतियो की स्थिति उसके प्रसार का समर्थन चिन्हों का अंकन है
करती है। (१) स्वस्तिक, (२) दर्पण, (३) भस्मपात्र, (४) कंकाली टीला, मथुरा से प्राप्त एक सिर रहित जिनबेत की तिपाई (भद्रासन), (५-६) दो मीन, (७) पुष्प- प्रतिमा लखनऊ संग्रहालय में है। संयोग से उसमें तिथि माला, (6) पुस्तक ।
भी अंकित है जो संवत ११३ (४३२ ई.) की है। जहाँ इन चिन्हों की स्थिति से मूर्ति को जन प्रतिमा मानने तक इसके पहचान का अथवा समीकरण का प्रश्न है में संदेह नहीं रह जाता। मायागपट्ट जैनकला की विद्वानों ने इसे जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर प्राचीनतम कृति है । डा. स्मिथ मथुरा से प्राप्त कुछ जैन को बताया है। परन्तु विद्वानों ने इसे किस प्राधार पर ४. वही.
७. स्कन्दगुप्त का कहोम स्तम्भ लेख, गुप्त संवत् १४१5. Jain Stupa and Other Antiquities of
का० इ०६०. ग्रन्थ ३, पृ० ६५. Mathura, Varanasi 1969, Plts. XCI, XCIII,
८. Sharma, R.C., Mahavira Jain Vidyalays XCIV.
Golden Jubilee Vol., pt. 1, p. 150, fig. 8;
Banerji, R. D., Age of Imperial Guptas, ६. भारतीय कला-वासुदेवशरण अग्रवाल, चित्रफलक
plt. XVIII; Shah, U. P., Akota Bronzes, ३१६.
p. 15.
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भारतीय पुरातत्व तथा कला में भगवान महावीर
८९
महावीर का माना है यह ज्ञात नहीं है। संभवतः पीठ पर के अग्रभाग पर स्थित है। प्रशान्त नयन, सुन्दर भवें, उत्कीर्ण सिंह ही उनका आधार है। परन्तु यह आधार अनूठी नासिका के नीचे मन्दस्मित प्रोष्ठ से ऐसा प्राभास. तर्कसगत प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार के सिंह-चित्रण मिलता है कि वर्धमान महावीर की प्रमतमय वाणी जैसे हमें पूर्वकालीन अन्य जिन-प्रतिमानो पर प्राप्त होते है, स्फुटित होना ही चाहती है। सुगठित चिबुक, चेहरे की जो कि सिंहासन के द्योतक है, न कि लांछन के। अभिलेख भव्यता एव गरिमा की रचना कुशल शिल्पी के सधे हुए में वर्धमान का नाम नही दिया गया है।
हाथों की परिचायक है। प्रतिमा के कर्ण लम्बे दिखाये गुप्तकाल की एक अन्य जिन-प्रतिमा भारत कला
गये है जिनमे कर्णफूल सुशोभित हो रहे है । ग्रीवा की भवन काशी (क्रमांक १६१) में है । ध्यानावस्था में स्थित
त्रिरेखा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यकचारित्र को यह प्रतिमा महावीर की है। इसकी पहचान पीठ पर
प्रदर्शित करती है। सबसे ऊर्ध्व भाग मे त्रिछत्र मे मोतियों अकित दो सिंहो से होती है जो एक-दूसरे के सम्मुख खड़े प्रदर्शित किये गये है।
की पाँच लटकनें पंचतत्वों से परे त्रिकालज्ञान की परि
चायक हैं। त्रिछत्र के नीचे दष्टि के प्रतीक तीन पद्मों से दीक्षा ग्रहण के पूर्व वर्धमान महावीर को जीवन्तस्वामी के नाम से भी जाना जाता था। चूंकि उस समय
गुम्फित त्रिदल हैं। प्रतिमा का तेजोमण्डल आकर्षक एवं वे राजकीय वेश-भूषा में रहते थे, अत: कलाकार ने उन्हें
भव्य है । प्रतिमा की ऊँचाई ४'-२" है । प्रतिमाशास्त्रीय उसी रूप में प्रदर्शित किया है। गुप्तकालीन जीवन्तस्वामी
अध्ययन के आधार पर कलामर्मज्ञों ने इसकी तिथि ८वीं की दो प्रतिमायें बड़ोदा संग्रहालय में है। राजकीय
सदी के प्रासपास निर्धारित की है। परिधान में होने के कारण इनकी पहचान प्रासानी मे की
महावीर की कलचुरिकालीन प्रतिमायें कारीनलाई जा सकती है।
(जबलपुर) एवं जबलपुर से प्राप्त हुई है। कारीतलाई उत्तर गुप्तकाल में जैनकला से सम्बन्धित विभिन्न से प्राप्त महावीर-प्रतिमा की, जो अाजकल रायपुर-संग्रहाकेन्द्र थे । तांत्रिक भावनाओं ने भी कला को प्रभावित लय (म०प्र०) मे है, ऊँचाई ३-५" है। इस प्रतिमा किया था। यद्यपि इस युग मे कलाकारों का कार्यक्षेत्र में जनों के अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर उच्च सिंहासन पर अधिक विस्तृत हो गया था, परन्तु वे शास्त्रीय नियमों से उत्थित पद्मासन में ध्यानस्थ बैठ है। उनके हृदय पर जकड़ गये थे, अतः मध्ययुगीन जैनकला निर्जीव सी हो गई श्रीवत्स का चिन्ह है। प्रतिमा का तेजोमण्डल युक्त थी। इस काल की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि कला उर्ध्वभाग तथा वामपार्श्व खंडित है। दक्षिणपार्श्व में पट्टी में चौबीस तीर्थकरों से सम्बन्धित चौबीस यक्ष यक्षिणियो पर उनके परिचारक मौधर्मेन्द्र खड़े हैं । अन्य तीर्थकर की को स्थान दिया गया। मध्यकालीन जैन-प्रतिमानो मे चार पद्मासनस्थित प्रतिमायें भी प्रवशिष्ट है। चौकी पर माठ ग्रहों की प्राकृतियाँ भी दृष्टिगोचर होती उच्च चौकी पर मध्य मे धर्मचक्र के ऊपर महावीर हैं जो हिन्दू-मत के नवग्रहो का अनुकरण है। इस युग लांछन सिंह अंकित है । लांछन के दोनों पार्श्व पर एकमें मध्यभारत, बिहार, उड़ीसा तथा दक्षिण में दिगम्बर एफ सिंह और चित्रित किये गये हैं । धर्मचक्र के नीचे एक मत प्रधान हो गया था। पाषाण के अतिरिक्त घातु- स्त्री लेटी हई है, जो चरणो मे पड़े रहने का संकेत है। प्रतिमायें भी निर्मित होने लगी थी।
महावीर का यक्ष मातङ्ग अंजलिबद्ध खड़ा है, किन्तु यक्षी मध्यप्रदेश के लखनादौन (सिवनी जिला) नामक सिद्धायिका ओवरी लिए हुए है। इनके दोनों ओर पूजा स्थान से सन् १९७२ मे भगवान् महावीर की एक सुन्दर करते हुए भक्त चित्रित किये गये हैं।" पाषाण-प्रतिमा प्राप्त हुई है । उक्त प्रतिमा के गुच्छकों के महावीर की एक अन्य प्रतिमा जबलपुर से प्राप्त हुई है रूप में प्रदर्शित केश-विन्यास उष्णीयबद्ध है । दृष्टि नासिका जो सम्प्रति फिलाडेलफिया(अमेरिका) म्यूजियम माफ मार्टमें 9. Shah, U. P., Akota Bronzes, pp. 26-28. १०. महंत घासीराम स्मारक संग्रहालय, रायपुर, सूचीपत्र
चित्रफलक क.
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६०, वर्ष २७, कि०३
अनेकान्त सुरक्षित है।" श्याम बलुप्रा पाषाण से निर्मित यह प्रतिमा मान महावीर ने तपस्या की थी। सवाई माधोपुर से ६१ ४-४"४१-६" प्राकार की है। महावीर की यह नग्न मील पर श्रीमहावीर स्टेशन है। यहां से ४ मील दूर प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी है । हृदय पर श्रीवत्स महावीरजी में एक विशाल जैन मन्दिर है। मन्दिर में चिन्ह अंकित है । मूर्ति के हाथ घटने तक लम्बे हैं । मति स्थित जैन धर्म के अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर की के नीचे दो लघु पार्श्व-रक्षक हैं। उनके सामने एक-एक पद्मासनस्थ सुन्दर प्रतिमा है। बम्बई-रायचूर मार्ग पर उड़ते हुए गर्व का अंकन है। मस्तक के ऊपर त्रिछत्र कुर्दुवाड़ी से ५ मील पहले टवलस नामक स्टेशन है । वहाँ तथा उसके किनारे दो हस्ती अंकित हैं । सिह के कारण से २२ मील पर दहीगांव में एक भव्य जैन मन्दिर यह प्रतिमा महावीर की ज्ञात होती है।
विद्यमान है, जिसमें महावीर की सुन्दर प्रतिमा है। दक्षिण भारत के दिगम्बर केन्द्र एलोरा (हवी शती) राजस्थान में महावीर की अनेक प्रतिमायें एवं देवाकी गुफाएं तीर्थकर-प्रतिमाओं से भरी पड़ी है। छोटा लय प्रकाश में आये है। इस संदर्भ मे प्रोसियों के महावीर कलास (गुफा सख्या ३०) में ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ तथा मन्दिर का वर्णन करना उचित होगा। प्रोसियां जो महावीर की बैठी पाषाण मूर्तियाँ पद्मासन एव ध्यानमुद्रा वर्तमान समय में एक छोटा-सा ग्राम है, जोधपुर से फलौदी में उत्कीर्ण हैं। प्रत्येक तीर्थकर के पार्श्व में चैवर धारण जाने वाली रेलवे लाइन पर पड़ता है। प्रोसियां मे भगवान् किये यक्ष तथा गधर्व की प्राकृतियाँ दीख पड़ती है। महावीर का एक प्राचीन मन्दिर है जिसमे महावीर की सिंहासन पर बैठे महावीर की प्रतिमा के ऊपरी भाग में विशालकाय मति है । 'जोयपुर राज्य का इतिहास' के छत्र दीख पड़ता है।
प्रथम भाग में महान इतिहामज्ञ गौरीशंकरजी अोझा ने दूसरी गुफा में भी पद्मासनस्थ ध्यानमुद्रा मे महावीर इस देवालय का काल मवत् ८३० बताया है । यह देवालय की अनेक प्रतिमाएं खुदी है । इन्द्रसभा नामक गुफा मे प्रतीहार गजा वत्सराज के समय है। 'जन-तीर्थ सर्व. सिंहासन पर महावीर की बैठी मूर्तियां ध्यानावस्था मे संग्रह मे प्रोसियाँ का विवरण देते हुए लिखा है कि यहाँ उत्कीर्ण है । जगन्नाथसभा नामक गुफा के दालान मे सौशिखरी विशाल मन्दिर बड़ा रमणीय है। मूलनायकपार्श्वनाथ तथा महावीर के अतिरिक्त चौबीस तीर्थकरो की प्रतिमा भगवान महावीर की है जो ढाई फुट ऊँची है। लघु प्राकृतियाँ उत्कीर्ण है। सभी प्रतिमाएं कला की महावीर का मन्दिर परकोटे से घिरा है तथा इसके भव्य दृष्टि से सुन्दर है।
तोरण दर्शनीय है । स्तभो पर तीर्थङ्करो की प्रतिमायें भी चालुक्यनरेश यद्यपि हिन्दू धर्मावलम्बी थे, किन्तु जैन उत्कीर्ण है। धर्म को भी अधिक मान्यता थी। ऐहोल की एक गुफा मे प्राबू स्टेशन से एक मील दूर देलवाड़ा में भी पांच महावीर की आकृति भी दृष्टिगोचर होती है। सिंह, जैन मन्दिर है जिनमें तीर्थङ्करों की प्रतिमायें है। प्राबू मकर एव द्वारपालो का खुदाव, उनका परिधान एलीफेण्टा के निकटवर्ती अन्य कई स्थानों में बहुत भव्य और कलापूर्ण के समान उच्च शैली का है। ये गुफाए सातवी-आठवी मंदिर हे जिनमे कुंभारिया के श्वेताम्बर जैन मंदिर सदी की है।
उल्लेखनीय है । कुभारिया ग्राम प्राबू रोड रेलवे स्टेशन उड़ीसा में भुवनेश्वर से सात मील की दूरी पर से १३॥ मील दूर स्थित है। यहाँ का महावीर जिनालय उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफायें है। उदयगिरि अतिशय महत्त्वपूर्ण है। इसमे महावीर के जीवन सम्बन्धी अनेक क्षेत्र है। जैनो का उदयगिरि का नाम 'कुमारगिरि' है। दृष्टात उत्कीर्ण है। मदिर की कला दर्शनीय है। मंदिर महावीर स्वामी यहाँ पधारे थे। एक गुफा में २४ तीर्थंकरों का निर्माण-काल सं० १०८७ के लगभग है। की प्रतिमायें है।
कर्नाटक में भी जैनधर्म का अच्छा प्रचार हुमा था। ऐसा कहा जाता है कि उज्जैन (म. प्र.) में वर्ष. कर्नाटक के होयलेश्वर देवालय से दो फलांग की दूरी पर ११. स्टेल्ला कमरिश, इडियन स्कल्पचर इन दि फिलाडेलफिया म्यूजियम माफ आर्ट, पु. ८२.
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भारतीय पुरातत्व तथा कला में भगवान महावीर
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जैनों के तीन मंदिर है, जिनमे २४ तीर्थङ्करों की प्रतिमायें मुद्रा में दिखाया गया है । मूर्ति का प्राधार ७२४ ६९X भी अंकित है।
___३. से. मी. है। बंगाल में भी जैनधर्म से सम्बन्धित कलात्मक कृतियाँ केन्द्रीय संग्रहालय, इ-दौर (म. प्र.) में संग्रहीत उपलब्ध होती है। बगाल के बाकुड़ा जिले के पाकबेडरा महावीर की प्रतिमायें लेखयुक्त है । डा. वासुदेव उपानामक स्थान पर जैन कलाके अनेक अवशेष है। यहाँ के देवा- ध्याय के 'प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान' नामक ग्रथ के लयो मे अन्यत्र से लायी गयी प्रतिमायें भी सगृहीत हैं, जिनमें चित्रफलक ८२ में प्रादिनाथ एव महावीर की प्रतिमा का एक पंचतीर्थी परिकर, तोरण, भामण्डलादि प्रातिहार्ययुक्त युग्म चित्र दिया गया है। इस युग्म प्रतिमा में प्रथम है। दूसरी प्रतिमा के परिकर मे प्रष्टग्रह प्रतिमाये है। प्राकृति ऋषभनाथ की है। दाहिनी ओर महावीर की
प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के क्षेत्र में मालवभूमि का प्राकृति है। इस प्रकार, इन दो प्राकृतियों (प्रथम एवं भी विशिष्ट महत्त्व है। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन का चौबीसवें तीर्थङ्कर) से चौबीस तीर्थ डूरो की कल्पना की परातत्व-संग्रहालय मालवा व उज्जयिनी के अवशेषो से जा सकती है। प्रतिमा-पीठ पर प्रादिनाथ का प्रतीक सम्पन्न है। संग्रहालय में अनेक जैन तीर्थङ्करों की प्रतिमायें वृषभ तथा महावीर का सिंह है। दोनों नग्न हैं। है। लगभग १० प्रतिमायें सर्वतोभद्र महावीर की है, जिन उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष पर पारदर्शी वस्त्र है, अत. वे श्वेताम्बर आम्नाय की है। में भहिंसा के पुजारी भगवान् महावीर की मूर्तियाँ एवं सभी प्रतिमानो मे महावीर पद्मासन मे ध्यानमुद्रा में है। देवालय उपलब्ध होते है । मूर्तिकला विज्ञान तथा भारतीय प्राप्तिस्थल उज्जैन की नयापुरा बस्ती है, जहां आज भी इतिहास की दृष्टि से अभी काफी काम करना शेष है। अनेक जैन मदिर विद्यमान है।
इस दिशा मे जो प्रगति हो रही है, वह अत्यन्त मन्द है। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पुरातत्त्व-संग्रहालय राज्य सरकारों तथा शिक्षा-प्रतिष्ठानों को भी इस क्षेत्र में में सगहीत महावीर की एक अन्य प्रतिमा को कायोत्सर्ग अग्रसर होना चाहिए।
00
[पृ० ८६ का शेषांश]
विद्यालय में डा० कैलाशचन्द्र जैन और श्री दलाल है।
इन्दौर का दायित्व सतना के श्री नीरज जैन भी मूर्तिकला आदि के अच्छे जहाँ तक मध्यप्रदेश के जैन समाज का प्रश्न है, मैं साली इन्दौर म्युजियम के डायरेक्टर श्री गर्ग और देख रहा हूँ कि इदौर की जैन समाज बहुत ही सक्रिय है। इसी तरह अन्य संग्रहालयों के अधिकारियों का तथा यहां प्रच्छे कार्यकर्ता है विटानी
दाम विभाग के अध्यक्ष एव विद्वानों का सहयोग प्राप्त की जैन समाज से बहुत प्राशा की जा सकती है। निर्वाण किया जा सकता है।
महोत्सव के उपलक्ष्य में वहां से लाखों रुपये खर्च भी यह पोर भी सौभाग्य की बात है कि मध्यप्रदेश के होंगे। उसमें इस जरूरी और महत्वपूर्ण कार्य का भी मख्यमन्त्री श्री प्रकाशचन्द सेठी भी जैन हैं तथा अन्य कई समावेश कर लिया जाय । जैन इतिहास की सामग्री की उच्च पदों पर भी जैन हैं। यदि इस समय निर्वाण खोज, संग्रह एवं लेखों की नकल के साथ-साथ दिगो महोत्सव के प्रसंग से खोज, संग्रह एवं संरक्षण और ग्रंथों में जो भी इस प्रदेश के इतिहास की सामग्री है. से इतिहास लेखन का काम हाथ में लिया जाय तो बहुत । भी एकत्र कर प्रकाशित कर दिया जाय । प्राशा है जैन सरलता से अच्छे रूप में प्रागे बढ़ सकेगा।
समाज इस मोर ठोस कदम उठायेगा। 00
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भगवान महावीर की भाषा-क्रान्ति
0 डा० नेमीचन्द जैन, इन्दौर महावीर की भाषा-क्रान्ति की एक बड़ी खूबी यह थी कि वह प्राधुनिकता को झेल सकती थी। महावीर तब तक मौन रहे जब तक उन्हें इन्द्रभूति गौतम जैसा अत्याधुनिक नहीं मिल गया। गौतम सब जानता था, उसे परम्परा का बोध था; युगबोध था; किन्तु सब खण्डित, असमग्र, क्रमहीन; महावीर के संसर्ग ने उसमें एक क्रम पैदा कर दिया। वह उस समय की सड़ी-गली, जर्जरित व्यवस्था का ही अंग था किन्तु उसमें जूझने की सामर्थ्य थी।
विगत शताब्दियों में जो भी क्रान्तियां घटित हुई हैं, लाकर भी सारी दूरियों का समाधान नहीं कर पाती। उनमें भाषा की, अर्थात् माध्यम को क्रान्तियाँ अधिक भगवान महावीर ने भाषा की इस असमर्थता को गहराई महत्व की है। भाषा का सन्दर्भ बड़ा सुकुमार और संवे- से समझा था। उन्होने अनुभव किया था कि एक ही दनशील संदर्भ है। यही कारण है कि कुछ लोग उसे भाषा के बोलने वालों के बीच ही भाषा ने दूरियाँ पैदा जान-बझकर टाल जाते है और कुछ उसकी समीक्षा में कर ली है। सामान्य और विशिष्ट एक ही युग मे दो समर्थ ही नहीं होते। असल में भाषा संपूर्ण मानव समाज भाषाओं का उपयोग करते है। यद्यपि मूलतः वे दोनों एक के लिए एक विकट अपरिहार्यता है। उसका सम्बन्ध ही होती है। स्रोत मे एक; किन्तु विकास-स्तरों पर दो सामान्य से विशिष्ट तक बड़ी घनिष्टता का है। उसके भिन्न सिरों पर । महावीर ने अपने युग मे भाषा की इस बिना न सामान्य जी सकता है न विशिष्ट । इसे भी यह खाई को, इस कमजोरी को जाना-उन्होंने देखा । पंडित चाहिये, उसे भी। वह एक निरन्तर परिवर्तनशील विका- बोल रहा है, आम आदमी उसके अातंक मे फँसा हुप्रा है। सोन्मुख अनिवार्यता है । ज्योज्यो मनुष्य बढ़ता फैलता है, उसकी समझ मे कुछ भी नहीं है, किन्तु पण्डितवर्ग उस उसकी भाषा त्यों-त्यों बढ़ती-फैलती है। उसका अस्तित्व पर थोपे जाता है स्वय को। दोनो एक ही जमाने मे जीवन-सापेक्ष है, इसीलिए हम उससे बिलकुल बेसरोकार अलग-अलग जीवन जी रहे है। महावीर को यह असंगति
कि उसकी अनुपस्थिति में जीवन की समग्र साहजिकता ठप्प हो सकती है।
क्योकि उनके युग तक धर्म का, दर्शन का जो विकास हो
चुका था वह भाषा की क्लिष्टता और परिभाषाओं के जीवन का हरेक क्षण भाषा के बहुविध संदों मे बियाबान मे भटक गया था। माम आदमी इच्छा होते साँस लेता है। भाषा जहाँ एक मोर सुविधा है, वही हुए भी अध्यात्म की गहराइयों में भाषा की खाई के दूसरी ओर उसने अपने प्रयोक्ता से ही इतनी शक्ति प्रजित कारण उतर नही पाता था । महावीर ने माम मादमी की कर ली है कि वह एक खतरनाक औजार भी है। उसमे इस कठिनाई को माना, समझा और अध्यात्म के लिए सृजन, सुविधा और संहार तीनो स्थितियों स्पन्दित है। उसी के प्रोजार को अंगीकार किया। उन्होने पंडितों की बहधा यही होता है कि भाषा के दो पक्ष वक्ता-श्रोता भाषा को अस्वीकार किया, और सामान्य व्यक्ति की पूरी तरह कभी जुड़ नहीं पाते है संप्रेषण की प्रक्रिया मे। भाषा को स्वीकारा। यह क्रान्ति थी महान् युगप्रवर्तक । सारी सावधानी के बावजूद भी कुछ रह जाता है जिस पाम पादमी को अस्वीकृत होते कई सदियों बीत चकी पर वक्ता-श्रोता दोनों को पछताना होता है। वह पास थीं। महावीर और बुद्ध के रूप में दो ऐसी शक्तियों का
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भगवान महावीर की भाषा-कान्ति
उदय हुआ, जिन्होंने आम आदमी के चेहरे को पहिचाना, की पराजय ही महावीर की जय है; भाषा स्थिति नहीं है, उसकी कठिनाइयों को सहानुभूतिपूर्वक समझा और उसी गति है। वह रुकती नहीं है, विकास करती है। महावीर के माध्यमो का उपयोग करना स्वीकार किया।
ने भाषा की इस शक्ति को, उसके व्यक्तित्व के इस पक्ष भगवान महावीर ने धर्म के क्षेत्र मे जिस लोक क्रान्ति को, पलक मारते समझ लिया और तपस्या के उपरान्त का श्रीगणेश किया, वह अद्वितीय थी। उन्होने भाषा के जो पाया, उसे उसी के माध्यम से ग्राम प्रादमी से लेकर माध्यम से वह सब ठकरा दिया जो विशिष्टों का था। वे विशिष्ट जन तक बड़ी उदारता से बाट दिया। मद्री भर लोगो के साथ कभी नहीं रहे, उन्होने सदैव जन- महावीर तक आते-आते सस्कृत हथियार बन चुकी थी समुद्र को अपनाया । इसीलिए वे कूद पड़े सब कुछ ठुकरा
सांस्कृतिक शोषण-दमन का। वह रूढियो और अन्धी कर सर्वहारा की कठिनाइयो के समुद्र मे। उन्होने धन
परम्परामो की शिकार हो चुकी थी। एक तल पर पाकर को द्वितीय किया, भाषा को द्वितीय किया, सत्ता को द्वितीय
ठहर गई थी। अध्यात्म उसकी इस जड़ स्थिति के कारण किया और ग्राम प्रादमी को प्रथम किया । भगवान् ने उन
संवाद खो चुका था । वह सीमित हो गया था। महावीर सारे सन्दर्भो को द्वितीय कर दिया जो मलगाव का अलख
ने उसकी इस असमर्थता को समझा और लोक भाषा को जगा रहे थे; जो उनकी समकालीन चेतना को अमहीन
अध्यात्म का माध्यम चुना। उन्होंने भाषा की धोखाऔर खण्डित कर रहे थे। उन्होने महल छोड़ा, पॉव-पाँव
धड़ियो से लोक जीवन को सुरक्षित किया। सरल अध्यात्म, चले ; पात्र छोड़े, पाणिपात्रता को स्वीकार किया; वस्त्र
सरल माध्यम और सम्यक् मार्ग । जीवन के हर क्षेत्र में छोड़े, नग्नता को माना-सहा; उस परिग्रह को जो मन के
उन्होने सम्यक्त्व के लिए समझ पैदा करने का पराक्रम बहुत भीतर गुजलके मारे बैठा था, ललकारा और घर किया। यह पहला माका था जब उन्हाने जीवन को जीवन बाहर किया। भाषा के क्षेत्र में भी उन्होने वही किया जो की भाषा में उन्मुक्तता से प्रकट होने की क्रान्ति को घटित जीवन के सारे सन्दभों के साथ किया। एक तो वे वर्षों किया । इसीलिए महावीर की भाषा सुगम थी, सबके लिए मौन रहे; तब तक, जब तक सब कुछ उन पर खल नही खुली थी। उन्होने ऐसी भाषा के व्यवहार के लिए स्वीगया; क्योंकि वे साफ-साफ देख रहे थे कि लोग अस्पष्ट- कृति दी जो उस समय की वर्तमानता को झेल सकती थी, तायें बाँट रहे है। कही कुछ भी आलोकित नही है, विश्वास पचा सकती थी। उन्होंने भाषा के उस स्तर को, जो संस्कृत तक अन्धा हो गया था। इसलिए उन्होने साफ-सुथरी का पुरोगामी था, अपनी कान्ति का माध्यम बनाया। परिभाषामुक्त भाषा मे लोगो से आमने-सामने बात की
महावीर की समकालीन चेतना एक तीखे भाषा-द्वन्द्र और जीवन के सन्दों को, जो जटिल और पेचीदा से गुजर रही थी । संस्कृत और लोक-भाषायें द्वन्द्व में थी। दिखाई देते थे, खोल कर रख दिया।
सस्कृत के पास परम्परा की अन्धी ताकत थी, लोक भाषा ___ भाषा में कितनी अपार ऊर्जा धड़कती है इसे महा. के पास ऊर्जा तो थी, किन्तु उसका बोध नही था। संस्कृत वीर जानते थे, इसीलिए उन्होने उस भाषा का उपयोग सिीमित होकर प्रभावहीन हो चली थी, लोक भाषायें प्रसी. नही किया जो सन्दर्भ खो चुकी थी वरन् उस भाषा को मत होकर प्रभावशालिनी थी। जो हालत अग्रेजी के स्वीकार किया, व्यवहार में लिया जो उपस्थित जीवन सन्दर्भ मे हिन्दी की है प्राकृत और अर्धमागधी की वही मूल्यो को समायोजित करने की उदार ऊर्जा रखती थी। स्थिति महावीर के युग मे संस्कृत के सन्दर्भ मे थी। ग्राम अर्धमागधी में वह ऊर्जस्विता थी जिसकी खोज में भगवान आदमी को अंग्रेजी के लिए दुभाषिया चाहिए। हिन्दी के थे। जो भाषा एक जगह प्राकर ठहर गई थी, महावीर लिए बीच की कोई प्रौपचारिक कड़ी की मावश्यकता ही ने उसमे बोलने से इनकार कर दिया। उन्होने उस भाषा नही है। वही हाल मर्द्धमागधी या पाली का था; वहाँ का इस्तेमाल किया जो जन-जन को जोड़ती थी, ऊर्जस्विनी किसी बिचोलिये की जरूरत नहीं थी। सीधा संपर्क था। थी और शास्त्रीय प्रौपचारिकतामों से परे थी। शास्त्र महावीर ने बिचोलिया-सस्कृति को भाषा के माध्यम से
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अनेकान्त
१४, वर्ष २७, कि०३
समाप्त किया। उन्होंने उस माध्यम का उपयोग ही नहीं भगवान महावीर की भाषा-क्रान्ति को समझने के लिए किया जिस बिचोलिये काम मे ले रहे थे। यह कान्ति थी, दो शब्दो को समझने की जरूरत है : 'ज्ञान' और 'समझ'। जिसकी प्राम प्रादमी प्रतीक्षा कर रहा था। भाषा की जानना' 'समझना' नही है; "नोइंग इज नाट अंडरपरिभाषिकता अचानक बिखर गई और चारो ओर चिन्तन स्टेडिंग।" ज्ञान और सम्यग्ज्ञान में 'नोइंग' और 'अंडरस्टें. के खले मैदान दिखाई देने लगे। यह था महावीर का डिंग का फर्क है । ज्ञान में हम जानते है, समझते नहीं है। यक्तित्व जो बद्ध मे होकर कबीर और गाँधी तक निरन्तर सम्यक् ज्ञान मे हम जानते भी है और समझते भी है। चला पाया है।
समझना कई बार भाषा की अनुपस्थिति में भी घटित महावीर की सर्वोपरि शक्ति भाषा थी। अर्द्धमागधी होता है। वह गहरी चीज है । मर्म की पकड़ उसके संपूर्ण
भाषा निर्बल की बल राम थी। महावीर की प्रायानो में 'समझ' है, शब्द की या परिस्थिति की पकड़ भाषा को 'दिव्यध्वनि' कहा गया। यह कोई 'रहस्यवादी'
केवल एक ही पायाम मे ज्ञान है। महावीर ने अंडरस्टेंडिंग शब्द नही है। दिव्यध्वनि वह जो सबके पल्ले पड़े; और
की ओर ध्यान दिया। और यह परम्परित भाषा या प्रदिव्य वह जो कुछेक की हो और शेष जिससे वचित रह
शास्त्र से सम्भव नही था, इसके लिये साफ-सुथरा जीवनजाते हों। महावीर की दिव्यध्वनि अपने युग के प्रति पूरी
तल चाहिये था । महावीर की भाषा-क्रान्ति की सबसे बड़ी तरह ईमानदार है, वह सुबोध है, और अपने युग के
विशिष्टता यही है कि उसने लोक जीवन की समझ को तमाम सन्दी से जुड़ी हुई है। महावीर के दो उपदेश
पुनरुज्जीवित किया । शास्त्र को खारिज किया और सम्यमाध्यम हैं : उनका जीवन और उनके समवशरण । समय
म्ज्ञान को प्रचलित किया। प्राज के अभिशप्त ग्राम आदमी शरण में बोलचाल की भाषा का तल तो है ही, वहाँ
को भी महावीर मे एक सहज स्थिति का अनुमव हो जीवन का भी एक तल पूरी प्राभा और तेजस् मे प्रकट
सकता है। है। पशुजगत् भी वहाँ है और महावीर को समझ रहा है।
महावीर की भाषा-क्रान्ति की एक और खूबी यह थी महावीर भाषा में है, भाषातीत है। उन्हें समझ मे प्रा
कि वह आधुनिकता को झेल सकती थी। महावीर तब तक रहे हैं जो भाषा को नहीं जानते; और उन्हे भी समझ मे।
मौन रहे जब तक उन्हें इन्द्रभूति गौतम जैसा अत्याधुनिक पा रहे है जो भाषा के भीतर चल रहे है। उनका जीवन
