________________
८, २७, कि०३
बनेकान्त जैन धर्मावलम्बी था। बौद्ध ग्रन्थों में अशोक को जो प्रतिमानों की पीठ पर अंकित सिंह को महावीर का स्थान प्राप्त है, वही स्थान जैन ग्रंथों में सम्पत्ति को प्राप्त लांछन मानकर महावीर की पहचान करते हैं।' परन्तु वह हुमा है । मौर्यकालीन जैन प्रतिमायें लोहानीपुर मादि स्थलों विधान तर्कसंगत नही जान पड़ता, क्योंकि पीठ पर अंकित से प्राप्त हुई हैं। पार्श्वनाथ की एक कांस्य प्रतिमा जो सिंह सिंहासन के सूचक है, न कि लांछन के; और यदि कायोत्सर्ग प्रासन में है, बम्बई संग्रहालय में सुरक्षित है। वे महावीर के लांछन होते तो उन्हें पीठ के मध्य में मौर्यकाल की तीर्थकर भगवान महावीर की प्रतिमा अभी चित्रित किया जाता जैसा कि हम परवर्ती काल की जिनतक उपलब्ध नहीं हुई है।
प्रतिमामों में पाते हैं। कुषाण-युग में बौद्ध प्रतिमा के सदश ही जैन मतियाँ ।
महावीर की कुषाणकालीन एक अन्य प्रतिमा मथुरा निर्मित की गई जो बौद्ध प्रतिमानों के पीछे निर्मित हुई।
के संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें महावीर को उत्थित कुषाणकालीन मथुरा-कला में तीर्थंकरों के लांछन नहीं
पद्मासन में बैठे हुए दिखलाया गया है। मस्तक के पीछे पाये जाते, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान की जाती
ऊपर छल्लेदार केश हैं। अंगों का विन्यास ठस न होकर थी। केवल ऋषभनाथ के कंधे पर खुले केशों की लटें
लोचयुक्त है । मुख पर दिव्य छवि है।' और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्प-फणों का आटोप बनाया गया है।
गुप्तकाल धार्मिक सहिष्णुता का काल था, अतः बौद्ध कुषाणकालीन अनेक कलात्मक उदाहरण मथुरा के तथा ब्राह्मण मूर्तियों के अतिरिक्त इस कालकी जन मूर्तियाँ कंकाली टोले के उत्खनन से उपलब्ध हुए है। उसमें भी मिली हैं । गुप्तकालीन जैन प्रतिमायें कलात्मक एवं सौंदर्य प्रमोहिन द्वारा प्रदत्त पायागपट्ट की तिथि ई. पूर्व की स्थिर की दृष्टि से उत्तम समझी जाती हैं। 'अधोवस्त्र' तथा की गई है। यह गोलाकार पूजानिमित्तक शिलापट्ट है जिसके 'श्रीवत्स' दो प्रमुख विशेषता है जो गुप्तयुग में परिलक्षित मध्य में ध्यानमुद्रा में महावीर की छोटी-सी मति दृष्टि- होती हैं । जैन मूर्तियों की बनावट उत्तम कोटि की है। गोचर होती है। सम्भवतः योगी के स्वरूप को ध्यान में गुप्तयुग से जैन प्रतिमाओं मे यक्ष-यक्षिणी, मालाबाही रखकर महावीर की प्रासन मूर्ति बनाई गई हो। जैन धर्मा- गंधर्व प्रादि देवतुल्य मूतियों को भी स्थान दिया गया है। वलम्बी प्राचीन परम्परा से पृथक् न होकर कृतसंकल्प होते गुप्तकाल में जैनधर्म का भी पर्याप्त प्रचार था, इसलिए थे; इसलिए स्वदेशी परम्परा से विमुख न हए। महावीर लेखो' मे प्रर्हत-प्रतिमाओं की स्थापना तथा गुफा या लघु प्राकृति के चारों ओर जनमत के निम्न माठ मांगलिक
मंदिरों में जैन मतियो की स्थिति उसके प्रसार का समर्थन चिन्हों का अंकन है
करती है। (१) स्वस्तिक, (२) दर्पण, (३) भस्मपात्र, (४) कंकाली टीला, मथुरा से प्राप्त एक सिर रहित जिनबेत की तिपाई (भद्रासन), (५-६) दो मीन, (७) पुष्प- प्रतिमा लखनऊ संग्रहालय में है। संयोग से उसमें तिथि माला, (6) पुस्तक ।
भी अंकित है जो संवत ११३ (४३२ ई.) की है। जहाँ इन चिन्हों की स्थिति से मूर्ति को जन प्रतिमा मानने तक इसके पहचान का अथवा समीकरण का प्रश्न है में संदेह नहीं रह जाता। मायागपट्ट जैनकला की विद्वानों ने इसे जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर प्राचीनतम कृति है । डा. स्मिथ मथुरा से प्राप्त कुछ जैन को बताया है। परन्तु विद्वानों ने इसे किस प्राधार पर ४. वही.
७. स्कन्दगुप्त का कहोम स्तम्भ लेख, गुप्त संवत् १४१5. Jain Stupa and Other Antiquities of
का० इ०६०. ग्रन्थ ३, पृ० ६५. Mathura, Varanasi 1969, Plts. XCI, XCIII,
८. Sharma, R.C., Mahavira Jain Vidyalays XCIV.
Golden Jubilee Vol., pt. 1, p. 150, fig. 8;
Banerji, R. D., Age of Imperial Guptas, ६. भारतीय कला-वासुदेवशरण अग्रवाल, चित्रफलक
plt. XVIII; Shah, U. P., Akota Bronzes, ३१६.
p. 15.