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________________ १०, वर्ष २७, कि०१ अनेकान्त निसा के बढ़ते हुए दिन दूने रात चौगुने साधनों को देख स्यात् शब्द का अर्थ होता है वस्तु का वही रूप नहीं जो सामानवता कराह रही है, भय से कांप रही है । विश्व हम कह रहे है। वस्तु अनन्त-धर्मात्मक हैं। हम जो कह विधाता विचिन्तित है। ऐसी विकट वेला मे रहे हैं उसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म हैं, यह सूचना स्यात् अहिंसा माता ही विनाश से बचा सकती है सम्भवतः शब्द का अर्थ है सम्भावना और शायद सम्भावना मे उतनी पहले कभी नही रही। मन्देहवाद को स्थान है जबकि जैन दर्शन में सन्देहवाद को इस समय व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और स्थान नहीं है किन्तु एक निश्चित दृष्टिकोण है। विश्वको पहिसा की अनिवार्य मावश्यकता है। वाद का अर्थ है सिद्धान्त या मन्तव्य । दोनो शब्दों नया के प्रभाव में न व्यक्ति जिन्दा रह सकता है और को मिलाकर प्रर्थ हया -- मापेक्ष सिद्धान्त, अर्थात् वह न परिवार, समाज और राष्ट्र ही पनप सकता है। अपने सिद्धान्त जो किसी अपेक्षा को लेकर चलता है और अस्तित्व को सरक्षिस रखने के लिए अहिसा ही एक मात्र विभिन्न विचारों का एकीकरण करता हो अनेकान्तवाद, उपाय है। व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के मुख- अपेक्षावाद, कथाचिदवाद और म्यादवाद इन सबका एक शान्ति की आधारशिला अहिसा, मैत्री और समता है। हो अर्थ है। महावीर ने कहा है कि जो दूसरो को अभय देता है वह स्याद्वाद की परिभाषा करते हुए कहा गया हैस्वय भी अभय हो जाता है। अभय की भव्य भावना से अपने या दूसरो के विचारों, मन्तव्यों, बचना तथा कार्यों दी डिसा, मंत्री और समता का जन्म होता है। मेरा में तन्मूलक विभिन्न अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान सख सभी का सुख है और मेरा दुख सभी का दुख है यह रखना ही स्याद्वाद है। इस प्रकार स्यावाद का अर्थ अहिमा का नीति मार्ग, व्यवहार पक्ष है। हमा विभिन्न दृष्टिकोणों का बिना किसी पक्षपात के विचारात्मक अहिंसा का ही अपर नाम अनेकान्त है। तटस्थ बद्धि से समन्वय करना । जो कार्य एक न्यायाधीश अनेकान का अर्थ है बौद्धिक अहिसा। दूसरे के दृष्टि- का होता है, यही कार्य विभिन्न विचारो के समन्वय के कोण को समझनेकी भावना एवं विचार को अनेकान्त लिए म्याद्वाद का है, जैसे न्यायाधीशवादी एवं प्रतिवादी दर्शन कहते है। जब तक दूसरो के दृष्टिकोण के प्रति के बयानो को सुनकर जाच-पड़ताल कर निष्पक्ष न्याय सहिष्णता व प्रादर भावना न होगी तब तक अहिमा की देता है, वैसे ही स्यादवाद भी विभिन्न विचारो मे समपूर्णता कथमपि सम्भव नही । संघर्ष का मूल कारण ग्राग्रह न्वय करना है। है। प्राग्रह में अपने विचारों के प्रति राग नहीं होने से वह अनेकान्त का दर्शन अथवा प्रतिपादन ही अनेकान्तउसे श्रेष्ठ समझता है और दूसरों के विचारो के प्रति द्वेष वादी दृष्टि है। जैन दर्शन का मन्तव्य है कि विश्व की होने से उसे कनिष्ठ समझता है। एकान्त दृष्टि मे सदा प्रत्येक वस्तु अनेकान्त रूप है। बोद्धो के 'सर्व क्षणिकम', आग्रह से असहिष्णुता का जन्म होता है और असहिष्णुता साख्यो के 'सर्वं नित्यम्, वेदान्तियो के 'सर्व सत' और से ही हिसा और संघर्ष उत्पन्न होते है। अनेकान्त दृष्टि शून्यवादियों के सर्वम् असत् की तरह जैनों का सिद्धान्त में प्राग्रह का प्रभाव होने से हिसा और संघर्ष का भी 'सर्वमैव अनेकान्तात्मकम्' है। वस्तु केवल क्षणिक या उसमें प्रभाव होता है विचारों की यह अहिसा ही अने- केवल नित्य या केवल सत् या केवल असत ही नही है। कान्त है। अपितु वह क्षणिक और नित्य, सत् और असत् दोनों मे __ स्यावाद के भाषा प्रयोग में अपना दृष्टिकोण बताते विरोधी धर्मों को लिए हुए है। ऐसी कोई भी वस्तु नही हुए भी अन्य दष्टिकोणो के अस्तित्व की स्वीकृति रहती है। जिसमें अनेकान्त न हो । उदाहरणार्थ-एक ही पुरुष है। प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्म वाला है तब तक धर्म का एक साथ भिन्न भिन्न पुरुषो की अपेक्षा, पिता, पुत्र, कथन करने वाली भाषा एकांश से सत्य हो सकती है मामा, भानजा, दादा, नाती, बड़ा छोटा प्रादि व्यवहृत सर्वाश से नही। अपने दृष्टिकोण के अतिरिक्त अन्य के होता है। पुत्रों की अपेक्षा पिता अपने पिता की अपेक्षा दृष्टिकोणो की स्वीकृति वह 'स्यात्' वह शब्द से देता है। पुत्र, भानजे का मामा, अपने मामा की अपेक्षा भानजा,
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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