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________________ कुण्डलपुर को अतिशयता : एक विश्लेषण D श्री राजधर जैन 'मानसहंस', दमोह मूर्ति चाहे पाषाण की हो, काष्ठ को हो, मृत्तिका या महावीर की मूर्ति का अण-परमाण या उसका अंतिम से धातु को हो, वह पाषाण, काष्ठ या घातु ही है। केवल प्रतिम लघु घटक भी महावीर की ज्योति मे ज्योतिर्मय शिल्प उसे मूर्त रूप दे देता है, तथा वह जिसके प्राकार हो चुका है और वह ज्योति निरन्तर प्रत्यावर्तित होती का प्रतीक बनती है उसके गुणों की अवधारणा करना रहेगी। किसी भी प्रात्मा के समीप पहुचने पर मूर्ति मे भारम्भ कर देती है। मूर्ति मे प्राण-प्रतिष्ठा हम करते है। बैठी वह महान् मारमा उसे प्रभावित करने लगती है। जब हम उसे ईश्वर या परमात्मा के नाम रूप से सम्बो- महावीर की मूर्ति में यही अतिशयता है और यही उस धित करना शुरू कर देते है तो यह प्राण-प्रतिष्ठा कोई मूर्ति का प्राचीनता का बोध भी है। समस्त प्राचीन एक व्यक्ति द्वारा नही, प्रत्युत परमात्मा को उस नाम- मूर्तियाँ भी इसी तरह अतिशय को प्राप्त हो जाती है। रूप से प्रतिष्ठित करने वाले लाखों करोड़ों धर्मानुयायियों कुण्डलपुर से संबंधित जो अतिशय की चर्चायें है, एवं दर्शनाथियों द्वारा होती हैं, जो हजारों वर्षों से पने उनका प्राधार यही वैज्ञानिक प्रक्रिया है। प्रध्यात्म-विज्ञान, प्राणों की निष्कलुप ऊर्जा मूति पर प्रक्षेपित करते रहे हैं विज्ञान का एक खण्ड है। विज्ञान का यह ऊपरी रूप और इस तरह मूर्ति अनन्तानन्त प्रात्मानो की शुद्धता में जिसे हम विज्ञान कहते है, केन्द्रित परम विज्ञान की व्याप्त हो जाती है। कालान्तर में ये विशुद्ध पात्मायें परिधि पर एक प्राधिक उपलब्धि है। समस्त ब्रह्माण्डीय एकाकार होकर मूर्ति मे ऊजस्वित होती है और वह वैज्ञानिक प्रक्रिया में अभी तक जो भी अधिक से अधिक मूर्ति भी उस दिव्य ज्योति को विकीर्ण करने लगती है उपलब्धि हो सकी है, वह केवल अध्यात्म-विज्ञान की है। जिसकी वह मूर्ति प्रतिमूर्ति है। तब ऐसा होता है कि । इसलिए प्रध्यात्म-विज्ञान की शोधो के समक्ष भौतिक मूर्ति के समक्ष यदि कोई भूला-भटका पादमी भी पहुंचता विज्ञान की खोज नगण्य है। किन्तु फिर भी, भौतिक है तो उन अनन्त प्रात्मानो की केन्द्रित प्रज्ञा-किरणें उस विज्ञान असम्बद्ध नहीं, बल्कि अध्यात्म-विज्ञान का सरलीमादमी पर प्रत्यावर्तित होकर उसे प्रभावित करने लगती कृत प्रत्यक्ष दर्शन है। प्रतः भौतिक विज्ञान के माध्यम से है और वह व्यक्ति धीरे धीरे विशुद्धता में रूपान्तरित होने अश्यात्म-विज्ञान को सरलता एवं सहजता से पकड़ा जा लगता है। कुण्डलपुर में स्थित भगवान महावीर मूर्ति के सकता है और ग्रहण किया जा सकता है। जैन दर्शन पूर्ण समक्ष पहुंचने पर मन एक निर्मल शान्ति से प्रोत प्रोत वैज्ञानिक दर्शन है जिसमे चेतन, अचेतन, जीव, पुद्गल होने लगता है। उसका कारण केवल यही है कि भगवान और मोक्ष की धारणा विज्ञान का पूर्ण रूप है। प्रतः महावीर की मूर्ति ने उम अतिशय निधि को उपलब्ध कर भौतिक विज्ञान से हटकर केवल अध्यात्म बिज्ञान का लिया है जिसमें महावीर के जीवन-दर्शन से प्रभावित मूल्यांकन नहीं हो सकता। अनन्त प्रात्मामों ने महावीर को मूर्ति में पूर्ण रूप से प्रक्षेपित कर दिया है। वह मूर्ति, मूर्ति नहीं रह गई है. कुण्डलपुर से संबंधित एक अतिशय की चर्चा हैं कि महावीर हो चुकी है। यही उसका वैज्ञानिक परिवेश है। जब मूर्ति विध्वंश का बीड़ा उठाये औरंगजेब की सेना भारत के अनेक पवित्र मन्दिरों में विराजमान मूर्तियो का जो मूति जितनी प्राचीन होगी, उसमें उतनी ही दीर्घ- विनाश करती हुई, कुण्डलपुर स्थित महावीर की मूर्ति कालिक विशुद्ध मात्मामों का प्रक्षेपण होता रहा होगा। को तोड़ने के लिए अग्रसर हुई, तो वहाँ वृक्षों पर बैठी
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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