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राजुल
राजुल का प्रावेश देख महाप्रभु की मुख पर एक स्वीकार किए गए व्रत, संयम, आवेश उतरने पर भंग हो मधुर मुस्कान खेल गई । उन्होंने कहा देवि भावावेश में जो जाते है। आपकी मनोदशा स्वस्थ नही है। कुछ दिन कुछ तुमने अभी कहा वह सासारिक मनुष्यो के लिए समी- विचार करे । मुक्ति का द्वार सदैव खुला है देवि ।। चीन है । संसारी मानव यदि उनसे दूर भागता है, तो वह राजल ने अविचल मुद्रा में कहा-नही प्रभो नारी वास्तव में कायर है। त्याग के बिना उज्ज्वल साधना, को किसी संकल्प से विमुख करना असम्भव नहीं है । मैं अहिंसक जीवन की परमोज्ज्वल साधना सम्भव नही है। यहाँ गिरनार पर बिना अन्न जल ग्रहण किसे दीक्षा की प्रात्म और अनात्म का विश्लेषण करो देवि ! देखो, पृथ्वी प्रतीक्षा करूंगी। मैं अडिग विश्वास पूर्वक इस दुर्गम पथ से परे भी कुछ है। आत्मा के अजस्र शक्ति कोश को का अनुसरण कर रही हूँ। आप दीक्षा दीजिए। उन्मुक्त करने का प्रानन्द उपलब्ध करो देवि ।
नेमि प्रभु ने नारी का दृढ़ संकल्प देख उन्हे प्रायिका राजुल ने भावविह्वल होकर कहा-प्रभो ! आपकी
पदा की दीक्षा दी । गुरु चरणरज स्पर्श कर राजुल लौटी। वाणी से मैं कृतार्थ हई। यदि मैने आपको वरण किया है किन्तु गिरनार के नीचे नही। वही एक गुफा में चट्टान ' तो अपने इस आत्म संकल्प पर स्वयं को निछावर कर ।
सोना पर बैठकर तपश्चर्या करने लगी। दोनों ने अपनी साधना देना मेरा परम कर्तव्य है । मै अब लौटकर नही पाऊँगी। स ससार स मुक्ति पायो ।
से संसार से मुक्ति पायी और अपनी दिव्य वाणी से जनमेरा सकल्प था कि या तो मुनि को आपके चरणो का जन का उद्धार किया। स्पर्श कराऊँगी या फिर गिरनार से नीचे नही उतरूंगी। गिरनार की सभी चोटियां आज भी महाप्रभु नेमि यदि मै प्रभु को लौटा नहीं सकी तो प्रभु मुझे न लौटा और महासती राजुल की गौरव-गाथा सुानती है। सकेंगे। मुझे चरणों की रज समझ कर दीक्षा दीजिए आज गुफा मुख पर राजुल की मूर्ति साकार है। जिसे प्रभो।
देख भावभीने प्रणाम में हाथ स्वयं जुड़ जाते हैं। और महाप्रभु ने राजुल की दृढ़ता की थाह पाने की दृष्टि श्रद्धा भाव से मस्तक अनायास झुक जाता है। से कहा-देवि एक बार पुनः सोचें। क्षणिक आवेश में
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