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________________ ५२, वर्ष २७, कि०२ अनेकान्त कवि नवलराम १८वी शताब्दी में हुए थे। इनक पदो मे भक्ति की प्रधानता है। परन्तु प्राध्यात्मिकता को भनक सर्वत्र पाई जाती है परे मन सुमरि देव रघुराम ॥ जनम-जनम संचित ते पातिक, तछिन जाय विलाय । त्यागि विषय अरु लग शुभ कारज, जिन वाणी मन लाय । ऐ संसार क्षार सागर में, और न कोई सहाय। जयपुर निवासी कविवर बुधजन जैन हिन्दी साहित्य के गौरव रत्न है। आप के पदो में आत्मा परमात्मा एवं संसार की प्रसारता का बड़े प्रभावक ढंग से वर्णन हमा है। मानव जीवन दुर्लभता को समझाते हुए कवि मन से कहता है कि परे जिया त निज कारिज क्यों न कियो। या भरको सुरपति प्रति तरसै। सो तो सहज पाय लीयो । मिथ्या जहर कही गुण तजिबों। ते अपनाय पीयो । दया दान पूजा संजम में । कबहुं चित न दियो । सुषवन प्रौसर कठिन मिल्या है। निश्चय पारि हियो। अब निजमत सरवा विद करो। तब तेरो सफल जीयो । दौलत राम प्रसिद्ध कवि हो गए है। आपके पदो की भाषा खड़ी हिन्दी है। इनका भाषा पर पूरा अधिकार था। इनके आध्यात्मिक पद संसार की क्षणिकता, जीवन को दुर्लभता तथा जिनमत की महानता से भरे हुए है। एक पद देखिए जिया जग धोके को टाट । अठा उद्यम लोक करत है, जिसमें निश दिन घाटी। जान बूझ कर अंध बने हो, मांखिन बांधी पाटी। निकल जाएंगे प्राण छिनक में, पट्टी रहेगी माटी। दौलत राम समझ मन अपने, दिल की खोल कपाटी। दौलत राम जी का ऊपर लिखा गया पद संमार की नश्वरता का एका बजा रहा है। इनका प्रत्येक पद इसी प्रकार प्रभावक तथा भावों को स्पष्ट करने वाला है। छत्रपति १३वी शताब्दी के कवि है। इनके पदों मे माधुर्य तथा स्पष्टता है। प्रायु सब यों ही बीती जाय। बरस प्रयन रितु मास महूरत, पल छिन समय सुभाय । बन न सकत जप तप व्रत संजम, पूजन भजन उपाय । मिथ्या विषय कवाय काज में, फंसो न निकसो जाए। धनि वे साधु लगै परमारथ, साधन में उमगाय । छत्त सफल जीवन तिनही का, हम सब शिथिल न पाय ।। पण्डित महाजन सीकर के रहने वाले थे। इन्होंने चेतन को समझाते हुए कहा है कि हे चेतन तू तो अपना भव संसार में भ्रमण करते करते यो ही खोए जा रहा है - जीव तू भ्रमत भ्रमत भव खोयो। जब चेत भयो तब रोयो। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप, यह धन धरि विगोयो। विषय भोग गत रसको रसियो, छिन-छिन में प्रति सोयो। कोष, मान छल लोभ भयो, तब इनही में उरझोयो। मोह राम के किंकर ये सब, इनके बस ह लुटोयो। मोह निवार संवार सो भायो, प्रातम हित स्वर जोयो । बुध महाचन्द्र चन्द्र सम होकर, उज्जवल चित्र रखोयो। पण्डित फागचन्द्र को संस्कृत एवं हिन्दी पर एक सा अधिकार था। अापके पदों में अध्यात्म चितन बहुत उच्चकोटि का पाया जाता है। इनका एक पद देखिये-- अरे हो प्रज्ञानी तूने कठिन मनुष भव पायो। लोचन रहित मनुष के कर में, ज्यों बटेर खग प्रायो।
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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