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________________ वर्षमानपुराण के सोलहवें अधिकार पर विचार फलमाल पच्चीसी व वर्षमान पुल्लण की सूचीत्रों में एक से लेकर दम एक है। विश्वा की मर्यादा से विवाहतीस के लगभग जातियां उभयनिष्ट हैं। सबध करना ऐमा रिवाज रहा है। किसी-किसी के मत से प्रागे कवि ने गोलापूर्वो की उत्पत्ति के बारे में कहा यह स० १२३६ में कन्नौज नरेश जयचद के समय में निश्चित किये गये। है। गोयलगढ के वासियों की प्रादिजिन द्वारा गोलापूर्व जाति की स्थापना कही गई है। इस कथन का प्राधार इसके वाद ५८ 'बैंक' गिनाये गये है। बैंक का अर्थ क्या है और गोयलगढ मे किस स्थान का तात्पर्य है कह सामान्य रूप से गौत्र ही है, पर कवि ने आगे गोत्र शब्द नहीं सकते। गोलापूर्व, गोनालारे व गो तसिगारे किसी का भिन्न अर्थ में प्रयोग किया है। ५८ बैक वाला छंद गोला स्थान के वासी थे यह माना जाता है, पर इसकी अलग-अलग प्रतियो में अलग-अलग है। सभी में सख्या पहिचान करना कठिन है। श्री आदिजिन के ईक्ष्वाकुवशीय तो ५८ ही है पर कुछ बैक नाप ऐसे है जो एक प्रति में होने का स्मरण किया जाना उद्देश्यपूर्ण लगता है, गोला- है, तो दूसरी मे नही है । क्रम मे भी कही-कहीं अंतर है। पूर्व ईक्ष्वाकुवंशीय है ऐसी श्रुति रही है इसी प्रकार ईन ऐसा प्रतीत होता है बाद में प्रतिलिपिकारों ने यह पाया जातियों को इनसे सभूत बताते है - होगा कि मूल ग्रथ मे कुछ ऐसे वैक नाम है जो उन्हे ज्ञात गोलालारे-ईक्ष्वाकु नही है और कुछ बैक नाम जो उन्हें ज्ञात है, ग्रथ मे नहीं गोलसिगारे-ईक्ष्वाकु है । उनने इच्छानुसार छंद में परिवर्तन कर लिया होगा। जैसवाल-यदु इस प्रकार उपलब्ध कुल बैकों के नाम ७६-७७ तक हो लमेचू-यदु जाते है । वर्तमान में ३३ बैंक ही शेष है । अग्रवालो मे गर्ग गोत्र यदुवश का है ऐसा कहते है। इसके बाद कवि निजकल का वर्णन करता है। कवि पर ये उल्लेख बहुत प्राचीन नही है, इससे कोई निष्कर्ष ने अपने बैक चदोरिया' में चार खेरे' बताये है-बड़, निकालना सभव नही है । यह उल्लेखनीय है कि चौबीस तीर्थकरों में से बाईस कश्यप गोत्रीय ईक्ष्वाकु और दो मंबंधी ज्ञान नहीं है। चदोरियों के पूर्वज कभी चार ग्रामों गौतम गोत्रीय हरिवश के कहे जाते है। मे निवास किया करते होंगे जिन के आधार पर उनके उत्पत्ति के बाद गोलापूर्वो के तीन भेद बताये जाते कबाद गालापूवाकतान मद बताय जात चार खेरे कहे जाने लगे। है, बिसबिसे, दसविसे और पचविसे । दसविसे भेद कवि आगे कहा गया है चतुर्थ काल के आदि में गोल्हनके समय से रहा होगा, इस समय न तो शेष है और न ही शाह चदेरी स्थान में रहते थे जो 'बड़' चदोरिया थे और अन्यत्र इसका उल्लेख है । दसा-वीसा अदि भेद अनेकों जिनका 'गौत्र' प्रजापति था। ये बहुत पहिले हुने होंगे, वैश्य जातियों में है, इस प्रकार (दो या तीन) भेद कब जिससे कवि ने उन्हे चतुर्थ काल में ही मान लिया। साहु बने, इसके बारे मे निश्चित जानकारी नही मिलती। गोल्हण इस प्रकार के नाम बारहवी शताब्दी के मूर्ति किसी-किसी ब्राह्मण जाति मे यह भेद है। कान्यकुब्ज पजा के अासपास लोकप्रिय थे। अहार के अठारहवीं ब्राह्मणो में विशेष सूक्ष्मता से यह विचार है। इनमें शताब्दी के मूर्तिलेखो मे गल्हण, रल्हण, खेल्हण, गल्हण, सैकड़ों वशकता-पूरुषो में प्रत्येक के लिये वंशमयादा मूचक. देण, कल्हण ऐसे नाम है। अक निश्चित है जिसे विश्वा कहते है ।" उत्तम छः गोत्रों इनके गोत्र को प्रजापति कहा गया है। स्पष्टतः मे यह दो से लेकर बीस तक है। मध्यम दश गोत्रों में गोत्र व बैक शब्द भिन्न प्रों में प्रयुक्त है। यह दोहरी ३७. अनेकात. अक्टूबर १९७२, पृ० १६४ । गोत्र व्यवस्था का प्रतीक है। कई जातियो मे दो प्रकार ३८.हि० वि० भा० ८ पृ० ४३६ । से गोत्र व्यवस्था है। एक तो सामान्य गोत्र, जिन पर ३६. कान्यकुब्ज वशावली, नारायण प्रसाद मिभ्र, विवाह आदि में विचार करते है, दूसरे ब्राह्मणीय गोत्र १९५६ ई०। जिनका विशेष महत्व नही होता । १३८२ ई. के लेख
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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