SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन मत में मूर्ति पूजा की प्राचीनता एवं विकास शिवकुमार नामदेव जैन मूर्तिया दो प्रकार की बताई गई है कृत्रिम एव प्रकृत्रिम मत्रिम प्रतिमायें सारे लोकों मे फैली हुई है एवं कृत्रिम प्रतिमायें मनुष्य निर्मित है। इस काल में सबसे पहले ऋषभदेव के पुत्र प्रथम सम्राट भरत चक्रवर्ती ने जिन प्रतिमाओ की स्थापना की थी। जिस समय ऋषभदेव सर्वत होकर इस धरातल को पवित्र करने लगे तो उस समय भरत चक्रवर्ती ने तोरणो और घटाम्रों पर जिन प्रतिमाये ही बनवाकर भगवान का स्मारक कायम किया था । उपरान्त उन्होने ही भगवान के निर्वाणधाम कैलास पर्वत पर तीर्थकरों की चौवीस स्वर्णमयी प्रमताये निर्मापित कराई थी। 1 1 जैन मन दो प्रमुख पंथों पे विभाजित है-वेताम्बर एवं दिगम्बर श्वेतावर ( जिसके देवता देवेत अबर धारण करते हों) सदैव ही अपनी प्रतिमाम्रो को वस्त्र आभूषण से सुसज्जित रखते थे ये पुष्पादि इस्यो का प्रयोग करते हैं तथा अपने देवालयों मे दीपक भी नही जला इसके विपरीत दिगम्बर ( दिकू + अम्बर) शामा की मूर्तियां नग्न रहती थीं। ये अक्षत आदि चढ़ाते हैं तथा मूर्ति के स्नान में प्रचुर जल का प्रयोग करते है एव मन्दिरों में दीपक जलाते है । वैदिक कालीन मूर्तिया श्रभी तक उपलब्ध नही हुई है भारत की सबसे प्राचीनतम मूर्तिया सिधु की घाटी में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा यादि स्थलों से प्राप्त हुई है। उस सभ्यता मे प्राप्त मोहनजोदड़ो के पशुपति को शैवमत का देव मानें तो हड़प्पा से प्राप्त नग्न घड को दिगम्बर की खंडित मूर्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । सिन्धु सभ्यता मे पशुओ में एक विशाल स्कंध युक्त १. श्रादि पुराण १८ । २. श्री कामताप्रसाद जैन जैन सिद्धान्त भास्कर १९३२ पृ. ८ । वृषभ का अकन तथा एक जटाधारी का अकन है। वृषभ तथा जटाजूट के कारण इसे प्रथम जैन तीर्थकर पादिनाथ का अनुमान कर सकते हैं'। जैनकला में स्थानक मूर्ति को कायोत्सर्ग एवं ग्रामवन मूर्ति को समवशरण कहते हैं। हडप्पा मे प्राप्त मुद्रा ३१० एव ३१८ मे प्रति प्रतिमा महिन कार्याोग मुद्रा मे हैं। उपरोक्त माध्य हमे मोहनजोदर्श ( मील) क्रमाक ३००, जानुलम्बित बाइ हड़प्पा के अतिरिक्त से भी प्राप्त होते है। मथुरा और उदयगिरि का पुरातत्व भी जिन मूर्तियों के प्राचीन धास्तित्वको सिद्ध कर सकते है जैन स्तूप पर मूर्तिया यकित रहती थी ईसा की पहली शताब्दी में मथुरा में वह प्राचीन स्तुप विद्यमान था जो इस काल मे देव निर्मित समझा जाता था और जिसे बुल्हर तथा स्मिथ ने भगवान पार्श्वनाथ के काल (ई. ५. ८ वी सदी का बताया था । नदिवर्धन जैन धर्म का अनुयायी था। उसने ममय तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया था एवं कलिग को विजितकर अनेक विधियों के साथ उसने कलिंग की जिन मूर्ति को भी ले आया था हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि एक नद राजा कलिंग से अग्रजिन की ३. सरबाइबल ग्राफ दि हडप्पा कल्चर- टी. जी अर्ग्यूसन पृ. ५५ । ४. वत्स एम. एम. हड़प्पा, ग्रंथ १ पृ. १२६-३० फुलक ६३ । ५. वही पृ. २८, मार्शल - मोहनजोदड़ो एन्ड इन्डस वैली सिबिलजेशन ग्रंथ १. फुलक १२ प्राकृति-१३, १४, १५, १६, २२ । ६. जैन स्तूप एन्ड अदर एंटीक्वीसाज ग्राफ मथुरा पृ.१३ ।
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy