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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यग्धसिन्धुरविधानम् । सकलनपविलसितामा बिरोधमधनं नमाम्यनेकारतम् ॥
वर्ष २७
किरण ३
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, बिल्ली-६ वीर-निर्वाण संवत् २५००, वि० सं० २०३१
नवम्बर । १६७४
ऋषभ-स्तोत्रम्
कम्मकलंकचउक्केणठे णिम्मलसमाहिमईए । तुह जाण-दप्पणेच्चिय लोयालोयं पडिफलियं ॥१६॥ प्रावरणाईणितए समूलमुम्मूलियाइ बठ्ठणं । कम्मचउक्केण मुयं माह भीएण सेसेण ॥२०॥ णाणामणिजिम्माणे देव ठिमो सहसि समवसरणम्मि। उार व संणिविट्ठो जियाण जोईण सम्वाणं ॥२१॥
-मुनि पपनन्दि।। अर्थ-हे मगवन् ! निर्मल ध्यानरूप सम्पदा से चार घातिया कर्मरूप कलंक के नष्ट हो जाने पर प्रगट हुए मापके ज्ञान (केवल ज्ञान) रूप दर्पण में ही लोक और प्रलोक प्रतिबिम्बित होने लगे थे ॥१६॥ हे नाथ ! उस समय ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों को समूल नष्ट हुए देख कर शेष (वेदनीय, प्राय, नाम और गोत्र) चार प्रघातिया कर्म भय से ही मानो मरे हए के समान (अनुभाग से क्षीण) हो गए थे ।।२०।। हे देव! विविध प्रकार की मणियों से निमित समवसरण में स्थित पाप जीते गए सब योगियों के ऊपर बैठे हुए के समान सुशोभित होते हैं।
विशेषार्थ-भगवान् जिनेन्द्र समवसरण सभा में गन्धकुटी के भीतर स्वभाव से ही सर्वोपरि विराजमान रहते हैं। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उन्होंने चूंकि अपनी माभ्यन्तर व बाह्य लक्ष्मी के द्वारा सब ही योगीजनों को जीत लिया था. इसीलिए वे मानों उन सब योगियों के ऊपर स्थित थे ॥२१॥