नही मिल गया। गौतम सब जानता था, उसे परम्परा का स्वयं माध्यम है। उनकी करुणा और वीतरागता स्वयं
बोध था, युगबोध था; किन्तु सब खण्डित, असमग्र, क्रमभाषा है। आज मन्दिर भले ही पाखण्ड और गुरुडम के
हीन; महावीर के संसर्ग ने उसमे एक क्रम पैदा कर दिया। अड्डे हों किन्तु मूर्तियों के पीछे वही दिव्यध्वनि काम कर
वह उस समय की सड़ी-गली, जर्जरित व्यवस्था का ही रही है, जो समवशरण में सक्रिय थी। मूर्ति के लिए कौन
अंग था किन्तु उसमें सामर्थ्य थी जूझने की। वह आधुनिक सी भाषा चाहिए भला ? उसकी करुणा और वीतरागता
था भगवान महावीर के युग में। भगवान इस तथ्य को को न संस्कृत चाहिए, न अर्द्धमागधी, न प्राकृत, न अप
जानते थे । उन्होने अपने ज्ञान का खजाना इन्द्रभूति पर भ्रंश, न हिन्दी और न अंग्रेजी। इसलिए महावीर की
उन्मुक्त कर दिया । भाषा की जिस क्रान्ति को महावीर ने भाषाक्रान्ति इतनी शक्तिशाली साबित हुई कि उसने भाषा
घटित किया इन्द्रभूति मे वह स्थिति उपस्थित है। महाकी सारी धोखाघड़ियां समाप्त कर दी और धर्म की ठेके
वीर से वह छुपी नहीं है। इस तरह महावीर ने अपनी दारी बन्द कर दी। भाषा के सन्दर्भ में प्राज फिर महा
समकालीन आधुनिकता को भाषा के माध्यम से संबंधित वीर को घटित करने की जरूरत है। जैनों को अपने सारे ।
किया और अध्यात्म को जर्जरित होने से बचाया। महाशास्त्र प्रर्द्धमागधी, प्राकृत और अपभ्रंश के बन्धक से मुक्त
वीर को भाषा के क्षेत्र में पुनः पुनः घटित करने की भाव. कर लेने चाहिए। कोई उद्धरण नहीं, कोई परिभाषा नही;
श्यकता से हम इनकार नहीं कर सकेंगे। 00 सीधे-सीधी बात, प्रामने-सामने दो ट्रक बात । जैनाचार्यों ने ऐसा ही किया है अपने-अपने युगों में ।
६४, पत्रकार कालोनी, कनाडिया मार्ग, इन्दौर
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ऐतिहासिक जैन धर्म
विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन
जैन धर्म का परम्परा-इतिहास अधुना-ज्ञात पाषाण- श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, परह, युगीन आदिम मानव से प्रारम्भ होता है। उस काल का मल्लि नाम के श्रमण तीर्थकर हुए जिन्होने अपने-अपने मानव असभ्य, प्रसस्कृत, किन्तु सरल एवं प्रावश्यकतायें समय मे उसी हिसा प्रधान आत्मधर्म का उपदेश दिया। अत्यन्त सीमित थी और जीवन प्रायः पूर्णतया प्रकृत्याश्रित तीर्थकर एक-दूसरे से पर्याप्त समयान्तर से हुए। इनमें से था। उस युग में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनी- प्रथम तीर्थर तो प्रागैतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यता के तिक किसी प्रकार की कोई व्यवस्था नही थी, न ग्राम युग से भी पूर्ववर्ती है। दूसरे से नौवें पर्यन्त उक्त सभ्यता
और नगर थे और न कोई उद्योग-धन्थे। एक के बाद के समसामयिक रहे प्रतीत होते है। दसवें तीर्थंकर शीतलएक होने वाले चौदह कुलकरो या मनुग्रो ने उस काल के नाथ के समय मे ब्राह्मण-वैदिक धर्म का उदय हुमा प्रतीत मानवो का नेतृत्व एव मार्गदर्शन किया और समयानुसारी होता है, जिसका कालान्तर मे उत्तरोत्तर उत्कर्ष एवं सरलतम व्यवस्थाएँ दी। यह युग जैन परम्परा मे भोग- प्रसार होता गया। बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल भूमि कहलाता है।
में ही अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी (ऋपभदेव की संज्ञा अन्तिम कुलकर नाभिराय थे जिनकी पत्नी मरुदेवी इक्ष्वाकु भी थी) महाराज रामचन्द्र हुए जो अन्ततः अर्हत् से प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ ऋषभदेव का जन्म हा। केवली होकर मोक्षगामी हुए । इक्कीसवें तीर्थकर नेमिनाथ इनके जन्म स्थान पर ही अयोध्या नाम का प्रथम नगर ने मिथिलापुरी में अध्यात्मवाद का प्रचार किया, जिसने बसा । ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम कर्मभमि-कर्मप्रधान जीवन कालान्तर में प्रोपनिषदिक प्रात्म-विद्या का रूप लिया। का प्रारम्भ किया, ग्राम-नगर बसाये, कृपि, शिल्प आदि बाईसवे तीर्थकर अरिष्टनेमि महाभारत काल में हुए और उद्योग-धन्धों का प्रचलन किया, विवाह प्रथा, समाज नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई थे। कृष्ण उस युग की व्यवस्था, राज्य व्यवस्था स्थापित की, लोगों को अक्षरज्ञान
राजनीति के तो सर्वोपरि नेता थे ही, उन्होंने ब्राह्मण और
श्रमण अथवा बौद्धिक और प्रात्य संस्कृतियो के समन्वय एवं अंक ज्ञान दिया, अन्त में गृहत्यागी होकर तपस्या द्वारा प्रात्मशोधन किया, केवल ज्ञान प्राप्त किया और
का भी स्तुत्य प्रयत्न किया। धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। लोक के कल्याण के लिए
महाभारत युद्ध के कई शताब्दी पूर्व से ही वैदिक धर्म जिस सरलतम धर्म का उन्होने उपदेश दिया वह हिसा,
के उत्तरोत्तर वृद्धिगत उत्कर्ष के सम्मुख श्रमण धर्म अनेक संयम, तप एव योग प्रधान मोक्ष मार्ग था। उनके ज्येष्ठ अंशों मे पराभूत-सा हो गया था। किन्तु उस महायुद्ध के पुत्र भरत सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्ही के नाम से परिणामस्वरूप वैदिक आर्यों की राज्य-शक्ति एवं वैदिक यह देश भारतवर्ष नाम से प्रसिद्ध हुआ। भरत के अनुज धर्म का प्रभाव पतनोन्मुख हुए और भारतीय इतिहास का बाहुबलि परम तपस्वी थे । दक्षिण भारत में श्रवणबेल- उत्तर वैदिक युग प्रारम्भ हुआ, जो साथ ही श्रमण धर्म के गोल आदि की अत्यन्त विशालकाय गोम्मट मूर्तियां उन्हीं पुनरुत्थान का युग था। तीर्थवार नेमि और नारायण की है।
कृष्ण इस श्रमण पुनरुत्थान के प्रस्तोता थे और २३वें ऋषभदेव के उपरान्त क्रमश. अजित, सम्भव, अभि- तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ (८७७-७७७ ईसा पूर्व) उक्त आन्दोनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ सुपार्श्व, चन्द्रप्रभु, पुष्पदन्त, शीतल, लन के सर्वमहान् नेता थे। अन्त मे अन्तिम तीर्थडुर
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६६, वर्ष २७, कि० ३
अनेकान्त
वर्द्धमान महावीर (५६९-५२७ ईसा पूर्व) द्वारा पुनरुत्थान कि परम्परा ने चले आये श्रुतागम का जितना जो अंश पूर्णतया निष्पन्न हुआ।
सुरक्षित रह गया है उसका पुस्तकीकरण कर दिया जाय । ____ महावीर का युग महामानवों का महायुग था और दूसरी शती ईसा पूर्व के द्वितीय पाद में उड़ीसा में हुए उनमें स्वयं उनका व्यक्तित्व सर्वोपरि था। उसी युग में महामुनि सम्मेलन मे यह प्रश्न उठा और मथुरा के जैन शाक्यपुत्र गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। यह साधुओ ने इस सरस्वती आन्दोलन का अथक प्रचार भी श्रमण परम्परा का ही एक सम्प्रदाय था। भाजीविक किया । फलस्वरूप ईसा-पूर्व प्रथम शती से ही प्रागमोद्धार सम्प्रदाय प्रवर्तक मक्खलिगोशाल प्रभृति अन्य अनेक श्रमण एवं पुस्तकीकरण का कार्य प्रारम्भ हो गया और पांचवी धर्मोपदेष्टा भी उस काल मे अपने-अपने मतों का यत्र-तत्र शती ई० के अन्त तक विभिन्न सम्प्रदायो ने अपनी-अपनी प्रचार कर रहे थे। उस काल के प्रथवा उत्तरवर्ती युगो के परम्परामों में सुरक्षित जिनवाणी को लिपिबद्ध कर जैनो और स्वयं महावीर ने यह कभी नही कहा कि लिया। मूल ग्रन्थों पर नियुक्ति, चूणि, वृत्ति, भाष्य, उन्होने किसी नवीन धर्म की स्थापना की है। वह तो टीका आदि विपुल व्याख्या साहित्य का सृजन तथा पूर्ववर्ती तेईस तीर्थडुरों की धर्म-परम्परा का ही प्रति- विविध स्वतन्त्र ग्रंथों का प्रणयन चाल हो गया। देश निधित्व करते थे। उसी का स्वयं प्राचरण करके लोक के और काल की परिस्थितियों वश जैन संस्कृति के केन्द्र सम्मुख उन्होंने अपना सजीव प्रादर्श प्रस्तुत किया। बदलते रहे, बहुमुखी विकास भी होता रहा और उत्थानउन्होने उक्त धर्म व्यवस्था में कतिपय समयानुसारी सुधार- पतन भी होते रहे । संशोधन भी किये, उसके तात्विक एवं दार्शनिक आधार इस इतिहास-काल में जैन धर्म को राज्याश्रय एवं को सुदृढ़ एवं व्यवस्थित किया और चतुर्विध जैन संघ का जन सामान्य का प्राश्रय भी विभिन्न प्रदेशों में बहुधा प्राप्त पुनर्गठन किया तथा उसे सशक्त बनाया।
रहा । मगध के बिम्बिसार (श्रेणिक) आदि शिशुनागवशी महावीर के पार्श्व प्रादि पूर्ववर्ती तीर्थदूरों का जैन नरेश, उनके उत्तराधिकारी नंदवंशी महाराजे और मौर्य धर्म पहले से ही देश के अनेक भागों में प्रचलित था। सम्राट जैन धर्म के अनुयायी अथवा प्रबल पोषक रहे । कालदोष से उसमें जो शिथिलता पा गई थी, वह दर हई मौयं चन्द्रगुप्त एव सम्प्रति के नाम तो जैन इतिहास में और उसमें नया प्राण-संचार हुआ। महायीर के निर्वाण स्वर्णाक्षरों में लिखे है । दूसरी शती ईसा पूर्व मे मौर्य वंश के पश्चात् उनकी शिष्य परम्परा में क्रमशः गौतम, सधर्म की समाप्ति पर ब्राह्मणधर्मी शुग एवं कण्व राजाओं के एवं जम्बू नामक तीन महंत केवलियो ने उनके संघ का काल में मगध मे जैन धर्म का पतन हो गया, किन्तु मथुरा, नेतृत्व किया। तदनन्तर क्रमश: पांच श्रुतकेवली हए जिनमें उज्जयिनी और कलिंग उसके सशक्त केन्द्र बन गये । भद्रबाहु प्रथम (ईसा पूर्व ४थी शती के मध्य के लगभग) कलिंग चक्रवर्ती सम्राट् ग्यारवेल, जो अपने युग का सर्वाअन्तिम थे। उस समय उत्तर भारत के मगध प्रादि प्रदेशों धिक शक्तिशाली भारतीय नरेश था, जैन धर्म का परम में बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ा, जिसके परिणाम- भक्त था। इसी प्रकार विक्रम संवत् प्रवर्तक मालवगण वरूप जन साधु संघ का एक बड़ा भाग दक्षिण भारत की का नेता वीर विक्रमादित्य भी जैन था। ओर विहार कर गया। इसी घटना में संघभेद के वे इस समय के बाद उत्तर भारत में जैन धर्म को फिर बीज पड़ गये जिन्होने भागे चलकर दिगम्बर-श्वेताम्बर कभी कोई उल्लेखनीय राज्याश्रय प्राप्त नहीं हुआ। कतिसम्प्रदाय-भेद का रूप ले लिया। साधु-सघ गण-गच्छ पय छोटे राजाओं, सामन्तों, सरदारों, कभी-कभी राज्यप्रादि में भी शनैः शनैः विभक्त होता गया और कालान्तर परिवारों के कुछ व्यक्तियों को छोड़कर कोई सम्राट्, बड़ा में अन्य अनेक संप्रदाय-उपसंप्रदाय भी उत्पन्न हए। उप- नरेश या राजवंश इस धर्म का अनुयायी नहीं हुआ, किन्तु युक्त दुर्भिक्ष के बाद ही यह भी अनुभव किया जाने लगा उस पर प्रायः कोई अत्याचार और उत्पीड़न भी नहीं
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हुआ। सामान्यतः शक, कुषाण, गुप्त, वर्धन, आयुध, गुर्जर, १३वी शती के प्रारम्भ से लेकर १८वी शती के. प्रतिहार, गहड़वाल, तोमर, चौहान आदि पूर्व मुस्लिम- प्रारम्भ तक भारतवर्ष में मुस्लिम शासन की प्रधानता कालीन प्रायः सभी महत्वपूर्ण शासको से उसे सहिष्णुता- रही और उस काल मे जैन धर्म की स्थिति तथाकथित पूर्ण उदारता का ही व्यवहार प्राप्त हुा । मध्यप्रदेश और हिन्दू धर्म जैसी ही रही। शासको की दृष्टि मे दोनो में मालवा के कलचुरि, परमार, कच्छपघट, चन्देल आदि भेद नही था, दोनो ही विधर्मी काफिर थे। जैनो का संख्या नरेशों से, गुजरात के मंत्रय, चावड़ा, सोलंकी और बधेले बल उत्तरोत्तर घटता गया और वे वाणिज्य-व्यापार मे राजाओं से तथा राजस्थान के प्राय: सभी राज्यो मे ही सीमित होते गये। इसीलिए शान्तिप्रिय एव निरीह पर्याप्त प्रश्रय और संरक्षण भी प्राप्त हुआ। राजस्थान मे होने के कारण शासको के धामिक अत्याचार के शिकार तो यह स्थिति वर्तमान काल पर्यन्त चलती रही। मत्री, भी अधिक नहीं हुए। उस काल मे अन्त के डेढ गौ वर्षों दीवान, भडारी, दुर्गपाल, सेनानायक आदि पदो पर भी का मगल शासन अपेक्षाकृत अधिक सहिष्णु रहा। अनेक जैन नियुक्त होते रहे और वाणिज्य-व्यापार एव साहूकार तो अधिकतर उनके हाथ मे रहता रहा ।
तदनन्तर लगभग डेढ़ सौ वर्ष देश में अराजकता का
अन्ध-युग रहा, जब किसी का भी धन, जन एव धर्म उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जैन धर्म
सुरक्षित नही या। उसके पश्चात १९वी शती के मध्य की स्थिति कही अधिक श्रेष्ठ एव सुदृढ रही। ईस्वी सन्
के लगभग से लेकर १९४७ मे स्वतन्त्रता प्राप्ति पर्यन्त के प्रारम्भ में लेकर १६वी शती के मध्य में विजयनगर
देश पर अग्रेजों का शासन रहा । शान्ति, मुरक्षा, साम्राज्य के पतन पर्यन्त तो अनेक उत्थान-पतनो के बाव
न्याय, शासन, पश्चिमी शिक्षा का प्रचार, पुस्तकी एवं जूद वह वहा एक प्रमुख धर्म बना रहा । मुदूर दक्षिण के
समाचार पत्रो का मुद्रण-प्रकाशन, यातायात के साधनों प्रारम्भिक चेर, पाड्य, चोल, पल्लव, कर्णाटक का गगवश
का अभूतपूर्व विस्तार, नव जागति, समाज सुधार एवं और दक्षिणापथ के कदब, चालुक्य, राष्ट्रकूट, उत्तरवर्ती
स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किये गये आन्दोलन एव मंघर्ष चालुक्य, कलचुरि, होयसल आदि वंशो के अनेक नरेश,
इस युग की विशेषताएँ रही और जैनी जन उन सबसे ही उनके अनेक सामन्त, सरदार, सेनापति, दण्डनायक, मत्री,
यथेष्ट प्रभावित रहे। उन्होंने सभी दिशानो में प्रगति की, राज्य एव नगर-श्रेष्ठि जैन धर्म के अनुयायी हुए। जन
स्वतत्रता संग्राम में भी सोत्साह सक्रिय भाग लिया और सामान्य की भी प्राय: सभी जातियो एवं वर्गो मे उसका
बलिदान किए। अल्पाधिक प्रचार रहा। किन्तु वही ७वी शती के शैव
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्र के पुननिर्माण में नयनारों और वैष्णव अलवारो के प्रभाव में कई नरेशों
उनका उपयुक्त योगदान रहा है। जैन धर्म अपनी मौलिक ने तथा ११वी-१२वी शती से गंवधर्मी चोल सम्राटो ने,
विशेषताओं को लिए हुए अब भी सजीव सचेत जीवनरामानुजाचार्य के अनुयायी कतिपय वैष्णव राजाओं ने
दर्शन है और वर्तमान युग की चनौतियों को स्वीकार करने तथा वासव के लिगायत (वीर शैव) धर्म के अनुयायी अनेक नायको ने जैन धर्म और जैनों पर अमानुपिक
में सक्षम है। अत्याचार भी किये। परिणामस्वरूप शनैः-शनैः उसकी धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला, आचारस्थिति एक प्रमुख धर्म की स्थिति से गिरकर एक गौण विचार, प्राय: सभी क्षेत्रो में उमकी सास्कृतिक बपौती भी सम्प्रदाय की रह गई।
स्पृहणीय है।
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R. N. 10591/82
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जनवाक्य-सूचो : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवंपणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से पलकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्य एम. ए.,डी.लिट्. की भूमिका (Introduction) से भूपित है। शोध-खोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिल्द । १५.०० बाप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ मटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द ।
८.०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापा के जीतने को कला, मटाक, मानुवाद और श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि में अलकृत मुन्दर जिल्द-महित । अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायकार कवि गजमल का सुन्दर प्राध्यामिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-महित १-५० पुक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, ममन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिमयः। अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था । मुख्तारी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि मे अलकृन, मोजल्द। ... १२५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी ममन्तभद्र का गहस्माचार-विपयक अन्यूतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार थी जुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना मे युक, मनिल्द । ." जनप्रन्य-प्रयास्ति सग्रह भा० १: मस्कृन और प्राकृन के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की पास्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व मग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शाम्मा की निहाम-विषयक गाहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, मजिल्द । ...
४.०० समाधिरत्र पौर इष्टोपवेश · अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दो टीका महिन
४.०० भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ ।
१-२५ मष्यात्मरहस्य : १० प्राशाधर का सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ . अपभ्रा के १२२ अप्रकाशित ग्रन्पो को प्रशस्तिगो का महत्वपूर्ण मत्रह। पचपन
प्रन्थकागे के ऐतिहामिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टो महित । सं.प० परमानन्द शास्त्री। मजिल्द । १२.०० प्याय-दीपिका : आ. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबागलालजी न्यायाचार्य द्वारा म० अनु०। ७.०० बंन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पष्ठ मख्या ७४० मजिल्द कसायपारसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृपभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० में भी अधिक पृष्ठो मे। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०.०० Reality : मा. पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बढेपाकार के ३.०५. परकी जिल्द मन निबन्ध-रत्नावली: श्री मिनापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
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2214
+2
त्रैमासिक शोधपत्रिका
अनेकान्त
वर्ष २७
किरण :
अगस्त १९७४
उत्तर भारत में जैन यक्षी पद्मावती का प्रतिमा निरूपण -मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी मान्धातृ नगर मईश्वर प्रशस्ति एव मत्री वस्तुपाल-श्री अगरचन्द नाहटा वराङ्गचरित में राजनीति-डा० रमेशचन्द्र जैन हिन्दी जैन पदो में प्रात्म सम्बोधन-प्रकाशचन्द्र जैन जंन कला एव कलचुरि नरेश-श्री शिवकुमार नामदेव वर्धमान पुराण एव उसका सोलहवा अधिकार -यशवन्त कुमार मलैया दर्शन और लोक जीवन-पपराज जन
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली
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विषय-सूची
क्र०
विषय
| वीर-सेवा-मन्दिर का अभिनव
प्रकाशन जैन लक्षणावली माग दूसरा
१. अहंत-परमेष्ठी-स्तवन- पद्मनन्द्याचार्य २. उत्तर भारत में जैन यक्षी पद्मावती का प्रतिमा
निरूपण-मारुतिनन्दन प्रमाद तिवारी ३. मानधात नगर मडेश्वर प्रशस्ति का मत्री
वस्तुपाल से कोई सम्बन्ध नहीं
अगरचन्द नाहटा ४. वगङ्गचरित मे गजनीति
डा० रमेशचन्द जैन ५. हिन्दी-जैन पदो मे आत्म सम्बोधन -
प्रकाशचन्द्र जैन ६. भारतीय जैन कला को कलचरि नरेगा का
योगदान --श्री शिवकुमार नामदेव ७. वर्धमान पुराण के सोलहवे अधिकार का
विचार-यशवन्त कुमार मलया ८. दर्शन और लोकजीवन ---पुषराज जन
१४ |
चिर प्रतीक्षित जन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्दकोश) का द्वितीय भाग भी छप चुका है। इसमें लगभग ८०० जैन ग्रन्थों से वर्णानुक्रम के अनुसार लक्षणों का संकलन किया गया है। लक्षणो के संकतन में ग्रन्थकारों के कालक्रम को मख्यता दी गई है। एक शब्द के अन्तर्गत जितने ग्रन्थो के लक्षण संग्रहीत हैं उनमें से प्रायः एक प्राचीनतम ग्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में हिन्दी अनवाद भी दे दिया गया है। जहाँ विवक्षित लक्षण में कुछ भेद या होनाधिकता दिखी है वहां उन ग्रन्थो के निर्देश के साथ २.४ ग्रन्थों के प्राश्रय मे भी अनुवाद किया गया है । इस भाग में केवल 'क से प' तक लक्षणो का सकलन किया जा सका है। कुछ थोड़े ही समय में इसका तीसरा भाग भी प्रगट हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधकों के लिए तो विशेष उपयोगी है ही साथ ही हिन्दी अनुवाद के रहने से वह सर्वसाधारण के लिए भी उपयोगी है। द्वितीय भाग बड़े आकार में ४१८-1-८-२२ पृष्ठों का है। कागज पुष्ट व जिल्द कपड़े की मजबूत है । मूल्य २५-०० रु० है। यह प्रत्येक यूनोसिटी, सार्वजनिक पुस्तकालय एवं मन्दिरों में संग्रहणीय है। ऐसे ग्रन्थ वार-बार नही छप सकते । समाप्त हो जाने पर फिर मिलना अशक्य हो जाता है।
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सम्पादक मण्डल डा० प्रा. न. उपाध्य डा. प्रेमसागर जन यशपाल जैन पुषराज जैन
प्राप्तिस्थान वीर सेवा मन्दिर, २१दरियागंज,
दिल्ली-६
प्रबन्ध सम्पादक प्रोमप्रकाश जैन
(मचिव)
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मल्य १ रुपया २५ पैसा
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं है।
-व्यवस्थापक
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ॐ अहम्
3ণকলি
परमा (मस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २७ किरण २
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
वीर-निर्वाण सवत् २५००, वि० म० २०३१
5 अगस्त
१६७४
अर्हत-परमेष्ठी-स्तवन
रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहातअस्त्रादेः परिवर्जनान्न च धर्तुषोऽपि संभाव्यते। तस्मात्साम्यमयात्मबोधनमतोजातः क्षयः कर्मणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥३॥
--पग्रनन्धाचार्य अर्थ -जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रहरूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किमी भी इन्द्रिय विषय में राग नही है, त्रिशुल आदि प्रायधों से रहित होने के कारण उक्त प्ररहंत पर के विद्वानों द्वारा द्वेष की संभावना भी नहीं की जा सकती है। इसीलिए रागद्वेष रहित हो जाने के कारण उनके समता भाव आविर्भूत हुआ है । अतएव कर्मो के क्षय मे अर्हत्परमेष्ठी अनन्त मुग्य यादि गुणों के आश्रय को प्राप्त हुए हैं। वे अहत्परमेष्ठी सर्वदा आप लोगों की रक्षा कर ।
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उत्तर भारत में जैन यक्षी पद्मावती का प्रतिमा-निरूपण
मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, वाराणसी योगी परम्परा मे २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ की यक्षी कल्प (१२वी १३वी शती) मे पद्मावती के मस्तक पर को पयावती नाम से सम्बोधित किया गया है और उसका तीन सर्प फणो के प्रदर्शन का भी निर्देश है। वाहन नाक कुट-सर्प (या कुक्कुट) बताया गया है। दोनों
दिगम्बर परम्परा :- प्रतिष्ठासारमग्रह (१२वी परम्परा मे चतुभुज यक्षी के साथ पद्म, पाग एव अंकुश
पाश व ग्रंका
शता) म पद्यवाह
शती) में पद्मवाहना पद्मावती का चतुर्भुज, षड्भुज एव का उलंगम्य प्राप्त होता है। दियघर पर में चतज चतुर्विशतिभुज स्वरूपो का ध्यान किया गया है ।" चतुग्वा के साथ ही पद्मावती का षड्भुज, एव चतुर्विशति
भजा पद्मावती की तीन भुजाओ मे अकुश, अक्षमूत्र एवं
। भज ग्यम्पो में भी निरूपण किया गया है।
पद्म प्रदर्शित है। पड्भुजा यक्षी की भजायो मे पाग, (क) शिल्पशास्त्रों में:
खड्ग, शूल, अर्धचन्द्र (वालेन्दु), गदा एवं मसल स्थित ताम्बर परम्परा : निर्वाणकलिका (१०वी ११वी
है। चतुर्विशतिभुज यक्षी शख, खड्ग, चक्र, अर्धचन्द्र गती) म चतुर्भुजा पद्मावती का वाहन कुर्कुट है, और
(वालेन्दु), पद्म, उत्पल, धनुष, (शरासन), शक्ति, पाश, उसकी दाहिनी भुजायो मे पद्म, पाश एवं बायी में फल,
अंकुश, घण्ट, बाण, मुसल, खेटक, त्रिशूल, परशु, कुत, कम प्रणित है।' समान विवरणो का उल्लेख करने
वज्र, (मिइ.), माला, फल, गदा, पत्र, पालव एव वरद बात मभी परवर्ती ग्रन्था में वाहन रूप मे कुकुट के स्थान
से युक्त है। प्रतिष्ठामागेद्धार (१३वी शती) मे भी पर कट गपं का उल्लेख प्राप्त होता है।' मत्राधिगज
४. देवतामति प्रकरण : ७.६: (मुत्रधार
मण्डनः १५वी शती) १ प्रतिष्ठासारसंग्रह में वाहन पद्म है।
४ .. त्रिफणाढ्यमौलि .. मंत्राधिराजकल्प ३६५ २. यावती देवी कनकवर्णा कुकुटवाहना चतुर्भुजा ।
(सागरचंद्र मूरिकृत) पद्मपाशान्वितदक्षिणकरा फलांकुशाधिष्ठित वामकरा ५. देवी पदमावती नाम्ना रक्तवर्णा चतुर्भुजा । पति । निर्वाणकलिका : १८.२३
पद्मासनाकुशं धत्ते प्रक्षसूत्रं च पंकज । (पादलिप्त सूरिकृतः सं० मोहनलाल भगवानदास,
अथवा षड्भुजा देवी चतुर्विशति सद्भजा ।। मनिश्री मोहनलाल जी जैन ग्रन्थमाला : ५ बम्बई,
पाशासिकुनवालेन्दुगदामुशलसंयुतं । ६.६ पृ०३४।
भुजाप्टक समाख्यात चतुर्विशतिरुच्यते ।। नथा पद्मावती देवी कुक्टोरगवाहना । त्रिषष्टि.
