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प्राणी भात्र के प्रति एक जैसी उदात्तता, व्यवहार के ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा था कि मब कुछ जानने मुक्ष्म से मूक्ष्म स्तरो पर किसी प्राणी को तकलीफ न देने का अर्थ है अमीमित जानना। तब ज्ञान की कोई सीमा का आग्रह तथा भौतिक सम्पति के प्रति एक मीमा के नही रहती। और यह सर्वज्ञता साधारण तौर पर सम्भव बाद निलिप्तता विभिन्न सिद्धान्तो में मिलेगी। यही नही है। एक कडे नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कारण है कि ममता और अहिमा जैसे शब्दो को जितने अनुशासन से ही यह मर्वज्ञता प्राप्त हो सकती है । लेकिन
क साथ गहरे और विविधता भरे अर्थ भारतीय दर्शन यह कडा अनुशासन ममाज का निषेध नही होना चाहिए। के इतिहास मे मिले है उतने दुनिया के किसी और भाग अवसर अनुशासन के प्रयत्न एकागी हो जाते है। जब या युग में नहीं मिले।
अनुशासन कुछ रूद नियमो मे बधकर चलने का पर्याय समता और हिसा के अर्थ किमी भी समाज के हो जाता है तो यह व्यक्तित्व के विकास की बजाय विवेक के स्तर को बताने के लिए काफी है। भारतीय व्यक्तित्व के अवरोध के अवसर ही पैदा करता है। किसी दर्शन में जिस तरह ममता के आर्थिक, मामाजिक और भी नियम या जीवन पद्धति को व्यक्ति के नैगिक मुखों आध्यात्मिक पहलों पर विचार हा तथा अहिसा के को, प्रेम और करुणा को अपरिमित बढ़ाना चाहिए। सूक्ष्म अर्थों को समझा, बढाया गया वह दर्शन की लोक अगर इसके विपरीत वह इन्हे घटाता है तो उस पद्धति जीवन के प्रति गहरी आस्था को प्रकट करता है। के बोट की जांच होनी चाहिए। जैन प्राचार्य इस बारे
मत्य अपने आप में कोई निरपेक्ष तत्त्व नही में बहुत मचष्ट और प्राग्रहशील थे। बल्कि यह देखने के कोण में निहित है। मटमेद्धान्तिक माधारण व्यक्ति के विकास के लिए जैन प्राचार्यों व्याम्या हमे सम्यक ज्ञान से दूर करती है उसके नज- ने मम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और मम्यक् चरित्र की बात दीक नही ले जाती। दुनिया के इतिहास में धर्म और की थी। माधारण इच्छाम्रो मे ऊपर उठकर बेहतर व्यक्ति दर्शन तब विगडे है जब उन्होंने दप्टि की इम वैज्ञानिकता बनने की इच्छा, बेहतर ममाज की ओर ले जाती है । को छोड दिया है । जैन मीमासा ने इस बात को म्याद्वाद व्यक्ति और समाज के बीच एक साथ उठाने का यह रिश्ता के रूप मे हमारे मामने रखा।
टना नहीं चाहिए। न कोई व्यक्ति समाज के खराब रहते ___ सत्य अपने विभिन्न पहलुओं में निहित है। उसकी हुए बहुत ऊपर उठ मकना हे, न कोई समाज व्यक्तियो के खोज के ममय पूर्वाग्रही को छोडकर सम्यक दृष्टि अपनानी नैतिक, आध्यात्मिक उत्थान के बिना ऊपर उठ चाहिए। जैन प्राचार्यों ने जीवन के बहमखी स्वरूप की सकता है।
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