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________________ जैन मत में मूर्ति पूजा की प्राचीनता एवं विकास प्रतिमा को मगध ले गया था उसे कलिंग चक्रवर्ती ऐल खारवेल वापस कलिंग ले प्राये थे । उदयगिरि एवं खन्डगिरि ( भुवनेश्वर ) के अतिरिक्त गणेश गुम्फा, हाथीगुम्का, मचपुरी, चनतगुम्फा मादि के अनुसंधान से जैन मूर्तियां प्राप्त हुई है। ग्रभिषेक लक्ष्मी जैनो द्वारा अपनाया गया प्रसिद्ध मोटिफ था । जो उदय गिरि के रानीगुम्फा तोरण पर मिलता है । भारतीय कला का कमबद्ध इतिहास मौर्यकाल मे प्राप्त होता है। अशोक के पत्र सम्प्रति ने जैन धर्म को ग्रहण कर उसका प्रसार किया था। इस काल में जैन कला के अवशेष उदयगिरि गुफाओ, बिहार में पटना के अासपास तथा मथुरा यादि से प्राप्त हुए है। खारवेल द्वारा कलिंग जिन मूर्ति लाने का वर्णन किया जा चुका हैं । इस कुपणकालीन अनेक जैन मूर्तिया प्राप्त हुई है. काल के कलात्मक उदाहरण मथुरा के ककाली टीले की खुदाई प्राप्त मे हुए हैं। उनमें नौकरों की प्रतिमायें एवं प्रयागपट्ट प्रमुख है। प्रयागपट्ट पूजा निर्मित गोलाकार दिया है जिसके मध्य में तीर्थकर प्रतिमा एव चारो ओर पाठ जैन मन के मागनिक चिन्ह रहते है। कुयाणकाल में प्रधानन तीवंक की प्रतिमायें गुदी है जो कायोत्सर्ग अथवा समवशरण मुद्रा में है। इस काल में ऋषभनाथ, नेमिनाथ तथा महावीर की मूर्तिता समवदारण मुद्रा में तथा दीप कायोत्सर्ग मुद्रा में प्राप्त होती है । गुप्तकाल जिसे भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है मे कला प्रौढता को प्राप्त हो चुकी थी गुप्तकालीन जैन प्रतिमाये सुन्दरता कलात्मक दृष्टि से उत्तम है प्रधोवस्त्र तथा श्रीवत्स ये विशेषतायें गुप्तकाल में परिलक्षित होती है। कुमार गुप्त के एक लेख में पार्श्व नाथ मूर्ति के निर्माण का नया दगुप्त के जैन पंचतीर्थी प्रतिमा को स्थापना का वर्णन है। जो किसी भद्र द्वारा निर्मित कराई गई थी। स्तम्भों पर उत्कीर्ण प्राकृति ७. नर्जल भाफ बिहार एन्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी भाग २ पृ. १३ । १३ में आदिनाथ, शातिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर हैं' । चन्द्रगुप्त द्वितीय काल की एक मूर्ति वैमर पहाड़ी से प्राप्त हुई थी जिस पर चन्द्र II का का लेख अ ंकित है : अभी कुछ पूर्व विदिशा के निकट एक ग्राम से गुप्त नरेश रामगुप्त के काल की लेख युक्त जैन तीर्थकरो चन्द्रगुप्त आदि की प्रतिमाये प्राप्त हुई है। मीरा पहाड़ की जैन गुफायें तथा उनमें उत्कीर्ण मनोहर तीर्थकर प्रतिमाच का निर्माण इसी काल में हुआ यहा से प्राप्त भगवान नाथ की मूर्तिगलको मत मागन मे बैठे है मे भारत कला भवन काशी में संग्रहीत राजघाट से प्राप्त धरमेन्द्र - पद्मावती सहित पार्श्वनाथ की मूर्ति कला की दृष्टि से सुन्दर है । उत्तर गुप्त काल मे जैन कला के अनेक केन्द्र थे अतएव उस काल की प्रतिमाये पर्याप्त संख्या में प्राप्त होती है। तात्रिक भावनाओं ने कला को प्रभावित किया शास्त्रीय नियमों में बद्ध होने के कारण जैन कलाकारों की स्वतंत्रता नही रही। इस युग मे चौबीस तीर्थंकरों से सम्बन्धित चौबीस यक्षयक्षिणी की कला में स्थान दिया गया । दक्षिण भारत में जैन मूर्तिया अनेकों स्थलों से प्राप्त हुई है। प्रसिद्ध लेखक एवं पुरातत्य अन्वेषक टी. एम. रामचन्द्रन के अनुसार "दक्षिण मे जैन धर्म के प्रचार एव प्रसार का इतिहास द्रविडो को श्रार्य सभ्यता का पाठ का इतिहास है इस महान अभियान का प्रारम्भ ३ री सदी ई. ५ में प्राचार्य भद्रबाहु की दक्षिण यात्रा से हुआ। पैठन में सातवाहन राजाओ द्वारा निर्मित दूसरी सदी ई. पू. के जैन स्थापत्य उपलब्ध है। कर्नाटक में जैन कला का स्वर्णयुग का आरम्भ गंग वंश के राजत्वकाल में हुआ । * ८. स्कंदगुप्त का कहा स्तंभलेखका इ. इ. इ. ३ पृ. ६५ । ६. कि. रिर्पोट - नाकि सर्वे आफ इंडिया १६२५-२६ -- पृ. १२५ । १०. जे. श्री. श्राई. वी. मार्च ६६ पृ. २४७-५३ । ११. जैन मा० न्युमुमेंटस ग्राफ इडिया पृ. १६ ।
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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