शखासिचक्रवालेन्दु पद्मोत्पलशरासन। . शलाकापुरुषचरित्रः ६.३.३६४-२६५ (हेमचन्द्रकृतः
पाशाकुश घट(यायु) बाणं मुशलखेटक ।। १.वीं शती)
त्रिशूलपरशु कुन मिडमालं फलं गद।। दख -१. पचानन्द महाकाव्य : पगिशिष्ट - पाश्र्वनाथ-६३-६४ (अमर चन्द मूरि कृतः
पत्रंचपल्लवं पत्ते वरदा धर्मवत्सला ।। १३वी यती)
-प्रतिष्ठासारमाह ५.६७-७१ २. पाश्र्वनाथ चरित्रः ७. ८२६-३० (भव
(वसुनंदि कृतः पाण्डुलिपि - लालभाई दलपत भाई देव मूरिकृतः १४वी शती)
भारतीय संस्कृत विद्या मन्दिर, अहमदाबाद) । ३. प्राचारदिनकर : ३४, १० १७७ (वर्ध- ६. भट्टाचार्य ने 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' की प्रारा की पाण्डमान मूरि : १४१२)
लिपि में वज्र एवं शक्ति का उल्लेख किया है, (भट्टा
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उत्तर भारत में जैन यक्षी पद्मावती का प्रतिमा निरूपण
३५
सम्भवत. कुक्कुट-सर्प पर प्रारूढ एवं तीन सर्पफणो से है, और सम्भवत. पाश्वनाथ के शत्रु पर उसकी यक्षी मण्डित यक्षी का चतुर्विशति भज स्वरूप में ही ध्यान (पद्यावती) के नियत्रण का सूचक है। यक्षी का नाम किया गया है। पन पर पासीन पद्मावती को भुजाओं मे (पद्मा या पद्मावती) उसकी भुजा मे या वाहन रूप में अंकुश, पाश, शंख, पद्म, एवं अक्षमाला ग्रादि के प्रदर्शन प्रदर्शित पद्म से सम्बन्धित किया जा सकता है। पद्मावती का निर्देश दिया गया है। प्रतिष्ठातिलकम् (१५४३) को हिन्दू देवकुल की सर्प से सम्बद्ध लोकदेवी मनसा से भी सम्भवत: चतुर्विशतिभुज पद्मावती का ध्यान करता भी सम्बन्धित किया जाता है। पर जैन यक्षी की लाक्षहै। पद्मस्थ यक्षी की ६ भुजाओं मे पाश प्रादि, और णिक विशेषतायें निश्चित ही स्वतन्त्र है। मनसा को भी अन्य में शंख, खड्ग अंकुश, पद्म, अक्षमाला एव वरद पद्मा या पद्मावती नामों से सम्बोधित किया गया है। प्रादि के प्रदर्शन का निर्देश है । ग्रन्थ मे वाहन (कुक्कुट- हिन्दू परम्परा मे नागदेवी मनसा को. जरत्कारु की पत्नी सर्प) का उल्लेख नहीं किया गया है। अपराजितपृच्छा बताया गया है। ज्ञातव्य है कि जरत्कारु का ही जैन में चतुर्भुजा एवं पद्मासना पद्मावती का वाहन कुक्कुट परम्परा में कठ के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है, जो बताया गया है। यक्षी के करों मे पाश, अंकुश, पद्म एवं कालांतर मे पातालराज शेष हम"| हिन्दू परम्परा में वरद प्रदर्शित है।
शिव की शक्ति रूप में भी पद्मावती (या परा) का उल्लेख धरणेन्द्र (पातालदेव) की भार्या होने के कारण ही प्राप्त होता है। नाग पर पारूत एवं नाग की माला में पद्मावती के साथ सर्प (कुक्कुट-सर्प एवं सर्पफण) प्रदर्शित सुशोभित चतुर्भुजा पद्मावती को त्रिनेत्र बताया गया है। किया गया। जैन परम्परा में उल्लेख है कि पार्श्वनाथ का शीर्ष भाग मे अर्धचन्द्र से सुशोभित पद्मावती माला, कुम्भ, जन्म-जन्मान्तर का वैरी कमठ अपने दूसरे भव में कुक्कुट- कपाल, एवं नीरज धारण करतो है । (मारकण्डेय पुराण : सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। पद्मावती के वाहन रूप में अव्याय
अध्याय ८६ ध्यानम्) ।
दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगम्बर ग्रन्थ में पाच कुक्कुटा-सर्प का उल्लेख निश्चित ही उस कथा से प्रभावित
शेषफणों से सुशोभित चतुर्भुजा पद्मावती का वाहन हंस चार्य, जैन प्राइकनाग्राफी, पृ १४४), परन्तु अहमदा- बताया गया है। यक्षी की ऊर्ध्व भुजायो मे कुटार एव बाद पाण्डुलिपि की मे शक्ति का उल्लेख अनुपलब्ध
कटक प्रदर्शित है। प्रस्तुत विवरण किसी भी ज्ञात उत्तरहै और वज के स्थान पर भिंड का उल्लेख प्राप्त भारतीय परम्परा से मेल नहीं खाता है। होता है।
मध्ययुगीन तात्रिक ग्रन्थ भैरव पद्मावती कल्प में पद्म ७. येष्टु कुर्कटसर्पगात्रिफणकोत्तंसाद्विषोयात षट् । पर अवस्थित चतुर्भुजापद्मा को त्रिलोचना बताया गया
पाशादिः सदसत्कृते च घृतशंखास्पादिदो प्रष्टका। है। पद्मा के हाथो में पाश, फल, वरद एवं शृणि प्रदर्शित तां शातामरुणां स्फुरच्छृणिसरोजन्माक्षव्यालाबरा। है"। भैरव पद्मावती कल्प में पद्मावती के अन्य कई पद्मस्थां नवहस्तकप्रमुनता यायज्मि पद्मावतीम् ॥
१०. बनर्जी, जितेन्द्रनाथ, 'दी डीवलपमेन्ट ग्राफ हिन्द (पाशाधर कृतः) -'प्रतिष्ठासारोद्धार' ३ १७४
ग्राइकनोग्राफी', कलकत्ता १६५६, पृ. ५६३ । ८. पाशाद्यन्वितषड्भुजारिजयदा ध्याता चतुविशति ।।
११. भट्टाचार्य बी. सी., "दि जैन प्राइकनोग्राफी' लाहौर, शंखास्यादियुतान्करांस्तु दधती या क्रूरशान्त्यर्थदा ।।
१६३६, पृ १४५ । शान्त्ये सांकुशवारिजाक्षमणिसद्दानश्चतुभिः करै- १२. रामचन्द्रन, टी. एन; तिरुपत्ति कुणरम ऐण्ड इट्ग मुक्ता तां प्रयजामि पावविनता पद्मस्थ पद्मावतीम् ।। टेम्पिल्स', बलेटिन मद्रास गवर्नमेण्ट म्यूजियम, ग्व १,
(नेमिचद्र कृत) प्रतिष्ठातिलकमः ७.२३, पृ. ३४७-४८ भा. ३, मद्रास, १६३४, पृ. २१० । ६. पाशाङ्कुशो पद्मवरे रक्तवर्णा चतुर्भुजा ।
१३. पाशफलवरदगजवशकरणकरा- पद्मविष्टरा पद्मा। पद्मासना कुक्कुटस्था ख्याता पद्मावतीति च ।। सा मा रक्षतु देवी त्रिलोचना रक्तपुष्पामा ।।
'अपराजितपृच्छाः २२१.३७ 'भैरवपदमावती कल्प' (दीपार्णव से उद्धृत, पृ ४३६
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३६, वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त
नामों का भी उल्लेख किया गया है"।
वती के साथ आठवीं शती में ही वाहन कुक्कुट-सर्प एवं श्वेताम्बर परम्परा के अनामक ग्रन्थ में कुक्कुट-सर्प भुजा मे सर्प को सम्बद्ध किया जा चुका था। पर मारूढ़ चतुर्भुज यक्षी को त्रिलोचना बताया गया है। ग्यारहवी शती की एक अष्टभुज पद्मावती मूर्ति (?) यक्षी शृणि, पाश, वरद, एवं पद्म से युक्त है। विवरण राजस्थान के अलवर जिले में स्थित झलरपट्टन के जैन उत्तर भारतीय श्वेताम्बर परम्परा से मेल खाता है, पर मन्दिर (१०४३) की दक्षिणी वेदिका बंध पर उत्कीर्ण इसमें फल के स्थान पर वरद का उल्लेख किया गया है। है। ललितमुद्रा मे भद्रासन पर विराजमान यक्षी के यक्ष-यक्षी लक्षण में सर्पफण से आच्छादित चतुर्भुजा एव मस्तक पर सप्त सर्पफणों का छत्र प्रदर्शित है। यक्षी की त्रिलोचना यक्षी का वाहन केवल सर्प बताया गया है। भुजाओं मे वरद, वव, पद्मकलिका, कृपाण, खेटक, उत्तर भारतीय श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप यक्षी पाश, पदमकलिका, घण्ट एवं फल प्रदर्शित है । यक्षी के करों में अकुश, फल एव वरद धारण करती है। उत्तर भारतीय पारम्परिक प्रायुधों (पाश एवं अकुश) एवं वाहन परम्परा में प्राप्त पद्म के स्थान पर यहाँ वरद का उल्लेख (कुक्कुट-सर्प) के प्रदर्शन के अभाव के बाद भी केवल किया गया है।
सप्त सपंफणों का चित्रण पद्मावती से पहचान का सम(ख) मत अंकनों में --मूर्त प्रकनों मे अम्बिका एव ।
र्थक है। दूसरी ओर भुजा मे सर्प की अनुपस्थिति एवं चक्रेश्वरी के उपरान्त पदमावती ही सर्वाधिक लोकप्रिय सर्पफणो का मण्डन देवी के महाविद्या वेरोट्या से पहचान रही है। सामान्यतः सभी क्षेत्रों में सर्पफणो से मण्डित के विरुद्ध है। मूर्त अंकनो मे भुजाओं में सर्वदा सर्प से युक्त पद्मावती का वाहन कुक्कुट-सर्प है। यक्षी की भजामों मे वेरोट्या के मस्तक पर कभी सपंफण का प्रदर्शन नही प्राप्त सर्प के साथ ही पाश, अंकुश एवं पदम का चित्रण लोक- होता है । प्रिय रहा है। पद्मावती की प्राचीनतम मूर्तियां प्रोसिया श्वेताम्बर परम्परा का निर्वाह करने वाली बारहवी के महावीर एवं ग्यारसपुर के मालादेवी मन्दिरों से प्राप्त शती की दो चतुर्भज पपावती मूर्तियाँ कुम्भारिया के होती है। इन स्थलों की प्रारम्भिक द्विभुज मूर्तियों के नेमिनाथ मन्दिर की पश्चिमी देवकुलिका की बाह्य भित्ति अतिरिक्त अन्य स्थलों पर यक्षी का चतुर्भुज स्वरूप मे पर उत्कीर्ण है। दोनों मूर्तियों मे ललितमुद्रा में भद्रा. अकन ही विशेष लोकप्रिय रहा है"।
सन पर विराजमान यक्षी के समक्ष उसका वाहन कुकुंटराजस्थाम-गुजरात : स्वतन्त्र मतियाँ-इस क्षेत्र की सर्प उत्कीर्ण है । एक मूर्ति में यक्षी मस्तक पर पांच सर्पसभी मूर्तियों श्वेताम्बर परम्परा की कृतिया हैं। पद्मा- फणो से भी प्राच्छादित है । यक्षी की भुजानों में वरदाक्ष, बती की प्राचीनतम मूर्ति प्रोसिया के महावीर मन्दिर अंकुश, पाश एवं फल प्रदर्शित है। सर्पफण से रहित (८वीं शती) के मुखमण्डप के उत्तरी छज्जे पर उत्कीर्ण है। दूसरी मूर्ति में यक्षी के करो में पद्मकलिका, पाश, कुक्कुट-सर्प पर विराजमान द्विभुज यक्षी की दाहिनी भजा अकुश एवं फल स्थित है। विमलवसही के गढ़मण्डप के में सर्प और बायी में फल स्थित है। स्पष्ट है कि पद्मा- दक्षिणी द्वार पर भी चतुर्भुजा पद्मावती की एक मूर्ति १४. तोतला त्वरिता नित्या त्रिपुरा कामसाधिनी ।
(१२वी शती) उत्कीर्ण है । कुक्कुट-सर्प पर प्रारूढ़ पद्मादिव्या नामानि पदमायास्तथा त्रिपुर भैरवी ॥
वती की भुजाओं मे सनालपद्म, पाश, अंकुश (?) एव -'भैरवपद्मावतीकल्प:'
फल प्रदर्शित है। लूणवसही के गूढमण्डप के दक्षिणी १५. रामचन्द्रन, "तिरुपत्तिकुणरम', पृ. २१०।
प्रवेशद्वार के दहलीज पर चतुर्भुजा पद्मावती सी एक १६. द्विभुज पदमावती की दो अन्य मतियां बरती लघु प्राकृति उत्कीर्ण है। मकरवाहना यक्षी के हाथों मे
शती) देवगढ़ से भी प्राप्त होती है। बहभजी पना. १७. तिवारी मारुतिनन्दन प्रसाद, 'ऐ ब्रीफ सर्वे माफ द वती मूर्तियां केवल देवगढ़, शहडोल, वारभुजी गुफा प्राइकानप्रैफिक डैटा ऐट कुम्भारिया', नार्थ गुजरात, एवं भलरपट्टन से प्राप्त होती है।
सम्बोधि, ख. २, अंक १, अप्रिल १९७३, पृ. १३ ।
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उत्तर भारत में जैन पक्षी पावती का प्रतिमा-निरूपण
वरदाक्ष, सर्प (त्रिफणा), पाश एवं फल प्रदर्शित है। पारम्परिक स्वरूप में चित्रण प्राप्त होता है। तीन सर्प वाहन मकर का प्रदर्शन परम्परा विरुद्ध है, पर सर्प एवं फणों से सुशोभित पद्मावती कुकुंट-सर्प पर पारूढ़ है; पाश का चित्रण पद्मावती से पहचान का समर्थक है। और उसकी भुजानों में पद्म, पाश, अंकुश एवं फल साथ ही दहलीज के दूसरे छोर पर पार्श्व यक्ष का चित्रण प्रदर्शित है। भी इसके पद्मावती होने को प्रमाणित करता है। उत्तर प्रदेश-मध्य प्रवेश : स्वतन्त्र मूर्तियां- इस सम्भव है वाहन मकर का प्रदर्शन पावं यक्ष के कूर्म वाहन क्षेत्र की प्राचीनतम मूर्ति देवगढ़ के सामूहिक चित्रण से प्रभावित रहा हो।
. (८६२) से प्राप्त होती है। समूह में पार्श्व के साथ विमलवसही की देवकूलिका: ४६ के मण्डप के वितान 'पद्मावती' नाम की चतुर्भुजा यक्षी भामूर्तित है। यक्षी पर उत्कीर्ण पोडश भुज देवी की सम्भावित पहचान की भुजामों में वरद, चक्राकार सनाल पद्म, लेखनीपट्ट महाविधा वैरोट्या एव यक्षी पदमावती-दोनों ही से (या फलक), एवं कलश प्रदर्शित है"। यद्यपि दिगम्बर की जा सकती है। सप्त सर्पफणो से मण्डित एवं ललित परम्परा मे चतुर्भुजा एवं पद्मवाहना पद्मावती की मुद्रा में भद्रासन पर विराजमान देवी के आसन के समक्ष भुजा में पद्म के प्रदर्शन का निर्देश दिया गया है, पर तीन सर्पफणों से युक्त नाग (वाहन) प्राकृति को नमस्कार अन्य प्रायुधों की दृष्टि से यक्षी का चित्रण पारम्परिक गुद्रा में उत्कीर्ण किया गया है। नाग की कटि के नीचे नही प्रतीत होता है। वाहन एवं सर्पफण भी अनुपस्थित का भाग सर्पाकार है। नाग की कुण्डलियां देवी के दोनों है। यक्षी के साथ पद्म, लेखनी पट्ट (?) एवं कलश का पार्यो में उत्कीणित दो नागी आकृतियों की कुण्डलियों से प्रदर्शन पद्मावती के स्वरूप पर सरस्वती के प्रभाव क गुम्फित है । हाथ जोड़े एवं एक सर्पफण से मण्डित नागी संकेत देता है। प्राकृतियो की काटि के नीचे का भाग भी सर्पाकार है। लगभग नबी-दसवी शती की एक पद्मावती (?) देवी की भुजानो में वरद, नागी के मस्तक पर स्थित मूनि नालन्दा के मठः ६ से प्राप्त होती है, और सम्प्रति त्रिशूल-घण्ट, खड्ग, पाश, त्रिशूल, चक्र (छल्ला), दो नालन्दा संग्रहालय में सुरक्षित है। ललितमुद्रा में पद्म ऊपरी भुजायो म सप, खेटक, दण्ड, सनालपदमकलिका, पर विराजमान चतुर्भुजा देवी के मस्तक पर पाच सर्पवज्र, सर्प, नागी के मस्तक पर स्थित, एवं जलपात्र फण प्रदर्शित है। देवी की भुजायो में फल, खड्ग, परशु प्रदर्शित है। दोनो पावों में दो चामरधारिणी दो कलश- एवं चिन्मुद्रा प्रदर्शित है। चिन्मुद्रा में पद्मासन का धारी सेवक एव वाद्यवादन करती प्राकृतियां अंकित है। स्पा करती देवी की भुजा में पद्म नलिका भी स्थित सप्त सर्पफणो का मण्डन जहाँ देवी की पद्मावती से है। केवल सर्पफण के ग्रावार पर मूर्ति की पद्मावती पहचान का समर्थन करता है, वही कुक्कुट मर्प के स्थान से पहचान उचित नहीं है। साथ ही नालन्दा बौद्ध केन्द्र पर वाहन रूप में नाग का चित्रण एव भुजानो मे सर्प रहा है. जहों से प्राप्त होने वाली यह एकमात्र सम्भावित का प्रदर्शन महाविद्या वैरोट्या से पहचान का प्राधार जैन मूर्ति है। प्रस्तुत करता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रारम्भिक दसवीं शती की तीन द्विभुज पद्मावती कभी बेरोट्या एव पद्मावती के बहभज स्वरूप का ध्यान मूर्तियाँ मालादेवी मन्दिर के मण्डप को जंधा पर उत्तीर्ण नही किया गया है। श्वेताम्बर परम्पग में दोनो ही है। त्रिभग में खड़ी यक्षी के मस्तक पर पांच सर्पफणों चतुर्भुज है।
१०. ब्रन, क्लाज, 'द जिन-इमेजेज प्राफ देवगढ़', लिडन जिन संयुक्त मतियाँ-इस क्षेत्र की सभी पार्श्वनाथ १६६६ पृ. १०२, १०५, १०६, चक्राकार सनालपदम मूर्तियो मे यक्षी रूप मे अम्बिका को आमूर्तित किया गया जैन देवी तारा से सम्बद्ध रहा है। गया है। केवल विमलवसही की देवकुलिका ४ की पार्व- १६ 'पार्षीयलाजिकल सर्व ग्राफ इण्डिया', ऐनुअल रिपोर्ट नाथ मूर्ति (११८८) मे ही चतुर्भज पद्मावती का १९३०-३४; भाग २, फलक: ६८, चित्र बी० ।
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३८, वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त
का चित्रण ही पद्मावती से पहचान का मुख्य प्राधार है। सर्पफंणों से मण्डित है। यक्षी के करों मे अभय, पदमउत्तर और दक्षिण की जंघा की दो मूर्तियों में यक्षी की कलिका, पुस्तिका एवं कलश प्रदर्शित है। यद्यपि भजायो भजायो में व्याख्यान-अक्षमाला एवं जलपात्र प्रदर्शित है"। की सामग्री यक्षी की १६वी यक्षी निर्वाणी से पहचान को पश्चिम जंघा की मूर्ति में दाहिनी भुजा में पद्म प्रदर्शित प्रेरित करता है, पर सर्पफणों का चित्रण पदमावती के है.पर बायीं एक गदा पर स्थित है। गदा का निचला अंकन का सूचक है । पद्मावती के साथ पदम एवं कलश भाग ग्रंकश की तरह निर्मित है। उल्लेखनीय है कि देव- का प्रदर्शन प्रारम्भ से ही लोकप्रिय रहा है, 'पौर सम्भबत. गढ एव खजराहो की परवर्ती भूर्तियो में पद्मावती के पद्म एव कलश के अंकन की पूर्व परम्परा ने ही कला
या का चित्रण प्राप्त होता है। मन्दिर कार को पुस्तिका के प्रदर्शन को भी प्रेरित किया होगा।
की पश्चिमी भित्ति की चौथी मूर्ति में तीन स्मरणीय है कि पद्मावती की प्राचीनतम मूर्ति (देवगढ़) गफणों से प्राच्छादित द्विभुज पद्मावती की दाहिनी में भी पद्म, कलश एवं लेखनी पदा (?) का चित्रण भजा मे पद्म स्थित है, और बायी खण्डित है। लगभग प्राप्त होता है। दसवी शती की एक चतुर्भुज मूर्ति त्रिपुरी के तेवर स्थित खजुराहो से भी चतुग पद्मावती की तीन मतियां बालसागर सरोवर के मन्दिर मेसुरक्षित शिल्प पट्ट पर (११वी शती) प्राप्त होती है। सभी मूर्तियाँ मन्दिरों के
मा. उत्तरागो पर उत्कीर्ण है। आदिनाथ मन्दिर एवं मन्दिरः उत्कीर्ण है। सप्त सर्पफणो से मण्डित पद्मासना पद्मा
२२ की दो मूतियो मे पद्मावती के मस्तक पर पांच सर्पवती की भुजानो मे अभय, सनालपद्म एवं कलश प्रदर्शित
फणो का घटाटोप प्रदर्शित है। दोनो ही उदाहरणों में है। स्पष्ट है कि दिगम्बर स्थलों पर दशवी शती तक केवल सर्पफणो (३, ५ या ७) एव भुजा मे पद्म का
वाहन सम्भवतः कुक्कुट है । आदिनाथ मन्दिर की प्रासीन
मूर्ति में पद्मावती अभय, पाश, पद्मकलिका एवं जलपात्र प्रदर्शन ही नियमित हो सका था। यक्षी के साथ कुक्कुट
से युक्त है। मन्दिर: २२ की स्थानक मृति में यक्षी के मर्प एवं पाश, अकुश जैसे पारम्परिक प्रायुधो के प्रदर्शन
करो में वरद, पद्म, अस्पष्ट एव भग्न है। जाडिन संग्रकी परम्परा ग्यारहवी शती मे ही प्रारम्भ होती है।
हालय (१४६७) की एक अन्य पासीन मूर्ति में सप्त पदमावती की ग्यारहवीं-बारहवी शती की कई
सर्पफणो से प्राच्छादित पद्मावती का कुक्कुट वाहन दिगम्बर परम्परा की मूर्तिया देवगढ, खजुराहो, लखनऊ
प्रासन के समीप ही उत्कीर्ण है। यक्षी की तीन भुजायो संग्रहालय एव शहडोल से प्राप्त होती है। चतुर्भुज पदमा
में वरद, पाश, अकुश प्रदर्शित है, और चौथी भुजा भग्न वती की ललित मुद्रा में पासीन दो मूर्तियाँ लखनऊ संग्र
है। यक्षी के अकन में अपराजिनपृच्छा की परम्परा का हालय में सुरक्षित है। किसी अज्ञात स्थल से प्राप्त पहली
निर्वाह किया गया है। उपर्युक्त मूर्तियों के अध्ययन से मूर्ति (जी: ३१६-११वी गती) मे सात सर्पफणों से ।
स्पष्ट है कि अन्य दिगम्बर स्थलों के समान ही खजुराहो पाच्छादित पद्मावती पद्म पर विराजमान है। यक्षीको
में भी पद्मावती के साथ सर्पफणों (५ या ७) एव पद्म भजायो में भग्न, पद्म, पद्मलिका एवं कलश प्रदर्शित
के प्रदर्शन में नियमितता प्राप्त होती है। साथ ही अन्य है। दो उपासको, मालाधरों एव चामरधारिणी सेविकानों
पारभरिक प्रायुधो (पाश एव अकुश) का भी चित्रण से सेव्यमान पद्मावती के शीर्ष भाग में तीन सर्पफणो से
प्राप्त होता है। वाहन रूप मे कुक्कुट-सर्प के स्थान पर मण्डित पार्श्वनाथ की लघु आकृति भी उत्कीर्ण है। और
" है। केवल कुक्कुट का ही अकन किया गया। मी में प्राप्त दसरी मति (जी-७३--११वी १२वी देवगढ़ में पदमावती की द्विभुज, चतुर्भज एवं द्वादशशती) मे ऊँची पीठिका पर अवस्थित पद्मावती पाच भज मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई। उल्लेखनीय है कि जहाँ २०. उत्तर के उदाहरण में वाम हस्त खण्डित है। यक्षी का चतुर्भुज एवं द्वादश भुज स्वरूपों में अंकन ११वीं २१. शास्त्री, ए. एम , "त्रिपुरी का जैन पुरातत्त्व', 'जैन- शती में ही प्रारम्भ हो गया था, वही द्विभुज मूर्तियाँ "लन', वर्ष २, अक २, पृ. ७१ ।
बारहवी शती की कृतियाँ है। देवगट से द्विभुज पद्मावती
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उत्तर भारत में जन यक्षी पद्मावती का प्रतिमा-निरूपण
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की दो मूर्तिया प्राप्त होती है जो मन्दिरः १२ (दक्षिणी शती) शहडोल (म०प्र०) से प्राप्त होती है, और सम्प्रति भाग) एव १६ के मानस्तम्गो पर उत्कीर्ण है। दोनों ठाकुर साहब संग्रह मे सुरक्षित है। पद्मावती के शीर्ष - उदाहरणों में यक्षी के मस्तक पर विसर्पफणो का छत्र भाग मे सप्त सर्पफणो से पाच्छादित पार्श्वनाथ की पद्माप्रदर्शित है । पहली स्थानक मूर्ति मे पद्मावती वरद एवं सनस्थ मूर्ति उत्कीर्ण है। किरीटमुकुट एवं पाच सर्पफणो से मनालपद्म से युक्त है। गीर्षभाग में लधु जिन प्राकृति सुशोभित यक्षी ध्यानमुद्रा मे दोनो पैर मोड़कर पद्म पर मे युक्त दूसरी मूर्ति में यक्षी पुष्प एवं फल धारण करती विराजमान है। पद्मासन के नीचे वाहन कूर्म चित्रित है। है । देवगढ़ से ग्यारहवीं-बारहवीं शती की ललितमुद्रा में पद्मावती के साथ कूर्मवाहन का प्रदर्शन परम्परा विरुद्ध प्रासीन एवं पांच सर्पफणो से मण्डित तीन चतुर्भुज है, और सम्भवतः धरण यक्ष के कम वाहन से प्रभावित मुर्तियाँ प्राप्त होती है। मन्दिर : १ के मानस्तम्भ है। पदमावती की भुजाओं मे वरद, खड्ग, परशु, बाण, (११वी शती) की मूर्ति मे कुक्कुट-सर्प से युक्त पद्मावती बज्र, चक्र (छल्ला), फलक, गदा, अंकुश, धनुष, सप एव की भुजाओं मे धनुष, गदा एवं पाश खण्डित है। मन्दिर : पदम प्रदर्शित है। यक्षी के दक्षिण एवं वाम पाश्वों में १ की ही दो अन्य मानस्तम्भों (१२वी शती) की मूर्तियों सर्पफण से आच्छादित दो नाग-नागी प्राकृतियाँ आमूर्तित में पद्मावती पद्मासन पर विराजमान है, और उसके है। समीप ही दो उपासक एवं चामरधारी प्राकृतियाँ भा करों में वरद, पदम, पद्म एवं जलपात्र स्थित है। एक चित्रित है। वाहन कर्म के अतिरिक्त अन्य दष्टिया से उदाहरण मे शीर्ष भाग में पांच सर्पफणो से मुशोभित लघ यक्षी के निरूपण मे दिगम्बर परम्परा का प्राशिक निवाह जिन आकृति भी उत्कीर्ण है।
किया गया है। द्वादशभज पद्मावती की एक विशिष्ट मूति देवगढ जिन संयक्त मतियां-- पार्श्वनाथ मूर्तियों मे सपफगों के मन्दिर । ११के समक्ष के मानम्तम्भ (१०५६)र से यक्त पारम्परिक यक्षी के चित्रण के प्रत्यात मामित उदाउत्कीर्ण है । पाच सर्पफणों में मण्डित एव ललितमुद्रा में वरण प्राप्त होते है। अधिकतर उदाहरणा में सामान्य आसीन पद्मावती का वाहन कुर्कुट-सर्प समीप ही उत्कीर्ण लक्षणो वाली यक्षी उत्कीर्ण है। केवल कुछ ही उदाहरणो मे है। यक्षी की भुजाओं मे वरद बाण, अकश, सनाल पदम, यक्षी चतभजा है। सभी उदाहरणा म वाहन अनुपस्थित है। शृंखला, दण्ड, छत्र, वन, सर्प (एकफणा), पाश, धनुष लखनऊ संग्रहालय की दसवी शती की दो मूर्तियों एवं मातुलिंग प्रदर्शित है। यक्षी के निरूपण गे वाहन एव (जे -८८२, ४०.१२१) मे सामान्य लक्षणो वाली द्विभुज कुछ सीमा तक आयुधो के सन्दर्भ मे दिगम्बर परम्परा यक्षी की भुजायो मे अभय (या सनालपद्म) एवं फल का निर्वाह किया गया है।
प्रदर्शित है। तीसरी मूर्ति (जे-७६४-११वी शती) में पद्मावती का द्विभज एवं द्वादशभज स्वरूपो में पीटिका के मध्य मे पाच सर्पफणो से मडित चतुर्भुज
पारम्परिक है। ग्यारहवीं शती की दो मतियों से पदमावती की ध्यान मुद्रा में पासीन मूर्ति उत्कीर्ण है। जहाँ वाहन कर्कट-सर्प है, वही बारहवी शती की अन्य यक्षी की भुजायो में अभय, पद्म, एवं कला प्रदर्शित है। मूर्तियो मे यक्षी पद्मवाहना है । स्पष्ट है कि दिगम्बर
देवगढ़ की ६ मूतियो में सामान्य लक्षणो वाली परम्परा के अनुरूप ही देवगढ मे यक्षी के वाहन रूप मे द्विभुज यक्षी की भुजायो मे अभय (या वरद) एवं कलश पद्म एवं कुक्कुट-सर्प दोनों ही को उत्कीर्ण किया गया। (या पल) प्रदणित है । एक उदाहरण मे यक्षी तीन सपंप्रायुधो मे अन्य स्थलो के समान ही पदम का प्रदर्शन फणों से प्रान्छादित है । मन्दिर : १२ के ५४ भाग में लोकप्रिय रहा है। तीन या पाच सर्पफणो से सुशोभित सुरक्षित पाश्र्वनाथ मूर्ति (११वी शती) में तीन गर्पयक्षी के साथ गदा, धनुष, अंकुश, पाग प्रादि का चित्रण फणो से मटित चतुर्भुज यक्षी श्राम नित। यक्षी की भी प्राप्त होता है।
२२. 'अमेरिकन इन्स्टीट्यूट आफ इण्डियन स्टडीज', द्वादशभुज पद्मावती की एक अन्य मूर्ति (११वी वाराणसी-चित्र सग्रह : ए ७५३ ।
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४०, वर्ष २७, कि०२
अनेकान्त
ऊर्ध्व भुजाप्रो के प्रायुध अस्पष्ट है, पर निचली मे अभय तित है। पदम पर विराजमान यक्षी की दक्षिण भुजाओं एव कलश प्रदर्शित है। स्पष्ट है कि देवगढ में पद्मावती में वरद वाण,, खड्ग, चक्र (?), एवं वाम मे धनुष, की स्वतन्त्र मुनियो की लोकप्रियता के बाद भी जिन- बैटक, सनालपदम प्रदर्शित है ।" यक्षी के निरुपण में सयुक्त मूर्तियों मे पदमावती के पारस्परिक स्वरूप को वाहन, मर्पफणों एवं उछ मीमा तक ग्रागृधों (पद्म) के अभिव्यक्त करने का प्रयास नहीं किया गया। उसी स्थल । सन्दर्भ मे दिगम्बर परम्परा का निर्वाह किया गया है। की स्वतन्त्र मूर्तियों में प्राप्त विशेषतायों को भी उनमें नहीं प्रदर्शित किया गया। सर्पफण भी केवल दो ही उदा.
