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________________ विदिशा में प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं गुप्त नरेश रामगुप्त २७ युक्त तीन जैन प्रतिमाओं में से एक प्रतिमा अर्हत पुष्पदंत का अच्छा प्रसार था। की तथा शेष दो जैन धर्म के पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ की जहां तक लक्षण शास्त्रीय अध्ययन का प्रश्न है उपहैं । प्रत्येक प्रतिमा में पादपीठ पर चार पंक्तियों का लेख रोक्त तीन प्रतिमाओं में से दो जैन धर्म के पाठवें तीर्थकर उत्कीर्ण है । ऐतिहासिक दृष्टि से इन लेखों का महत्वपूर्ण चन्द्रप्रभ की तथा एक अर्हत पुष्पदंत की है। यद्यपि योगदान है। यद्यपि अभिलेख तिथी हीन है परन्तु इनके मूर्तियां काफी भग्न हो गई है परन्तु उनका कलात्मक मक्षर चन्द्रगुप्त द्वितीय के सांची लेख से साम्य रखते है। वैभव बरवस ही कलाप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित लिपि शास्त्रीय अध्ययन के दृष्टिकोण से हम इन्हें ४ सदी किए बिना नही रहता। चन्द्रप्रभ की प्रथम मूर्ति के दक्षिई० में रख सकते है। ण कर्ण में कड़ा एवं वक्ष पर श्रीवत्स चिन्हाकित है । मूर्ति प्रभिलेख में हमें महाराजाधिराज श्री रामगप्त अंकित ध्यानावस्था में पद्मासनारूढ़ है मूर्तितल पर मध्य में मिलता है। परन्तु लेख में उसके वंशादि का कोई विवरण चन्द्र एवं दोनों ओर सिह की प्राकृतियां बनी हुई हैं। प्राप्त नहीं होता है। परन्तु लिपि एवं प्रतिमा शास्त्रीय __ मस्तक के पीछे भामण्डल है जिसका मात्र अर्धभाग ही अध्ययन की दृष्टि से इस नरेश को हम गुप्त वंशीय शा. शेष है । चन्द्रप्रभकी द्वितीय प्रतिमा का मुखभाग भग्न है सक रामगुप्त मान सकते है। इस नरेश का शासन विद- पृष्ठभाग में तेजोमण्डल है। पादपीठ पर मध्य मे चक भं तक विस्तृत था यह उपरोक्त लेखों की प्राप्ति स्थान एवं दोनों ओर मूर्ति के चामरधारी उत्कीर्ण है। तृतीय से सिद्ध होता है। उपरोक्त तीनों जैन प्रतिमा लेख गुप्त प्रतिमा प्रहंत पुष्पदंत की हैं जो उपरोक्त प्रतिमानो की सम्राट रामगुप्त के सर्व प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है तथा ही तरह है । तीनों प्रतिमाओं के पादपीठ पर चक्र उत्कीइस लेख पर उल्लखित विरुद्ध 'महाराजाधिराज श्री राम- र्ण किए गए हैं। तीर्थकर प्रतिमानों में उनके लांछन गुप्त' उसे गुप्त सम्राट सिद्ध करते है इसके पूर्व रामगुप्त उत्कीर्ण नहीं किए गए है। के सम्बन्ध मे जो यह मान्यता थी कि वह गुप्त सम्राट निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि विदिशा से नहीं अपितु मालवा का स्थानीय शासक था, इस भ्राति प्राप्त लेख युक्त इन जैन प्रतिमाओं ने भारतीय इतिहास का अंत हो जाता है। की उस समस्या को कि रामगुप्त कौन था, के चले प्रा उपरोक्त जैन धर्म की लेख यक्त प्रतिमानो से हम रहे लगभग अर्द्धशताब्दी से भी अधिक के इस विवाद को इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि यद्यपि गप्त सम्राट वैष्णव सुलझाने में विशष्ट योगदान प्रदान किया है। इन प्रतिधर्मावलम्बी थे तथा 'परमभागवत' विरुद धारण करते थे मानो से हमें रामगुप्त के प्रथम अभिलेख ज्ञात होते है। उनमें पर्याप्त मात्रा मे धर्म के प्रति सहिष्णता थी। इन प्रतिमाओं में उल्लिखित रामगुप्त का विरुद 'महाराजा प्रतिमाओं की विदिशा मे प्राप्ति इस बात की अोर घिराज श्री रामगुप्त निःसंदेह गुप्त सम्राट की महानता 'इंगित करती है कि ४ सदी ई० मे मालवा में जैन धर्म की पोर इंगित करते है। शान्ति कोई मूर्तिमान् पदार्थ नहीं, वह तो एक निराकुल अवस्था रूप परिणाम है । यदि हमारी इस रीर से भिन्न प्रात्म प्रतीति हो गई तो कोई थोडी वस्त नहीं। जब कि अग्नि की छोटी सी भी चिनगारी सघन जंगल को जला सकती है तो आश्चर्य ही क्या यदि शान्ति का एक अंश भी भयानक भव वन को एक क्षण में भस्मसात् कर दे। -वर्णो वाणी
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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