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पुण्यतो पपोरा
उनने इसके ही द्रोणाचल, पर प्रा वह बूटी पाई थी, जिसके प्रयोग से लक्ष्मण में, तत्क्षण चेतना आई थी । ५१ है यही 'द्रोण गिरि' तो जैनों, का तीर्थ स्थान पुनीत सभी, जिसको लख अांखों के आगे, उठता है नाच अतीत अभी । ५२
आ इसी प्रान्त में पाण्डव ने, अपना बनवास बिताया था, इसके विपिनों ने उन्हे शरण, दे अपना धर्म निभाया था । ५३ कवि कालिदास ने मेघदूत, में इसे दशाण बताया था, उस समय यहाँ की राजपुरी, विदिशा को गया बनाया था।५४ उसो दशार्ण के चिन्ह-रूप, में ही घसान अब बहती है । जो अपने उस कल-कल स्वर में, उस यूग की गरिमा कहती है ।५५ प्रत्येक दृष्टि से यों इसका, इतिहास सदैव महान् रहा। हर युग में कवियो के द्वारा, होता इसका गुण गान रहा ।।५६ अब मध्यप्रान्त के अन्तर्गत, है समाविष्ट यह पुण्य मही। फिर भी इसका मौलिक महत्व, हो सका अभी भी लुप्त नहीं ।। ५७ इस ही पावन बुन्देलखण्ड, में टीकमगढ़ से तीन मील, की दूरी पर है विद्यमान, शुभ क्षेत्र पपौरा पुण्य शील ।।५८ इसके इक्यासी जिन मन्दिर, भक्तों के मन को मोह रहे । शोभित हो मानस्तम्भ रहे, मठ, मेरु, यों भरे सोह रहे ॥५६
जिस पम्पापुर का वर्णन है, श्री बाल्मीकि रामायण में । सम्भवतः बहो पपौरा अब, बन गया आज उच्चारण में ॥६० यदि यह है सत्य, यहीं तो फिर, हनुमान राम संयोग हुआ। प्रारम्भ यही से सीता के, अन्वेषण का उद्योग हुया ॥६१ कारण यह, इसके पास एक, विस्तृत वन घना रमन्ना है। जो लगता रामारण्य शब्द, हो तो अब बना रमन्ना है ॥६२ अनुमान मात्र यह, कौन आज, सकता वास्तविक रहस्य बता। पर यदि अन्वेषक खोज करे, तो इसका लगे अवश्य पता ॥६३ सभव है यह बात सिद्ध, होवे इतिहास पुराणों से । इसकी विशेषता और अधिक, जानी जा सके प्रमाणों से ॥६४ हो भले वास्तविकता जो भी, पर यह शुभ तीर्थ पुरातन है । इसकी सुख्याति नवीन नहीं, पर अति प्राचीन सनातन है ।।६५ इस पुण्य क्षेत्र के उत्तर में, जो वनस्थली लहराती है। प्रत्येक प्रकृति के प्रेमी के, मन को वह अतिशय भाती है ।।६६ कंजी, अचार, जामुन, महुवा, की तरुश्रेणी अभिराम कही। तो प्राम, प्रांवला, और चिरौल, की विटपावली ललाम कही ।।६७ बाँस औ सेमर के वृक्षों, की भी तो छटा निराली है। पो सुरभि करौंदी के फूलों, की हृदय मोहने वाली है ॥६८
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