दक्षिण भारत-तात्रिक प्रभाव के फलस्वरूप दक्षिण हरणों मे प्रदर्शित है।
भारत में पद्मावती को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हई । वह अन्य स्थलो के विपरीत खजुराहो में पार्श्वनाथ के १
दक्षिण भारण की तीन सर्वाधिक लोकप्रिय ययों सर्पप.गोसे युक्त यक्षी का चित्रण विशेष लोकप्रिय रहा है।
(अम्बिका, पद्मावती एवं ज्वालामालिनी) में में एक खुले सग्रहालय (के ५, ११वी शती) की एक मूर्ति तीन ।
है। कर्नाटक में पदमावती सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षी रही सर्पफणों मे मंडित द्विभज यक्षी की एक अवशिष्ट भुजा
है। यद्यपि पद्मावती का सम्प्रदाय काफी प्राचीन रही मे सम्भवतः पद्म स्थित है। खजुराहो संग्रहालय
है. परन्तु दसवी शती के वाद के अभिलेखिकी साक्ष्यों मे (१६१८) की दूसरी मूर्ति में तीन सर्पफणों से आच्छा
निरन्तर पद्मावती का उल्लेख प्राप्त होता है। शिलाहार
एवं रट्र राजवंशों और कुछ अन्य विशिष्ट व्यक्तियो के दित द्विभुज यक्षी की वाम भुजा में फल प्रदर्शित है, पर दक्षिण भुजा की सामग्री अस्पष्ट है। खुले संग्रहालय की
मध्य पद्मावती का पूजन विशेष लोकप्रिय रहा है, जो ग्यारहवीं शती की दो अन्य मूर्तियों में यक्षी चतुर्भुज है।
अपनी प्रशस्तियो में 'पद्मावती देवी-लब्ध-वरप्रसाद' प्रादि एक उदाहरण (के०-१००) में सर्पफणों से युक्त यमी की
उपाधियो का उल्लेख करते थे। साथ ही कर्नाटक के दो प्रवशिष्ट दक्षिण भुजाप्रो में अभय एवं पद्म प्रदर्शित
विभिन्न स्थलो से ग्यारहवी मे तेरहवी शती के मध्य की है । दूसरी मूर्ति (के०-६८) में पांच सर्पफणों से आच्छा
कई पद्मावती मूर्तिया प्राप्त होती है। कर्नाटक के चारदित यक्षी ध्यान मुद्रा में आसीन है। यक्षी के करों मे
वाड़ जिले में ही मल्लिमेण मूरि ने 'भैरव पद्मावती-कल्प' , सप (त्रिफणा), अस्पष्ट एव जलपात्र प्रदशित है। एवं 'बालिनी-कल्प' जैसे नांत्रिक प्रन्या की रचना की. स्पष्ट है कि केवल अन्तिम दो मतियों मे ही पदमावती जो पद्मावती एव ज्वालिनी की विशेष प्रतिष्ठा की ही को विशिष्ट स्वरूप में अभिव्यक्त किया गया।
सूचक है। उड़ीसा-खण्डगिरि की नवमनि एवं बारभजी गुफाओं कन्नड क्षेत्र से प्राप्त पार्श्वनाथ मूर्ति (१०वी-११वी के सामूहिक अंकनों में भी पार्श्वनाथ के साथ पदमावती शती) मे एक सर्पफण से युक्त पद्मावती की दो भुजाओ भामूर्तित है। नवमुनि गुफा में पार्श्व के साथ उत्कीणित मे पदम एवं प्रभय प्रदगित है।८ कन्नड़ शोध सस्थान द्विभुज यक्षी ललितमुद्रा में पद्मासन पर विराजमान है। संग्रहालय की पार्श्वनाथ मूर्ति मे चतुर्भज पद्मावती पद्म, जटामुकुट से सुशोभित त्रिनेत्र यक्षी की भुजानों में अभय एवं पद्म प्रदर्शित है। प्रासन के नीचे उत्कीर्ण प्रस्पष्ट २४. पित्रा, देवल "शासनदेवीज खंडगिरि", पृ. १३३ । नुकीली प्राकृति कहीं कुक्कुट-सर्प तो नहीं है ?" यक्षी '
२५. देसाई, पी० बी०, जैनिज्म इन साऊथ इण्डिया, का चित्रण अपारम्परिक है। चारभुजी गुफा में पार्श्व के
शोलापुर, १६५७, पृ० १६३ । साथ पांच सर्पफणों से मण्डित अष्टभुज पद्मावती प्रामू
२६. तदेव, पृ० १६३ ।।
२७. तदेव, पृ० १०। २३. मित्रा, देबल, 'शासनदेवीज इन दि खण्ड गिरि केव्स' २८. हाडवे, डब्ल्यू एस. "नोटम प्रान टू जैन मेण्टल
जर्नल एशियाटिक सोसाइटी (बंगाल) खंड १, इमेजेज" रुपम अक १७, जनवरी १९२४, पृ. अंक २, १९५६, पृ. १२६ ।
४८-४९ ।
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उत्तर भारत में जैन यक्षी पद्मावती का प्रतिमा निरूपण
पाश, गदा, (या अंकुश) एवं फल धारण करती है।" उपयुक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि दक्षिण भारतीय इसी संग्रहालय में चतुर्भुज पद्मावती की ललित मुद्रा मे श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही मूर्त प्रकनों में पद्माप्रासीन दो स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी सुरक्षित है। पहली मूर्ति वती के साथ पाश, अकुश एवं पद्म का प्रदर्शन लोकप्रिय (के. एम०८४) में एक सर्पफण मे मण्डित यक्षी का रहा है : शीर्ष भाग में सर्पफण एव वाहन रूप मे . कुक्कुट वाहन कुक्कुट-सर्प है। यक्षी की दोनों दक्षिण भुजाएं सर्प (या कुक्कुट) का चित्रण भी परम्परासम्मत है । कुछ खण्डित है, और वाम में पाश एव फल प्रदशित है। यक्षी उदाहरणों में वाहन रूप में हम का चित्रण दक्षिण भारकी किरीट मकूट मे लघ जिन प्राकृति उत्कीर्ण है।" तीय दिगम्बर परम्परा का अनुपालन है। हंस वाहन मे दूसरी मूति मे पाँच सर्पफणो से सुशोभित पदमावती की युक्त मूतियों में भी पायुधो का प्रदर्शन श्वेताम्बर परभुजाना में फल, अकुश, पाश एव पद्म प्रदर्शित है । यक्षी
म्परा से ही निर्देशित रहा है। का वाहन हम है।" बादामी की गुफाः ५ के समक्ष की
सम्पूर्ण अध्ययन में स्पष्ट है कि दसवी शती तक दीवार पर भी ललित मद्रा में आसीन चतुर्भुज यक्षी (?)
सर्वत्र यक्षी का द्विभज स्वरूप ही लोकप्रिय रहा है परन्तु आमुर्तित है। प्रासन के नीचे उत्कीर्ण वाहन सम्भवतः
ग्यारहवी शती में यक्षी का चतुर्भुज स्वरूप में निरूपण हस (या क्रौच पक्षी) है। सर्पफणों से विहीन यक्षी के
प्रारम्भ हो जाता है। जिन-सयुक्त मूर्तियों में पद्मावती करो में अभय, अकुश, पाश एव फल प्रदर्शित है।"
के साथ वाहन एवं विशिष्ट प्रायुध सामान्यतः नहीं प्रदनमिलनाडु के कलुगुमलाई से भी चतुर्भुज पद्मावती
शित किये गये है। केवल कछ उदाहरणों में ही सर्प एव की ललितासीन मूर्ति (१०वी-११वी शती) प्राप्त होती है ।
पद्म के प्रदर्शन में परम्परा का निर्वाह किया गया है। शीव भाग में सर्पफण से मंडित यक्षी फल, सर्प, अकुग
श्वेताम्बर परम्परा में केवल विमलवसही (देवक लिका : एव पाश धारण करती है।"
४) एव प्रोमिया (महावीर मन्दिर : बलानक) के दो कर्नाटक से प्राप्त तीन चतुर्भुज पद्मावती सम्प्रति
उदाहरणो मे ही क्रमश. पारम्परिक एवं विशिष्ट लक्षणी प्रिस पाव वेल्स म्यूजियम, बम्बई मे सुरक्षित है।" तीनो
वाली यक्षी ग्रामलित है, जबकि दिगम्बर स्थलो पर कई उदाहरणो मे एक सर्पफण से सुशोभित पद्मावती ललित
उदाहरणों में विशिष्ट लक्षणों वाली यक्षी का चित्रण प्राप्त
माह मद्रा में विराजमान है। पहली मूर्ति में यक्षी की तीन ।
होता है, जो कभी पूर्णत. परम्परासम्मत नहीं है । स्वतत्र अवशिष्ट भुजाओं में पद्म, पाश, एव अकुश प्रदर्शित है। अकना म श्वनाम्बर एव दि
प्रकनो में श्वेताम्बर व दिगम्बर स्थलो पर वाहन एव दूसरी मूर्ति मे एक अवशिष्ट भुजा में अकुश (ऊर्ध्व विशिष्ट प्रायुधा (पान, अकश एव पर
विशिष्ट प्रायुधो (पाटा, अकरा एव पदम) क सन्दर्भ में दक्षिण) स्थित है । तीसरी मूर्ति में मासन के नीचे उत्कीर्ण परम्परा का अपेक्षाकन अधिक पालन किया गया है। पक्षी वाहन सम्भवतः कुक्कट या शक है। यक्षी वरद,
तीन, पांच या सात सर्पफणो से सुशोभित यक्षी का वाहन अंकुटा, पाश एव सर्प से युक्त है।
सामान्यतः कुक्कुट-सर्प (या कुक्कुट) रहा है। दिगम्बर २६. अन्निगरी, ए. एम. “एगाइड टू द कन्नड रिसर्च
स्थलो पर यक्षी की दो भजायो में पदका प्रदर्शन विशेष इन्स्टीच्यूटट म्यूजियम, धारवाड़", १६५८, पृ. १६ ।
लोकप्रिय रहा रहा है। कुछ स्थलो की बहुभुजी मूर्तियो ३०. नदेव, पृ०२६।
मे वाहन रूप मे कुक्कुट-सर्प के साथ ही पद्म एवं कम ३१. अन्निगेरी, "गाइड कन्नड़ रिसर्च म्यूजियम, पृ० १६ ।
का चित्रण भी प्राप्त होता है । यक्षी की भुजानो मे पद्म ३२ माकलिया, हंसमुख धीरजलाल, जैन यक्षज ऐण्ड
के साथ ही सर्प" का प्रदर्शन भी प्राप्त होता है। बहुयक्षिणीज "बलेटिन डेकन कालेज रिसर्च इन्स्टी--
भजी मूर्तियों में पाशराव अकुश केवल देवगढ़ में ही ट्युच", खं० १, १९४० पृ. १६१ ।
चित्रित है। शाहडोल भी द्वादशभुजी मूति में भी पद्म, ३३. देसाई, पी. बी., "जैनिज्म साऊथ इण्डिया", प्र. ६५।।
एव सर्प के साथ अकुम प्रदर्षित है। मसाऊथवा १.६२ ----- ---- 16 माकलिया, "जैन यक्षाज एण्ड यक्षिणीज" ० ५ भलरपदन राव बाभजी गुफा के दो उदाहरणो म ९५८-१५६ ।
सप अनुपस्थित है।
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मान्धातृ नगर मडेश्वर प्रशस्ति का मंत्री वस्तुपाल से
कोई सम्बन्ध नहीं ! श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर
कभी-कभी विशिष्ट व्यक्ति की भी कुछ ऐसी धारणा एवं सस्ता है। पूज्य पुण्यविजय जी का उसके बाद बन जाती है कि विरोधी बातों की ओर लक्ष्य न देकर बम्बई में अचानक स्वर्गवास हो गया। अत: अभी-अभी या अवहेलना करके अपनी धारणा को पुष्ट करने के लिए आत्मानन्द जैन सभा भावनगर की मासिक पत्रिका का तर्क उपस्थित करता है। उसका मन अपनी धारणा के विशेषाक पूज्य पुण्य विजय जी के स्मृति में प्रकाशित इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है इससे सहज ही कोई ऐसी हुआ है वह प्रस्तुत ज्ञानांजलि के पूर्ति रूप में समझा जा गलती हो जाती है जिसकी ऐसे व्यक्ति से उम्मीद की सकता है। नही जा सकती। इसी का एक उदाहरण प्रस्तुत लेख मे
उपयुक्त ज्ञानॉजलि के पृष्ठ २९७ से ३२४ में पुण्य दिया जा रहा है।
विजय जी का एक महत्वपूर्ण निबन्ध प्रकाशित हुआ है प्रागम प्रभाकर स्वर्गीय मुनिश्री पुण्यविजय जी जिसका शीर्षक है-'पुण्यश्लोक महामात्य वस्तुपाल ना बहत ही गम्भीर एवं ठोस विद्वान् तथा माध्यस्थ वृत्ति अप्रसिद्ध शिलालेखो तथा प्रशस्तियो लेखो।' महामात्य वाले उदार महापुरुष थे। उनके प्रति मेरे मन में बहुत वस्तुपाल और तेजपाल अपने साहित्य, कला व धर्म प्रेम श्रद्धा है। उनके दीक्षा पर्याय की षष्ठि पूर्ति का समारम्भ के लिए बहत ही प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। राजनीति में भी संवत् २०२४ मे बड़ौदा में मनाया गया। इस उपलक्ष्य में उनकी कीर्ति प्रक्षमन रही है। प्राबू का दूसरा कलापूर्ण ज्ञानाजलि नामक एक ग्रंथ संवत २०२४ के वसन्त पंचमी मंदिर इन्हीं का बनवाया हुमा है जो लुणीक बसही के को सागर गच्छ जैन उपाश्रय बड़ौदा से प्रकाशित हुमा नाम से प्रसिद्ध है। इन मंत्री भोर बन्धु युगल ने तीर्थाहै। इस ग्रंथ में पूज्य पुण्य विजय जी के लेखो का संग्रह घिराज शत्रुजय और गिरनार पर भी जैन मंदिर बनवाये होने के साथ-साथ उनके अभिनन्दन में लिखे हुए विद्वानों थे। इनमें से शत्रुजय मन्दिर के दो विशाल और महत्वके लेख प्रकाशित हुए हैं। उनके लिखित एव संपादित पूर्ण शिलालेख अब तक प्रज्ञात थे । अत: उन दोनों ग्रंथों की सूची इसमें दी गई है। ग्रंथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण शिलालेखों के फोटो सहित पाठ इस लेख में देने के साम है। डा. भोगीलाल सांडेसर, डा. उमाकान्त शाह, साथ पूज्य पुण्यविजय जी को श्री लावण्यविजय जी जैन कान्तिलाल कौरा, रतिलाल देसाई इस ग्रंथ के सम्पादक ज्ञान भण्डार राधनपुर से १५वीं शताब्दि के अन्त की हैं। गुजराती, हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी चार भाषाओं लिखी हुई एक प्रति प्राप्त हुई जिसमें वस्तुपाल सम्बन्धी में इसकी सामग्री संकलित है । पूज्य पुण्यविजय जी १. प्रशस्तियां लिखी हुई है। उन प्रशस्ति लेखों को भी सम्पादन के काम में ही अधिक लगे रहे इसलिए निबन्ध इस लेख में प्रकाशित किया गया है और सब प्रशस्तिों या लेख बहुत कम ही लिखे। अतः उनके सम्पादित ग्रंथों का गुजराती में सारॉश भी दे दिया गया है। वस्तुपाल की भमिका प्रस्तावना आदि भी इस ग्रंथ मे संकलित कर सम्बन्धी इन प्रशस्तियों को प्रकाशित करने का श्रेय पूज्य ली गई है। अभिनन्दन ग्रंथ के स्वरूप और साइज के पुण्यविजय जी को ही है। अनुसार इस ग्रथ का मूल्य १५ रुपया बहुत ही उचित इन प्रशस्तियो सम्बन्धी उक्त लेख को मैं कल वैसे
इन
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मानधातु नगर मडेश्वर प्रशस्ति का मंत्री वस्तुपाल से कोई सम्बन्ध नहीं
ही पढ़ रहा था तो उसमें अन्तिम प्रशस्ति के अन्त में पाल की है या नहीं, शंका उपस्थित होना स्वाभाविक ही लिखी हई पंक्ति पढ़कर मुझे पंक्ति मोर इस प्रशस्ति है। संभव है कि शिलालेख पर से परम्परा से नकल सम्बन्धी पुण्यविजय जी का विवरण पढ़ कर मुझे अपने करते हुए मूल प्रशस्ति का कुछ भाग लेखको के दोष से संग्रह-श्री अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर की इस प्रशस्ति भुलाए जाने से लप्त हो गया हो, पर जिस प्रति मे वाली प्राचीन प्रति का स्मरण हो पाया। हमारे संग्रह वस्तुपाल की ही प्रशस्तियों का संग्रह है उसी प्रति में की प्रति नं. ५२३४ में खण्ड प्रशस्ति नामक दशावतार उनके साथ ही लिखी हुई यह प्रशस्ति वस्तुपाल की ही सम्बन्धी १.२ श्लोकों के काव्य लिखे जाने के बाद होनी चाहिए, ऐसा माना जा सकता है। इसके उपरांत मान्धात नगर मडेश्वर प्रशस्ति काव्यानि के पांच श्लोक वस्तुपाल ने शिवालयों के पुनरुद्धार और इसी तरह शिव लिम्बे हुए है। ६ पत्रों की यह प्रति संवत् १४६१ ज्येष्ठ की पूजा-दर्शन करने के उल्लेख तो उनके समय की ही वदी १४ को लिखी हुई हैं। अर्थात् मुनि पुण्यविजय जी रचनाओं में मिलता है। इससे प्रस्तुत प्रशस्ति वस्तुपाल को वस्तुपाल की प्रशस्तियों वाली जो प्रति प्राप्त हुई की नहीं है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। यदि उमके समकालीन ५४० वर्ष पुरानी यह प्रति है। यह प्रतिपादन सत्य हो तो वस्तुपाल की पत्नी सोखुना
पूज्य पुण्यविजय जी को प्राप्त प्रति मे वस्तुपान की नाभ को सुसंस्कृत करके कदाचित शिला के नाम से यहां ७ प्रशस्तिया तो ४ श्लोक से ५४ श्लोको तक की है। निर्दिष्ट किया गया हो ऐसा अनुमान होता है। स्वी प्रशस्ति पं० जगसिह रचित एक श्लोक की है पोर पर वास्तव में इस प्रशस्ति का वस्तुपाल से कोई नवो प्रशस्ति ३ श्लोक की है। इसके बाद मान्धाटनगर सम्बन्ध नही है । शीलेति शब्द की जगह हमारी प्रति में मडेश्वर प्रशस्ति के पाँच श्लोक लिम्बे हुए है। अतः पूज्य
शीतेति पाठ लिखा हुआ है। यह प्रशस्ति मान्धात नगर पुण्यविजय जी की यह सहज धारणा हो गई जब पहले
के महेश्वर शिवालय की ही है जो पांच श्लोकों में ही की ६ प्रशस्तियां वस्तुपाल सम्बन्धी है तो १०वी मान्धातृ
पूर्ण है और जैसा मुनि श्री ने अनुमान किया है । इसके नगर मडेश्वर प्रशस्ति भी वस्तुपाल सम्बन्धी ही होनी
तीन श्लोक वस्तुपाल सम्बन्धी नही है न उनकी पत्नी का चाहिए । इस प्रशस्ति का परिचय देते हुए उन्होंने लिखा
संस्कृत नामातर शीला ही इसमें किया गया है। है कि इस प्रशस्ति मे उसके रचयिता का नाम नही दिया गया है। अन्त की पुष्पिका लेख से मालूम होता है कि मान्धातृ नगर यह नाम भी मूल प्रसिद्ध नाम का मान्धात नगर के मडेश्वर नामक शिलालेख की यह प्रशस्ति सस्कृतिकरण है। मान्धाता नाम का जो पौराणिक राजा है। इसके प्रथम दो पद्य शंकर की पूजा भक्ति के रूप में हुप्रा है उसके नाम से या उसकी स्मृति में जो नगर है। इन श्लोकों में वस्तुपाल का नाम नहीं है । इसी तरह बसाया गया उसका नाम यहा मान्धातृ नगर समझना अन्तिम पाचवें पद्य में प्रशस्ति के मुख्य नायक के पली चाहिए। यह नगर कौन सा है इसपर विचार करना का नाम शीला बतलाया गया है इसमे यह प्रशस्ति वस्तु- चाहिये ।
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वराङ्गचरित में राजनीति
0 डा. रमेशचन्द जैन, विजनौर
राज्य-वराङ्गचरित में राज्य के लिए देश', जनपद, मे गोधनादि सम्पत्ति की वृद्धि तथा सुभिक्ष हो, जनता की विषय' तथा राज्य' शब्दों का प्रयोग हुया है। एक राज्य मानसिक तथा शारीरिक स्थिति ऐसी हो कि वह सदा ही के अन्तर्गत अनेक गष्ट्र प्राते थे। राष्ट्र शब्द से अभिप्राय उत्सव भोग आदि मना सके, धर्म तथा आश्रमो का पालन प्रान्त से था। राज्य की परिधि बढी विगाल थी और करने वाले पुरुष मर्यादा का उल्लघन न करें। गुणीजनों उसके अन्तर्गत राजा के अतिरिक्त सेवक, मित्र, कोश, की कीर्ति चिरकाल तक पृथ्वी पर विद्यमान रहे तथा दण्ड, प्रामात्य जनता, दुग', ग्राम, नगर, पत्तन (भामु- समस्त दोपो का नाग हो। राजा स्वय शत्रुनो को जीतने द्रिक नगर), आकर, (खनिको की बस्तिया), मउम्ब, मे समर्थ, जिनधर्म का अनुयायी तथा न्यायमार्ग के अनुखेट", ब्रज' (ग्वालो की वस्तिया), पथ, कानन (जगल), सार प्रजा का पालन करने वाला हो। इस प्रकार की नदी, गिरि (पर्वत), झरने, समस्त वाहन तथा रत्न भावना से युक्त राजा के राज्य की शोभा देखते ही बनती मभी पा जाते थे। राज्य का सद्भाव कर्मभूमि मे ही बत- थी। छोटी छोटी ग्वालो की बस्तियाँ ग्रामों की समानता लाया गया है। भोगभमि राज्य वगैरह का मद्भाव नहीं धारण करती थी और श्रेष्ठ ग्राम नगर के तुल्य हो जाते था। वराडचरित मे राजतन्त्रात्मक शासन के दशन थे और नगर का तो कहना ही क्या वे अपनी सम्पन्नता होते है। इस शासन प्रणाली मे यद्यपि राजा सर्वोपरि था के कारण इन्द्र की अलकापुरी का भी उपहाम करते थे। किन्तु जनता की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वह मदेव ।
ऐसे नगर सब प्रकार के उपद्रवो से रहित होते थे । किमी सचेष्ट रहता था। उसके शासन मे अन्याय नही होता
अनुचित भय को वहाँ स्थान नहीं होता था। दोपो में फंसने था। राजा की यह भावना रहती थी कि उसके राज्य
की वहां पाशङ्का नही होती थी। वहाँ पर मदा ही दान १. वराङ्गचरित १२।४४, २१४५६
महोत्सव, मान सत्कार तथा विविध उत्सव चलते रहते २. वही २०१२७
१६. देशो भवत्वधिक गोधनाढयः ३. वही २०१६२
सुभिक्षनित्योत्सव भोगयुक्तः । ४. वही २६।२३
राजा जितारिजिनधर्मभक्तो ५. वही १११६७
न्यायेन पापात्सकलां धरित्रीम् ।। ६. वही २६४०
पाखण्डिनः स्वाश्रमवासिनश्च कृता ७. वही ८.५०
स्वसंस्थां न विलङ्घयन्तु । ८. वही
यशांसि तिष्ठन्तु चिरं पृथिव्या २. वही १११६७
दोषा:प्रणाशं सकला सकलाः प्रयान्तु ॥ १०. वही १२१४४
जटासिंह नन्दिः वराङ्ग च० २३॥१८-86 ११. वही २११४७
१७. व्रजास्तु ते ग्राम समानतां गताः १२. वही १६६११
पुरोपमाग्रामपरास्तदाभवन् । १३. वही १११६७
पुरं जहोसव च वत्रिणः १४. वही ७।११
पुरं रराजशक्यप्रतिमो महीपतिः ।। १५. वही २८।१६
वराङ्ग च०२११४७
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वराङ्गचरित में राजनीति
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थे। भोगों की प्रचर सामग्री वहाँ विद्यमान रहतौ 'पी, विदर्भ विदिशा पाञ्चाल आदि देशों के राजा लोग अपनी सम्पत्ति की कोई सीमा नहीं होती थी। इस प्रकार वहाँ विशाल सेना के साथ सम्मिलित हुए थे। राजा वराङ्ग के निवासी अपने को कृतार्थ मानते थे।" राज्यशासन करने ने सागरवृद्धि, धनवृद्धि, वसूक्ति, अनन्तसेन, देवसेन, वाले व्यक्ति को बहुत बड़े उत्तरदायित्व का पालन करना चित्रसेन, अजितसेन तथा प्रतिप्रधान को क्रमशः विदर्भ, पडता था । अत. कभी-कभी राज्य विरक्ति का कारण भी कोशल, कलिङ्ग, पल्लवदेश, काशी, विदिशा, अमातिराष्ट्र हो जाता था। एक स्थान पर कहा गया है कि राज्य (अवन्ति के राष्ट्र) तथा मालवदेश का राज्य दिया था। अनेक दु.खों का कारण है, इससे चित्त सदा पाकुल रहता राजा के गुण- वराङ्गचरित में धर्मसेन और वराङ्ग है, यह शोक का मूल है। वैरों का निवास है तथा हजारों आदि राजापो के गुणों का वर्णन किया गया है। इन क्लेशो का मूल है । अन्त में इसका फल तुमड़ी के समान गुणो को देखने पर ऐसा लगता है कि जटासिहनन्दि तिक्त होता है । बड़े बड़े राज्यो की धुरा को धारण करने उपयुक्त राजापो के बहाने श्रेष्ठ राजा के गुणों का ही वालो की भी दुर्गति होती है।
वर्णन कर रहे है। इस दृष्टि से एक अच्छे राजा के राज्य विस्तार-यद्यपि अधिकाश प्रतापी राजानो निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैका उद्देश्य राज्य का विस्तार समुद्र पर्यन्त करने का रहता राजा को ग्राख्यायिका, गणित तथा काव्य के रस था" तथापि इसे व्यवहार रूप देने के लिए पर्याप्त शक्ति को जानने वाला, गुरुजनों की सेवा का व्यसनी, दृढ मंत्री और नीतिज्ञता आदि की आवश्यकता होती थी। अतः रखने वाला, प्रमाद, अहकार, मोह तथा ईर्ष्या से रहित, मामर्थ्य तथा कार्य के अनुसार राजाप्रो के भी मनु, चक- मज्जनो और भली वस्तुओं का संग्रह करने वाला, स्थिर वर्ती, वासुदेव (नारायण) प्रतिनारायण, नप, सामन्त · मित्रो वाला, मधुरभाषी, निर्लोभी निपुण पीर बन्धुआदि अनेक भेद थे । वराङ्गचरित के २७ पर्व में मनु, बान्धयों का हितैषी होना चाहिए"। उसका प्रान्तरिक चक्रवर्ती, वासुदेव तथा प्रतिनारायणो के नामों का उल्लेख और वाह्य व्यक्तित्व इस प्रकार का हो कि वह सौन्दर्य प्राप्त होता है । अन्यत्र अनेक राजानो और सामन्तो की द्वारा कामदेव को, न्याय निपुणता से शुक्राचार्य को, जानकारी प्राप्त होती है। एक राजा के प्राधीन अनेक शारीरिक कान्ति से चन्द्रमा को, प्रसिद्ध यश के द्वारा मामन्त राजा रहते थे। शत्रु का आक्रमण होने पर इन इन्द्र को, दीप्ति के द्वारा सूर्य को, गम्भीरता तथा सहनमामन्त राजाओं की अनुकूलता, प्रतिकूलता का बड़ा शीलता से समुद्र को और दण्ड के द्वारा यमराज को प्रभाव पडता था। मथुरा के राजा इन्द्रसेन ने जब ललित- भी तिरस्कृत कर दे। अपनी स्वाभाविक विनय से पुराधीश देवसेन पर आक्रमण किया तो उसकी सेना में उत्पन्न उदार आचरणो तथा महान् गुणों के द्वारा वह अंग, बंग, मगध, कलिङ्ग, सुह्य, पुण्ड, कुरु, अश्मक, अभी- उन लोगों के भी मन को मुग्ध कर ले, जिन्होंने उसके रक, अवन्ति, कोशल, मत्स्य, सोराष्ट्र, विन्ध्यपाल, महेन्द्र, विरुद्ध वैर की दृढ गाठ बाध ली हो। वह कुल, शील, मौवीर, सैन्धव, काश्मीर, कुन्त, चरक, असित, प्रोद्र, २१. वही १६।३२-३४ १८. वराङ्ग च० २११४५ .
