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________________ प्रनेकान्त २४ वर्ष २७, कि० १ उल्लेख किया लगता है । सम्वत १०१७ वाला प्रशस्ति लेख इस दृष्टि से जीर्णोद्धार या नवीन मंडप देहरियों आदि की स्थापना का सूचक होगा। जैन तीर्थ सर्व संग्रह में सिया का विवरण देते हुए लिखा है कि यहाँ सोधशिखरी विशाल मन्दिर बड़ा रमणीय है । मूलनायक श्री महावीर प्रभु की प्रतिमा ढाई फुट ऊँची है । मन्दिर के रंग मंडप में १०१३ वि० स० का शिलालेख: है जिसमें जिन्दक या उनके पुत्र भुवनेश्वर श्रावक के मंडप बनाने का उल्लेख है । सम्भव इस जैन मन्दिर का उद्धार उसने करवाया है। इस शिलालेख के अतिरिक्त यहाँ संवत १०३५, सं० २०८८, सं० १२३४, सं० १२५६, संवत १३३८, स० १४६२, संवत १५१२, सं० १५३४, स० १५३६, सं० १६१२, सं० १९८३, सं० १७५८ के लेख मूर्तियो व स्तम्भों पर प्राप्त है। दसवी शताब्दी के पहले अलग-अलग शैली के शिल्प इस मन्दिर मे विद्यमान है जो इस मन्दिर की प्राचीनता के सूचक है । मन्दिर के जीर्णोद्धार करते समय पाये में से एक खण्डित पादुका मिली थी, जिसकी चौक पर सं० १५०० का लेख है । निकटवर्ती धर्मशाला का पाया खोदते हुए श्री पार्श्वनाथ की धातु-प्रतिमा मिली थी जो अभी स्व० पूज्यचन्द्रजी नाहर के नम्बर ४८ इण्डियन मीर स्ट्रीट, कलकत्ता के मन्दिर में विद्यमान है। जिस पर सम्वत १०११ का लेख खुदा हुआ हुआ है और उसमें उपकेशश्रोसिया के चैत्यग्रह का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । "ॐ० सवत् १०११ चैत्र सुदी ६ कक्काचार्य शिष्य देवदत्त गुरूणा उपकेशीयचैत्यगृहें प्रश्वयुजचैत्यषष्ठयां शांतिप्रतिमा स्थापनीया गन्धोदकान् दिवालिका भासुल प्रतिमा इति ।। " उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ओसियाँ का महावीर मन्दिर, नवमी शताब्दी जितना प्राचीन तो है ही । श्रोसवालों का यह मूल स्थान है पर प्राज वहाँ एक भी श्रोसवाल या जैनों का घर नही है केवल प्राचीन मन्दिर ही विद्यमान है और वहां एक जैन विद्यालय काफी समय से चल रहा है। इससे इस प्राचीन मन्दिर की देखभाल भी ठीक से हो रही है, सैकड़ों विद्यार्थी वहाँ पूजासेवा कर रहे है । श्रोसवाल वंश की स्थापना रत्न प्रभ सूरि ने की, यह तो सर्वमान्य तथ्य है। परवर्ती प्राचार्यों ने जो नये जैन बनाये, वे श्रोसवाल वंश में ही सम्मिलित होते रहे । फलतः ओसवाल वश का विस्तार खूब होता रहा । आज भी लाखों व्यक्ति ओसवाल कहलाते है और इस वंश के गोत्रों की संख्या १४४४ तक पहुच जाने का प्रवाद है । सैकड़ों गोत्र तो आज भी विद्यमान है। श्रोसवाल, प्रायः सारे हमारे भारत मे ही फैले हुए है । उपकेशगच्छ प्रबन्ध के अनुसार रत्नप्रभ सूरि जी ने प्रतिबोध देकर यहाँ बहुत बड़ी संख्या मे नये जैन बनाये मे, राजा और मन्त्री भी जैन बन गये थे । इससे पहले यहाॅ की चण्डिका देवी के उपासक शाक्त थे । और वहाँ देवी मन्दिर मे पशु बलि बड़ी जोरो से होती थी, कहा गया है कि नये जैनी तब अहिसा धर्म के उपासक बन गये तब पशु बलि देना उनके लिए सम्भव ही नहीं रहा अतः उन पर देवी कुपित होकर उपद्रव करने लगी । तब जैनाचार्यों ने देवी को भी समझा-बुझाकर शान्त किया । पशु बलि या मास के बदले मिष्ठान्न व फल-फूल आदि से उसकी पूजा करने का विधान नये जैनियों की ओर से कर दिया अतः आज भी बहुत से प्रोसवाल घरानों मे नवरात्रि के दिनों मे देवी की पूजा प्राराधना की जाती है। और बहुत से श्रोसवाल अपने बालकों के झडूले आदि उतारने के लिए श्रोसिया की यात्रा भी करने जाते रहते है । उस चाण्डिका देवी का नया नाम जैन आचार्य ने सच्चिका रख दिया और इसी नाम का उल्लेख करते हुए कई स्तुति श्लोक भी बनाये गए। और उस देवी की अन्य मूर्तियां स्थापित व प्रतिष्ठित की गई । 4 कुछ वर्ष पहले मुझे कुछ हस्तलिखित मिले थे जिनमे एक पत्र में ओसवालो की का उल्लेख करते हुए लिखा था । "X X ऊहड प्रोसिया बसाई । स्वत् १०११ दसै इग्यारोत्तरं प्रोसिया माता सुप्रसन्न थई श्रोसर्व सनी थापना की थी । सं. १०१७ तर श्रीवीरप्रासाद प्रोहडसा कराण्यो, ते श्राज वर्तमान काल तीर्थ छई । देहरानी प्रसस्तिमांहिसु विस्तर लिख्योछई । धर्मराज ( रत्नप्रभसूरि ) भट्टारकाना सूर प्रतिबोध्या इति शेठ ५ ।। " पत्र ऐसे भी उत्पत्ति का
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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