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________________ ६६, वर्ष २७, कि० ३ अनेकान्त वर्द्धमान महावीर (५६९-५२७ ईसा पूर्व) द्वारा पुनरुत्थान कि परम्परा ने चले आये श्रुतागम का जितना जो अंश पूर्णतया निष्पन्न हुआ। सुरक्षित रह गया है उसका पुस्तकीकरण कर दिया जाय । ____ महावीर का युग महामानवों का महायुग था और दूसरी शती ईसा पूर्व के द्वितीय पाद में उड़ीसा में हुए उनमें स्वयं उनका व्यक्तित्व सर्वोपरि था। उसी युग में महामुनि सम्मेलन मे यह प्रश्न उठा और मथुरा के जैन शाक्यपुत्र गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। यह साधुओ ने इस सरस्वती आन्दोलन का अथक प्रचार भी श्रमण परम्परा का ही एक सम्प्रदाय था। भाजीविक किया । फलस्वरूप ईसा-पूर्व प्रथम शती से ही प्रागमोद्धार सम्प्रदाय प्रवर्तक मक्खलिगोशाल प्रभृति अन्य अनेक श्रमण एवं पुस्तकीकरण का कार्य प्रारम्भ हो गया और पांचवी धर्मोपदेष्टा भी उस काल मे अपने-अपने मतों का यत्र-तत्र शती ई० के अन्त तक विभिन्न सम्प्रदायो ने अपनी-अपनी प्रचार कर रहे थे। उस काल के प्रथवा उत्तरवर्ती युगो के परम्परामों में सुरक्षित जिनवाणी को लिपिबद्ध कर जैनो और स्वयं महावीर ने यह कभी नही कहा कि लिया। मूल ग्रन्थों पर नियुक्ति, चूणि, वृत्ति, भाष्य, उन्होने किसी नवीन धर्म की स्थापना की है। वह तो टीका आदि विपुल व्याख्या साहित्य का सृजन तथा पूर्ववर्ती तेईस तीर्थडुरों की धर्म-परम्परा का ही प्रति- विविध स्वतन्त्र ग्रंथों का प्रणयन चाल हो गया। देश निधित्व करते थे। उसी का स्वयं प्राचरण करके लोक के और काल की परिस्थितियों वश जैन संस्कृति के केन्द्र सम्मुख उन्होंने अपना सजीव प्रादर्श प्रस्तुत किया। बदलते रहे, बहुमुखी विकास भी होता रहा और उत्थानउन्होने उक्त धर्म व्यवस्था में कतिपय समयानुसारी सुधार- पतन भी होते रहे । संशोधन भी किये, उसके तात्विक एवं दार्शनिक आधार इस इतिहास-काल में जैन धर्म को राज्याश्रय एवं को सुदृढ़ एवं व्यवस्थित किया और चतुर्विध जैन संघ का जन सामान्य का प्राश्रय भी विभिन्न प्रदेशों में बहुधा प्राप्त पुनर्गठन किया तथा उसे सशक्त बनाया। रहा । मगध के बिम्बिसार (श्रेणिक) आदि शिशुनागवशी महावीर के पार्श्व प्रादि पूर्ववर्ती तीर्थदूरों का जैन नरेश, उनके उत्तराधिकारी नंदवंशी महाराजे और मौर्य धर्म पहले से ही देश के अनेक भागों में प्रचलित था। सम्राट जैन धर्म के अनुयायी अथवा प्रबल पोषक रहे । कालदोष से उसमें जो शिथिलता पा गई थी, वह दर हई मौयं चन्द्रगुप्त एव सम्प्रति के नाम तो जैन इतिहास में और उसमें नया प्राण-संचार हुआ। महायीर के निर्वाण स्वर्णाक्षरों में लिखे है । दूसरी शती ईसा पूर्व मे मौर्य वंश के पश्चात् उनकी शिष्य परम्परा में क्रमशः गौतम, सधर्म की समाप्ति पर ब्राह्मणधर्मी शुग एवं कण्व राजाओं के एवं जम्बू नामक तीन महंत केवलियो ने उनके संघ का काल में मगध मे जैन धर्म का पतन हो गया, किन्तु मथुरा, नेतृत्व किया। तदनन्तर क्रमश: पांच श्रुतकेवली हए जिनमें उज्जयिनी और कलिंग उसके सशक्त केन्द्र बन गये । भद्रबाहु प्रथम (ईसा पूर्व ४थी शती के मध्य के लगभग) कलिंग चक्रवर्ती सम्राट् ग्यारवेल, जो अपने युग का सर्वाअन्तिम थे। उस समय उत्तर भारत के मगध प्रादि प्रदेशों धिक शक्तिशाली भारतीय नरेश था, जैन धर्म का परम में बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ा, जिसके परिणाम- भक्त था। इसी प्रकार विक्रम संवत् प्रवर्तक मालवगण वरूप जन साधु संघ का एक बड़ा भाग दक्षिण भारत की का नेता वीर विक्रमादित्य भी जैन था। ओर विहार कर गया। इसी घटना में संघभेद के वे इस समय के बाद उत्तर भारत में जैन धर्म को फिर बीज पड़ गये जिन्होने भागे चलकर दिगम्बर-श्वेताम्बर कभी कोई उल्लेखनीय राज्याश्रय प्राप्त नहीं हुआ। कतिसम्प्रदाय-भेद का रूप ले लिया। साधु-सघ गण-गच्छ पय छोटे राजाओं, सामन्तों, सरदारों, कभी-कभी राज्यप्रादि में भी शनैः शनैः विभक्त होता गया और कालान्तर परिवारों के कुछ व्यक्तियों को छोड़कर कोई सम्राट्, बड़ा में अन्य अनेक संप्रदाय-उपसंप्रदाय भी उत्पन्न हए। उप- नरेश या राजवंश इस धर्म का अनुयायी नहीं हुआ, किन्तु युक्त दुर्भिक्ष के बाद ही यह भी अनुभव किया जाने लगा उस पर प्रायः कोई अत्याचार और उत्पीड़न भी नहीं
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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