२२. वही २११५४-५७ १६. राज्यं हि राजन्वहुदुःखमूलं
२३. वराङ्ग च० ११४८-४६ चित्ताकुलं व्याकृतिशोकमूलम् ।
२४, रूपेणकाममथ नीतिबलेन शुक्र वैरास्पदं क्लेशसहस्रमूलं किंपाक पाक प्रतिम तदन्ते । कान्त्याशशाङ्कममरेन्द्रमुदारकीर्त्या । दुरन्तता राज्यधुरंघुराणां धर्मस्थितानां सुखभागिनो च। दीप्त्यादिवा करमगाघतया समुद्रं विजानता साधुसमुत्थितस्य कथं रतिः स्यान्मम दण्डेन दण्डधरमप्यतिशिष्य एव ॥ राज्यभोगे॥ वराङ्ग च० २६।२३।२४
वराज च० ११५० २०. वराङ्ग च० २०१७५, २११४६
२५. वराङ्ग चरित ११५४
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४६ वर्ष २७,कि.२
अनेकान्त
पराक्रम, शान, धर्म तथा नीति से बढचत कर हो"। की दृष्टि मे प्रामाणिक होती है। अतः वह उस पर राजा को चाहिए कि उसके अनुगामी सेवक उससे सन्तुष्ट अडिग विश्वास रखती है। राजा का विवेक प्रापत्तियों में रहें तथा प्रत्येक कार्य को तत्परता से करें। उसके मित्र पड जाने पर भी कम न हो, संकट के समय भी वह समीप में हों और वह हर समय सम्बन्धियों के प्राश्रित न किसी प्रकार की असमर्थता का अनुभव न करे तथा उसे रहें"। प्रबुद्ध और स्थिर होना राजा का बहुत बड़ा गुण अपने कार्यो का इतना अधिक ध्यान हो कि कर्तव्य, है। जो व्यक्ति स्वयं जागता है वही दूसरों को जगा कर्तव्य, शत्रपक्ष-मात्मपक्ष तथा मित्र पोर शत्रु के सकता है। जो स्वयं स्थिर है वह दूसरों की डगमग स्वभाव को जानने में उसे देर न लगे"। जिस राजा का अवस्था का अन्त कर सकता है। जो स्वयं नही जागता प्रभ्युदय बढ़ता है उसके पास मङ्गनायें, अच्छे मित्र तथा है पौर जिसकी स्थिति अत्यन्त डावाँडोल है वह दूसरों बान्धव, उत्तम रत्न, श्रेष्ठ हाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ रथ को न तो प्रबुद्ध कर सकता है और न स्थिर कर सकता प्रादि हर्ष तथा उल्लास के नूतन साधन अनायास ही पाते है । राजा राजसभा मे पहले जो धोषणा करता है उसके रहते है"। राजा का यह कर्तव्य है कि वह राज्य मे पढ़े विपरीत पाचरण करना प्रयुक्त तथा धर्म के प्रत्यन्त हए निराश्रित बच्चे, बड़ों तथा स्त्रियों, अत्यधिक काम विरुव है इस प्रकार के कार्य का सज्जनपुरुष परिहास लिए जाने के कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जाने पर किसी भी करते हैं" । राजा की कीर्ति सब जगह फैली होनी चाहिए कार्य के अयोग्य श्रमिकों, अनाथों, अन्धों दोनों तथा कि वह न्यायनीति में पारङ्गत, दुष्टों को दण्ड देने वाला, भयङ्कर रोंगों में फंसे हुए लोगों की सामर्थ्य असामर्थ्य प्रजामों का हितैषी और दयावान है"। राजा धर्म, अर्थ तथा उनकी शारीरिक-मानसिक, दुर्बलता आदि का पता और काम पुरुषार्थों का इस ढंग से सेवन करे कि उनमें से
लगाकर उनके भरणपोषण का प्रबन्ध करे"। जिन लोगो
लगाकर उनक भरणपोषण का प्रबन्ध । एकका अन्य से विरोध न हो। इस व्यवस्थित का एकमात्र काम धर्मसाधन हो, उसे गुरु के समान
का अपनाने वाला राजा अपनी विजय पताका फहरा मान कर पूजा करे तथा जिन लोगों ने पहिले यताह"। राजा की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए कि किए हुए वैर को क्षमा याचना करके शान्त करा वह प्रातः से सन्ध्या समय तक पुण्यमय उत्सवो में व्यस्त दिया हो उनका अपने पुत्रों के समान भरणपोषण करे रहे। अपने स्नेही बन्धु, गन्धव, मित्र तथा प्रथिजनों को किन्तु जो अविवेकी घमण्ड में चूर होकर बहुत बढ़चढ़ कर भेंट चादि देता रहे" | ऐसे राजा की प्रत्येक चेष्टा प्रजा
चले अथवा दूसरो को कुछ न समझे उन लोगों को अपने
देश से निकाल दे"। जो अधिकारी अथवा प्रजाजन २६. वराङ्गच. २०१०
स्वभाव से ही कोमल हों, नियमों का पालन करते हुए २७. वही २३०
जीवन व्यतीत करें, अपने कर्तव्यों प्रादि को उपयुक्त २८. स्वयं प्रबुद्धः प्रतिबोषयेत्परान् ।
समय के भीतर कर दें, उन लोगों को समझने तथा परान प्रतिष्ठापयेत स्वयं स्थितः ।।
पुरस्कार प्रादि देने में वह प्रत्यन्त तीव्र हो"। राजा को स्वयंबुवस्स्वनवस्थितः कथं ।
प्रजा का प्रत्यधिक प्यारा होना चाहिए। बह-सब परिपरानवस्थापनरोधनक्षमः ॥ बराङ्गच० १३.३४ स्थितियो में शान्त रहे और पत्रुषों का उन्मूलन करता २६. वराङ्ग च० १६९
३३. वही २०१६८ ३४. वही २४ ३०. न्यायविद्दुष्टनिग्राही धर्मराजः प्रजाहितः । ३५. जटासिंहनन्दि : वराङ्ग चरित २११७६ द्रयावानिति सर्वत्र कौतिस्ते विश्रुता भुवि ।। ३६. स्त्रीबालवृद्धाश्रमदुर्गतानामनाथदीनान्धरुजान्वितानाम् ।
वराङ्ग च. १५-५० बलाबलं सारमसारतां च विज्ञाय धीमानथ संबभार ॥ ३१. वही २४११, २२१८
वही २२१५ ३२. वही २८१
३७. वही २२१६ ३८. वही २२१८
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बराङ्गचरित में राजनीति
४७
हमा अपनी ऋद्धियों को बढ़ाता रहे"।
उत्तराधिकार-सामान्यतया राज्य का उत्तराधि. शासन-राजा का शासन इतना प्रचण्ड हो कि लोग कारी राजो के ज्येष्ठ पुत्र को बनाया जाता था। किन्तु उसके जनपद या राजधानी में चारो वर्ण और पाश्रमो की यदि ज्येष्ठ पुत्र की अपेक्षा कनिष्ठ पुत्र अधिक योग्य हमा मर्यादाओं को लाँधने का साहस न करे। सब धर्मों के तो उसे राज्य सिंहासनाभिषिक्त किया जाता था। वरांगअनुयायी अपने अपने शास्त्रों के अनुसार आचरण करें।
करें।
चा
चरित के बारहवें सर्ग से ज्ञात होता है कि कुमार सुषेण बालक, वृद्ध, अज्ञ तथा विद्वान् सभी अपने कर्तव्यो का
यद्यपि वरांग से बड़े थे किन्तु महाराज धर्मसेन ने मंत्रियों पालन करें। यदि कोई पुरुष मन से भी उसका बुरा
की सलाह से बराग को ही राजा बनाया; क्योंकि कुमार करने का विचार लाए या विरुद्ध कार्य करे तो वह उसके
वरांग अधिक योग्य थे। ऐसे समय राजा को गृह कलह राज्य में एक क्षण भी ठहरने का साहस न करे । वह इतना
का भी सामना करना पड़ता था। राजा वरांग को भयभीत हो जाय कि अपने को इधर उधर छिपाता फिरे
विमाता की असूया का शिकार होना पड़ा । राजा धर्मसन ताकि भूख प्यास की वेदना से उसका पेट, गाल और ।
ने वरांग को इसीलिए युवराज बनाया; क्योंकि कुमार आँखें घुस जाय तथा दुर्बलता और थकान से उसका
वराग ने सब विद्यानो और व्यायामों को केवल पढ़ा ही पृष्ठदण्ड झुक जाय। राजा का शासन इतना अधिक नहीं था अपितु उनका आचरण करके प्रायोगिक अनुभव प्रभावमय हो कि शत्रु उस की आज्ञा उल्लंघन न करें। भी प्राप्त किया था। वह नीतिशास्त्र के समस्त अङ्गों उसके सब कार्य अपने पराक्रम के बल पर सफल हो जाय। को जानने वाला तथा समस्त ललितकलामों और विधि समस्त वसुन्धरा की रक्षा भी करता हुमा वह इन्द्र के विधानों में पारंगत था। बृद्धजनो की सेवा का उसे बड़ा समान मालूम दे"। जब कोई शत्र उसके सामने सिर चाव था। उसके मन मे संसार का हित करने की कामना उठाये तब वह अपनी उत्साह शक्ति, पराक्रम, धैर्य और
थी। वह बुद्धिमान और पुरुषार्थी था, प्रजा के प्रति साहस से युक्त हो जाय किन्तु यही राजा जब सच्चे
उदार था।" प्रजा समझती थी कि कुमार वरांग विनम्र, गुरुपों, मातृत्व के कारण प्रादरणीय स्त्रियों तथा सज्जन
कार्यकुशल, कृतज्ञ और विद्वान् है ।" महाराज धर्मसेन पुरुषों के सामने पहुचे तो उसका आचरण, सत्य, सरलता,
सब लोगो से कुमार के उदार गुणों की प्रशंसा सुनते थे शान्ति, दया तथा आत्मनिग्रहादि भावो से युक्त हो
तो उनका हृदय प्रसन्नता से प्राप्लावित हो उठता था
ऐसे योग्य पुत्र के कारण वे अपने को कृतकृत्य मानते थे; जाय" । राजा विधिपूर्वक प्रजा का पालन करे । जो लोग किसी प्रकार के कुकर्म करें उनको वह दण्ड दे। निरुपाय
क्योंकि प्रजानों को सुखी बनाना उन्हे परमप्रिय था।" व्यक्तियों, ज्ञान अथवा किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त
राज्याभिषेकके समय दी जाने वाली शिक्षा-राज्यान करने के कारण प्राजीविका उपार्जन में असमर्थ, दरिद्र भिषेक के समय पिता अथवा गुरुजन राजपुत्र को शिक्षा तथा प्रशरण व्यक्तियों का वह राज्य की मार से पालन देते थे। स्वाभाविक ही है कि जो गुरुजन स्वयं गुणी और करे। जोशील की मर्यादा को तोड़े वे राजा के हाथ बड़ा विटान होने के अपने पत्र को मोदी कल्याण भारी दण्ड पायें"।
के लिए अपनी बहुजता के अनुकूल उत्तर देते है। इसी
३६. वही २२।२१ ४०. जटासिंहनन्दि : वराङ्गचरित ११५१ ४१. वही १२५२ ४२. वही २११७५ ४३. वही २२।३ ४४. वही. १६६६
४५. वराङ्ग च० १२१६ ४६. वही २०१६ ४७. वही २०४७ ४८. वही १११५५ ४६. वही ११४५३ ५०. वही २६४२
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४८, वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त परम्परा का निर्वाह वरांग चरित में मिलता है। राजा कभी दान दो तो इसी भावना देना कि त्याग करना वराग कुमार सुगात्र का राज्याभिषेक करने से पहले तुम्हारा कर्तव्य है। ऐसा करने से गृहीता के प्रति तुम्हारे शिक्षा देते है :
मन मे सम्मान की भावना जागृत रहेगी। जब जब तुम्हारे हे सुगात्र ! जो अपने पूर्व पुरुष है, गुरुजन है, विद्वान् सेवक कोई अपराध करें तो उनके अपराधो की उपेक्षा है, उदार विचारशील है, दयामय कार्यों मे लीन है तथा कर अपने को उनका स्वामी मानकर क्षमा कर देना। आर्यकुलों मे उत्पन्न हुए हैं ऐसे समस्त पुरुषों का विश्वास जो अकारण ही वैर करते है, अत्यन्त दोषयुक्त है तथा तथा आदर करना, प्रत्येक अवस्था मे मधुर वचन कहना। प्रमादी है, नैतिकता के पथ से भ्रष्ट हो जाते है। जिन इनके सिवा जो माननीय है उनको सदा सम्मान देना । पुरुषों का स्वभाव अत्यन्त चंचल होता है तथा जो व्यसनो शत्रुनों पर नीतिपूर्वक विजय प्राप्त करना। दुष्ट तथा मे उलझ जाते है ऐसे पुरुष को लक्ष्मी निश्चित रूप में अशिष्ट लोगों को दण्ड देना। अपराध करने के पश्चात् छोड़ देती है, ऐसा लोक में कहा जाता है। इसके विपजो तुम्हारी शरण में आ जाये उनकी उसी प्रकार रक्षा रोत जो पुरुषार्थी है, दीनता को पास तक नहीं फटकने करना जिस प्रकार मनुष्य अपने सगे पुत्रों की करता देते है। सदा ही किसी न किसी कार्य में जुटे रहते है, है। जो लँगडे-लूले हैं, जिनकी प्रॉखें फट गई है, मक है, शास्त्र ज्ञान में पारङ्गत है, शान्ति और दया जिनका बहिरे है, अनाथ स्त्रियाँ है, जिनके शरीर जीर्णशीर्ण हो स्वभाव बन गया है तथा जो सत्य, शौच, दम तथा उत्साह गए हैं, सम्पत्ति जिनसे विमुख है, जो जीविकाहीन है, से युक्त है ऐसे लोगों के पास मम्पत्तिया दौडी आती है। जिनके अभिभावक नहीं है, किसी कार्य को करते-करते यौवराज्याभिषेक-किसी शुभ, तिथि, करण और जो श्रान्त हो गये है तथा जो सदा रोगी रहते है इनका महर्त में जब कि ग्रह सौम्य अवस्था को प्राप्त कर बिना किसी भेद-भाव के भरणपोषण करना। जो पुरुष उच्चस्थान में स्थित होते थे उस समय राज्य प्राप्त करने दूसरों के द्वारा तिरस्कृत हुए है अथवा अचानक विपत्ति वाले राजपूत्र को पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठा दिया मे पड़ गए है उनका भली भांति पालन करना"। धर्म- जाता था। उस समय प्रानन्द के बाजे बजाये जाते थे । मार्ग का अनुसरण करते हए सम्पत्ति कमाना, अर्थ की सबसे पहिले अठारह श्रेणियों के प्रधान पुरुप सुगन्धित विराधना न करते हुए कामभोग करना । उतने ही धर्म जल से चरणों का अभिषेक करते थे। उस जल मे चंदन को पालन करना जो तुम्हारे काम सेवन मे विरोध न घुला हवा होता था। तथा विविध प्रकार के मणि और पंदा करता हो। तीनो पुरुषार्थो का अनुपात के साथ रत्न भी छोड दिये जाते थे। इसके उपरान्त सामन्त सेवन करने का यह शाश्वत लौकिक नियम है"। जब राजा, श्रेष्ठ भपति भोजप्रमुख (भुक्तियों प्रान्तों के अधि
पति) अमात्य, मावत्पर (ज्योतिषी, पुरोहित आदि) ५१. वृद्धान्गुरूप्राज्ञतमानुदारान् दयापरानार्यकलांश्च नित्यम् ।
५५ दातव्यमित्येव जनायक्ति प्रदेहि सन्मानपुरस्सरेण । विश्रम्भपूर्व मधुरैर्वचोभिर्मन्यस्व मान्यानथमानदानः ।। भृत्यापराधानविगण्य वत्स क्षमस्व सर्वानहमीशतेति ।। वराज च० २६१३३
वही २०३७ ५२. वराङ्ग च० २६।३४
५६ निवद्धवैरानतिदोपशीलान्प्रमादिनो नीतिवहिष्कृताश्च । ५३. पङ्ग्वन्धमूकान्वधिरास्त्रियश्च
चलस्वभावव्यसनान्तराश्च क्षीणान्दरिद्रानगतीननाथान् । श्रान्तान्सरोगांश्चविष्व
जहातिलक्ष्मीरिति लोकवाद. ।। वही २९३८ सम्यक्पराभिभूतात्परिपालयस्व ।। वराङ्ग च० २९३५ ५. अदीनसन्वान क्रियया समेतान् ५४. धर्माविरोधेन समर्जयार्थानर्थाविरोधेन भजस्व कामान । श्रुतान्वितान्क्षान्तिदयोपपन्नान् । कामाविरोधेन कुरुष्व धर्म सनातनो लौकिक एप धर्मः ।। सत्येन शौचन दमेन युक्तानत्साहिन श्रीस्वयमभ्युपैति ।। वराङ्ग च० २६३६
वही २६३६
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हिन्दी-जैन पदों में प्रात्म सम्बोधन
प्रकाश चन्द्र जैन हिन्दी साहित्य के विविध रूपो मे गेय पदो का अपना के साथ इन पदो का गायन करते हुए पास-पास के वाता' एक मौलिक व्यक्तित्व है । गीति काव्य का सीधा सम्बन्ध वरण को रसा कर देते है । हृदय से है। हृदय की अनुभूति विशेष साधन पाकर संगीत विषय की दृष्टि से उक्त पदो का कई भागो में के प्रावरण में गेय पदो मे प्रस्फुटित हो उठती है। गेय पद वर्गीकरण किया जा सकता है। परन्तु अधिकाश पद भक्ति लिखते समय हृदय इतना रस-विभोर हो जाता है कि तथा अध्यात्म भावना पर ही आधारित है। ससार की उसमें तर्क, बुद्धि आदि का कवि को स्मरण ही नही असारता, मन की मूढता, जीव की विषय-लोलुपता को रहता।
निन्दा, भगवान की महिमा का वर्णन तथा प्रात्म-निन्दा हिन्दी गेय पदो के रचनाकारो मे जैन कवियो को नहीं आदि विषयो को लेकर प्रचरता से पदों की रचना की भुलाया जा सकता है। अभी तक प्राप्त जैन कवियों की पद गई है। रचनाएं हमारे जैन समाज के लिए गौरवपूर्ण निधिया है। यहा मै जैन कवियों द्वारा रचित ऐसे पदो का वर्णन जैन पदो में प्राय: विषय सामग्री प्रभुस्तवन, आध्यात्मिकता करूंगा जिनमें उन्होंने अपनी आत्मा को समझाया है। एक कुछ-कुछ शृङ्गार, विरह एवं भक्ति भावना से सम- प्रायः यह पद-रचयितानों की परम्परा रही है कि वे भक्ति न्वत है। इन सभी विषयो मे सम्बन्धित पदा में सनीता- विभोर होकर ईश्वर मे इतने तन्मय हो जाते है कि उन्हें तमिकता, गेयता, रागात्मकता एव माधुर्य तो पाया ही अपना व्यक्तित्व बहुत तुच्छ, निन्दनीय, विकार-अस्त एवं जाता है साथ-ही-साथ भाषा का परिष्कार, भावो की विषय-लोलुप दिखाई देने लगता है । वे बार-बार अपनी स्पष्टता तथा रस की गहनता भी प्रचुरता से निहित है। दयनीय दशा को देखकर मन को या आत्मा को सम्बोधित
जैन कवियो द्वारा रचित गेय पद हमे प्रचुर मात्रा में कर कर्तव्य का ज्ञान कराने लगते हैं । यह बात विशेषरूप मिलते है। सूर, मीरा, तुलसी, कबीर आदि कवियो की से स्मरणीय है कि जैन कवि कभी भी कोरे उपदेशक के तरह जैन कविया के इन पदो का जैन सम्प्रदाय में विशेष रूप में समाज के सामने नहीं पाया है। वह अपनी प्रात्मा महत्व रहा है। भक्तगण रस-विभोर होकर बड़े माहाद का उद्धार करने के बाद ही दूसरों को अपना अनुकरण तथा मन्त्री मानन्द के साथ रत्नों के कलश उठाकर प्राज्ञा का पालन करते थे उसी प्रकार मेरे पुत्र पर प्रेम कुमार का मस्तकाभिषेक करते थे। उनके रत्नकम्भों में करें और उसके शासन को मार्ने । भी पवित्र तीर्थोदक भरा रहता था अन्त में स्वयं राजा
राज्याभिषेक करने वालों की श्रेणी मे भोज प्रमुखो युवराज पद का द्योतक पट्ट (मुकुट तथा दुपट्टा) बांधता
(भोजमुख्या) का नाम आया है"। भोजो की शासनथा। महाराज की प्राज्ञा से पाठ चामरधारिणी युवतियाँ
प्रणाली भौज्य कहलाती थी, जिसका ब्राह्मण प्रन्यो में चवर ढोना प्रारम्भ करती थी। अन्त में राजा बच्चे से
उल्लेख हुआ है। इस शासन प्रणाली में गणराज्य की लेकर बुद्धपर्यन्त अपने कुटुम्बी और परिचारकों को, राज्य
स्थापना मान्य थी। ऐतरेय के अनुसार यह पद्धति सात्वत के सब नगरों, राष्ट्रों (राज्यों), पत्तनो (सामुद्रिक नगरों),
राजानो (यादवों) में प्रचलित थी। महाभारत के अनुसार समस्त वाहनों, (रषादि) यानो तथा रत्नों को अपने
यादवों का अन्वकवृष्णि नामक संघ था। मतः भोज्य शासन पुत्र को सौप देता था। उस समय वह उपस्थित नागरिको
गणराज्य का एक विशिष्ट प्रकार का शासन था"।। तथा कर्मचारियों से यह भी कहता था कि आप लोग जिस ५८. वराङ्ग च. ११७६१-६८५६. वही १११६४ प्रकार मेरे प्रति स्नेह मे बँधे हुए चित्त वाले थे तथा मेरी ६०. बलदेव उपाध्याय वैदिक साहित्य और संस्कृति पृ. ४७२
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५०, वर्ष २७, कि०२
अनेकान्त
कराने की बात सोवना है, यही कारण है कि इन पदों को धन की तृषा प्रीति बनिता की, पढ़कर सीवा हृदय पर प्रभाव पड़ता है। जो बात सच्चे
भूलि रह्यो वृष ते मुख गोयो। मन से कहीं जाती है उसका प्रभाव दूसरों के मन पर सुख के हेत विषय-रस सेये, पड़ना अवश्यम्भावी है।
घिरत के कारन सलिल विलोयो। जैन कवियो मे प. रूपचन्द, बनारसीदास, जगतराम माति रह्यो प्रसाद मद मदिरा, चानतराम, भूधरदाय, बुधजन एव दौलतराम आदि ऐसे अरु कन्दर्प सर्प विष भोयो । कवि है जिन्होंने जो कुछ भी लिखा उसका सम्बन्ध किसी रूप चन्द चेत्यो न चितायो, न किसी प्रकार से प्रात्मा से जुड़ता चला गया है । प्रात्मा मोह नींद निश्चल है सोयो। के ऊपर लिखे गए इन कवियों के पद पाठको तथा उक्त पद में कविवर रूपचन्द भी आत्मा को सासाधोतामो को आध्यात्मिकता का सन्देश देते हुए प्रतीत रिक विषय भोगो से मन को हटाने का सन्देश देते हैंहोते हैं।
"माति रह्यो प्रसाद मद-मदिरा" मे अनुप्रास का विन्यास कविवर भट्टारक कुमुदचन्द्र ने राजस्थानी हिन्दी में
दृष्टव्य है। इनके प्रत्येक पद इसी प्रकार मन को सम्बोअपने अधिकाश पद लिखे है। इन्होंने यद्यपि प्राध्यात्मिक धित करके कर्तव्य का ज्ञान कराया गया है। पद कम ही लिखे है फिर भी इनके जो भी पद प्रात्मा या
___वनारसीदास प्रतिभा सम्पन्न एवं दृढ़ निश्चय वाले सेतना को सम्बोधित कर लिखे गये है, वे बेजोड़ है। कवि थे। इनकी रचनाओं की साहित्यिकता अनुपम है। चेतन को समझाते हुए कविवर कहते है कि:
प्रत्येक पद से अध्यात्म रस टपक कर श्रोता की प्रांखो चेतन चेतत कि बावरे ।
मे अश्रु कण बन जाता है। विषय विषे लपटाय रह्यो कहा,
कविवर अपने मन की दुविधा को प्रगट करते हए दिन-दिन छीजत जात प्रापरे ।
कहते हैंतन, धन, यौवन चपल रुपन को,
दुविधा कब जैहैं या मन को। योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे।
कब निज नाथ निरंजन सुमिरी, तज सेवा जन-जन को। काहे रे मूह न समझत अजहूँ,
कब रुचि सौंपीवं दुग चातक, बूद प्रखय पद धन की। कुमुद चन्द्र प्रभु पद यश गाउ रे ॥२॥
कब सुभ ध्यान धरौं समता गहि, करूं न ममता तन की। निश्चित रूप से कवि कुमुदचन्द्र प्रात्मा की गढ़ता से
कब घट अन्तर रहै निरन्तर, दिढ़ता सुगुर वचन की। विकल हैं तथा तन, धन, यौवन को चंचल कर इनका गर्व न करने का सन्देश देना चाहते है ।
कब सुख लहौं भेद परमारय, मिट धारना धन की। पण्डित रूपचन्द सत्रहवीं शताब्दी मे हुए थे। उनकी
कब घर छोडि होई एकाकी, लिए लालसा बन की।
ऐसी दसा होय कब मेरी, हाँ बलि बलि वा इनकी। अधिकांश रचनाएँ आध्यात्मिक रस में डूबी हुई है।
वास्तव मे कवि को निर्दोष, निविकार बनने की बड़ी आत्मा को सम्बोधित करते हुए कवि ने बहुत से पद लिखे है। उनके एक पद का नमूना देखिए:
उत्सुकता है। वह ऐसे संयोग की प्रतीक्षा मे है, जब उसकी मानप्त जनमु क्या ते सोयो।
माधना पूरी होगी। करम-करम करि प्राइ मिल्यो हो,
जगजीवन कवि आगरा निवासी थे । वे कवि बनारसी निद्य करम करिकरि सु विगोयो।
दाम के बड़े प्रशसक थे। इनके छोटे-छोटे पदों में भावभाग विसेस सुधा रस पायो,
गम्भीयं है । इन्हे भी संसार की प्रसारता पर रोष हैसो त चरननि को मल धोयो।
जगत सब वीसत धन की छाया। चितामनि क्यो बाइस को,
पुत्र, कलत्र, मित्र, तन, संपति, कुंजर भरि-भरि ईन्धन ढोयो।
उदय पुद्गल जुरि प्राया,
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हिन्दी-जन पदों में मात्म सम्बोधन
भव परनति वरषागम सोहै, पाश्रव पवन बहाया । इन्द्रिय विषय लहरि बड़ता है, देखत जाय बिलाया । राग दोष वग पंकति दीरघ, मोह गहत घर राया । सुमति विरहनी दुखदायक है, कुमति संजोग निभाया । निज संपति रत्नत्रय गहि करि, मुनि जन नर मन भाया । पहन अनन्त चतुष्टय मन्दिर, जग जीवन सुख पाया । हो मन मेरा तू षरम न जाणंदा । जा सेथे ते शिव सुख पावं,
सो तुम नांहि बिछाव दा । कविवर जगजीवन मन को अज्ञानी तथा विवेकरहित बता कर उसे अपने को पहचानने का सन्देश देना चाहते
___जगतराम भी हिन्दी के अच्छे कवि थे । इन्होंने स्तुति परक तथा प्रात्मबोधक पदों की रचना की है। इनका एक प्रात्म-बोधक पद देखिए:--- नहि गोरो नहिं कारो चेतन, अपनो रूप निहारो। दर्शन ज्ञान भई चिन्मरत, सकल करम ते न्यारी रे । जाके बिन पहिचान जगत में सह्यो महा दुख भारी रे॥
उक्त पंक्तियो में कवि ने प्रात्मा को शुद्ध चैतन्यमय तथा विकार रहित बताया है। वह न तो काली है न गोरी है।
कविवर द्यानतराय हिन्दी के उन मूर्धन्य कवियों में से एक हैं जिन्होने भजन, पूजन कविता तथा गोत्र पदो की रचना की है। इनका भाषा और भावों पर पूरा अधिकार था । इनके पदों में अध्यात्म रस पूर्णरूप से भरा हा है। विषय भोगों में लिप्त प्राणियों को निलिप्त होने का संदेश देते हुए कवि कहते है कि
तू तो समझ, समझ रे भाई। निश दिन विषय भोग लिपटाता परम वचन ना सुहाई। करमन का लं पासन मांडयो बाहिर लोक रिझाई। कहा भयो वक ध्यान धरे ते, जो मन बिरन रहाई।
मास-मास उपवास किए ते, काया बहुत सुखाई। कोष मान छल लोभ न जीत्यौ, कारज कोन सराई। मन वच काय जोग थिर करके, त्यागो विषय कषाई। चानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई, सतगुरु सीख बताई।
कवि द्यानत राय ने कहा- यथो वक ध्यान धरे ते, मास-मास उपवास किए तै, मादि वाक्य अवश्य ही केवल बाह्याडम्बरो को प्रधानता देने वालों को पीड़ित करेंगे। परन्तु मन के शुद्ध किए बिना उनकी नि सारता नि . सन्देह है।
कवि भूधरदास भी हिन्दी के जैन कवियो में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है। इनकी भाषा, भाव, शैली तथा आध्यात्मिकता बहुत बेजोड़ है। गरब नहिं कीजे रे, ऐ नर निपट गंवार । झूठी फाया झूठी माया, छाया क्यों लखि लीजे रे । कछिन सांझ सुहागरु जोवन,
के दिन जग में जोजे रे। बेगा चेत विलम्ब तजो नर,
बंध बो.नित की रे। भूषर बल बल हो है भारी, .
