________________
४८, वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त परम्परा का निर्वाह वरांग चरित में मिलता है। राजा कभी दान दो तो इसी भावना देना कि त्याग करना वराग कुमार सुगात्र का राज्याभिषेक करने से पहले तुम्हारा कर्तव्य है। ऐसा करने से गृहीता के प्रति तुम्हारे शिक्षा देते है :
मन मे सम्मान की भावना जागृत रहेगी। जब जब तुम्हारे हे सुगात्र ! जो अपने पूर्व पुरुष है, गुरुजन है, विद्वान् सेवक कोई अपराध करें तो उनके अपराधो की उपेक्षा है, उदार विचारशील है, दयामय कार्यों मे लीन है तथा कर अपने को उनका स्वामी मानकर क्षमा कर देना। आर्यकुलों मे उत्पन्न हुए हैं ऐसे समस्त पुरुषों का विश्वास जो अकारण ही वैर करते है, अत्यन्त दोषयुक्त है तथा तथा आदर करना, प्रत्येक अवस्था मे मधुर वचन कहना। प्रमादी है, नैतिकता के पथ से भ्रष्ट हो जाते है। जिन इनके सिवा जो माननीय है उनको सदा सम्मान देना । पुरुषों का स्वभाव अत्यन्त चंचल होता है तथा जो व्यसनो शत्रुनों पर नीतिपूर्वक विजय प्राप्त करना। दुष्ट तथा मे उलझ जाते है ऐसे पुरुष को लक्ष्मी निश्चित रूप में अशिष्ट लोगों को दण्ड देना। अपराध करने के पश्चात् छोड़ देती है, ऐसा लोक में कहा जाता है। इसके विपजो तुम्हारी शरण में आ जाये उनकी उसी प्रकार रक्षा रोत जो पुरुषार्थी है, दीनता को पास तक नहीं फटकने करना जिस प्रकार मनुष्य अपने सगे पुत्रों की करता देते है। सदा ही किसी न किसी कार्य में जुटे रहते है, है। जो लँगडे-लूले हैं, जिनकी प्रॉखें फट गई है, मक है, शास्त्र ज्ञान में पारङ्गत है, शान्ति और दया जिनका बहिरे है, अनाथ स्त्रियाँ है, जिनके शरीर जीर्णशीर्ण हो स्वभाव बन गया है तथा जो सत्य, शौच, दम तथा उत्साह गए हैं, सम्पत्ति जिनसे विमुख है, जो जीविकाहीन है, से युक्त है ऐसे लोगों के पास मम्पत्तिया दौडी आती है। जिनके अभिभावक नहीं है, किसी कार्य को करते-करते यौवराज्याभिषेक-किसी शुभ, तिथि, करण और जो श्रान्त हो गये है तथा जो सदा रोगी रहते है इनका महर्त में जब कि ग्रह सौम्य अवस्था को प्राप्त कर बिना किसी भेद-भाव के भरणपोषण करना। जो पुरुष उच्चस्थान में स्थित होते थे उस समय राज्य प्राप्त करने दूसरों के द्वारा तिरस्कृत हुए है अथवा अचानक विपत्ति वाले राजपूत्र को पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठा दिया मे पड़ गए है उनका भली भांति पालन करना"। धर्म- जाता था। उस समय प्रानन्द के बाजे बजाये जाते थे । मार्ग का अनुसरण करते हए सम्पत्ति कमाना, अर्थ की सबसे पहिले अठारह श्रेणियों के प्रधान पुरुप सुगन्धित विराधना न करते हुए कामभोग करना । उतने ही धर्म जल से चरणों का अभिषेक करते थे। उस जल मे चंदन को पालन करना जो तुम्हारे काम सेवन मे विरोध न घुला हवा होता था। तथा विविध प्रकार के मणि और पंदा करता हो। तीनो पुरुषार्थो का अनुपात के साथ रत्न भी छोड दिये जाते थे। इसके उपरान्त सामन्त सेवन करने का यह शाश्वत लौकिक नियम है"। जब राजा, श्रेष्ठ भपति भोजप्रमुख (भुक्तियों प्रान्तों के अधि
पति) अमात्य, मावत्पर (ज्योतिषी, पुरोहित आदि) ५१. वृद्धान्गुरूप्राज्ञतमानुदारान् दयापरानार्यकलांश्च नित्यम् ।
५५ दातव्यमित्येव जनायक्ति प्रदेहि सन्मानपुरस्सरेण । विश्रम्भपूर्व मधुरैर्वचोभिर्मन्यस्व मान्यानथमानदानः ।। भृत्यापराधानविगण्य वत्स क्षमस्व सर्वानहमीशतेति ।। वराज च० २६१३३
वही २०३७ ५२. वराङ्ग च० २६।३४
५६ निवद्धवैरानतिदोपशीलान्प्रमादिनो नीतिवहिष्कृताश्च । ५३. पङ्ग्वन्धमूकान्वधिरास्त्रियश्च
चलस्वभावव्यसनान्तराश्च क्षीणान्दरिद्रानगतीननाथान् । श्रान्तान्सरोगांश्चविष्व
जहातिलक्ष्मीरिति लोकवाद. ।। वही २९३८ सम्यक्पराभिभूतात्परिपालयस्व ।। वराङ्ग च० २९३५ ५. अदीनसन्वान क्रियया समेतान् ५४. धर्माविरोधेन समर्जयार्थानर्थाविरोधेन भजस्व कामान । श्रुतान्वितान्क्षान्तिदयोपपन्नान् । कामाविरोधेन कुरुष्व धर्म सनातनो लौकिक एप धर्मः ।। सत्येन शौचन दमेन युक्तानत्साहिन श्रीस्वयमभ्युपैति ।। वराङ्ग च० २६३६
वही २६३६