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३६, वर्ष २७, कि० २
अनेकान्त
नामों का भी उल्लेख किया गया है"।
वती के साथ आठवीं शती में ही वाहन कुक्कुट-सर्प एवं श्वेताम्बर परम्परा के अनामक ग्रन्थ में कुक्कुट-सर्प भुजा मे सर्प को सम्बद्ध किया जा चुका था। पर मारूढ़ चतुर्भुज यक्षी को त्रिलोचना बताया गया है। ग्यारहवी शती की एक अष्टभुज पद्मावती मूर्ति (?) यक्षी शृणि, पाश, वरद, एवं पद्म से युक्त है। विवरण राजस्थान के अलवर जिले में स्थित झलरपट्टन के जैन उत्तर भारतीय श्वेताम्बर परम्परा से मेल खाता है, पर मन्दिर (१०४३) की दक्षिणी वेदिका बंध पर उत्कीर्ण इसमें फल के स्थान पर वरद का उल्लेख किया गया है। है। ललितमुद्रा मे भद्रासन पर विराजमान यक्षी के यक्ष-यक्षी लक्षण में सर्पफण से आच्छादित चतुर्भुजा एव मस्तक पर सप्त सर्पफणों का छत्र प्रदर्शित है। यक्षी की त्रिलोचना यक्षी का वाहन केवल सर्प बताया गया है। भुजाओं मे वरद, वव, पद्मकलिका, कृपाण, खेटक, उत्तर भारतीय श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप यक्षी पाश, पदमकलिका, घण्ट एवं फल प्रदर्शित है । यक्षी के करों में अकुश, फल एव वरद धारण करती है। उत्तर भारतीय पारम्परिक प्रायुधों (पाश एवं अकुश) एवं वाहन परम्परा में प्राप्त पद्म के स्थान पर यहाँ वरद का उल्लेख (कुक्कुट-सर्प) के प्रदर्शन के अभाव के बाद भी केवल किया गया है।
सप्त सपंफणों का चित्रण पद्मावती से पहचान का सम(ख) मत अंकनों में --मूर्त प्रकनों मे अम्बिका एव ।
र्थक है। दूसरी ओर भुजा मे सर्प की अनुपस्थिति एवं चक्रेश्वरी के उपरान्त पदमावती ही सर्वाधिक लोकप्रिय सर्पफणो का मण्डन देवी के महाविद्या वेरोट्या से पहचान रही है। सामान्यतः सभी क्षेत्रों में सर्पफणो से मण्डित के विरुद्ध है। मूर्त अंकनो मे भुजाओं में सर्वदा सर्प से युक्त पद्मावती का वाहन कुक्कुट-सर्प है। यक्षी की भजामों मे वेरोट्या के मस्तक पर कभी सपंफण का प्रदर्शन नही प्राप्त सर्प के साथ ही पाश, अंकुश एवं पदम का चित्रण लोक- होता है । प्रिय रहा है। पद्मावती की प्राचीनतम मूर्तियां प्रोसिया श्वेताम्बर परम्परा का निर्वाह करने वाली बारहवी के महावीर एवं ग्यारसपुर के मालादेवी मन्दिरों से प्राप्त शती की दो चतुर्भज पपावती मूर्तियाँ कुम्भारिया के होती है। इन स्थलों की प्रारम्भिक द्विभुज मूर्तियों के नेमिनाथ मन्दिर की पश्चिमी देवकुलिका की बाह्य भित्ति अतिरिक्त अन्य स्थलों पर यक्षी का चतुर्भुज स्वरूप मे पर उत्कीर्ण है। दोनों मूर्तियों मे ललितमुद्रा में भद्रा. अकन ही विशेष लोकप्रिय रहा है"।
सन पर विराजमान यक्षी के समक्ष उसका वाहन कुकुंटराजस्थाम-गुजरात : स्वतन्त्र मतियाँ-इस क्षेत्र की सर्प उत्कीर्ण है । एक मूर्ति में यक्षी मस्तक पर पांच सर्पसभी मूर्तियों श्वेताम्बर परम्परा की कृतिया हैं। पद्मा- फणो से भी प्राच्छादित है । यक्षी की भुजानों में वरदाक्ष, बती की प्राचीनतम मूर्ति प्रोसिया के महावीर मन्दिर अंकुश, पाश एवं फल प्रदर्शित है। सर्पफण से रहित (८वीं शती) के मुखमण्डप के उत्तरी छज्जे पर उत्कीर्ण है। दूसरी मूर्ति में यक्षी के करो में पद्मकलिका, पाश, कुक्कुट-सर्प पर विराजमान द्विभुज यक्षी की दाहिनी भजा अकुश एवं फल स्थित है। विमलवसही के गढ़मण्डप के में सर्प और बायी में फल स्थित है। स्पष्ट है कि पद्मा- दक्षिणी द्वार पर भी चतुर्भुजा पद्मावती की एक मूर्ति १४. तोतला त्वरिता नित्या त्रिपुरा कामसाधिनी ।
(१२वी शती) उत्कीर्ण है । कुक्कुट-सर्प पर प्रारूढ़ पद्मादिव्या नामानि पदमायास्तथा त्रिपुर भैरवी ॥
वती की भुजाओं मे सनालपद्म, पाश, अंकुश (?) एव -'भैरवपद्मावतीकल्प:'
फल प्रदर्शित है। लूणवसही के गूढमण्डप के दक्षिणी १५. रामचन्द्रन, "तिरुपत्तिकुणरम', पृ. २१०।
प्रवेशद्वार के दहलीज पर चतुर्भुजा पद्मावती सी एक १६. द्विभुज पदमावती की दो अन्य मतियां बरती लघु प्राकृति उत्कीर्ण है। मकरवाहना यक्षी के हाथों मे
शती) देवगढ़ से भी प्राप्त होती है। बहभजी पना. १७. तिवारी मारुतिनन्दन प्रसाद, 'ऐ ब्रीफ सर्वे माफ द वती मूर्तियां केवल देवगढ़, शहडोल, वारभुजी गुफा प्राइकानप्रैफिक डैटा ऐट कुम्भारिया', नार्थ गुजरात, एवं भलरपट्टन से प्राप्त होती है।
सम्बोधि, ख. २, अंक १, अप्रिल १९७३, पृ. १३ ।