ज्यों ज्यों कमरी भोजे रे॥ उक्त पद्य मे कविवर भूधरदास ने मानव के मन को चेतागा है कि तू प्रात्म कल्याण में जितनी देर लगायेगा उतनी ही तेरी पाप रूपी कबली भीग कर भारी हाती जाएगी।
बख्तराम साह राजस्थान के निवासी थे। इनके पदो में भी आत्म सम्बोधन की प्रधानता है :
चेतन ते सब सुधि विसरानी भइया । झूठो जग सांचों करि मान्यो, सुनी नहीं सतगुरु को वानी भाया। भ्रमत फिरत चहुं गति में प्रब तो, भख त्रिसा सही नीद नसानी भाया। ये पुदगल जह जान सदा हो, तेरो तो निज रूप सम्यानी भाया। वस्तराम सिव सुख तब है, हूं है तब जिन मत सरपानी भइया ।
जब तक जिनवाणी में श्रद्धा नहीं होती तब तक हे चेतन, तेरी सद्गति की कोई प्राशा नहीं है ।
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५२, वर्ष २७, कि०२
अनेकान्त
कवि नवलराम १८वी शताब्दी में हुए थे। इनक पदो मे भक्ति की प्रधानता है। परन्तु प्राध्यात्मिकता को भनक सर्वत्र पाई जाती है
परे मन सुमरि देव रघुराम ॥ जनम-जनम संचित ते पातिक,
तछिन जाय विलाय । त्यागि विषय अरु लग शुभ कारज,
जिन वाणी मन लाय । ऐ संसार क्षार सागर में,
और न कोई सहाय। जयपुर निवासी कविवर बुधजन जैन हिन्दी साहित्य के गौरव रत्न है। आप के पदो में आत्मा परमात्मा एवं संसार की प्रसारता का बड़े प्रभावक ढंग से वर्णन हमा है। मानव जीवन दुर्लभता को समझाते हुए कवि मन से कहता है कि
परे जिया त निज कारिज क्यों न कियो। या भरको सुरपति प्रति तरसै। सो तो सहज पाय लीयो । मिथ्या जहर कही गुण तजिबों। ते अपनाय पीयो । दया दान पूजा संजम में । कबहुं चित न दियो । सुषवन प्रौसर कठिन मिल्या है।
निश्चय पारि हियो। अब निजमत सरवा विद करो।
तब तेरो सफल जीयो । दौलत राम प्रसिद्ध कवि हो गए है। आपके पदो की भाषा खड़ी हिन्दी है। इनका भाषा पर पूरा अधिकार था। इनके आध्यात्मिक पद संसार की क्षणिकता, जीवन को दुर्लभता तथा जिनमत की महानता से भरे हुए है। एक पद देखिए
जिया जग धोके को टाट । अठा उद्यम लोक करत है, जिसमें निश दिन घाटी। जान बूझ कर अंध बने हो, मांखिन बांधी पाटी। निकल जाएंगे प्राण छिनक में, पट्टी रहेगी माटी। दौलत राम समझ मन अपने, दिल की खोल कपाटी।
दौलत राम जी का ऊपर लिखा गया पद संमार की
नश्वरता का एका बजा रहा है। इनका प्रत्येक पद इसी प्रकार प्रभावक तथा भावों को स्पष्ट करने वाला है।
छत्रपति १३वी शताब्दी के कवि है। इनके पदों मे माधुर्य तथा स्पष्टता है।
प्रायु सब यों ही बीती जाय। बरस प्रयन रितु मास महूरत, पल छिन समय सुभाय । बन न सकत जप तप व्रत संजम, पूजन भजन उपाय । मिथ्या विषय कवाय काज में, फंसो न निकसो जाए। धनि वे साधु लगै परमारथ, साधन में उमगाय । छत्त सफल जीवन तिनही का, हम सब शिथिल न पाय ।।
पण्डित महाजन सीकर के रहने वाले थे। इन्होंने चेतन को समझाते हुए कहा है कि हे चेतन तू तो अपना भव संसार में भ्रमण करते करते यो ही खोए जा रहा है -
जीव तू भ्रमत भ्रमत भव खोयो। जब चेत भयो तब रोयो। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप, यह धन धरि विगोयो। विषय भोग गत रसको रसियो, छिन-छिन में प्रति सोयो। कोष, मान छल लोभ भयो, तब इनही में उरझोयो। मोह राम के किंकर ये सब, इनके बस ह लुटोयो। मोह निवार संवार सो भायो, प्रातम हित स्वर जोयो । बुध महाचन्द्र चन्द्र सम होकर, उज्जवल चित्र रखोयो।
पण्डित फागचन्द्र को संस्कृत एवं हिन्दी पर एक सा अधिकार था। अापके पदों में अध्यात्म चितन बहुत उच्चकोटि का पाया जाता है। इनका एक पद देखिये--
अरे हो प्रज्ञानी तूने कठिन मनुष भव पायो। लोचन रहित मनुष के कर में, ज्यों बटेर खग प्रायो।
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भारतीय जैन कला को कलचुरि नरेशों का योगदान
10 श्री शिवकुमार नामदेव
राजनीतिक दृष्टिकोण से प्राचीन भारतीय इतिहास द्वारा सरक्षित धर्म की मूर्तियाँ एवं देवालय प्राप्त होते है में कलचुरि नरेशो का महत्वपूर्ण स्थान है। छठवी शती वही जैन धर्म की प्रतिमाओं का बाहुल्य भी है। में लेकर १८वी शती तक इन नरेशों ने भारत के उत्तर कलचर नरेशों के काल में जैन धर्म का अत्यधिक अथवा दक्षिण किसी न किसी भभाग पर शासन किया ।
प्रसार था । पुरातात्विक अध्ययन से इस विषय पर पर्याप्त प्राच्य भारतीय इतिहास के अतीत को गौरवयुक्त बनाने प्रकाश पडता है। जबलपुर जिले के बहरीबद नामक मे इन नरेशो ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस काल स्थल से एक विशाल जैन तीर्थकर शांतिनाथ की अभिके विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न कलाकारों द्वारा निर्मित हिन्दू, लखयक्त प्रतिमा प्राप्त हुई है। प्राचार्य मिराशी जी का जैन एव बौद्ध देवी देवताओं तथ सुर सुन्दरियों की
अनुमान है सोहागपुर (शहडोल, म०प्र०) मे जैन देवामूर्तियां दर्शनीय है। यद्यपि इस काल के अनेक गगन
लय थे। कल्याण मे कलचुरि नरेशो का शासन यद्यपि चुम्बी देवालयो का केवल नाम शेष रह गया है परन्तु
अल्पकालीन था किन्तु वहा जैन धर्म का अच्छा प्रसार अवशिष्ट देवालयों एवं विद्यमान शिल्पकृतियाँ उन कला.
था। ई० १२०० मे कलचरि राजमंत्री रेचम्पय ने कारो एष उनके संरक्षक नरेशों की स्मृतियों को अक्षुण्ण रखे श्रवण बेलगोला मे शातिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रति
ष्ठित करायी थी। 'बासवपुराण एवं विज्जल चरित' में ___ यद्यपि अधिकांश कलचुरि नरेश शैव मतानुयायी थे ।
जैन एवं शैव मतानुयायियो के मध्य हुए संघर्ष का वर्णन किन्तु उन्होने एक भादर्श हिन्दू नृपति की भाति धामिक है। सोमनाथ के देवालय पर, जैनो पर अत्याचार के स्वतंत्रता की नीति का अनुगमन किया, परिणामत' चित्र आज भी उत्कीर्ण है। फ्लीट के मतानुसार विज्जल उनके काल मे हिन्दू, जैन एवं बौद्ध मत स्वतंत्र रूप से
के शासनकाल में जैन धर्म प्रमुख था। स्वयं विज्जल
के शासनकाल में पल्लवित हुए । यही कारण है कि जहाँ कलचुरि नरेशो नरेश ने अनेको जैन मन्दिर बनवाये थे। संवत् १०५४ मे मो तू लोबत विषयन मांही,
कीर्तिसेट्टि ने पोन्नवति वेलहुगे और वेण्णयूर में श्री पार्श्वपरम नहीं चित लायो।
नाथ के मन्दिर बनवाये थे। भागचन्द्र उपदेश मान प्रब,
कलचुरि कला मे जैन धर्म से सम्बन्धित प्रतिमायें जो श्री गुरु फरमायो।
बहुतायत से प्राप्त हुई है, जिनमे तीर्थकर, शासन देवियां भागचन्द्र द्वारा रचित सभी आध्यात्मिक पदों में एवं श्रुत देविया है। सभी मूर्तिया शास्त्रीय नियमो पर प्रास्मा को समझाया गया है कि वह कुपथ को त्याग कर आधारित है । यद्यपि कुछ ग्रन्थो में उनके लांक्षण एवं पक्ष
यक्षिणियो आदि के सम्बन्ध में एक मत नहीं है। तीर्थकर सुपथ पर अग्रसर हो। अन्य भी हिन्दी के कवियो के ऐसे पद मिलते है,
की प्रतिमा स्थानक एव प्रासन मुद्रानो मे प्राप्त हुई है। जिनमे प्रात्मा, चेतन या मन को अपना उद्धार करने के स्थानक मूर्तियों में केवल शातिनाथ एव महा लिए उपदेश दिया गया है।
मुर्तिया ही प्राप्त हुई है। ग्रासन मूर्तियों में ऋषभनाथ की कविगण जब ससार की असारता का अनुभव कर मुतिया सर्वाधिक है। इसके अतिरिक्त अंबिका एवं
स्वती की प्रतिमायें भी शास्त्रीय नियमो पर निमित की लेते है तब अनायास ही उनके हृदय की अनुभूति इस । प्रकार के पदों द्वारा फूट पड़ती है।
गई है।
कलचुरिकालीन जैन प्रतिमायें बौद्धों की अपेक्षा इस प्रकार के पद हमारी साहित्यिक निधि है । इनमे निहित को तत्वों खोजने का कार्य प्रतिदिन बढ़ते जाना बहुतायत से प्राप्त हुई है। ये प्रतिमाये जबलपुर जिले में चाहिए।
कारीतलाई, कुम्भी, कुलान, बहुरीबद, मझौली एवं
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५४ वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त जबलपुर, बिलासपुर जिले मे अड़भार, धनपुर, मल्लार, का लांछन वषभ चित्रित है। वृषभ के नीचे चौकी के पेन्डा, रतनपुर, रीवां जिले मे गुर्गी एवं रीवां, शहडोल ठीक मध्य मे धर्मचक्र बना है, जिसके दोनों ओर एकजिले में सिंहपुर एवं सोहागपुर रायपुर के महंत घासी- एक सिंह है। सिंहासन के दक्षिण पार्श्व पर ऋषभनाथ राम सग्रहालय, रामवन (सतना) के तुलसी संग्रहालय को शासनदेव गोमुख एवं वाम पार्श्व पर उनकी शासनएवं छतरपुर के धुबेला संग्रहालय मे कलचुरिकालीन प्रति- देवी चक्रेश्वरी ललितासन मे बैठी हुई चित्रित की गई है। मायें संग्रहीत है। इसके अतिरिक्त मडला जिले में शहपूरा प्रतिमा शास्त्रीय अध्ययन के दृष्टिकोण से हम इसका एवं बिझोली से जैन धर्म की मूर्तियां प्राप्त हुई है। प्राप्त
__ काल १०वी ११वी शती के मध्य मान सकते है । प्रतिमानों में सर्वाधिक प्रतिमायें प्रथम तीर्थकर मादिनाथ
तेवर से प्राप्त ७'४" प्राकार की भगवान ऋषभकी हैं। कारीतलाई से तीर्थंकरों की द्विमूर्तिकायें भी ।
नाथ की एक प्रतिमा जबलपूर के हनुमान ताल जैन प्राप्त हुई है। प्राप्त मूर्तियों को हम निम्न वर्गों में विभा
मन्दिर में संरक्षित है। कला की दष्टि से इस प्रतिमा में जित कर सकते हैं
सजीवता है । प्रतिमा के अग-प्रत्यंगसुन्दर एव सुडौल हैं। प्र-तीर्थकर मूर्तियां ।
मस्तक पर चित्रित घुघराले केश माकर्षक है। उभय व-शासन देवियां।
स्कघ पर केश गुच्छ लटक रहे है । स-श्रुत देवियां।
___ सपरिकर पदमासनस्थ इस प्रतिमा की प्रभावलि की ड-अन्य चित्रण ।
रेखायें अति सूक्ष्म है। प्रभावलि के मध्य में छत्र दण्ड है प्र-तीर्थकर प्रतिमायें
जो ऊपर की ओर जाकर क्रमशः तीन पोर वर्तुलपन कलचुरि कला में प्राप्त तीर्थकर प्रतिमाओं को तीन
लिए हुए है। छत्र दण्ड के ऊपर विशाल छत्र लगभग २' वर्ग में विभाजित किया जा सकता है-पासन, स्थानक "के लगभग है। सबसे ऊपर दो हस्ति शुण्ड से शुण्ड एवं संयुक्त तीर्थकर मूर्तिया ।
सटाये हुये इस प्रकार चित्रित किये गये हैं मानों वे छत्र १. प्रासन मतियां --प्रासन प्रतिमाओं में सबसे
को थामे हुये हो । हस्तियों के श्र्पकर्ण के उठे हुये भाग अधिक मूर्तिया आदिनाथ की है। आदिनाथ की प्रतिमायें उनके गाल की खिची हई रेखायें एव प्रांखों के ऊपर का कारी तलाई, तेवर (जबलपुर) मल्लार, रतनपुर प्रादि खिचाव कला की उच्चता के द्योतक है। परिकर पर स्थलों से प्राप्त हुई है।
हस्ति, पद्म पर प्राधत है। छत्र के नीचे दोनो पार्श्व पर भगवान ऋषभनाथ की कारातलाई से प्राप्त एक
यक्ष एवं चार अप्सरायें नभ मे उड़ती हई चित्रित है। प्रतिमा, जो सम्प्रति रायपुर संग्रहालय की निधि है, मे
गधर्व पुष्प की मालायें लिये हुए है। परिचारक के नीचे प्रादिनाथ एक उच्च चौकी पर विराजमान हैं। ४ ६"
दोनों पार्श्व पर नारियों की खड़ी प्राकृतियां है। नारियो ऊँची इस प्रतिमा मे तीर्थकर को• पद्मासन मे ध्यानस्थ
के अंग प्रत्यंग पर चित्रित प्राभषणों की भरमार है। बैठे हुए दिखाया गया है। दुर्भाग्य से उनका मस्तक,
कला की दृष्टि से यह प्रतिमा कलचरि कला की सर्वोच्च दक्षिण हस्त एवं वाम घुटना खंडित है। हृदय पर श्री. जैन प्रतिमा है। वत्स का प्रतीक है और मस्तक के पीछे प्रभामण्डल है, आदिनाथ के अतिरिक्त भासन प्रतिमानों में सिंहपुर जिसके ऊपर त्रिछत्र है। त्रिछत्र के दोनो पावं पर एक- से १०वी शती में निर्मित द्वितीय तीर्थकर मजितनाथ, एक महावत युक्त गज खड़ा है। छत्र के ऊपर ददभिक रतनपुर से १०वी ११वीं शती के मध्य निमित पाठवें और गजों के नीचे युगल विद्याधर है, जो नभ मार्ग से जैन तीर्थकर चन्द्रप्रभ, जबलपुर संग्रहालय में संरक्षित पुष्पवष्टि कर रहा है। विद्याधरो के नीचे एक अोर सौ सोलहवें तीर्थकर शातिनाथ, धुबेला संग्रहालय में सरक्षित धर्मेन्द्र और दूसरी ओर ईशानेन्द्र अपने हाथ में चंबर लिये वाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमायें अल्पमात्र में प्राप्त हए आदिनाथ के परिचारक रूप में खड़े है।
हुई है। आदिनाथ अतिरिक्त कलचुरिकालीन जैन तीर्थप्रतिमा की अलंकृत चौकी की पट्टी झल पर तीर्थकर छरों की प्रतिमानो में मर्वाधिक तेईमवें तीर्थकर भगवान
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भारतीय जन कला को कसरि नरेशों का योगदान
पार्श्वनाथ को प्रतिमायें है।
की चार पद्मासन स्थित प्रतिमायें शेष हैं। पार्श्वनाथ की प्रतिमायें अड़भार, कारीतलाई, पेन्डा, उच्च चौकी पर मध्य में धर्मचक्र के ऊपर महावीर सिंहपुर एवं शहपुग से प्राप्त हुई है। कारीतलाई से का लाछन सिंह अंकित है। लाछन के दोनों पार्श्व पर पाप्त रायपुर सग्रहालय में संरक्षित, '६" प्राकार की एक-एक सिंह चित्रित किये गये है। धर्मचक्र के नीचे एक १०वी ११वी शती के मध्य निमित एम चतुर्विशति पट्ट स्त्री लेटी हुई है जो चरणों में पड़े रहने का संकेत है। म मूलनायक प्रतिमा तेईसवे नीर्थकर पार्श्वनाथ की है। महावीर का यक्ष मातंग अंजलिबद्ध खड़ा है किन्तु यक्षी वे पद्मासन मे ध्यानस्थ बैठे है । उनके नेत्र अर्धनिमीलित सिद्धायिका चंवरी लिए हुए है। इसके दोनों ओर पूजा हे और दष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर है। पाश्व- करते भक्त चित्रित किये गये हैं। नाथ की ठुड्डी नुकीली , कान लबे, केश घुघराले और
२.तीर्थकरों को स्थानक मूतियां उष्णीषवद्ध है। उनकी छाती पर श्री वृक्ष का प्रतीक है।
कलचुरि कला में तीर्थङ्करों की स्थानक प्रतिमायें पार्श्ववाथ को सर्प पर विराजमान चित्रित किया गया है,
बहुत ही कम मात्रा में प्राप्त हुई है। स्थानक प्रतिमानो जिसकी पूछ नीचे लटक रही और फैले हुए सप्तफण का
मे शातिनाथ एव महावीर की प्रतिमायें है। इसके अतिछत्र तीर्थकर के मस्तक के ऊपर तना हुआ है। सप्तफण
रिक्त कारीतलाई से प्राप्त खडे तीर्थर की प्रतिमा प्राप्त के छत्र के ऊपर कल्पद्रम के लटकते हए पत्ते और उनके
हुई है परन्तु प्रतिमा पर किसी प्रकार के लांछन न होने ऊपर दुदभिक है। फण के दोनों ओर एक-एक हाथी है।
के कारण तीर्थङ्कर की पहिचान सम्भव नही है। जिस पर बैठे हुए महावत के तन का ऊपरी भाग खंडित है। हाथियों के नीचे दोनो ओर एक-एक विद्याधर है जो
सोलहवें तीर्थङ्कर भगवान शातिनाथ की प्रतिमायें
कारीतलाई एवं बहुरीबंद से प्राप्त हुई है। कारीतलाई से हाथ मे पुष्पमाला लिए है।
प्राप्त प्रतिमा मे शांतिनाथ कायोत्सर्ग प्रासन में खड़े है। ___ तीर्थंकर के दायें सौधर्मेन्द्र एवं वाई पीर ईशानेन्द्र
उनका मस्तक खंडित है। हृदय पर श्रीवृक्ष का चिन्ह, चंवरी लिए हुए खड़े है। पार्श्वनाथ के तीन प्रोर की
मस्तक के पीछे प्रभामण्डल, मस्तक के ऊपर त्रिछत्र और पट्टियों पर अन्य तीर्थङ्करों की छोटी-छोटी प्रतिमायें बनी
पुष्पमालाओं से युक्त विद्याधर तथा तीर्थङ्कर के दायें-बायें है। दाहिने ओर की पट्टी पर है और बायें ओर की पट्टी
परिचारक इन्द्र आदि स्पष्ट चित्रित किये गये है। शांतिपर ८ प्रतिमायें है । शेष ६ तीर्थरो की प्रतिमायें ऊपर
नाथ के पादपीठ पर दो सिहों के मध्य हिरन चित्रित की आड़ी पट्टी पर बनी हुई थी जो अब खडित हो गया
किया गया है जो इनका लांछन है। इनका यक्ष गरुड है। इस प्रकार मूलनायक को मिलाकर इस प्रतिमा मे
और यक्षी महामानसी चौकी पर स्थित है। कुल २४ तीर्थङ्कर हैं। प्रतिमा की चौकी पर दो सिहों के
अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर की ४' ४"x मध्य धर्म चक्र स्थित है। सिंहों के पास क्रमशः धरणेन्द्र
१६' आकार की एक प्रतिमा जबलपुर से प्राप्त हुई
, एव पद्मावती बैठे है । उनके मस्तक पर भी फण है। थी जो अाजकल फिल्डेलफिया म्यूजियम ग्राफ पार्ट
अन्तिम तीर्थङ्करभगवान महावीर की एक ही प्रासन मंग्रहालय में सरक्षित है। १०वी शती में निर्मित, शामप्रतिमा कारीतलाई से प्राप्त हुई है। ३' ५" प्राकार की बादामी बलुआ पापाण से निर्मित महाबीर की यह नग्न इस प्रतिमा में महावीर उच्च सिहासन पर उस्थित प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में खडी है। हृदय पर श्रीवत्स पद्मासन में ध्यानस्थ बैठे है। उनके केश घुघराले तथा का चिन्ह -कित है। मुर्ति के हाथ घटने तक लवे है । तथा उष्णीपबद्ध है और उनके हृदय पर श्रीवृक्ष का चिह्न मूर्ति के नीचे दो लघु पाश्र्वरक्षक है उनके सामने एक-एक है। प्रतिमा का तेजोमण्डल युक्त ऊपरी भाग तथा वाम भक्त घुटने के भार पर बैठे है। महावीर के शीर्ष के दोनों पाव खडित है। तीर्थङ्कर के दक्षिण पार्श्व मे पट्टी पर पार्श्व पर एक-एक उड़ते हुए गंधर्व अंकित है। महावीर उनके परिचारक सौधर्मेन्द्र खड़े है तथा अन्य तीर्थङ्गरों के मस्तक के ऊपर तीन छत्र हैं। छत्र के किनारे दो
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५६, वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त हस्ति अंकित है। मूर्ति में अंकित सिंह के कारण यह पीट पर वानर अकित हैं। दोनों के साथ उनके यक्ष एवं प्रतिमा महावीर की ज्ञात होती है ।
यक्षी क्रमशः महायक्ष एवं रीहिणी तथा त्रिमुख एवं प्रज्ञप्ति ३. तीथंकरों की संयुक्त प्रतिमायें । है। चौकी पर सिंहो के जोड़े एवं धर्मचक्र है। कलचुरिकला मे तीर्थकरों की सयुक्त प्रतिमाये श्रासन
ब-शासन देवियाँ एवं स्थानक दोनों मुद्राओं में प्राप्त हुई है। इनमे स्थानक कलचुरि कला मे जैन शासन देवियो की प्रतिमाये सयुक्त प्रतिमायें अधिक है। बाईसवे तीर्थकर नेमिनाथ प्रासन एव स्थानक मुद्राओं में प्राप्त हुई हैं । इसके अतिकी गोमेध एवं अविका सहित प्रासन प्रतिमा धुबेला रिक्त इनकी संयुक्त प्रतिमायें भी प्राप्त हुई है । प्रासन संग्रहालय मे संरक्षित है। तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा प्रतिमाओं मे अम्बिका एवं चक्रेश्वरी की प्रतिमायें प्रमुख दोनों की अपेक्षा लघु है। नेमिनाथ दोनों के मध्य ध्या- है। इनके अतिरिक्त सोहागपुर से कुछ अन्य शासन देवियो नस्थ बैठे है। उनके नीचे यक्ष गोमेध एवं यक्षी अम्बिका की मूर्तियां प्राप्त हुई है जिनकी उचित लाछन क अभाव है । गोमेष दाहिने और अम्बिका बायें ललितासन मुद्रा मे में समीकरण संभव नहीं है। बैठे है। द्विभुजी गोमेघ के वामहस्त में पद्म एवं अबिका कारीतलाई से प्राप्त सफेद छीटेदार लाल बलुमा के वाम हस्त में एक शिशु है। गोमेध के दाहिने पैर के पाषाण निर्मित पाम्रादेवी की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है। निकट भी दोनों ओर दो-दो पूजक है।
