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३८, वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त
का चित्रण ही पद्मावती से पहचान का मुख्य प्राधार है। सर्पफंणों से मण्डित है। यक्षी के करों मे अभय, पदमउत्तर और दक्षिण की जंघा की दो मूर्तियों में यक्षी की कलिका, पुस्तिका एवं कलश प्रदर्शित है। यद्यपि भजायो भजायो में व्याख्यान-अक्षमाला एवं जलपात्र प्रदर्शित है"। की सामग्री यक्षी की १६वी यक्षी निर्वाणी से पहचान को पश्चिम जंघा की मूर्ति में दाहिनी भुजा में पद्म प्रदर्शित प्रेरित करता है, पर सर्पफणों का चित्रण पदमावती के है.पर बायीं एक गदा पर स्थित है। गदा का निचला अंकन का सूचक है । पद्मावती के साथ पदम एवं कलश भाग ग्रंकश की तरह निर्मित है। उल्लेखनीय है कि देव- का प्रदर्शन प्रारम्भ से ही लोकप्रिय रहा है, 'पौर सम्भबत. गढ एव खजराहो की परवर्ती भूर्तियो में पद्मावती के पद्म एव कलश के अंकन की पूर्व परम्परा ने ही कला
या का चित्रण प्राप्त होता है। मन्दिर कार को पुस्तिका के प्रदर्शन को भी प्रेरित किया होगा।
की पश्चिमी भित्ति की चौथी मूर्ति में तीन स्मरणीय है कि पद्मावती की प्राचीनतम मूर्ति (देवगढ़) गफणों से प्राच्छादित द्विभुज पद्मावती की दाहिनी में भी पद्म, कलश एवं लेखनी पदा (?) का चित्रण भजा मे पद्म स्थित है, और बायी खण्डित है। लगभग प्राप्त होता है। दसवी शती की एक चतुर्भुज मूर्ति त्रिपुरी के तेवर स्थित खजुराहो से भी चतुग पद्मावती की तीन मतियां बालसागर सरोवर के मन्दिर मेसुरक्षित शिल्प पट्ट पर (११वी शती) प्राप्त होती है। सभी मूर्तियाँ मन्दिरों के
मा. उत्तरागो पर उत्कीर्ण है। आदिनाथ मन्दिर एवं मन्दिरः उत्कीर्ण है। सप्त सर्पफणो से मण्डित पद्मासना पद्मा
२२ की दो मूतियो मे पद्मावती के मस्तक पर पांच सर्पवती की भुजानो मे अभय, सनालपद्म एवं कलश प्रदर्शित
फणो का घटाटोप प्रदर्शित है। दोनो ही उदाहरणों में है। स्पष्ट है कि दिगम्बर स्थलों पर दशवी शती तक केवल सर्पफणो (३, ५ या ७) एव भुजा मे पद्म का
वाहन सम्भवतः कुक्कुट है । आदिनाथ मन्दिर की प्रासीन
मूर्ति में पद्मावती अभय, पाश, पद्मकलिका एवं जलपात्र प्रदर्शन ही नियमित हो सका था। यक्षी के साथ कुक्कुट
से युक्त है। मन्दिर: २२ की स्थानक मृति में यक्षी के मर्प एवं पाश, अकुश जैसे पारम्परिक प्रायुधो के प्रदर्शन
करो में वरद, पद्म, अस्पष्ट एव भग्न है। जाडिन संग्रकी परम्परा ग्यारहवी शती मे ही प्रारम्भ होती है।
हालय (१४६७) की एक अन्य पासीन मूर्ति में सप्त पदमावती की ग्यारहवीं-बारहवी शती की कई
सर्पफणो से प्राच्छादित पद्मावती का कुक्कुट वाहन दिगम्बर परम्परा की मूर्तिया देवगढ, खजुराहो, लखनऊ
प्रासन के समीप ही उत्कीर्ण है। यक्षी की तीन भुजायो संग्रहालय एव शहडोल से प्राप्त होती है। चतुर्भुज पदमा
में वरद, पाश, अकुश प्रदर्शित है, और चौथी भुजा भग्न वती की ललित मुद्रा में पासीन दो मूर्तियाँ लखनऊ संग्र
है। यक्षी के अकन में अपराजिनपृच्छा की परम्परा का हालय में सुरक्षित है। किसी अज्ञात स्थल से प्राप्त पहली
निर्वाह किया गया है। उपर्युक्त मूर्तियों के अध्ययन से मूर्ति (जी: ३१६-११वी गती) मे सात सर्पफणों से ।
स्पष्ट है कि अन्य दिगम्बर स्थलों के समान ही खजुराहो पाच्छादित पद्मावती पद्म पर विराजमान है। यक्षीको
में भी पद्मावती के साथ सर्पफणों (५ या ७) एव पद्म भजायो में भग्न, पद्म, पद्मलिका एवं कलश प्रदर्शित
के प्रदर्शन में नियमितता प्राप्त होती है। साथ ही अन्य है। दो उपासको, मालाधरों एव चामरधारिणी सेविकानों
पारभरिक प्रायुधो (पाश एव अकुश) का भी चित्रण से सेव्यमान पद्मावती के शीर्ष भाग में तीन सर्पफणो से
प्राप्त होता है। वाहन रूप मे कुक्कुट-सर्प के स्थान पर मण्डित पार्श्वनाथ की लघु आकृति भी उत्कीर्ण है। और
" है। केवल कुक्कुट का ही अकन किया गया। मी में प्राप्त दसरी मति (जी-७३--११वी १२वी देवगढ़ में पदमावती की द्विभुज, चतुर्भज एवं द्वादशशती) मे ऊँची पीठिका पर अवस्थित पद्मावती पाच भज मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई। उल्लेखनीय है कि जहाँ २०. उत्तर के उदाहरण में वाम हस्त खण्डित है। यक्षी का चतुर्भुज एवं द्वादश भुज स्वरूपों में अंकन ११वीं २१. शास्त्री, ए. एम , "त्रिपुरी का जैन पुरातत्त्व', 'जैन- शती में ही प्रारम्भ हो गया था, वही द्विभुज मूर्तियाँ "लन', वर्ष २, अक २, पृ. ७१ ।
बारहवी शती की कृतियाँ है। देवगट से द्विभुज पद्मावती