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________________ भारतीय पुरातत्त्व तथा कला में भगवान महावीर 0 श्री शिवकुमार नामदेव जिन पूत महात्मानों पर भारतवर्ष उचित गर्व कर के ऊपर त्रिछत्र होते है, ये रत्नत्रय (दर्शन-ज्ञान-चारित्र) सकता है, जिनके महान उपदेश सहस्रों वर्ष की कालावधि के प्रतीक है। प्रत्येक तीर्थकर की माता तीर्थकर को चीरकर अद्यावधि प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं, उनमें के पूर्व स्वप्न मे कुछ न कुछ देखती है। यही देखी हुई जैनधर्म के अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर का स्थान वस्तु उस तीर्थकर का लाछन' होता है। प्रत्येक तीर्थकर ने सर्वोपरि है। उनके पुण्य स्मरण से हम निश्चित रूपेण किसी न किसी वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया था, उस गौरवान्वित होते है। वृक्ष से उनका निकट का सम्बन्ध है। भारतीय कला के आधार पर यह कहा जा सकता है भारतीय कला मे महावीर की प्रतिमाएं सर्वत्र प्राप्त कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा अत्यधिक प्राचीन है। जैनधर्म होती है। उनका वाहन सिह है । अपराजितपुच्छा एवं वास्तुका प्रचार भारत में सर्वत्र है, अत. गुजरात, राजस्थान, सार के अनुसार इनका शासनदेव मातङ्ग है। शासनदेवी के उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश प्रादि सम्बन्ध में दोनों ग्रन्यो में दो भिन्न नाम प्राप्त होते है। राज्यों में जैन प्रतिमायें प्रचर संख्या में उपलब्ध होती अपराजितपृच्छा के अनुसार अपरा एववास्तुसारके अनुसार हैं । जैन प्रतिमानों में तीर्थंकर प्रतिमानों की ही देवी का नाम सिद्धायिका ज्ञात होता है। इसी प्रकार प्रधानता है। तीर्थकर के अतिरिक्त अन्य सभी मतियां दोनों ग्रंथों में यक्षो एवं यक्षिणियों के वाहन एवं लाछन के गौण समझी जाती है। चौबीस तीर्थकरो की प्रतिमायों विषय मे भी मतभेद है। अपराजितपृच्छा के अनुसार में साम्य होने पर भी प्रतिमाएँ लाछन, वर्ण, शासनदेवता महावीर का काचन वर्ण चित्र्य है। और देवी (यक्ष-यक्षिणी), केबलवृक्ष तथा चामरधारी एवं महावीर की प्रतिमा कला में ईसवी सन पूर्व में चामरघारिणी के आधार पर अलग-अलग तीर्थंकरों की निर्मित नहीं मिलती है। इसका एक मात्र उदाहरण समझी जाती है। आयागपट्ट के मध्य में खुदी प्राकृति में पाया जाता है। तीर्थकर जीवन्मुक्त महापुरुष होते है। उनके हृदयो इसमे महावीर ध्यानमुद्रा में दिखलाये गये है।' दिगम्बर पर श्रीवत्स अर्थात् चक्र रहता है। यह धर्मचक्र कहलाता मतियाँ अधिक संख्या मे मिलती है। है। इनके पासन के नीचे अकित प्रतीक धारणाधर्म के भारतीय कला का क्रमबद्ध इतिहास मौर्यकाल से प्रतीक है । इनके विग्रह के साथ त्रिशूल और सभी विग्रहो प्राप्त होता है । सम्राट अशोक का उत्तराधिकारी सम्प्रति १. चतुर्दश स्वप्न के लाछन का विवरण इस प्रकार है- गजो वृषो हरिः साभिषेकश्री: स्रक शशी रविः । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पद्मसरः सारित्पतिः । विमानं रत्नपुञ्जश्च निधू मोऽग्नि रिति क्रमात् । ददर्श स्वामिनी स्वप्नान्मुख प्रविशतस्तदा । Jain Iconography --B. C. Bhattacharya, Lahore 1939, Chapter VI मे त्रिषष्टिशलाका और उत्तरपुराण से पृ० ५१ में उद्धृत। २. २४ तीर्थकरो के निम्न २४ लांछन है वसह गय तुरय वानर कुचो कमल च सस्थियो चंदो। मयर सिरिवच्छ गण्डय महिस वराहो य सेणो य । वज्ज हरिणो छगलो नन्दावत्तो य कलस कुभो य । नीलुप्पल संख फनी सीहो अजिणाण चिहाइ। ___Jan Iconography, पृ. ४६. ३. प्राचीन भारतीय मूर्ति-विज्ञान-वासुदेव उपाध्याय, चित्रफलक ८१.
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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