इस प्रतिमा में वाईसवें जैन तीर्थङ्कर नेमिनाथ की शासन ___कलचुरिकालीन तीर्थकरो की स्थानक मयुन मूर्तिया, देवी अंबिका ललितासन में सिंहारूढ है, जो उनका वाहन प्रासन मूर्तियो की तुलना में ज्यादा है। संयुक्त स्थानक है। द्विभजी यक्षी के दक्षिण कर मे प्रामलुबि एव वाम मूर्तियो मे - ऋषभनाथ एव अजितनाथ, अजितनाथ एव कर से अपने कनिष्ठ पूत्र प्रियशंकर को सम्हाले है। संभवनाथ, पुष्पदंत एव शीतलनाथ, धर्मनाथ एव शाति- प्रियशकर उसकी गोद में बैठा है। ज्येष्ठ पुत्र शुभकर नाथ, मल्लिनाथ एवं मुनिसुव्रतनाथ तथा पाश्वनाथ एव अपनी माता के दक्षिण पाद के निकट बैठा है। अम्बिका नेमिनाथ की मूर्तिया है। इनमें से अधिकाग द्विमुनिकाये का चेहरा मुस्कराता हआ है। मस्तक के ऊपर स्थित कारीतलाई से प्राप्त हुई है।
प्राभ्रवृक्ष वाला भाग खंडित है। अम्बिका का केशविन्याम कारीतलाई से प्राप्त लालबनूया पत्थर गे निमित
मनोहर है। अग पर यथोचित प्राभपण है। यक्षी के दोनो ४' ७" आकार की अजितनाथ एवं सभवनाथ की द्वि
पोर एक-एक परिचारिका खड़ी है। दक्षिण पार्श्व की मूतिका प्राप्त हुई है जो सम्प्रति रायपुर संग्रहालय मे है।
परिचारिका अपने वाम कर से अधोवस्त्र को सम्हाले हये
. १०वी शती मे निर्मित द्वितीय जैन तीर्थकर अजिननाथ है तथा दक्षिण कर मे पद्म है।
है तथा दक्षिण कर म पद्म एवं तृतीय जैन तीर्थकर सभवनाथ की हुम द्विमुनिका में स्थानक शासन देवियो मे मे मात्र अबिका वी दोनों तीर्थकर कायोत्सर्ग प्रासन में खडे है। तीर्थडरी प्रतिमा ही प्राप्त हुई है। कारीतलाई से प्राप्त ३'१" के हाथ एव मस्तक खडित है। दोनो के मस्तक के पीछे आकार की इस प्रतिमा मे देवी अम्विका पाम्रवृक्ष के तेजोमण्डल, एक-एक छत्र, एक-एक दूदभिक, गजा के नीचे एक सादी चौकी पर त्रिभंगी मद्रा में खडी है। दोनो युगल और पुष्प मालाये लिये हये विद्याधर अकित है। पुत्रो-प्रियंकर एवं शुभंकर की स्थिति उपरिवणित उनके अलग-अलग परिचारक के रूप में सौधर्म एवं ईशान प्रतिमा के सदृश्य ही है । यक्षी के तन पर विविध प्राभस्वर्ग के इन्द्र चावर लिये हये खडे है। तीर्थरो के षण है। चरणो के निकट श्रद्धालु भक्त जन उनकी पूजा करते हए आम्रवृक्ष पर बाईसवें जैन तीर्थड्डर नेमिनाथ की दिखलाये गये है।
छोटी सी पद्मासन प्रतिमा है। वक्ष के दोनो मोर खड़ी दोनों तीर्थकर अलग-अलग पादपीठ पर खडे है। एक-एक विद्याधरी पुष्पवृष्टि करती दिखाई गई है। अजितनाथ के पादपीठ पर हस्ति एवं संभवनाथ के पाद- अम्विका की पूजक एक स्त्री उसके दायें मोर है और
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भारतीय जैन कला को कसरि नरेशों का योगदान
पुजारी पुरुष वाम पार्श्व में अंजलिबद्ध खड़ा है । यक्षी का ही प्रतिमायें निर्मित की जाती थी। वाहन सिंह उसके पैरों के पीछे है।
रायपुर संग्रहालय में कारीतलाई से प्राप्त एक कलचुरि कला में देवियों की सयुक्त प्रतिमायें अत्य
स्तभाकृति शिल्पखण्ड पर जो ऊपर क्रमशः सकरा होता धिक अल्पमात्रा में है। कारीतलाई से एक जैन देवालय
गया है, सहस्र जिन बिंब उत्कीर्ण है। यह जैन ग्रंथो के चौखट का खण्ड प्राप्त हुआ है, जिसके दाहिने पोर
में वर्णित सहस्रकूट जिन चैत्यालय का प्रतीक है। इसके के अर्धभाग मे कोई तीर्थङ्कर पद्मासन मे बैठे है। उनके
चारो ओर छोटी-छोटी बहत सी जिन प्रतिमायें अंकित दोनों ओर एक-एक तीर्थङ्कर कायोत्सर्ग आसन मे ध्यानस्थ
है। सभी जिन प्रतिमायें पद्मासन मे सहस्र को संख्या में खडे है। धुर छोर पर मकर और पुरुष है।
है। इस शिल्पखण्ड मे ७ पक्तिया है। इन पक्तियों मे बायें ओर के अर्वभाग के ऊपर एक विद्याधर अकित प्रतिमायो की
अकित प्रतिमानो को सख्या इस प्रकार है- ऊपर की प्रथम पंक्ति है और नीचे पाले में अम्बिका और पद्मावती एक साथ
मे प्रत्येक ओर तीन-तीन, दूसरी पवित मे प्रत्येक ओर ललितासन मे बेटी है। दोनो देवियां क्रमश नेमिनाथ
पाच-पाच, तीसरी से पाचवी पक्ति में प्रत्येक ओर छ-छ, एवं पार्श्वनाथ की यक्षी है। अम्बिका की गोद मे शिशु
छठी पक्ति मे प्रत्येक अोर सात-सात एवं सातवी पक्ति में
की और पद्मावती के मस्तक पर सर्प का फण है।
प्रत्येक और सात-सात । इन सभी प्रतिमानो के मस्तक के स–श्रुत देवि
पीछे पद्माकृति एव तेजोमण्डल है । __ कलचुरि कला मे श्रुत देविया कम मात्रा में उपलब्ध
उपरोक्त मतियो के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है हुई है। कारीतलाई से एक मरस्वती की प्रतिमा प्राप्त
कि कलचुरि मूतिकारो ने जैन प्रतिमानो के निर्माण मे हुई है जो रायपुर सग्रहालय में है। जैन देवी देवताओं में
शास्त्रीय नियमो का पूर्णरूपेण ध्यान रखा है। तत्कालीन ज्ञान की अधिष्ठात्री सरस्वती देवी का विशिष्ट स्थान है।
जैन प्रतिमायो मे यद्यपि रूप रम्यता के साथ-साथ सामादिगम्बर सम्प्रदाय क अनुसार इनका वाहन मोर एव ।
न्य से सामान्य बातो को प्रकट करने का पूरा प्रयत्न वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुमार हम है। कुछ प्राचार्यों ने
किया है। किन्तु इस मूर्तिकला पर गुप्तकालीन मूर्तिकला इसे चतुर्भुजा एवं कुछ ने द्विभजा बतलाया है।
का प्रभाव अवश्य पटा है। इसके वावजद भी यह निश्चित मरस्वती की यह प्रतिमा अत्यन्त खडितावस्था में रूपेण कहा जा सकता है कि कलचुरि कालीन जैन प्रतिप्राप्त हुई है। देवी का मस्तक और हाथ खडित है पर मानो में कुछ रूदियों का दृढ़ता से पालन किया गया है। तेजोमण्डल पूर्ण एवं स्पष्ट है। ललितासनारूढ देवी के तन पर विभिन्न ग्राभूपण है। चतुर्भजी देवी के दक्षिण
गुप्तकाल में कला का जो रूप प्रतिष्ठित हुआ उसका निचले एवं वाम ऊर्ध्व हाथ मे वीणा है। नीचे एक भक्त विकमित रूप हम गुर्जर प्रतिहारों एव चदेलो की कला देवी की पूजा कर रहा है । दोगे पोर विद्याधर है।
मे पाते है और कलचुरियों ने इससे प्रेरणा प्राप्त की थी। -अन्य चित्रण
कलचरिकालीन जैन प्रतिमानो मे चदेलो की अपेक्षा कलचुरि कला मे उपरोक्त वर्गों के अतिरिक्त अन्य
अधिक भाव प्रदर्शन मिलता है, साथ ही साथ अंगो के चित्रण में सर्वतोभद्रिका एवं सहस्र जिनबिब का वर्णन
विन्यास में भावाभिव्यक्ति मिलती है। चदेल कला की किया जा सकता है। कारीतलाई से प्राप्त एक शिखरा
अपेक्षा इस कला में अधिक सौकमार्य, उत्तम प्रगविन्यास कार शिल्प मे चारो ओर एक-एक तीर्थ और पद्यामन में एक सुन्दर भावो की अभिव्यक्ति के साथ-साथ शरीरगत ध्यानस्थ बैठे है। चार तीर्थङ्करो मे से केवल पार्श्वनाथ ।
एवं भावगत लक्षण इन प्रतिमानों में उत्कृष्ट है । प्राभही स्पष्ट रूपेण पहिचाने जा सकते है। अन्य तीर्थङ्करो।
षणो का प्रयोग चदेलो पर परमारों' से कम मात्रा हमा मे सम्भवतः ऋषभनाथ, नेमिनाथ एव महावीर है क्योकि है। कला में मौलिकता के अधिक दर्शन होते है। सर्वतोभद्रिका प्रतिमानो में चार विशिष्ट तीर्थदूरो की
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वर्धमान पुराण के सोलहवें अधिकार पर विचार
- यशवन्त कुमार मलैया
खटौरा वासी नवलसाह चदोरिया ने विक्रम सं० जातियों में जो वैष्णव ह, उन्हें ब्राह्मण उच्च वैश्य मानकर १८२५ में श्री वर्धमानपुराण की रचना की थी। उन्होने उपवीत देते है। वैसे भी वैदिक प्राचार मे यज्ञोपवीत इसके सोलहवें अधिकार मे आत्म-परिचय लिखा है जिसमे पहनने आदि को छोड़कर वैश्यों व मच्छूद्रों के अधिकार प्रसङ्गतः कुछ जाति-विषयक चर्चा की है। यह कुछ में विशेष अन्तर नही है'। दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। एक तो विवरण क्रमबद्ध रूप से कवि ने ८४ वैश्य जातियों गिनाई है। ८४ नामों के रखने का प्रयास किया गया है, दूसरे कुछ ऐसे तथ्यो सकलन के पीछे ८४ अक का मोह ही है। ८४ वैश्य
और मान्यतामों का उल्लेख है जिनका कही अन्यत्र उल्लेख जातियों की अनेक नामावलिया मिलती है। अठारहवी नहीं है। प्रस्तुत लेख मे इस विषयवस्तु का तुलनात्मक शताब्दी की 'फूलमाल पच्चीसी' में ८४ जन जातिया विश्लेषण करने का प्रयास किया जा रहा है।
गिनाई गई है । टाड ने ८४ वणिक् जातियों की नामावर्धमानपुराण की जो हस्तलिखित प्रतिया उपलब्ध वली दी है। 'राजस्थानी जातियो की खोज' में ८४ वैश्य है, उनके पाठों में कही कही अंतर है। ऐसा प्रतीत होता है जातियों की एक अन्य नामावली दी है। कभी-कभी कभी प्रतिलिपिकारो ने यहा-वहा सुधार करने का प्रयास ब्राह्मणों में गौड़ों और द्रविणों मे कुल मिलाकर ८४ किया होगा। मुद्रित ग्रथ शुद्धतर प्रति पर आधारित ब्राह्मण जातियाँ कही जाती है, कभी कहा जाता है प्रतीत होता है कारण उसमे उपलब्ध पाठातर स्वाभाविक गुर्जर ब्राह्मणों और गूर्जर बनियों के ही ८४ भेद है।
और ग्रंथ की भाषा के साथ एकरस लगते है। खडेलवाल जैनों के और खण्डेलवाल ब्राह्मणो के ८४ ही
षोडश अधिकार मे कवि ने अपने आत्मपरिचय मे गोत्र कहे जाते हैं। क्रमबद्ध रूप से अपना वर्ण, अपने वैश्य वर्ण की चौरासी
वैश्य जातियों के ८४ नामों की अलग-अलग सूचियो जातिया, स्वजाति के तीनों भेद, फिर गोलापूर्व जाति के
में कुछ नाम आपस में मिलते है, कुछ नही मिलते । टाड भद्रावन 'बैंक', अपने 'बैक' के चार 'खेरे, और फिर निज
ने एक जैन यति का उल्लेख किया है जो वणिक् जाति कूल के इतिहास का स्वयं तक वर्णन किया है।
की सूची मग्रह कर रहे थे । लगभग १८०० नामो के कवि ने अपना वर्ण वैश्य और फिर वैश्यों मे
एकत्र करने के बाद उन्होंने एक अन्य यति से १५० अन्य चौरासी जातियां लिखी हैं। यहा पर यह बात ध्यान
नामों की सूची पाई, जिससे उन्होने असंभव मानकर यह करने की है कि वणिक् और वैश्य शब्द शास्त्रीय दृष्टि
काम स्थगित कर दिया । टाड की सूची में राजस्थान से पर्यायवाची नही है। इनका समतुल्य प्रयोग नही किया
वाली जातियाँ ही है। वर्धमान पुराण की सूची में कुछ जा सकता। फिर भी उत्तर भारत की समस्त जैन
बँदेलखण्ड की जातियाँ भी है। जातियां वैश्य ही है (सभवतः कुछ अपवादो को छोड़ कर)। दक्षिण में वैश्यों के अलावा ब्राह्मण व शूद्र वर्ण
नवलशाह चदेरिया ने ८४ नामो को अपनी जानके भी जैन है"२ । प्रोसवाल, अग्रवाल, श्रीमाल आदि कारी के अाधार पर तीन भागो मे बॉटा है। पहले साढ़े
बारह अर्थात् तेरह प्रसिद्ध जैन जातियाँ गिनाई गयी है। १. हिंदी विश्वकोष, १९२३ ई०, भाग ६, पृ० ६०१ २. Tne Gazetter of India, Vol. 1, 1965, p. ३. Ghurye G.S., Caste and Race in India, 541.
1932, p. 86.
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वर्षमानपुराण के सोलहवें अधिकार पर विचार
फिर ग्यारह जातियां गिनाई है जो कवि के ज्ञान के २४. माहेश्वरवार अनुसार अंशत: जैन है या जैन धर्म से प्रभावित है। इनके अन्य वैश्य जातियाँ : बाद अन्य ६०० वैश्य जातियाँ गिनाई गई है।
२६ पण्डितवाल, २६. डोडिया, २७. सहेलवाल, __ साढे बारह का अंक परंपरागत सा लगता है। ठीक २८. हरसौरा, २६. गोरवार, ३०. नारायना, ३१. यही साढे बारह जातियां 'परवार-मर-गोत्रावली' में गिनाई सीहोरा, ३२. भटनागर, ३३. चीतोरा, ३४. भटेरा गई है। १६३६ ई० की 'सिहासन-बत्तीसी' मे साढे ३५. हरिया, ३६. धाकरा, ३७. वाचनगरिया, ६८. बारह वैश्य जातियों का उल्लेख है। महाराष्ट्रीय देशस्थ मोर, ३६. वाइडाको, ३०. नागर, ३१. जलाहर, ३२. ब्राह्मणों के साढे बारह ज्ञाति के सच्छद्र (मराठा आदि) नरसिंगपुरी, ३३. कपोला, ३४. डोसीवाल, ३५. नगेंद्रा, यजमान कहे जाते है।
३६. गौड, ३७. श्रीगौड़, ३८. गागड़, ३६. डाख, ___वर्धमान पुराण में साढ़े बारह प्रसिद्ध जैन जातियों ४०. डायली, ४१. बधनौरा, ४२. सीरावान, ४३. को 'पांत इक भात' अर्थात् एक पंक्ति मे एक ही समान धन्नेरा, ४४. कथेरा, ४५. कोरवाल, ४६. सूरीवाल, उच्चता वाली कहा गया है। पाठातर में 'धरम सनेही ४७. रैकवार, ४८. सिंध वाल, ४६. सिरैया, ५०. जानो भ्रान' है जो समानार्थी है। परवार-मर-गोत्रावली लाङ, ५१. लड़ेलवाल, ५२. जोरा, ५३. जंबूसरा, ५४. मे यही १२॥ जातियाँ समान कही गई है। यह जैनो मे सेटिया, ५५ चतुरथ, ५६ पचम, ५७. अच्चिरवाल, परस्पर समता एव भ्रातभाव का द्योतक है।
५८. अजुध्यापूर्व, ५९ नानावाल, ६० मडाहर, ६१. ___ इसके बाद कवि ने ग्यारह अन्य जातियां गिनाई है, कोरटवाल, ६२. करहिया, ६३. अनदोरह, ६४. हरदो. जिनमें उसके विचार से, "जैन लगार' अर्थात जैनत्व का रह, ६५. जहरवार, ६६. जेहरी, ६७ माघ, ६८. प्रभाव विद्यमान है । जैसा कि हम आगे देखेंगे, ये या तो नासिया, ६६ कोलपुरी, ७०. यमचौरा, ७१. मैसनपुरअभी भी अशतः जैन या पूर्वकाल मे थी। इनके पश्चान् वार, ७२. वेस, ७३. पवडा, ७४ औमदे। साठ अन्य वैश्य जातियो के नाम है । इनमे से भी कुछ इनमें से कुछ का सक्षिप्त परिचय उपयोगी होगा। जातियो में जैन वर्ग विद्यमान है, पर सभवत दूरस्थ होने गोला पूरब बंदेलखण्ड के निवासी है । यह कवि की जाति से कवि को इस बात का ज्ञान न था।
है जिसका उसने अागे परिचय दिया है । गोलापूर्व एक जातियो के नाम इस प्रकार है।
ब्राह्मण जाति का भी नाम है' जो कृषि से निर्वाह करते साडे बारह जैन जातियां :
है। किसी-किसी के मत से ये सनाढ्य-ब्राह्मण के अंतर्गत १. गोलापूरब, २ गोलालारे, ३. गोलसिधारे, हैं। गोलापूरव जैन बीसविसे, दस बिसे, और पचविसे ४. परवार, ५. जैसवार ६. हुमडे, ७. कठनेरे, ८. भागों में विभक्त है, जिनमे दसबिसे भेद नष्ट हो.. खण्डेलवाल, ६. बहरिया, १०. श्रीमाल ११. लमेंच . चुका है। इस जाति के ग्यारवी शताब्दी से शिलालेख १२. प्रोसवाल, १३, अग्रवाल (पाधी जाति)
मिलते है । गोलालारे (गोलाराडे) और गोलसिधारे भी 'जंन लगार' वाली जातियों :
विशेषकर बुंदेलखण्ड के निवासी है, जिनके बारे में १४. जिनचेरे, १५. बाधेलवार, १६ पद्मावति अनुमान किया जाता है कि ये और गोलापूर्व किसी एक पुरवार, १७ ठम्सर १८. गहपति, १६. नेमा, २०. ही गोला नामक स्थान के निवासी होंगे। गोलाराडे जाति असैटी, २१, पल्लिबार २२ पोरवार, २३ ढढतबाल,
के शिलालेख बारहवी शताब्दी से मिलते है। परवार
बंदेलखण्ड की सबसे प्रसिद्ध जैन जाति है। इन्हे लेखो मे ४. 'नरेणा का इतिहास' डा. कैलाश चन्द्र जैन, अनेकात, नवम्बर ७१, पृ० २१८ ।
पौरपट्ट या पुरवाड कहा गया है। बुंदेलखण्ड के जैनों में ५. 'ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड' हरिकृष्ण शास्त्री, १९४८ ई० ६. Caste in India: J.H. Hutton, p. 281. पृ० १४३ ।
७. हिंदी विश्वकोष, भा० ६, पृ० ६०१ ।
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६०, वर्ष २७, कि०२
अनेकान्त
सबसे अधिक जनसंख्या इन्ही की है । अधिकतर गौरवर्ण बारहवी शताब्दी से उल्लेख मिलते है । बरहिया वरया होते हैं। ये पोरवाड़ो (प्राग्वाट) से भिन्न है। ग्यारहवी का ही रूपातर है । मुरैना के गुरु गोपालदास जी वरया शताब्दी से इनके शिलालेख मिलते है। जैसवाल उ० प्र० इसी जाति के थे । श्री माल जाति का भादि वास दक्षिणी के रायबरेली जिले में स्थित जैस या जायस नामक प्राचीन राजस्थान स्थित भीनमाल स्थान मे था, जो कभी श्रीमाल नगर के अधिवासी थे । सूफी कवि 'जायसी' यही के थे। नाम से विख्यात था। यह स्थान विद्वान ब्राह्मणों के वास अनेक जातियां इसी को अपना प्रादि स्थान बताती है। के कारण चौहानों की ब्रह्मपुरी कहलाता था । श्रीमाली बरई (पनवाडी) जाति में", कुर्मियों में, खटीको मे, ब्राह्मण यही से हुए है। कैलाशचन्द्र जैन के मत से श्री चमारों मे", और कलार जाति में एवं राजपूतों मे जैस- माली जैन पाठवी शताब्दी मे सभवत : रत्नप्रभसूरि द्वारा बाल नाम के विभाग है । कैलाशचन्द्र जैन के विचार से स्थापित हुए। ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड के मत से अमरजैसवाल जैसलमेर से निकले है। लेकिन जैसवालों द्वारा सिह जैन ने श्री माली वैश्यो को जनमत मे लिया। प्रतिष्ठित अनेकों जैन मूर्तियाँ सं० १२०० और बाद की श्रीमाली वैश्यो मे दसा-बीसा भेद है। बीसा सभी प्रहार (बुंदेलखन्ड) में है, जबकि जैसलमेर की स्थापना श्रावक है, दशा श्रावक व मेश्री (वैष्णव) दोनों है ।।१० सं० १२२० के आसपास हुई थी, और यह प्रहार से अतः आदि से ही जैन रहे होगे। श्रीमाली-ब्राह्मणो काफी दूरी पर है। हमड़ राजस्थान, गुजरात, मालवा व मे से कुछ प्रोसवाल जैनो के गोर उपाध्याय है, ये ही महाराष्ट मे निवास करते है। ये दसा-बीसा भेदों मे भोजक कहलाते है । श्रीमाल जैन राजस्थान, गुजरात में विभक्त है । ग्यारहवी शताब्दी से इनके उल्लेख मिलते विशेषकर वसते है । लमेंच मूतिलेखों आदि मे लबकचुहै। खण्डेलवाल राजस्थान स्थित खण्डेला नगर संभूत है। कान्वय नाम से प्रसिद्ध है । दशवो-ग्यारहवी शताब्दी से ये जैन और वैष्णव दोनो ही है। सं० १८५० की इनके उल्लेख मिलते है। इनका निकास लबकाचन श्रावकोत्पत्तिप्रकरणम् में इनके ८२ गोत्रों की उत्पत्ति
नामक नगर से हमा जान पडता है। प्रोसवाल सुप्रसिद्ध
की राजपत कूलों से, और २ गोत्रों की उत्पत्ति सोनी कुलो से जन जाति है। राजस्थान स्थित ओसिया या उपकेश कही गयी है। हो सकता है ये दो कुल सोनगरा चौहानों नामक प्राचीन नगर से, रत्नाप्रभसूरि द्वारा आठवी शताब्दी के हों ये ही ८४ सरावगी है। कभी कभी इनके ७२ गोत्र मे इस जाति का निर्माण हुआ । प्रारंभ में अठारह कुल भी कहे जाते है। वैष्णवो मे कभी-कभी खण्डेलवाल- थे । मुसलमानो के भय से अनेक क्षत्रिय-गण वैश्य होकर ब्राह्मणों से या खण्डु ऋषि आदि से उत्पत्ति कही जाती इसमे मिलते रहे है"१२ । इस प्रकार कुल १४४४ गोत्र है पर खण्डेला नगर से ही मान्य है। खण्डेलवाल ब्राह्मण निर्मित हुए ऐसा कहा जाता है। अक्सर ये राजपूतो की गौड-ब्राह्मणों के अंतर्गत है", राजस्थान मे ही उनका ही तरह गौरवर्ण होते है । ये श्वेताबर जैन ही है. कोई वास है। इनमे भी ८४ गोत्र है। खंडेलवाल जैनों के कोई दिगम्बर जैन या वैष्णव भी है । दसा-बीसा भेद है।
जनसख्या में वैश्यो मे अग्रवालो के बाद इनका ही स्थान ८. जैन समाज की कुछ उप जातियाँ, परमानंद शास्त्री, अनेकांत, जून ६६, पृ० ५० ।
१५. KC. Jain. 'Ancient cities and towns of
Rajasthan,, p. 183. ६. हि. वि०, भा० ८ पृ० २६२ ।
१६. ब्रा०, पृ० ११७ । १०. 'Caste and Race in India', p. 31.
१७ हि० वि०, भा०२२, पृ० ३७२ । ११. The Caste System of Northern India,
१८. चद्रबाड का इतिहास, परमानंद जैन शास्त्री, मनेकात, _EA.H Blunt. 1931, p. 53,55,209.
दिसम्बर ७१, पृ० १८६ । १२. अन्यत्र सं० ११४५ एव ११६० की भी है।
१६. रमेशचंद्र गुणार्थी, 'राजस्थानी जातियों की खोज', १३. हि० वि०६, पृ० ३६७ ।
पृ०५६ । १४. वही, भा० ४, पृ० ७१८ ।
२०.K.C. Jain, p. 191.
