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७४ वर्ष २७ कि..
अनेकान्त
"एक बार रात्रि के समय सम्प्रति के मन में यह विचार जैन धर्म के व्यापक उत्कर्ष और प्रचारार्थ सम्प्रति ने माया कि प्रनार्य देशों में भी इस धर्म को प्रचारित किया लगभग वही उपाय किये जो बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ उसके जाये, ताकि वहाँ भी जैन साधु स्वच्छंद रूप से विचरण पूर्वज सम्राट अशोक ने किये ये । यद्यपि यह सत्य है कि कर सकें। प्रत. उसने अनार्य देशों को, जो उसके अधी. अशोक एवं सम्प्रति की तुलना धर्म प्रचार के कार्य में नस्थ थे, यह मादेश दिया कि मेरे द्वारा भेजे हुए पुरुष नहीं हो सकती, परन्तु सम्प्रति की राजनीतिक एवं अन्य जैसे जैसे मार्ग प्रदर्शित करें, तदनुरूप प्राचरण किया परिस्थितियों को दृष्टि में रखने हए उसके द्वारा किये गये जाय। तत्पश्चात् उसने जैन साधुनो को जैन धर्म के प्रचार के लिए प्रार्य देगो ने भेजा। साधुनों ने राज
परिशिष्ट पर्व' से ज्ञात होता है कि सम्प्रति ने जैन कीय प्रभाव से शीघ्र ही अनार्य देश के निवासियों को
धर्म के प्रचार के लिए उज्जयिनी के चतुकि मुख्य तोरणों जैन मतानुयायी बना लिया। इस कार्य के लिए सम्प्रति
पर अपनी ओर से महासत्रों की स्थापना कराई, जहाँ ने भनेको लोकोपकारी काम किये। निधनों को मुफ्त
बिना भेदभाव कोई भी भोजन प्राप्त कर सकता था। भोजन-वितरण हेतु अनेक दान शालायें खुलवाई। अनेक
नक सम्प्रति ने नगर के व्यापारियों को यह प्रादेश दिया था जैन ग्रंथों में यह भी वणित है कि सम्प्रति ने जैन धर्म के माध लोग तेल. अन्न, वस्त्रादि जो भी ग्रहण करना प्रचार के लिए अपनी सेना के योद्धानों को साघु का वेश
चाहें, उन्हें मुफ्त प्रदान किया जाये और उनका मूल्य बना कर धर्म प्रचार के लिए भेजा था।
राज्यकोष से प्राप्त कर लिया जाये। 'परिशिष्ट पर्व' से ज्ञात होता है कि जिन अनार्य
सम्प्रति के द्वारा जैन धर्म के प्रचार के लिए देशों में सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया था, वे प्रान्ध्र का किये गये, उनका वर्णन हमें बृहत्कल्पसूत्र एवं पौर मिल (द्रविड़) थे। जैन धर्म का दक्षिण भारत उसकी टीका में भी मिलता है। उक्त ग्रंथो के अनुसार, में जो प्रचार हुमा, उसका श्रेय सम्प्रति को ही है। जैन उसके द्वारा किये गये कायं इस प्रकार थे :-(१) नगर धर्म का प्रचार का केन्द्र पश्चिमी भारत था। सम्प्रति ने के चारों तोरणों पर दान की व्यवस्था; (२) वणिजों मध्यदेश गुजरात, दक्षिणपथ तथा मैमूर मे जैन धर्म का विवणिजो' द्वारा साधुनों को बिना मूल्य वस्त्रादि प्रचार किया। सम्प्रति ने जैन साधुनों के लिए पच्चीस में देने की व्यवस्था; (३) सीमांत शासकों को राज्यो को सुगम बना दिया था।
प्रामन्त्रित कर उन्हे विस्तारपूर्वक 'धर्म' का अर्थ बताना ३. सम्प्रतिश्चिन्तयामास् निशीथ म मयेऽन्यदा ।
समणभद्रभाविण्मु ते सूरज्जेसु राषणादिसु । अनार्येष्वपि साधना बिहार वर्तयाम्यहम् ॥८६॥
साहू सुतं विहरिया तेगं चिय भद्दजाने प्रो॥ इत्यनार्यानादिदेश राजा दद्ध्व करं मम ।
___- श्री बृहत्कल्पसूत्र । तथा तथाग्मत्पुरुषा मार्गयन्ति यथा यथा ॥१०॥ ४. परिशिष्ट पर्व : ११ ततः प्रर्ष दन येषु सानुवेशधरान्नसन् ।
५. श्रमणो सिको गजा कान्दविकानथादिशत् । ते सम्प्रत्याज्ञयानार्यानवमन्वशिष-भूशम् ॥११॥
तलाज्यदधिविक्रेतृत्वनविक्रायकानपि । भविता सम्प्रतिस्वामी कोपयिष्यत्यन्यथा पुनः ॥६॥
रकिञ्चिदुपकुरुते साधनां देयमेव तत् । तत. सम्प्रतिगजस्य परितोषार्थ मुद्यताः ।
तन्मूल्यं व प्रदास्यामि मा स्म सूध्वमन्यथा ।। ते तु तत्पुरुषादिष्टमन्वतिष्ठन् दिने दिने ॥१४॥
-'परिशिष्ट पर्व' : ११.११०-१११। महासत्रण्य कार्यन्त प्रदरिषु चतुर्वपि ॥१०३।।
६. जो दुकान पर बैठ कर माल बेचते थे, उन्हें 'वणिज' अयं निजः परो वायमित्यपेक्षा विजितम् ।
कहा गया है। तत्रानिवारिते प्रापभोजनं भोजनेच्छवः ॥१०४॥ ७. जो दुकान न होने पर किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर
-परिशिष्ट पर्व, एकादश सर्ग। माल बेचते थे, वे विवणिज' कहलाते थे।