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________________ जैन संस्कृति है, प्रेम समता है वैर विषमता है विष है। समता जीवन प्रमुख स्थान भी दिया है । तथापि यह स्पष्ट है कि उन्होंने है और विषमता मरण है। समता धर्म है और विषमता जैनों की तरह सूक्ष्म विश्लेषण व गम्भीर चिन्तन नही अधर्म है। समता एक दिव्य प्रकाश है और विषमता किया है । जैन संस्कृति के विधायको ने अहिंसा पर गहघोर अन्धकार है । समता ही जैन सस्कृति के विचारो राई से विवेचन किया है। उन्होने अहिंसा की एकांगी का निचोड है। और मकुचित व्याख्या न कर सर्वांगपूर्ण व्याख्या की है। प्राचार की ममता का नाम ही वस्तुत अहिमा है। हिसा का अर्थ केवल शारीरिक हिंमा ही नही अपितु समता, मैत्री, प्रेम, अहिसा ये सभी समता के अपर नाम किसी को मन और वचन से पीडा पहचाना भी हिसा हैं । अहिसा जैन मस्कृति के प्राचार एव विचार का केन्द्र माना गया है। है अन्य सभी प्राचार और विचार उसके पास पास घूमते जैनो में प्राणी (जीव) की परिभाषा केवल मनुष्य है। जैन संस्कृति मे हिसा का जितना सूक्ष्म विवेचन और प्रौर पशु तक ही सीमित नही है, अपितु उसकी परिषि विशद विश्लेषण हया है उतना विश्व की किसी सस्कृति में एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक है। कीड़ो से लेकर कु जर नहीं हया। जैन सस्कृति के कण कण मे अहिसा की तक ही नहीं परन्तु पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, भावना परिव्याप्त है। जैन संस्कृति की प्रत्येक क्रिया वायुकाय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में भी गम्भीर हिमा-मूलक है। खान पान, रहन-सहन, बोल-चाल किया गया है। प्रादि सभी मे अहिसा को प्रधानता दी गई है । विवार अहिमा के सम्बन्ध में प्रबलतम युक्ति यह है कि सभी वाणी और कर्म सभी मे अहिसा का स्वर मुखरित होता जीव जीना चाहते है कोई भी मरना नही चाहता प्रत. है। यदि जैन सस्कृति के पास हिसा की अनमोल निधि किसी भी प्राणी का बध न करो। है तो सभी कुछ है और वह निधि नही तो निश्चय ही जिम प्रकार हम जीवन प्रिय मरण अप्रिय है, सुख कुछ भी नहीं है। ग्राज के प्रणयग में सास लेने वाली प्रिय है दुख अप्रिय है, अनुकूलता प्रिय है प्रतिकूलता मानव जाति के लिए अहिसा ही प्राण की आशा है। अप्रिय है, स्वतत्रता प्रिय है परतन्त्रता अप्रिय है, लाभ अहिमा के प्रभाव में न व्यक्ति सुरक्षित रह सकता है, प्रिय है अलाभ अप्रिय है उसी प्रकार अन्य जीवो को भी न परिबार पनप सकता है और न समान तथा राष्ट्र ही जीवनादि प्रिय है और मरणादि अप्रिय है। यह आत्मोअक्षुण्ण रह सकता है। अणुयुग मे अणुशक्ति से सत्र स्त पम्य दृष्टि ही हिसा का मूलाधार है। प्रत्येक आत्मा मानव जाति को उबारने वाली कोई शक्ति है, तो वह तात्विक दष्टि से समान है अतः मन, वचन मोर काया से अहिसा है। आज अहिसा के प्राचरण की मानव समाज किसी मन्ताप पहचाना ही हिसा है। को महती एव नितान्त आवश्यकता है। अहिमा ही जैन सस्कृति ने जीवन की प्रत्येक क्रिया को हिसा मानव जाति के लिए मगलमय वरदान है आचार विषयक के गज से नापा है । जो क्रिया हिसा मूलक है वह सम्यक अहिमा का यह उत्वपं जैन मस्कृति के अतिरिक्त कही है, और जो हिमा मूलक है वह मिथ्या है। मिथ्या क्रिया भी नही निहोरा जा सकता अहिसा को ब्यवहारिक जीवन कर्म बन्धन का कारण है, और सम्यक क्रिया कर्म क्षय में दाल देना ही गस्कृति की सच्ची-साधना है। का कारण है । यही कारण है कि मंस्कृति में धार्मिक जैसे वेदान्त दर्शन का केन्द्र बिन्दु अद्वैतवाद और विधि विधानो मे ही हिसा को स्थान नहीं दिया अपित मायावाद है, साख्य दर्शन का मूल प्रकृति और पुरुष का जीवन के दैनिक व्यवहार में भी अहिंसा का सुन्दर विधान विवेकवाद है, बौद्ध दर्शन का चिन्तन विज्ञानवाद और किया है । अहिसा माता के समान सभी की हितकारिणी है गन्यवाद है वैसे ही जैन सस्कृति का प्राधार अहिमा और १. सव्वे जीवा इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिडं। अनेकान्तभाव है । अहिसा के सम्बन्ध मे इतर दर्शनो ने तम्हा पाणिवह घोरं णिग्गन्था वज्जयंतिण ।। भी पर्याप्त मात्रा में लिखा है उसे अन्य सिद्धान्तो की तरह दशवकालिक ६१०
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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