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________________ २२ वर्ष २७, कि० १ अनेकान्त किताबी व्यक्ति थे ही नहीं। दर्शन और ज्ञान तो समय से प्राज का समय अधिक जटिल है। आज हम उनके लिए रास्ता था। इस रास्ते से वे चारित्र्य तक अधिक जटिल और परोक्ष प्रर्थ तथा राज व्यवस्था के पहुचे थे। मुक्ति का मार्ग भी उन्होंने इसी प्रकार निरू- अन्तर्गत रह रहे है । हमे पता ही नही चलता और हमारी पित किया है- 'सम्यग् दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः ।' सम्पत्ति तथा सत्ता अन्य हाथों केन्द्रित हो जाती है। इन चारित्र्य सर्वोच्च स्थान पर है। उस पर विशेष बल है। हाथो के स्वामी एक स्वय के द्वारा संचालित जयजयकार यह स्वाभाविक ही था कि ऐसा व्यक्ति अनेकान्त चिन्तन से घिर जाते है । मालाएँ, अभिनन्दन, चमचे, भाट, अफको प्राचार का विषय भी बनाता है। अनेकान्त चिन्तन सर और चपरासी, सट्टा और कालाबाजार उन्हें सर्वज्ञ ही प्राचार मे पहिसा के रूप में प्रकट हुआ। बना देते है। यह अपनी औकात को भूलना है। वस्तु के अनेक प्रहकार के कारण हम अपने आपको ही विराट स्वरूप की नासमझी है। यहाँ आम आदमी को केवल समझते है। शायद हम अपने आपको अपेक्षाकृत अधिक एक ही कोण से देखा जा रहा है। और उसे असहाय देख पाते है इसलिए अन्य वस्तुओं की तुलना मे जिन्हे हम समझा जा रहा है । यह उसका दोष नही । हमारी दृष्टि अधिक नहीं देख पाते, अपने आपको बड़ा मान बैठते है। का दोष है। काश हम उसे अन्य कोणों से भी देख पाते। महावीर ने वस्तु की विराटता को अनेक गुण, बदलते व उतना ही नही है जितना हमे दिखाई देता है। निश्चित पर्याय और नाना धर्मात्मकता के आधार पर इस प्रकार रूप से वह उसके अलावा भी है। वह अनन्तधर्मा विराट् स्पष्ट किया कि हमें उसके लिए-दूसरो के लिए हाशिया महा महाशक्ति है। उसके लिए अपनी सत्ता और सम्पत्ति के छोड़ना पड़ा । उन्होने न तो आदेश दिया, न वस्तु के धर्म परिग्रह को कम करें। यही अनेकान्त दृष्टि का, लोकको प्रव्याकृत कहकर आव्याख्यायित रहने दिया-उन्होंने व्यवहार का रूप है। महावीर ने इसे अपने जीवन में वस्तुस्वरूप की विराटता से हमे परिचित कराया। घटित किया । वे परिग्रह से सर्वथा मुक्त हो गए। उन्हे उन्होने विषय का ऐसा विवेचन किया कि हमने अहिंसा न धन का परिग्रह था, न सत्ता का और न यश का । को अपने भीतर से उपलब्ध कर लिया। अहिसा को यदि आज गृहस्थ ही नही सन्यासी भी इन परिग्रहो से मुक्त अनेकान्त के रूप में उन्होंने बैचारिक प्राधार न दिया नही है । संन्यासियो के यश बटोरने की ही होड लगी हई होता तो वे एक दार्शनिक निराशा की सृष्टि करते । बिना है और यश पा गया तो शेष सब कुछ तो स्वतः पाता वैचारिक प्राधार के अहिंसा बहत दिन तक टिक नहीं रहता है। परिग्रह हजार सूक्ष्म पैरों से चलकर हमारे पास पाती । उसका भी वही होता जो बहत विचारहीन आचारों प्राता है और हम गफलत में पकड़ लिए जाते है। हम का होता है । इसके विपरीत यदि अनेकान्त केवल विचार संग्रह विश्वासी बन गए है। त्याग कर ही नही सकते। का ही विषय रहता तो वह पण्डितो के बाद-विवाद तक त्याग करते भी है तो और अधिक परिग्रह के लिए त्याग ही सीमित होकर रह जाता। करते है । धन को त्याग कर यश और यश को त्याग कर घन घर मे रख लिया जाता है। महावीर की समाजयही अनेकान्त समाज-व्यवस्था के क्षेत्र में अपरिग्रह व्यवस्था अपरिग्रह पर आधारित है और एक न एक दिन का रूप ग्रहण करता है। इस प्रकार एक निजी प्राचार हमे उसी की शरण में जाना होगा । तक ही वह सीमित नही है। सम्पत्ति का संग्रह हिंसक कार्य तो है ही वह एकान्त और अस्याद्वादी कार्य भी है। इस प्रकार अनेकान्त सम्पूर्ण जैन दर्शन की प्राधारजब हम अपने लिए संग्रह करते हैं तो दूसरों की सापेक्षता शिला है। चिन्तन, वाणी, प्राचार और समाज-व्यवस्था में कुछ सोचते ही नहीं है। अपने आपको महत्त्व केन्द्र सभी के लिए वह एक सही दिशा है। लेकिन वह प्रारोमान लेते है । दूसरों के लिए हाशिया न छोड़ने के कारण पित नही है। वस्तु-स्वरूप को वैज्ञानिक ढंग से समझने विस्फोट और क्रान्ति होना स्वाभाविक है। महावीर के का सहज परिणाम है।
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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