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ॐ महम्
3ণকাল।
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
मई
वर्ष २७ किरण १
। ॥
वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण सवत् २४९६, वि० सं० २०३०
१६७४
सिद्धस्तुतिः
ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून प्राप्ताः पदं शाश्वतं, येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सोमापि नोल्लङ्घयते । येष्वश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमज्ञानादिसंयोजितं, ते सन्तु त्रिजगच्छिखाग्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे ।। सिद्धो बोधमितिः स बोध उदितो ज्ञघप्रमाणो भवेत । ज्ञय लोकमलोकमेव च वदन्त्यात्मेति सवस्थितः। मुबायां मदनोज्झिते हि जठरे यादग नभस्तादशः।
प्राक्कायात् किमपि प्रहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति ।। अर्थ-जो सिद्ध परमेष्ठी अपने कर्मरूपी कठोर शत्रुनों को जीतकर नित्यपद को प्राप्त हो चके है; जन्म जरा एवं मरण प्रादि जिनकी सीमा को भी नहीं लांघ सकते। तथा जिनमें असाधारण ज्ञान आदि के द्वारा अचिन्त्य एवं अद्वितीय अनन्त चतुष्टय स्वरूप ऐश्वर्य का संयोग कराया गया है। ऐसे वे तीनों परमेष्ठी मेरे कल्याण के लिए होवे । सिद्ध जीव अपने ज्ञान के प्रमाण हैं, और वह ज्ञान ज्ञेय के प्रमाण कहा गया है । वह ज्ञेय भी लोक एवं अलोक स्वरूप है। इसी से प्रात्मा सर्व व्यापक कहा जाता है। सांचे में से मैन के पृथक हो जाने पर उसके भीतर जैसा शुद्ध प्रकाश शेष रह जाता है ऐसे आकार को धारण करने वाला तथा पूर्ण शरीर से कुछ हीन ऐसा वह सिद्ध परमेष्ठी सदा प्रानन्द का अनुभव करता है।