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विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं गुप्त नरेश रामगुप्त
शिवकुमार नामदेव
मध्य प्रदेश के महत्त्वपूर्ण प्राचीन ऐतिहासिक नगर स्त्री बाद में चन्द्रगुप्त की रानी बनी। उपरोक्त ऐतिविदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से कुछ वर्ष पूर्व जैन धर्मके हासिक कथा का वर्णन वाणकृत 'हर्ष चरित', हर्ष चरित ३ लेख एवं कुछ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं। भारतीय इतिहास पर शंकराचार्य की टीका, राजशेखर कृत 'काव्य मीमांसा', विशेषकर गुप्त काल के इतिहास मे इन प्रतिमानों का मह- धारा नरेश भोज के 'शृंगार प्रकाश' एवं अब्दुल हसन त्वपूर्ण स्थान है।
अली के 'मुजमलुत तवारीख' से भी प्राप्त होता है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् इस विशाल साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त भभिलेखीय एवं गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी कौन हुआ, इस विषय में मुद्रा सम्बन्धी साक्ष्य भी इस कथा की पुष्टि करते हैं। विद्वानो ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये थे । अर्द्धशताब्दी से परन्तु अधिकांश विद्वान रामगुप्त की ऐतिहासिकता का भी अधिक समय तक भारतीय इतिहास मे रामगुप्त की ठोस प्रमाण के प्रभाव में विरोध करते थे। अभी तक ऐतिहासिकता सर्वमान्य नही थी। किन्तु विदिशा से प्राप्त रामगुप्त की ऐतिहासिकता को स्वीकार न करने का इन जैन प्रतिमानो ने उस विवाद को सुलझाने में महत्व- प्रमुख कारण पुरातात्विक साक्ष्यों का प्रभाव था। परन्तु पूर्ण योगदान दिया है।
पिछले कुछ वर्षों मे रामगुप्त की जो मुद्रायें ताल बेहट रामगुप्त का ऐतिहासिक विवरण
(झांसी) एरण एवं बेस नगर (विदिशा) आदि से प्राप्त प्रमाणों से ज्ञात होता है कि गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त हुई है, वे उसे गुप्त सम्राट सिद्ध करती है। के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त जो गुप्त वश के रामगुप्त की ऐतिहासिकता के विरोध में जो मत महान शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता था प्रस्तुत किये गये है उनमे एक उसकी स्वर्ण मद्रा की प्राप्ति सिहासनारूढ हा । उसके काल मे शको का आक्रमण का न होना भी है। परन्तु जैसा कि हमे ज्ञात है कि हा और रामगुप्त पराजित होकर अपनी पत्नी ध्रुवदेवी गमगुप्त का शासन अल्पकालीन एवं प्रशान्तिपूर्ण था, को शक नरेश को सौपने को बाध्य हुआ । परन्तु रामगुप्त अतः इस कारण वह स्वर्णमुद्रा का प्रचलन न कर सका के ज्येष्ठ भ्राता चन्द्रगुप्त ने इस बात को सहन न किया। हो तो कोई आश्चर्य की बात नही होनी चाहिए। विरोकर स्वयं प्रवदेवी का वेष धारण कर शक नरेश के खेमे धियों का दूसरा तर्क यह है कि रामगुप्त की मद्रानो पर मे गया और शक नरेश का वध कर दिया। तत्पश्चात् भिन्न-भिन्न नाम मिलते है तथा वे भिन्न-भिन्न प्रकार की अपने ज्येष्ठ भ्राता को मारकार उसकी पत्नी ध्रुवदेवी से है, इसके अतिरिक्त मुद्राओं पर उसके चित्र नहीं मिलते। विवाह कर लिया।
इन विरोधों के अन्तर में इतना ही कहना पर्याप्त उपरोक्त ऐतिहासिक विवरण का वर्णन विशाखदत्त होगा कि एक पोर तो यह स्थानीय प्रभाव का कारण हो वारा रचित 'देवी चन्द्रगुप्त' नामक नाटक से प्राप्त होता सकता है और दूसरी ओर उस अंशातिकाल के मुद्राकारों है। इस नाटक के कुछ अंश हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र- की कार्य अकुशलता मानी जाती है । गुणचन्द्रकृत 'नाट्य दर्पण' में प्राप्त होते है। जिससे समस्यानों के निराकरण में लेख युक्त जैन प्रतिमानों का ज्ञात होता है कि "रामगुप्त समुद्रगुप्त के पश्चात् योगदान : राजा बना जिसने ध्रुवस्वामिनी से विवाह किया। यही विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम में मिली इन लेख