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________________ भारतीय पुरातत्व तथा कला में भगवान महावीर ८९ महावीर का माना है यह ज्ञात नहीं है। संभवतः पीठ पर के अग्रभाग पर स्थित है। प्रशान्त नयन, सुन्दर भवें, उत्कीर्ण सिंह ही उनका आधार है। परन्तु यह आधार अनूठी नासिका के नीचे मन्दस्मित प्रोष्ठ से ऐसा प्राभास. तर्कसगत प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार के सिंह-चित्रण मिलता है कि वर्धमान महावीर की प्रमतमय वाणी जैसे हमें पूर्वकालीन अन्य जिन-प्रतिमानो पर प्राप्त होते है, स्फुटित होना ही चाहती है। सुगठित चिबुक, चेहरे की जो कि सिंहासन के द्योतक है, न कि लांछन के। अभिलेख भव्यता एव गरिमा की रचना कुशल शिल्पी के सधे हुए में वर्धमान का नाम नही दिया गया है। हाथों की परिचायक है। प्रतिमा के कर्ण लम्बे दिखाये गुप्तकाल की एक अन्य जिन-प्रतिमा भारत कला गये है जिनमे कर्णफूल सुशोभित हो रहे है । ग्रीवा की भवन काशी (क्रमांक १६१) में है । ध्यानावस्था में स्थित त्रिरेखा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यकचारित्र को यह प्रतिमा महावीर की है। इसकी पहचान पीठ पर प्रदर्शित करती है। सबसे ऊर्ध्व भाग मे त्रिछत्र मे मोतियों अकित दो सिंहो से होती है जो एक-दूसरे के सम्मुख खड़े प्रदर्शित किये गये है। की पाँच लटकनें पंचतत्वों से परे त्रिकालज्ञान की परि चायक हैं। त्रिछत्र के नीचे दष्टि के प्रतीक तीन पद्मों से दीक्षा ग्रहण के पूर्व वर्धमान महावीर को जीवन्तस्वामी के नाम से भी जाना जाता था। चूंकि उस समय गुम्फित त्रिदल हैं। प्रतिमा का तेजोमण्डल आकर्षक एवं वे राजकीय वेश-भूषा में रहते थे, अत: कलाकार ने उन्हें भव्य है । प्रतिमा की ऊँचाई ४'-२" है । प्रतिमाशास्त्रीय उसी रूप में प्रदर्शित किया है। गुप्तकालीन जीवन्तस्वामी अध्ययन के आधार पर कलामर्मज्ञों ने इसकी तिथि ८वीं की दो प्रतिमायें बड़ोदा संग्रहालय में है। राजकीय सदी के प्रासपास निर्धारित की है। परिधान में होने के कारण इनकी पहचान प्रासानी मे की महावीर की कलचुरिकालीन प्रतिमायें कारीनलाई जा सकती है। (जबलपुर) एवं जबलपुर से प्राप्त हुई है। कारीतलाई उत्तर गुप्तकाल में जैनकला से सम्बन्धित विभिन्न से प्राप्त महावीर-प्रतिमा की, जो अाजकल रायपुर-संग्रहाकेन्द्र थे । तांत्रिक भावनाओं ने भी कला को प्रभावित लय (म०प्र०) मे है, ऊँचाई ३-५" है। इस प्रतिमा किया था। यद्यपि इस युग मे कलाकारों का कार्यक्षेत्र में जनों के अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर उच्च सिंहासन पर अधिक विस्तृत हो गया था, परन्तु वे शास्त्रीय नियमों से उत्थित पद्मासन में ध्यानस्थ बैठ है। उनके हृदय पर जकड़ गये थे, अतः मध्ययुगीन जैनकला निर्जीव सी हो गई श्रीवत्स का चिन्ह है। प्रतिमा का तेजोमण्डल युक्त थी। इस काल की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि कला उर्ध्वभाग तथा वामपार्श्व खंडित है। दक्षिणपार्श्व में पट्टी में चौबीस तीर्थकरों से सम्बन्धित चौबीस यक्ष यक्षिणियो पर उनके परिचारक मौधर्मेन्द्र खड़े हैं । अन्य तीर्थकर की को स्थान दिया गया। मध्यकालीन जैन-प्रतिमानो मे चार पद्मासनस्थित प्रतिमायें भी प्रवशिष्ट है। चौकी पर माठ ग्रहों की प्राकृतियाँ भी दृष्टिगोचर होती उच्च चौकी पर मध्य मे धर्मचक्र के ऊपर महावीर हैं जो हिन्दू-मत के नवग्रहो का अनुकरण है। इस युग लांछन सिंह अंकित है । लांछन के दोनों पार्श्व पर एकमें मध्यभारत, बिहार, उड़ीसा तथा दक्षिण में दिगम्बर एफ सिंह और चित्रित किये गये हैं । धर्मचक्र के नीचे एक मत प्रधान हो गया था। पाषाण के अतिरिक्त घातु- स्त्री लेटी हई है, जो चरणो मे पड़े रहने का संकेत है। प्रतिमायें भी निर्मित होने लगी थी। महावीर का यक्ष मातङ्ग अंजलिबद्ध खड़ा है, किन्तु यक्षी मध्यप्रदेश के लखनादौन (सिवनी जिला) नामक सिद्धायिका ओवरी लिए हुए है। इनके दोनों ओर पूजा स्थान से सन् १९७२ मे भगवान् महावीर की एक सुन्दर करते हुए भक्त चित्रित किये गये हैं।" पाषाण-प्रतिमा प्राप्त हुई है । उक्त प्रतिमा के गुच्छकों के महावीर की एक अन्य प्रतिमा जबलपुर से प्राप्त हुई है रूप में प्रदर्शित केश-विन्यास उष्णीयबद्ध है । दृष्टि नासिका जो सम्प्रति फिलाडेलफिया(अमेरिका) म्यूजियम माफ मार्टमें 9. Shah, U. P., Akota Bronzes, pp. 26-28. १०. महंत घासीराम स्मारक संग्रहालय, रायपुर, सूचीपत्र चित्रफलक क.
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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