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________________ अनेकान्त १४, वर्ष २७, कि०३ समाप्त किया। उन्होंने उस माध्यम का उपयोग ही नहीं भगवान महावीर की भाषा-क्रान्ति को समझने के लिए किया जिस बिचोलिये काम मे ले रहे थे। यह कान्ति थी, दो शब्दो को समझने की जरूरत है : 'ज्ञान' और 'समझ'। जिसकी प्राम प्रादमी प्रतीक्षा कर रहा था। भाषा की जानना' 'समझना' नही है; "नोइंग इज नाट अंडरपरिभाषिकता अचानक बिखर गई और चारो ओर चिन्तन स्टेडिंग।" ज्ञान और सम्यग्ज्ञान में 'नोइंग' और 'अंडरस्टें. के खले मैदान दिखाई देने लगे। यह था महावीर का डिंग का फर्क है । ज्ञान में हम जानते है, समझते नहीं है। यक्तित्व जो बद्ध मे होकर कबीर और गाँधी तक निरन्तर सम्यक् ज्ञान मे हम जानते भी है और समझते भी है। चला पाया है। समझना कई बार भाषा की अनुपस्थिति में भी घटित महावीर की सर्वोपरि शक्ति भाषा थी। अर्द्धमागधी होता है। वह गहरी चीज है । मर्म की पकड़ उसके संपूर्ण भाषा निर्बल की बल राम थी। महावीर की प्रायानो में 'समझ' है, शब्द की या परिस्थिति की पकड़ भाषा को 'दिव्यध्वनि' कहा गया। यह कोई 'रहस्यवादी' केवल एक ही पायाम मे ज्ञान है। महावीर ने अंडरस्टेंडिंग शब्द नही है। दिव्यध्वनि वह जो सबके पल्ले पड़े; और की ओर ध्यान दिया। और यह परम्परित भाषा या प्रदिव्य वह जो कुछेक की हो और शेष जिससे वचित रह शास्त्र से सम्भव नही था, इसके लिये साफ-सुथरा जीवनजाते हों। महावीर की दिव्यध्वनि अपने युग के प्रति पूरी तल चाहिये था । महावीर की भाषा-क्रान्ति की सबसे बड़ी तरह ईमानदार है, वह सुबोध है, और अपने युग के विशिष्टता यही है कि उसने लोक जीवन की समझ को तमाम सन्दी से जुड़ी हुई है। महावीर के दो उपदेश पुनरुज्जीवित किया । शास्त्र को खारिज किया और सम्यमाध्यम हैं : उनका जीवन और उनके समवशरण । समय म्ज्ञान को प्रचलित किया। प्राज के अभिशप्त ग्राम आदमी शरण में बोलचाल की भाषा का तल तो है ही, वहाँ को भी महावीर मे एक सहज स्थिति का अनुमव हो जीवन का भी एक तल पूरी प्राभा और तेजस् मे प्रकट सकता है। है। पशुजगत् भी वहाँ है और महावीर को समझ रहा है। महावीर की भाषा-क्रान्ति की एक और खूबी यह थी महावीर भाषा में है, भाषातीत है। उन्हें समझ मे प्रा कि वह आधुनिकता को झेल सकती थी। महावीर तब तक रहे हैं जो भाषा को नहीं जानते; और उन्हे भी समझ मे। मौन रहे जब तक उन्हें इन्द्रभूति गौतम जैसा अत्याधुनिक पा रहे है जो भाषा के भीतर चल रहे है। उनका जीवन नही मिल गया। गौतम सब जानता था, उसे परम्परा का स्वयं माध्यम है। उनकी करुणा और वीतरागता स्वयं बोध था, युगबोध था; किन्तु सब खण्डित, असमग्र, क्रमभाषा है। आज मन्दिर भले ही पाखण्ड और गुरुडम के हीन; महावीर के संसर्ग ने उसमे एक क्रम पैदा कर दिया। अड्डे हों किन्तु मूर्तियों के पीछे वही दिव्यध्वनि काम कर वह उस समय की सड़ी-गली, जर्जरित व्यवस्था का ही रही है, जो समवशरण में सक्रिय थी। मूर्ति के लिए कौन अंग था किन्तु उसमें सामर्थ्य थी जूझने की। वह आधुनिक सी भाषा चाहिए भला ? उसकी करुणा और वीतरागता था भगवान महावीर के युग में। भगवान इस तथ्य को को न संस्कृत चाहिए, न अर्द्धमागधी, न प्राकृत, न अप जानते थे । उन्होने अपने ज्ञान का खजाना इन्द्रभूति पर भ्रंश, न हिन्दी और न अंग्रेजी। इसलिए महावीर की उन्मुक्त कर दिया । भाषा की जिस क्रान्ति को महावीर ने भाषाक्रान्ति इतनी शक्तिशाली साबित हुई कि उसने भाषा घटित किया इन्द्रभूति मे वह स्थिति उपस्थित है। महाकी सारी धोखाघड़ियां समाप्त कर दी और धर्म की ठेके वीर से वह छुपी नहीं है। इस तरह महावीर ने अपनी दारी बन्द कर दी। भाषा के सन्दर्भ में प्राज फिर महा समकालीन आधुनिकता को भाषा के माध्यम से संबंधित वीर को घटित करने की जरूरत है। जैनों को अपने सारे । किया और अध्यात्म को जर्जरित होने से बचाया। महाशास्त्र प्रर्द्धमागधी, प्राकृत और अपभ्रंश के बन्धक से मुक्त वीर को भाषा के क्षेत्र में पुनः पुनः घटित करने की भाव. कर लेने चाहिए। कोई उद्धरण नहीं, कोई परिभाषा नही; श्यकता से हम इनकार नहीं कर सकेंगे। 00 सीधे-सीधी बात, प्रामने-सामने दो ट्रक बात । जैनाचार्यों ने ऐसा ही किया है अपने-अपने युगों में । ६४, पत्रकार कालोनी, कनाडिया मार्ग, इन्दौर
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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