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________________ १२, बर्ष २७, कि०३ मनैकान्त शुद्ध मन जि सन्मुख हूजिये सहस्रकूट जिकासच पूजिये। ॐ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालयेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । बसु विधि द्रव्य मिलाय परम सुन्दर सुखदाई । पूर्जे श्री जिन सहस्रकूट मंगलमय भाई ॥ ऋद्धि सिद्धि दातार और भव रोग मिटावें। श्रद्धा भक्ति सहित पूर्ण अर्घ चढ़ावं । ॐ ह्रीं श्री सहस्रकूट जिन चैत्यालयेभ्यः पूर्णार्घ निर्वयामीति स्वाहा। जयमाल दोहा-सहस्रकूट जिन भवन की भक्ति हिये में धार । सनो सरस जयमाल यह तज मन सकल विकार ।। पद्धरी छन्द-सहस्रकट जिन भवनसार है मध्यलोके में जे मंझार । 'कृत्रिम सप्रकृत्रिम दो प्रकार भावं जिनवर जगनिहार ।। जिनमें जिन प्रतिमा को प्रणाम है सहस्र एक वस अधिक जान । पाषाण धातुमय अति पवित्र रचना है सुख दायक विचित्र ।। जिस नाम लेत सब हरें ताप भव भव के नाशें सकल पाप । है तीन लोक आनन्द दाय सुर, नर, खग पूजत प्राय प्राय ।। कोटीभट राजा श्रीपाल और अनेकन नप निहाल । सहस्रकट जिन भवन बंद कर्मन के काटे अमित फंद ।। सौहे रचना अद्भुत श्रीजिनालय सहस्रकूट । है बनो अनप अति विशाल ताको कछ वर्णन करहि अाज ।। है भरत क्षेत्र के मध्य धाम इक आर्य बुन्देला खण्ड धाम । ताको जु केन्द्र अति विशद गात है 'झॉसी' नगर सुजग विख्यात ।। तहाँ श्री जिन मन्दिर है महान तामें बेदी शोभे प्रधान । पर सहस्रकूट जिन भवन सार है धातु मई रचना अपार । तहाँ स्तुति बन्दन करहिं भव्य अर्चेदै नित लेकर प्रष्ट द्रव्य । हमहूँ तिनकी पूजन, रचाय कर रहे सकल मन वचन काय । ॐ ह्रीं श्री सहमकूट जिन चैत्यालयेभ्यः महाघ निर्वपामीति स्वाहा । घत्ता सहस्रकूट जिन भवन अनूप ताकी सेव करें चित ल्याय । ताके मन अति सुमति प्रकाश दुर्गति जग की जाय पलाय ।। वृद्धि होय नित सम्पति गृह में तातें धर्म वृद्धि हुलसाय । पात्र धर्म का बन 'बसन्त जग अनुक्रम करके शिव सुख पाय ॥ इत्याशीर्वादः सहस्रकट पूजा व चित्र डा. राजेन्द्रकुमार जैन, झांसी ०६८ कुन्तीमागें, विश्वासनगर के सौजन्य से शाहदरा, दिल्ली-११००३६
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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