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प्रावर्श महिला
राजुल मिश्रीलाल जैन
कक्ष में दीपिका जल रही थी। पवन के मन्द मन्द पलके उनीदी हो उटी । नयनाकाश के दोनो क्षितिज मिले झकोरों से बाती काप-काप जाती थी। पलंग पर दूधिया और वह निद्रा देवी की नीद में सो गई। एक पहर हुआ चादर बिछी थीं और चारो ओर पारदर्शी पर्दे लगे थे। ही था कि प्रभाती ने उसे जगा दिया। उसके मधुर स्वर कक्ष भित्तिया कलात्मक चित्रो से चित्रित की गई थी। स्पर्ग से राजुल की नीद टूट गई। वह उठ कर बैठ गई रात्रि का प्रथम पहर था। तकिए का सहारा लिए एक वातायन से अरुणोदय झाक रहा था। उठते सूरज को सुडौल लावण्यमयी रमणी बैठी थी। कक्ष जूनागढ के सुनहरी किरण पृथ्वी को चूम रही थी। स्वणिम किरणो राजमहल का था। पलंग पर लेटी यूवती थी महाराज और शहनाई की प्रभात कालीन रागिनी की मधुर ध्वनि उग्रसेन की दुहिता राजकुमारी राजुल। हथेलियो और दोनों ने प्राकृतिक वातावरण को सजीव बना दिया। पावों मे कलात्मक शैली से मेहदी रची हुई थी। वेषभूषा कुमारी राजुल झरोखे में आकर खड़ी हो गई और प्रकृति नव-बधू होने का संकेत दे रही थी। प्राँग्खो की नीद न के उस अकल्पित सौन्दर्य को अपलक देखने लगी। जाने कहा उड़ गई थी। मन मे तरह तरह की सम्मोहक मध्याह्न मे द्वारिकापुरी से प्रायी बारात अभी जूनागढ कल्पनायें फगडी खेल रही थी। नारी के मन में उमगित की सीमा पर जा पहुची। महाराज उग्रसेन तथा जूनागढ विवाह पूर्व अनुभूतियो की अभिव्यक्ति सहन नहीं है मन के गण्य मान्य नागरिक बारात की भाव भीनी अगवानी मे मधुर मपने सुखद भविष्य, पति की सुन्दर छवि का के लिए वहा उपस्थित थे। बारात का प्रभावशाली चिन्तन, उसके पौम्प की पराक्रम गाथाये सभी एक सुर से स्वागत किया गया। अनेक वाद्ययन्त्रो के सामूहिक स्वर में राजल के कोमल, तरुण हृदय में गज रहे थे। रात्रि के दिशाए गूज उठी। उल्लास, साकार हो उठा। शोभा दूसरे पहर मे निद्रा देवी के दलार भरे स्पर्श से उसकी यात्रा बड़े कलात्मक ढग से प्रायोजित हुई। सर्व प्रथम
वाद्य वृन्द चल रहा था, जिसके मधुर स्वर से सभी के मौलिश्री के भी फलों के,
हृदय प्रानन्दोल्लास मे प्रफुल्लित हो रहे थे। उसके बाद उपवन अत्यन्त निराले हैं :
पदातियो की पक्ति मार्च कर रही थी, फिर अश्वारोही या दृश्य यहाँ के सारे ही,
सैनिक चल रहे थे, इनके ठीक पीछे हाथियो की अद्वितीय मन हर्षित करने वाले है ।।६६
कतार चल रही थी। इसके पीछे रत्न जटित प्राभूषणो में गौरैया, मोर, पिकी गोष्ठी,
मुसज्जित दो हाथी एक स्वर्णरथ को खीच रहे थे। रथ करती रहती सप्रेम यहाँ ।
मे द्वारिकापुरी के अधिपति समुद्र विजय के पुत्र नेमिनाथ अभिराम हरिणियों चौकड़ियाँ,
विराजमान थे। जूनागढ़ के राजपथ पर जब रथ चलने भरती रहती सप्रेम यहा ।।७०
लगा तो पास पास की अट्टालिकाप्रो से पुष्पवृष्टि होने इसके पशुओ को अभयदान,
लगी। जूनागढ़ की प्रजा द्वारा की गयी पुष्पवृष्टि से तो देते रहे नरेश सदा ।
वातावरण महक उठा। पर वृक्षो को भी रक्षा का,
धूम धाम से चली आ रही बारात अचानक रुक गई रखते थे ध्यान विशेष सदा ।।७१
राजपथ में बाई पोर कुवर नेमिनाथ ने अनायास देखा (क्रमशः) कि अनेक प्रकार के सैकडो पशु एक बाड़े मे बन्द थे ।