SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ वर्ष २७,कि.२ अनेकान्त पराक्रम, शान, धर्म तथा नीति से बढचत कर हो"। की दृष्टि मे प्रामाणिक होती है। अतः वह उस पर राजा को चाहिए कि उसके अनुगामी सेवक उससे सन्तुष्ट अडिग विश्वास रखती है। राजा का विवेक प्रापत्तियों में रहें तथा प्रत्येक कार्य को तत्परता से करें। उसके मित्र पड जाने पर भी कम न हो, संकट के समय भी वह समीप में हों और वह हर समय सम्बन्धियों के प्राश्रित न किसी प्रकार की असमर्थता का अनुभव न करे तथा उसे रहें"। प्रबुद्ध और स्थिर होना राजा का बहुत बड़ा गुण अपने कार्यो का इतना अधिक ध्यान हो कि कर्तव्य, है। जो व्यक्ति स्वयं जागता है वही दूसरों को जगा कर्तव्य, शत्रपक्ष-मात्मपक्ष तथा मित्र पोर शत्रु के सकता है। जो स्वयं स्थिर है वह दूसरों की डगमग स्वभाव को जानने में उसे देर न लगे"। जिस राजा का अवस्था का अन्त कर सकता है। जो स्वयं नही जागता प्रभ्युदय बढ़ता है उसके पास मङ्गनायें, अच्छे मित्र तथा है पौर जिसकी स्थिति अत्यन्त डावाँडोल है वह दूसरों बान्धव, उत्तम रत्न, श्रेष्ठ हाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ रथ को न तो प्रबुद्ध कर सकता है और न स्थिर कर सकता प्रादि हर्ष तथा उल्लास के नूतन साधन अनायास ही पाते है । राजा राजसभा मे पहले जो धोषणा करता है उसके रहते है"। राजा का यह कर्तव्य है कि वह राज्य मे पढ़े विपरीत पाचरण करना प्रयुक्त तथा धर्म के प्रत्यन्त हए निराश्रित बच्चे, बड़ों तथा स्त्रियों, अत्यधिक काम विरुव है इस प्रकार के कार्य का सज्जनपुरुष परिहास लिए जाने के कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जाने पर किसी भी करते हैं" । राजा की कीर्ति सब जगह फैली होनी चाहिए कार्य के अयोग्य श्रमिकों, अनाथों, अन्धों दोनों तथा कि वह न्यायनीति में पारङ्गत, दुष्टों को दण्ड देने वाला, भयङ्कर रोंगों में फंसे हुए लोगों की सामर्थ्य असामर्थ्य प्रजामों का हितैषी और दयावान है"। राजा धर्म, अर्थ तथा उनकी शारीरिक-मानसिक, दुर्बलता आदि का पता और काम पुरुषार्थों का इस ढंग से सेवन करे कि उनमें से लगाकर उनके भरणपोषण का प्रबन्ध करे"। जिन लोगो लगाकर उनक भरणपोषण का प्रबन्ध । एकका अन्य से विरोध न हो। इस व्यवस्थित का एकमात्र काम धर्मसाधन हो, उसे गुरु के समान का अपनाने वाला राजा अपनी विजय पताका फहरा मान कर पूजा करे तथा जिन लोगों ने पहिले यताह"। राजा की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए कि किए हुए वैर को क्षमा याचना करके शान्त करा वह प्रातः से सन्ध्या समय तक पुण्यमय उत्सवो में व्यस्त दिया हो उनका अपने पुत्रों के समान भरणपोषण करे रहे। अपने स्नेही बन्धु, गन्धव, मित्र तथा प्रथिजनों को किन्तु जो अविवेकी घमण्ड में चूर होकर बहुत बढ़चढ़ कर भेंट चादि देता रहे" | ऐसे राजा की प्रत्येक चेष्टा प्रजा चले अथवा दूसरो को कुछ न समझे उन लोगों को अपने देश से निकाल दे"। जो अधिकारी अथवा प्रजाजन २६. वराङ्गच. २०१० स्वभाव से ही कोमल हों, नियमों का पालन करते हुए २७. वही २३० जीवन व्यतीत करें, अपने कर्तव्यों प्रादि को उपयुक्त २८. स्वयं प्रबुद्धः प्रतिबोषयेत्परान् । समय के भीतर कर दें, उन लोगों को समझने तथा परान प्रतिष्ठापयेत स्वयं स्थितः ।। पुरस्कार प्रादि देने में वह प्रत्यन्त तीव्र हो"। राजा को स्वयंबुवस्स्वनवस्थितः कथं । प्रजा का प्रत्यधिक प्यारा होना चाहिए। बह-सब परिपरानवस्थापनरोधनक्षमः ॥ बराङ्गच० १३.३४ स्थितियो में शान्त रहे और पत्रुषों का उन्मूलन करता २६. वराङ्ग च० १६९ ३३. वही २०१६८ ३४. वही २४ ३०. न्यायविद्दुष्टनिग्राही धर्मराजः प्रजाहितः । ३५. जटासिंहनन्दि : वराङ्ग चरित २११७६ द्रयावानिति सर्वत्र कौतिस्ते विश्रुता भुवि ।। ३६. स्त्रीबालवृद्धाश्रमदुर्गतानामनाथदीनान्धरुजान्वितानाम् । वराङ्ग च. १५-५० बलाबलं सारमसारतां च विज्ञाय धीमानथ संबभार ॥ ३१. वही २४११, २२१८ वही २२१५ ३२. वही २८१ ३७. वही २२१६ ३८. वही २२१८
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy