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ॐ अहम्
3ণকলি
परमा (मस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २७ किरण २
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
वीर-निर्वाण सवत् २५००, वि० म० २०३१
5 अगस्त
१६७४
अर्हत-परमेष्ठी-स्तवन
रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहातअस्त्रादेः परिवर्जनान्न च धर्तुषोऽपि संभाव्यते। तस्मात्साम्यमयात्मबोधनमतोजातः क्षयः कर्मणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥३॥
--पग्रनन्धाचार्य अर्थ -जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रहरूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किमी भी इन्द्रिय विषय में राग नही है, त्रिशुल आदि प्रायधों से रहित होने के कारण उक्त प्ररहंत पर के विद्वानों द्वारा द्वेष की संभावना भी नहीं की जा सकती है। इसीलिए रागद्वेष रहित हो जाने के कारण उनके समता भाव आविर्भूत हुआ है । अतएव कर्मो के क्षय मे अर्हत्परमेष्ठी अनन्त मुग्य यादि गुणों के आश्रय को प्राप्त हुए हैं। वे अहत्परमेष्ठी सर्वदा आप लोगों की रक्षा कर ।