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वर्षमानपुराण के सोलहवें अधिकार पर विचार
है । अग्गरवार या अग्रवाल सर्वाधिक विख्यात वैश्य जाति बुदेलखण्ड और मालवा में बसती है, नरसिंहपुर जिले में है। इनकी ही सख्या सर्वाधिक है। हरियाणा के हिसार अधिक संख्या में है। लगभग सभी वैष्णव है, जैन भी हैं, जिले में प्राग्रोतक या आग्रोहा स्थानसे इनका विकास हुआ। जो धीरे धीरे वैष्णवो के प्रभाव में आते जा रहे हैं। इनमे साढे सत्रह गोत्र है। दसा-बीसा भेद है ये अधिकतर इनमे बीसा, दसा और पचा भेद है । असटी या असाटी वैष्णव ही है, फिर भी जैनो की मख्या कम नही है। बुंदेलखण्ड के वैष्णव है, फिर भी प्राचार-व्यवहार में बारहवी शताब्दी से इनके उल्लेख मिलते है । कठनेरे जैनो से प्रभावित है। गणेशप्रसाद जी वर्णी इसी जाति प्रसिद्ध नहीं है, कठनेर नामक किसी स्थान से निकले जान में उत्पन्न हुय थे। पड़ते है।
पल्लीवाल राजस्थान मे जोधपुर राज्य में स्थित वघेरवार राजस्थान मे केकड़ी से १०-११ मील दूर पल्ली नामक प्राचीन नगर के अधिवासी थे। ये जैन और बघेरा नामक स्थान के पूर्व निवासी थे । वर्तमान में वैष्णव मतावलबी है आगरा, जौनपुर आदि स्थानों में बहुइनका निवास विशेष रूप से राजस्थान, महाराष्ट्र और तेरे पल्लीवालों का वास है। पल्ली नगर पर पहले मालवा मे है । पडित आशाधर जी व चित्तौड़ कीर्ति स्तभ पल्लीवाल ब्राह्मणो का प्रभुत्व था, जिन्हें राठौरों ने सन के निर्माणक शाह जीजा इसी जाति के थे । इनके बारहवी ११५६ ई. मे परास्त किया। इसके बाद पल्लीवाल शताब्दी से लेख आदि मिलते है । पद्मावती पुरवार जाति ब्राह्मण यतस्ततः जाकर बस गये"। पोरवार मूलत: का निकास पद्मावती नामक नगर से हुआ है जो प्राजकल राजस्थान और गुजरात के वासी है। इनमें जैन और ग्वालियर मे पद्मपवाया नामक ग्राम के रूप में अवस्थित वैष्णव दोनो ही है । इनमे दसा-बीसा भेद है । ऐसा प्रतीत है । पद्मावती पुरवार एक ब्राह्मण जाति भी है। होता है कि श्रीमाल और पोरवाल निकटवासी थे। कहा
गृहपति जाति वर्तमान मे गहोई कहलाती है वर्तमान है श्रीमाल मगर मे जो पूर्व दिशा में रहते थे, वे ही प्रारमे ये वैष्णव है पर प्राचीन काल में अधिकतर धर्मनिष्ठ वाट या पोरवाल कहलाये॥२५ । आब के प्रसिद्ध देवालय जैन रहे है । बुंदेलखण्ड मे अहार, खजुराहो आदि स्थानों इन्ही के बनवाये है। दसवी शताब्दी से इनके उल्लेख में इनके मदिर, व जिनमूर्तियाँ मिलती है। दशवी से मिलते है। माहेश्वरी या महेसरी जाति के बारे में ऐसा तेरहवी शताब्दी तक कितनी ही प्रतिष्ठायें इनके द्वारा प्रसिद्ध है कि झझन् (राजस्थान) के पास लुहार्गल क्षेत्र हुई है । गृहपति जाति के पाणाशाह ने बुंदेलखण्ड में अनेक पर कुछ राजपूत, यज्ञ में बाधा डालने पर मुनियों के भोयरे निर्माण कराये थे । इनके बारे मे कई किवदंतियाँ श्रापवश पाषाण हुए, पीछे महेश्वर, पार्वती की कृपा से कही जाती है। इनमे कुछ शैव भी होते थे । एक गृहपति पुनर्जीवित होकर वैश्यत्व ग्रहण किया। इनकी उत्पत्ति द्वारा खजुराहो में शिवालय बनाये जाने का उल्लेख है। खडेला, इदौर के निकट महिष्मती, राजस्थान में डीडवाना यह वैश्य जाति प्राचीन प्रतीत होती है प्राचीन साहित्य आदि से बताते है पर मुजफ्फरनगर के माहेश्वरियों का मे विशेषकर बैश्य साहित्य में बहधा ही वैश्यो के लिये कहना है कि उनका मूलस्थान भरतपुर के पास महेशन गृहपति शब्द प्रयुक्त हमा है। चित्तौड़ में प्राप्त पाठवीं नगर में था", यह ही सभावित लगता है। बिडला प्रादि शताब्दी के एक लेख मे२१ गहपति जाति के मानभङ्ग कोट्याधीशो के उदय से ये मारवाडियों में सर्वाधिक नामक शासक द्वारा शिवालय और कूडादि के निर्माण का सपन्न माने जाते है। इनके ७६ गोत्रों को कभी तो उल्लेख है । इनमे १२ गोत्र है। तीन भागों में विभक्त
२३. वही, भा० १३, पृ० १४७ । है। अधिकतर निवास बुंदेलखण्ड मे है, पिण्डारियों के
२४. ब्रा०. पृ० १००। भय से कुछ उ० प्र० मे भी जा बसे है१२ । नेमा जाति
२५. KC. Jain, p. 163. २१. K.C. Jain, p. 223.
२६ ब्रा, पृ० ५७०। २२. हि० वि०, भाग ६, पृ० २६२ ।
२७. हि० वि०, भा० २२, पृ० ३७५ ।
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६२, वर्ष २७, कि०२
अनेकान्त
विभिन्न राजपूत कुलो से संभूत कहते है, कभी पूर्ण जाति राजस्थान, की ही कोई जाति लगती है। वैसे कर्णाटक में को झाला राजपूतो से उत्पन्न बताते है। इनमें जैन एक पचम जाति है, जिसमें कुछ तो जैन हैं, शेष लिंगायत अल्प ही है।'
है"। अजुध्यापूर्व अयोध्यावासी-वैश्य लगते है। ये उ०प्र० ___डौडिया-वैश्य डौडिया-क्षत्रियों के समस्थानिक लगते बँदेलखण्ड और बिहार में रहते है" इस नाम के विभाग हैं । संभव है ये और डीड, जो माहेश्वरियों का भेद है, अन्य जातियों में भी है"। कुछ समय से इस जाति मे एक ही हो । हरसौरा राजस्थान के नागौर जिले में स्थित कही कही हलवाई, मडभूजे प्रविष्ट हो गये है । पवड या हरसौर के" वासी थे। हरसोला ब्राह्मण इनके समस्थानिक पवाडे राजस्थान के उत्तर मे, पंजाब में है। श्वेताबर थे। गोरवार या गोरावर वैश्य गोलवार-ब्राह्मणों के सम- जैन है ।वेस या बैस नामक कई जातियां बिहार कुमायुं, स्थानिक है। मोदीच्यसहस्र-ब्राह्मणो को उदयपुर के राजा महाराष्ट्र व उ० प्र० है। ने गोल आदि बाईस गांव दान किये जिससे वे गोलवार भटेरा या भटनेरा, भट्टनेर नामक स्थान से और ब्राह्मण हुए। नारायना जाति नरेणा नगर से निकली है जो कोरटा नामक स्थान से (राजस्थान मे) निकले जान अजमेर से ६६ मील दूर स्थित है। चीतोरा या चित्तौडा पडते है । इनके अलावा चतुरथ, जलाहर, नरसिंगपुरी, चित्तौड़गढ़ के वासी थे । कोई-कोई इन्हे उन ब्राह्मणो का नगेद्रा, बघनौरा, गौड श्रीगौड और सहेलवाल जातियों के वंशधर कहते हे जो चित्तौड मे बसने के पूर्व ब्रह्मकर्म उल्लेख मिलते है।। त्याग' चुके थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित जैन मदिर व जिन जातियो के नाम इस सूची मे नही है, उनमे से मूर्तियाँ बारहवी शती से मिलते है"। धाकरा या धर्कट कछ ये है मेडतवाल, सांभरिया (सभर), अजमेरा, नागदा, जाति के दसवी शतावदी से मूर्तिलग्व मिलते है । दिगबर नगौरिया, कनौजिया, खडायते (खण्डियात), श्री श्रीमाल, श्वेतांबर दोनों ही रहे है . पर वर्तमान में परिचय नही हथुण्डिया, मेवाडा। मिल सका । धाकड नाम की एक कृषक जाति राजस्थान
देखा जाये तो जातियों को पहिचानने का प्रयाम और महाभारत में अवश्य है। मोर या मोढ जाति गजरात विशेष सफल नहीं रहा है । कई जातियों का तो नाम ही मे है, इनमे कुछ जैन भी होते है। महात्मा गाधी इसी शेष रहा है। सभव है वर्षमान पुराणकार ने भी कई के के थे । नागर-वैश्य और नागर-ब्राह्मण बडनगर वासी थे। केवल नाम ही सुने हो बधेलवाल, पोरवाल आदि कुछ ये अधिकतर गुजरात मे है। कपोल बनिये सौराष्ट्र मे जातियो को अग्रवाल, प्रोसवाल आदि के साथ क्यों नहीं स्थित कडोल-ब्राह्मणो के यजमान थे । रैकवार रखा गया यह स्पष्ट नहीं है। फिर भी सभी जातियो को हो सकता है गुजरात के रायकवाल ब्राह्मणों के तीन वर्गों में रखने का प्रयास उचित ही लगता है । बँदेलसमस्थानिक हो । इस नाम के सूर्यवंशी क्षत्रिय और खण्ड स्थित समैया और चन्नागरे जातियों का नाम किसी धीवर भी होते है । लाड या लाट-गुजरात स्थित लाट भी वर्ग मे न होना आश्चर्यजनक है। ये तारणपथी देश वासी थे। ये गुजरात, राजस्थान, बरार आदि प्रदेशो दिगंबर जैन है, ताराणपथ परवार जातीय तारणस्वामी मे बसते है" । बहुत से जैन मी है। जबस! गुजरात के द्वारा सोलहवी सदी मे स्थापित हुआ था। मूर्ति के स्थान भड़ोंच जिले में स्थित जम्बुमर के वासी लगते है। पंचम पर शास्त्र-पूजा करते है । पहले अन्य जैनों मे अधिक २८. 'क्षत्रिय वंशावली' ठाकुर गनपतामह, पृ० ५५ ।
सपर्क नही था पर अब एकाकार ही हो गये है। समैया २६.KC, Jain p 330
जातीय सागरवासी भगवादास शोभालाल जैन वंदेनव३०. K.C Jain p. 316.
खण्ड के जैनों से सर्वाधिक संपन्न माने जाते है। ३१. अनेकांत, अक्टू० ७२, पृ० २०८ ।
३४. हि० वि०, ३२. ब्रा०, पृ० ४०२।।
३५. वि० थि०, भा० २२, पृ० ३८५। ३३.हि. वि०. भा० २०, पृ० २४० ।
३६. E A.H. Blunt, p. 341.
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वर्षमानपुराण के सोलहवें अधिकार पर विचार
फलमाल पच्चीसी व वर्षमान पुल्लण की सूचीत्रों में एक से लेकर दम एक है। विश्वा की मर्यादा से विवाहतीस के लगभग जातियां उभयनिष्ट हैं।
सबध करना ऐमा रिवाज रहा है। किसी-किसी के मत से प्रागे कवि ने गोलापूर्वो की उत्पत्ति के बारे में कहा
यह स० १२३६ में कन्नौज नरेश जयचद के समय में
निश्चित किये गये। है। गोयलगढ के वासियों की प्रादिजिन द्वारा गोलापूर्व जाति की स्थापना कही गई है। इस कथन का प्राधार इसके वाद ५८ 'बैंक' गिनाये गये है। बैंक का अर्थ क्या है और गोयलगढ मे किस स्थान का तात्पर्य है कह सामान्य रूप से गौत्र ही है, पर कवि ने आगे गोत्र शब्द नहीं सकते। गोलापूर्व, गोनालारे व गो तसिगारे किसी का भिन्न अर्थ में प्रयोग किया है। ५८ बैक वाला छंद गोला स्थान के वासी थे यह माना जाता है, पर इसकी अलग-अलग प्रतियो में अलग-अलग है। सभी में सख्या पहिचान करना कठिन है। श्री आदिजिन के ईक्ष्वाकुवशीय तो ५८ ही है पर कुछ बैक नाप ऐसे है जो एक प्रति में होने का स्मरण किया जाना उद्देश्यपूर्ण लगता है, गोला- है, तो दूसरी मे नही है । क्रम मे भी कही-कहीं अंतर है। पूर्व ईक्ष्वाकुवंशीय है ऐसी श्रुति रही है इसी प्रकार ईन ऐसा प्रतीत होता है बाद में प्रतिलिपिकारों ने यह पाया जातियों को इनसे सभूत बताते है -
होगा कि मूल ग्रथ मे कुछ ऐसे वैक नाम है जो उन्हे ज्ञात गोलालारे-ईक्ष्वाकु
नही है और कुछ बैक नाम जो उन्हें ज्ञात है, ग्रथ मे नहीं गोलसिगारे-ईक्ष्वाकु
है । उनने इच्छानुसार छंद में परिवर्तन कर लिया होगा। जैसवाल-यदु
इस प्रकार उपलब्ध कुल बैकों के नाम ७६-७७ तक हो लमेचू-यदु
जाते है । वर्तमान में ३३ बैंक ही शेष है । अग्रवालो मे गर्ग गोत्र यदुवश का है ऐसा कहते है। इसके बाद कवि निजकल का वर्णन करता है। कवि पर ये उल्लेख बहुत प्राचीन नही है, इससे कोई निष्कर्ष ने अपने बैक चदोरिया' में चार खेरे' बताये है-बड़, निकालना सभव नही है । यह उल्लेखनीय है कि चौबीस तीर्थकरों में से बाईस कश्यप गोत्रीय ईक्ष्वाकु और दो
मंबंधी ज्ञान नहीं है। चदोरियों के पूर्वज कभी चार ग्रामों गौतम गोत्रीय हरिवश के कहे जाते है।
मे निवास किया करते होंगे जिन के आधार पर उनके उत्पत्ति के बाद गोलापूर्वो के तीन भेद बताये जाते
कबाद गालापूवाकतान मद बताय जात चार खेरे कहे जाने लगे। है, बिसबिसे, दसविसे और पचविसे । दसविसे भेद कवि
आगे कहा गया है चतुर्थ काल के आदि में गोल्हनके समय से रहा होगा, इस समय न तो शेष है और न ही
शाह चदेरी स्थान में रहते थे जो 'बड़' चदोरिया थे और अन्यत्र इसका उल्लेख है । दसा-वीसा अदि भेद अनेकों
जिनका 'गौत्र' प्रजापति था। ये बहुत पहिले हुने होंगे, वैश्य जातियों में है, इस प्रकार (दो या तीन) भेद कब
जिससे कवि ने उन्हे चतुर्थ काल में ही मान लिया। साहु बने, इसके बारे मे निश्चित जानकारी नही मिलती।
गोल्हण इस प्रकार के नाम बारहवी शताब्दी के मूर्ति किसी-किसी ब्राह्मण जाति मे यह भेद है। कान्यकुब्ज पजा के अासपास लोकप्रिय थे। अहार के अठारहवीं ब्राह्मणो में विशेष सूक्ष्मता से यह विचार है। इनमें शताब्दी के मूर्तिलेखो मे गल्हण, रल्हण, खेल्हण, गल्हण, सैकड़ों वशकता-पूरुषो में प्रत्येक के लिये वंशमयादा मूचक. देण, कल्हण ऐसे नाम है। अक निश्चित है जिसे विश्वा कहते है ।" उत्तम छः गोत्रों
इनके गोत्र को प्रजापति कहा गया है। स्पष्टतः मे यह दो से लेकर बीस तक है। मध्यम दश गोत्रों में
गोत्र व बैक शब्द भिन्न प्रों में प्रयुक्त है। यह दोहरी ३७. अनेकात. अक्टूबर १९७२, पृ० १६४ ।
गोत्र व्यवस्था का प्रतीक है। कई जातियो मे दो प्रकार ३८.हि० वि० भा० ८ पृ० ४३६ ।
से गोत्र व्यवस्था है। एक तो सामान्य गोत्र, जिन पर ३६. कान्यकुब्ज वशावली, नारायण प्रसाद मिभ्र, विवाह आदि में विचार करते है, दूसरे ब्राह्मणीय गोत्र १९५६ ई०।
जिनका विशेष महत्व नही होता । १३८२ ई. के लेख
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दर्शन और लोकजीवन
पुषराज जैन
दर्शन के दो पहलू रहे है, 'जीवन के प्रति प्रतिबद्ध- और रचने की शक्ति और इच्छा का परिणाम है। अपने दृष्टि से समाज संगठन और व्यवहार के आदर्शों के बारे जीवन, अपने आसपास के समाज, अपनी और प्रकृति के में सोचना तथा किसी एक जीवन और समाज से परे बीज के सौन्दर्यानुभव को लेकर जिज्ञासा और कल्पना शाश्वत मूल्यों और सत्य के बारे में सोचना । जिन दर्शनो मिश्रित
दशना मिश्रित उडाने और तर्क दष्टि लगातार नई नई दार्शनिक में इन दोनों पहलों मे तालमेल रहा है वे लोक-अभिमुख परिकल्पनाये. स्वप्न तथा आदर्श रचते है। जीवन की रहे है और फैले बढे है। जिनमे ऐसा तालमेल अधिक वास्तविकतानो के बीच ये परिकल्पनाये जब अधूरी सिद्ध दिन बैठ नही सका वे अवरुद्ध हो गये सड गये।
होने लगती है तो सृजनशील मस्तिष्क फिर से कोशिश दर्शन सिर्फ बोध नहीं होता। वह मानव की खोजने ।
करता है । इतिहास के माध्यम से ये स्वप्न और पादश में कश्यप गोत्र के खन्डेलवाल महाजनो का उल्लेख है" हमारे शरीर में घुलते जाते है, हमारी प्रवृत्ति का अग यह चौरासी गोत्रों से भिन्न है। राजपूतों में ब्राह्मणीय बनत जात है। प्रकृति पार र गोत्रों की अपेक्षा 'कल' टालना महत्वपूर्ण मानते है। चुनौतियो और कठिनाइयो को इसी के बल पर हम कई जातियों का ब्राह्मणीप गोत्रमपर्ण जाति में एक ही स्वीकार करते है, हल करते हैं। एक जीवित समाज जसे अोझा लुहार व कलवार मभो कश्यप गोत्रीय है"। अपनी भीतरी शक्ति को पूरी सचेतता के साथ बढाता है, वर्तमान मे गोलापूर्वो में प्रजापति ग्रादि नामवाली गोत्र पुनर्गठित करता है। यह सचेतता उस लोच में निहित व्यवस्था पूर्ण रूप से विस्मृत हो चुकी है।
होता है जो समाज पादों और वास्तविकतामो को एक गोल्हण माहु ग्रादि पर्वजो के चदेरी में रहने से ही दूसरे से कहने नही देती बल्कि दोनो को एक दूसरे के चंदोरिया बैक हुना होगा।
अनुकूल बनाती चलती है । गोल्हन साहु के उल्लेख के बाद कवि विस्तार-भय से दर्शन की शास्त्रीय व्याख्या में उसी हद तक महत्वबीच का वर्णन छोड़ देता है। फिर भीषम माह के बारे पूर्ण होती है जिस हद तक वे सामान्यजन को बेहतर में लिखा है जो ओरछा म्टेट मे भेलमी ग्राम में रहते थे। जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है, बल देती है। कोई इनने १६५१ स० मे गजरथ चलवाकर मिवई पद पाया। भी अच्छा दशन असंख्य किस्से कहानियों के रूप में कालांतर मे उनके वशान खटोला ग्राम में बसे मलहरा के फैलता है। लोकमत इन कहानियो और इनके पात्रो को पास जा बसे जहा भीषम साह के छ पीढियो बाद हए अपनी रुचि, अच्छाई बुराई को अपनी समझ और भावुनवलसाह ने स० १८२५ मे वर्धमान पुराण की कता के द्वारा नये अर्थ देता है। साथ ही वह इनसे अपने रचना की।
को बनाता और बदलता भी है। इन कहानियो, मिथों से जाति सबंधी विशिष्ट परिचय के लिये अनेकांत खुद संवारने और अपनी अनुभूति, कोमलता तथा कल्पनाजून १९६६ मे 'जैन समाज की कुछ उपजातियाँ शीलता से इन्हे संवारने का क्रम एक साथ और लगातार दृष्टव्य हैं।
चलता है। यही मास्कृतिक जिदगी है। ४0 K.C. Jain, p 386.
भारतीय दर्शन के विभिन्न मतो में अक्सर एक सार४१. Hutton, p. 55.
भूत एकता दिखाई देती है। जीवन जीने के स्तर पर
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प्राणी भात्र के प्रति एक जैसी उदात्तता, व्यवहार के ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा था कि मब कुछ जानने मुक्ष्म से मूक्ष्म स्तरो पर किसी प्राणी को तकलीफ न देने का अर्थ है अमीमित जानना। तब ज्ञान की कोई सीमा का आग्रह तथा भौतिक सम्पति के प्रति एक मीमा के नही रहती। और यह सर्वज्ञता साधारण तौर पर सम्भव बाद निलिप्तता विभिन्न सिद्धान्तो में मिलेगी। यही नही है। एक कडे नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कारण है कि ममता और अहिमा जैसे शब्दो को जितने अनुशासन से ही यह मर्वज्ञता प्राप्त हो सकती है । लेकिन
क साथ गहरे और विविधता भरे अर्थ भारतीय दर्शन यह कडा अनुशासन ममाज का निषेध नही होना चाहिए। के इतिहास मे मिले है उतने दुनिया के किसी और भाग अवसर अनुशासन के प्रयत्न एकागी हो जाते है। जब या युग में नहीं मिले।
अनुशासन कुछ रूद नियमो मे बधकर चलने का पर्याय समता और हिसा के अर्थ किमी भी समाज के हो जाता है तो यह व्यक्तित्व के विकास की बजाय विवेक के स्तर को बताने के लिए काफी है। भारतीय व्यक्तित्व के अवरोध के अवसर ही पैदा करता है। किसी दर्शन में जिस तरह ममता के आर्थिक, मामाजिक और भी नियम या जीवन पद्धति को व्यक्ति के नैगिक मुखों आध्यात्मिक पहलों पर विचार हा तथा अहिसा के को, प्रेम और करुणा को अपरिमित बढ़ाना चाहिए। सूक्ष्म अर्थों को समझा, बढाया गया वह दर्शन की लोक अगर इसके विपरीत वह इन्हे घटाता है तो उस पद्धति जीवन के प्रति गहरी आस्था को प्रकट करता है। के बोट की जांच होनी चाहिए। जैन प्राचार्य इस बारे
मत्य अपने आप में कोई निरपेक्ष तत्त्व नही में बहुत मचष्ट और प्राग्रहशील थे। बल्कि यह देखने के कोण में निहित है। मटमेद्धान्तिक माधारण व्यक्ति के विकास के लिए जैन प्राचार्यों व्याम्या हमे सम्यक ज्ञान से दूर करती है उसके नज- ने मम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और मम्यक् चरित्र की बात दीक नही ले जाती। दुनिया के इतिहास में धर्म और की थी। माधारण इच्छाम्रो मे ऊपर उठकर बेहतर व्यक्ति दर्शन तब विगडे है जब उन्होंने दप्टि की इम वैज्ञानिकता बनने की इच्छा, बेहतर ममाज की ओर ले जाती है । को छोड दिया है । जैन मीमासा ने इस बात को म्याद्वाद व्यक्ति और समाज के बीच एक साथ उठाने का यह रिश्ता के रूप मे हमारे मामने रखा।
टना नहीं चाहिए। न कोई व्यक्ति समाज के खराब रहते ___ सत्य अपने विभिन्न पहलुओं में निहित है। उसकी हुए बहुत ऊपर उठ मकना हे, न कोई समाज व्यक्तियो के खोज के ममय पूर्वाग्रही को छोडकर सम्यक दृष्टि अपनानी नैतिक, आध्यात्मिक उत्थान के बिना ऊपर उठ चाहिए। जैन प्राचार्यों ने जीवन के बहमखी स्वरूप की सकता है।
अावश्यक सूचना
अनेकान्त शोध पत्रिका प्रापके पास नियमित रूप से पहुंच रही है। प्राशा है प्रापको इसकी सामग्री रोचक एवं उपयोगी लगती होगी। यदि इसको विषय सामग्री के स्तर तथा उपयोग को ऊंचा उठाने के लिए पाप अपना सुझाव भेजे तो हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे।
जिन ग्राहको का हमें पिछला वार्षिक चन्दा प्राप्त नहीं हुमा है, उन्हें भी हम यह अंक भेज रहे है माशा है इस प्रक को प्राप्त करते ही चन्दा भेज कर हमे सहयोग प्रदान करेंगे।
--सम्पादक
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दर्शन और लोकजीवन
पुषराज जैन
दर्शन के दो पहल रहे है, 'जीवन के प्रति प्रतिबद्ध- और रचने की शक्ति और इच्छा का परिणाम है। अपने दृष्टि से समाज संगठन और व्यवहार के आदर्शों के बारे जीवन, अपने आसपास के समाज, अपनी और प्रकृति के में सोचना तथा किसी एक जीवन और समाज से परे बीज के सौन्दर्यानुभव को लेकर जिज्ञासा और कल्पना शाश्वत मूल्यों और सत्य के बारे में सोचना । जिन दर्शनों तिमा
| मिश्रित उड़ाने और तर्क दृष्टि लगातार नई नई दार्शनिक में इन दोनों पहलुओं मे तालमेल रहा है वे लोक-अभिमुख परिकल्पनायें, स्वप्न तथा प्रादर्श रचते है। जीबन की रहे हैं और फैले बढे है। जिनमे ऐसा तालमेल अधिक वास्तविकताबानो परिकल्पनायें जब प्रधरी सिद्ध दिन बैठ नहीं सका वे अवरुद्ध हो गये सड़ गये।
होने लगती है तो सृजनशील मस्तिष्क फिर से कोशिश दर्शन सिर्फ बोध नहीं होता। वह मानव की खोजने
करता है। इतिहास के माध्यम से ये स्वप्न और पादश में कश्यप गोत्र के खन्डेलवाल महाजनो का उल्लेख है। हमारे शरीर मे घुलते जाते है, हमारी प्रवृत्ति का अग यह चौरासी गोत्रो से भिन्न है। राजपूतों में ब्राह्मणीय
बनते जाते है। प्रकृति और समाज के द्वारा फेकी गयी गोत्रों की अपेक्षा 'कल' टालना महत्व-पर्ण मानते है। चुनौतियो और कठिनाइयों को इसी के बल पर हम कई जातियों का ब्राह्मणीय गोत्र संपूर्ण जाति में एक ही है स्वीकार करते है, हल करते है। एक जीवित समाज जसे पोझा लुहार व कलवार मभो कश्यप गोत्रीय है"। अपनी भीतरी शक्ति को पूरी सचेतता के साथ बढाता है, वर्तमान में गोलापूर्वो मे प्रजापति आदि नामवाली गोत्र पुनर्गठित करता है। यह सचेतता उस लोच में निहित व्यवस्था पूर्ण रूप से विस्मृत हो चुकी है।
होता है जो समाज आदर्शो और वास्तविकतापो को एक ___गोल्हण साहु अादि पूर्वजों के चंदेरी मे रहने से ही दूसरे से कहने नही देती बल्कि दोनो को एक दूसरे के चंदोरिया वैक हुआ होगा।
अनुकूल बनाती चलती है । गोल्हन साह के उल्लेख के बाद कवि विस्तार-भय में दर्शन की शास्त्रीय व्याख्या मे उसी हद तक महत्वबीच का वर्णन छोड देता है। फिर भीषम माह के वारे पूर्ण होती हैं जिस हद तक वे सामान्यजन को बेहतर में लिखा है जो ओरछा स्टेट में भेलमी ग्राम में रहते थे। जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है, बल देती है । कोई इनने १६५१ सं० में गजरथ चलवाकर सिवई पद पाया। भी अच्छा दशन असंख्य किस्से कहानियो के रूप में कालातर मे उनके वन खटोला ग्राम में बसे मलहरा के फैलता है। लोकमत इन कहानियो और इनके पात्रो को पास जा बसे जहा भीषम साह के छ. पीडियो बाद हए अपनी रुचि, अच्छाई बुराई को अपनी समझ और भावुनवलसाह ने सं० १८२५ मे वर्षमान पुराण की कता के द्वारा नये अर्थ देता है। साथ ही वह इनसे अपने रचना की।
को बनाता और बदलता भी है। इन कहानियो, मिथों से जाति सबंधी विशिष्ट परिचय के लिये अनेकॉत खुद संवारने और अपनी अनुभूति, कोमलता तथा कल्पनाजून १९६६ में 'जैन समाज की कुछ उपजातियाँ शीलता से इन्हे संवारने का क्रम एक साथ और लगातार दृष्टव्य है।
चलता है। यही सास्कृतिक जिदगी है। ४० K.C. Jain, p. 386.
भारतीय दर्शन के विभिन्न मतों में अक्सर एक सार४१. Hutton, p. 55.
भूत एकता दिखाई देती है। जीवन जीने के स्तर पर
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प्राणी मात्र के प्रति एक जैसी उदात्तता, व्यवहार के ओर ध्यान प्राकृष्ट करते हुए कहा था कि सब कुछ जानने मुक्ष्म से सूक्ष्म स्तरो पर किसी प्राणी को तकलीफ न देने का अर्थ है असीमित जानना। तब ज्ञान की कोई सीमा का प्राग्रह तथा भौतिक सम्पति के प्रति एक सीमा के नहीं रहती। और यह सर्वज्ञता साधारण तौर पर सम्भव बाद निलिप्तता विभिन्न सिद्धान्तों में मिलेगी। यही नहीं है। एक कडे नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कारण है कि समता और हिसा जैसे शब्दों को जितने अनुशासन से ही यह सर्वज्ञता प्राप्त हो सकती है । लेकिन एक साथ गहरे और विविधता भरे अर्थ भारतीय दर्शन यह कडा अनुशासन समाज का निषेध नहीं होना चाहिए। के इतिहास में मिले है उतने दुनिया के किसी और भाग अक्सर अनुशासन के प्रयत्न एकागी हो जाते है। जब या युग मे नही मिले।
____ अनुशासन कुछ रूह नियमो मे बधकर चलने का पर्याय समता और अहिसा के अर्थ किसी भी ममाज के हो जाता है तो यह व्यक्तित्व के विकास की बजाय विवेक के स्तर को बताने के लिए काफी है। भारतीय व्यक्तित्व के अवरोध के अवसर ही पैदा करता है। किसी दर्शन में जिस तरह समता के पार्थिक, सामाजिक और भी नियम या जीवन पद्धति को व्यक्ति के नमगिक सुखो आध्यात्मिक पहलों पर विचार हा तथा अहिसा के को, प्रेम और करुणा को अपरिमित बढाना चाहिए। सूक्ष्म अर्थों को समझा, बढाया गया वह दर्गन की लोक अगर इसके विपरीत वह इन्हे घटाता है तो उस पद्धति जीवन के प्रति गहरी आस्था को प्रकट करता है। के वोट की जांच होनी चाहिए। जैन प्राचार्य इस बारे सत्य अपने पाप में कोई निरपेक्ष तत्त्व नही है
मे बहुत मचेप्ट और प्राग्रहशील थे।
म बहुत मचष्ट बल्कि यह देखने के कोण में निहित है। मनु मंदान्तिक साधारण व्यक्ति के विकास के लिए जैन प्राचार्यों व्याख्या हमे सम्यक ज्ञान से दूर करती है उसके नज- ने मम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और मम्यक् चरित्र की बात दीक नहीं ले जाती। दुनिया के इतिहास में धर्म और की थी। साधारण इच्छाम्रो से ऊपर उठकर बेहतर व्यक्ति दर्शन तब बिगडे है जब उन्होने दृष्टि की इस वैज्ञानिकता । बनने की इच्छा, बेहतर समाज की ओर ले जाती है। को छोड़ दिया है । जैन मी मासा ने इस बात को माद्वाद व्यक्ति और समाज के बीच एक स.थ उठाने का यह रिश्ता के रूप में हमारे सामने रखा।
टुटना नहीं चाहिए। न कोई व्यक्ति समाज के खराब रहते सत्य अपने विभिन्न पहलुओं में निहित है। उसकी हुए बहुत ऊपर उठ सकता है, न कोई समाज व्यक्तियो के खोज के समय पूर्वाग्रहों को छोडकर सम्यक दृष्टि अपनानी नैतिक, आध्यात्मिक उत्थान के बिना ऊपर उठ चाहिए। जैन प्राचार्यो ने जीवन के बहुमुखी स्वरूप की सकता है।
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-सम्पादक
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R.N. 10591/82
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि प्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
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प्रकाशक-बोरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित।
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