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________________ महान् मौर्यवंशी नरेश : सम्प्रति 0 श्री शिवकुमार नामदेव, डिण्डोरी (मणला) सम्प्रति का जैन साहित्य में वही स्थान है जो बौद्ध जा रहे थे। जब रथ-यात्रा राजप्रासाद के सम्मुख पाई, साहित्य में प्रशोक का। मौर्य वंश के इतिहास में सम्प्रति तब राजा सम्प्रति की दृष्टि प्राचार्य सुहस्ती पर पड़ी का महत्त्व भी चन्द्रगुप्त और अशोक के समान है । मौर्य उन्हे ऐसा प्रतीत हुया कि प्राचार्य सुहस्ती से वे भली भाति नरेश दशरथ की मृत्यु के पश्चात् सम्प्रति लगभग २२३ प.चित है. परन्तु यह परिचय कब और कहाँ हुआ, ई० पूर्व में मगध के सिंहासन पर प्रारूढ़ हुआ। पाटलि- इसमा उन्हें स्मरण नहीं पाया। सोचते-सोचते राजा पुत्र गर कल्प' में लिखा है कि "पाटलिपुत्र मे कुणाल के सम्प्रति मूच्छित हो गया। जब उसकी मूर्छा भंग हुई तो पुत्र, भारत के महाराज सम्प्रति का राज्य था। इसने उसे स्मरण पाया कि प्राचार्य सहस्ती से उसकी भेट श्रमणों के लिए अनार्य राष्ट्रों में भी मठ बनवाये ।" डा. पिछले जन्म में हुई थी। प्राचार्य सुहस्ती भी राजा को वी० ए० स्मिथ का कथन है कि सम्प्रति का राज्य प्रवन्ती देख कर पहचान गये और उन्होंने यह बताया कि पिछले से लेकर पश्चिमी भारत तक फैला हुआ था। जैन साहित्य जन्म में सम्प्रति कौशांबी में भीख मांग कर अपना जीवनसे ज्ञात होता है कि सम्प्रति का राज्य केवल पाटिलपुत्र निर्वाह करता था। सहस्ती की प्रेरणा से उसने जैनधर्म तक ही सीमित न होकर उज्जैन तक विस्तृत था। को स्वीकार कर लिया था, और मृत्यु के पश्चात् अब उस पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर प्रारूढ़ होने के पूर्वी __ रंक ने कुणाल के घर जन्म लिया है। कौशांबी का वह सम्प्रति उज्जयिनी का कुमागमात्य भी रह चुका था। रंक ही पब सम्प्रति के रूप में उज्जयिनी के राजमिहासन उज्जयिनी के कुमारामात्य के रूप मे उसने वहाँ जैन पर प्रारूढ है। सहस्ती के बतलाने से सम्प्रति को अपने सम्प्रदाय को पूर्णत: संगठित कर लिया था। संभवतः पर्व जन्म की सब बातें याद मा गई, और उसने इस बात सम्प्रति ने जैन धर्म के उत्कर्ष में राज्यशक्ति यह सोच कर को स्वीकार किया कि इस जन्म में उसे जो भी सुखलगाई हो कि कालांतर में वह इन्हीं अनुयायियो के माध्यम समृद्धि एव राज-सुख प्राप्त है, वे सब प्राचार्य सुहस्ती से साम्राज्य को सरलता पूर्वक प्राप्त कर सके। की कृपा एवं जैन धर्म की महिमा के कारण हैं। उसने __ सम्प्रति का जैन साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। हाथ जोड़ कर सुहस्ती से प्रार्थना की कि पिछले जन्म के जैन साहित्य के अनुसार, वह जैन धर्म का अनुयायी था। समान इस जन्म में भी पाप मेरे गुरु बनना स्वीकार करें, उसने इस धर्म के प्रचार में महान उद्योग किया। जैन मोर मुझे अपना धर्म-पुत्र समझ कर कर्तव्य की शिक्षा ग्रंथों में भी यह प्रतिपादित किया गया गया है कि राजा सम्प्रति 'त्रिखण्ड भरताधिप' था। दें। इस पर सुहस्ती ने सम्प्रति को जैन धर्म की दीक्षा दी, सम्प्रति के जनधर्म-ग्रहण करने की बात जैनग्रंथ पौर अणुव्रत, गुणवत प्रादि उन व्रतों का उपदेश दिया जिनका पालन उसे धावक के रूप में करना चाहिए।' 'परिशिष्ट पर्द' और 'बृहत्कल्पसूत्र' में वर्णित है। परिशिष्ट पर्व (११२३-६४) के अनुसार : "एक समय उज्जयिनी जैन धर्म ग्रहण करने के पश्चात् सम्प्रति ने धर्म के नगरी में जीवंत स्वामी की प्रतिमा की रथ-यात्रा निकल प्रचारार्थ जो महान् प्रयास किया, उनका भी वर्णन हमें रही थी, और प्राचार्य सुहस्ती उसके साथ रथयात्रा में परिशिष्ट पर्व से प्राप्त होता है। उक्त ग्रंथ के अनुसार १. मध्य भारत का इतिहास, प्रथम खण्ड, पृ० २३७। २. सत्यकेतु विद्यालंकार : मौर्य साम्राज्य का इतिहास,
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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