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________________ जैन दर्शन की सहज उद्भूति : अनेकान्त महावीर ने वस्तु की विरारता और हमारे सामर्थ्य की सीमा स्पष्ट करके हमारे अहंकार को तोड़ा है। उन्होंने कहा, वस्तु उतनी ही नहीं है जितनी तुम्हें अपने दृष्टिकोण से दिखाई दे रही है। वह इतनी विराट है कि उसे मतन्त दृष्टिकोणोंसे देखा जा सकता है। अनेक विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म उसमें युगपत विद्यमान है। -जयकुमार 'जलज'] अनेकान्त जैन दर्शन की सहज अनुभूति है। जैन अनेक गुण वाली ये वस्तुए अनन्तमयी है । वस्तु के दार्शनिकों के द्रव्य पदार्थ सत्ता या वस्तु का जैसा विवे- गुणों को गिना जा सकता है। गुण वस्तु के स्वभाव हैं, चन किया है उससे उन्हें अनेकान्त तक पहुचना ही था। वस्तु मे ही रहते है और स्वयं निर्गुण होते है। उनकी उनका द्रव्य-विवेचन एक अत्यन्त तटस्थ वैज्ञानिक विवे- सत्ता सापेक्ष है। इसके विपरीत वस्तु के धर्म अनन्त है। चन है। परवर्ती सूत्र विज्ञानों से दूर तक उसका समर्थन वे वस्तु मे नही रहते। उनकी सत्ता सापेक्ष है। इसलिए होता है। जैन दर्शन के अनुसार तथ्य के अनेक (अनन्त वे किसी की सापेक्षता में ही प्रकट होते है । सापेक्षता नहीं नही) गुण है-जैसे जीवद्रव्य के ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्य तो वह धर्म भी गया। परिप्रेक्ष या दृष्टि बिन्दु के बदलते प्रादि और पुद्गल द्रव्य के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श प्रादि । ही दश्य बदल जाता है। दूसरे परिप्रेक्ष्य से देखने पर वस्तु या द्रव्य आकार में कितना भी छोटा हो लेकिन हम दूसरा दृश्य होता है। धर्म व्यवहार क्षेत्रीय है । वस्तु का उसे सम्पूर्णतः नही देख सकते । मैं उसके एक गुण को छोटा होना, बड़ा होना, पति, पिता, पुत्र आदि होना देखता हू, आप दूसरे गुण को, और लोग तीसरे, चौथे को व्यवहार और सापेक्षता का विषय है। इसलिए रूप, रस, भी देख सकते है। लेकिन एक व्यक्ति युगपत् सभी गुणों गन्ध आदि जहा गुण है वही छोटापन, बड़ापन, पतित्व, को देखने में समर्थ नही है। सबके देखे हुए का लोप नही पितृत्व, पुत्रत्व आदि गुण नहीं, धर्म है । किया जा सकता और लोप हो भी जाय तो भी वह सभी दर्शकों के लिए विश्वसनीय कहां हो पाएया? कई खण्ड अनन्त वस्तुप्रो के कारण अनन्त सापेक्षताएं निर्मित ज्ञान मिलकर एक अखण्ड ज्ञान की प्रामाणिक प्रतीति होती है। सापेक्षतानों के गुण, मात्रा, लम्बाई, चौड़ाई, शायद ही करा पाएं ! जगह-जगह टूटी हुई रेखा एक ऊंचाई, स्थान, काल आदि अनेक प्राधार होते है। वस्तु का अच्छा, भारी, लम्बा, चौड़ा, ऊँचा, दूर, प्रचीन आदि अट रेखा का भ्रम ही पैदा कर सकती है। वह वस्तुतः होना किसी सापेक्षता मे ही होता है। सापेक्षता प्रस्तुत भट्ट रेखा नही होती। इस प्रकार वस्तु अधिकाशतः भदेखी रह जाती है। करने का कार्य केवल उसी धर्म की वस्तु नही अन्य वर्गों की वस्तुएं (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) वस्तु के गुण परिवर्तनशील है। गुणों का परिवर्तन । उनके भेद और उनकी अनन्त सस्थाएं करती है। अनन्त ही वस्तु का परिवर्तन है। इसीलिए वस्तु कोई स्थित सापेक्षताओं से वस्तु के अनन्त धर्म निर्मित होते है। एक सत्ता नहीं है । वह उत्पाद और व्यय के वशीभूत है। हर ही वस्तु अनन्त भूमिकाओं में होती है। एक ही व्यक्ति क्षण उसमें कुछ नया उत्पन्न होता है और कुछ पुराना पिता, पुत्र, भाई, गुरु, शिष्य, शत्रु, मित्र, तटस्थ आदि व्यय होता है। वह अपने पर्याय बदलती है-पूर्व पर्याय कितने ही रूपों या धर्मों में प्रकट होता है। हम किसी को त्यागती है और उत्तर पर्याय की प्राप्ति करती है। एक कोण से देखकर वस्तु का नामकरण कर देते हैं। यह क्रम अनादि अनन्त और शाश्वत है। यह कभी नामकरण वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को संकेतित नहीं करता। विच्छिन्न नहीं होता। हम पहले क्षण जिस वस्तु को देखते वस्तु के नाना धर्मों से उसके केवल एक धर्म पर ही टिका हैं दूसरे क्षण वही वस्तु नही होती। नदी के किनारे पर होता है। नाम । शब्दो पर व्युत्पत्ति और प्रर्थ की दृष्टि खड़े होकर हम एक ही नदी को नहीं देखते। हर क्षण दूसरी नदी होती है। १. द्रव्याश्रय निर्गुणा गुणाः । -तत्त्वार्थसूत्र ५१४०
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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