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________________ धर्म की बिक्री गया है, तब धन चुकाएगा कहाँ से ? विष्णुदत्त कुटिल हास्य के साथ बोला-विष्णुदत्त कच्ची गोली कभी नहीं सूर्य देव तप्त कांचन का पिण्ड बने हुए देवकोटपुर के खाता। मैने देखा, धर्म परिवर्तन का प्रतिशोध लेने का श्मशानमें निकले, उस कांचन की दीप्ति ने दसों दिशाओं इससे अच्छा अवसर फिर नही मिलेगा। अत: मैने कह को पालोक से भर दिया। दिया- तुम्हारे पास जो भी मूल्यवान वस्तु हो, उसे बेच भूत-चडलों की भयानक किवदन्तियों ने रात्रि में कर तुम ऋण चका सकते हो। अगर कुछ भी नही है तो जिन्हे प्रतीक्षा की कठोर आग में तपाया था, वे इस आलोक तुम्हारा धर्म तो है ही, उसे बेच दो। को पाकर श्मशान की ओर चल पडे । सब विस्मय मे एक साथ बोल उठे-धर्म बेचकर वरुण विष्णुदत्त बहसंख्यक जनता की श्रद्धा का मंजल भार देवता? क्या कलिकाल पा गया ? उठाए विशाल ममूह के साथ उधर जा रहा था उसके पैरों विष्णदत्त खिलखिलाकर हंस पड़ा--परे धर्म बेचकर का भार आग, वायु उठा रही थी। ऊंचा आकाश उसके वह कहाँ से पायेगा। पाखिर आना पड़ेगा उसे मेरे पास मस्तक को अपनी गोद मे लिए सहला रहा था। सारे दी। तब उसे फिर महर्षियो की वाणी का अनुसरण व्यक्ति उसकी अपेक्षा बौने बन गये थे। आज वह पुरातन करना होगा। मेरे धन का क्या है। वह तो मै कमाता । ऋषियो की नाव की पतवार संभालने का गौरव पाने ही रहता है। अगर सोम न बना रहा तो उसके दोनो गगन मे उडा जा रहा था। मोमदेव आज उसकी कृपा पूत्र भी जैन बने विना न रहेगे। कल प्रात काल ऋण का भिखारी था। सोम को सत्य-मनातन अपौरुषेय वाणी चकाने का वचन तो दे गया है किन्तु पायगा कहाँ से। के त्यागमय ग्लानि थी। वह पश्चात्ताप से विह्वल हुआ मेरा नाम भी विष्ण दत्त नही, अगर मैने उसे अपौरुषेय उसके चरणों मे खडा रो रहा था। और वह ? वह अपना वाणी का उपासक न बना दिया। हाथ उठाए ग्राश्वासन अकस्मात् उमका ध्यान भीषण सब विष्णदत्त की वणिक बद्धि की सराहना करते जन सभा जन रव से भग हो गया। सामने मुनिराज खड्गासन में तो या हुए कहने लगे-धन्य है विष्णुदन | धर्म के लिए इतना ध्यानावस्थित खडे है । उसके चारों ओर रत्नोका विशाल बड़ा त्याग क्या कोई कर सका है। एक सोम के बिना स्तूप खड़ा है । मुनिराज के मख के चारों ओर प्रभा का जो हमारे यज्ञ अधूरे है। हमारे धर्म का तो वह प्रावार था। वर्तुल खिच गया है उससे ही मानों वह स्तूप उद्भासित उसे लाकर एक बार वेदो की पवित्र ध्वनि से चारो । है। श्मशान में व्याप्त आलोक भी मानो उस वर्तुल मे दिशामो को गुजित करना ही चाहिए। फूट-फूट कर बह रहा है। चारो ओर विशाल जनभेदिनी और यो विष्णु दत्त के मुह से निकली साधारण सी मनिराज के आगे श्रद्धा का अर्घ लिए खड़ी है। विष्णघटना देवकोटपुर की वीथियो और प्रासादो मे कहानी दत्त अवाक् देग्वता रहा। सारी इन्द्रियां मानों निश्चेतन बन कर गूज गई । सब पाकुल उत्सुकता से धर्म की विक्री हो गई। ज्ञान-तन्तु मानों वर्फ बन गए। उसे जब चैतन्य देखने को लालायित हो उठे। आया तो उसके मन में एक ही प्रश्न चिन्ह था- रत्नों की देवकोटपुर का श्मशान आज जनता के प्राकर्षण का इतनी बड़ी राशि वह कहाँ से पा गया। केन्द्र बन रहा है। शोक के अवसर को छोड़कर नगर मनिराज थे ध्यानस्थ, अचल अडिग मौन । की जनता कभी श्मशान गई हो, ऐसा दावा तो वहाँ किन्तु तभी उसके प्रश्न का उत्तर प्राया ॥ के वृद्ध जन भी नहीं करते। वह स्थान ऐसा है भी नही गुरु गम्भीर निर्घोष दिशामो में व्याप्त हो गया। जिसकी अधीरता से स्पृहा की जाए। किन्तु आज ऐसी मनिराज अपना धर्म बेच रहे थे। किन्तु जैन धर्म की ही स्पृहा वहाँ के जन-जन में जाग उठी है। मुनिराज अनन्त सत्य का मूल्य चुका सके, ऐसी शक्ति किसमें है। सोमशर्मा वहीं मिलेंगे। धर्म की बिक्री वे कैसे करते है, किन्तु अपनी भक्ति की यह ब्याज देकर मैं आज धन्य हो सबको यही देखना है । यही देखने को व्याकुलता है। गई। मुनिराज के चरणो मे इमे निवेदन करके मैं मानों X
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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