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________________ भारतीय जैन कला को कसरि नरेशों का योगदान पुजारी पुरुष वाम पार्श्व में अंजलिबद्ध खड़ा है । यक्षी का ही प्रतिमायें निर्मित की जाती थी। वाहन सिंह उसके पैरों के पीछे है। रायपुर संग्रहालय में कारीतलाई से प्राप्त एक कलचुरि कला में देवियों की सयुक्त प्रतिमायें अत्य स्तभाकृति शिल्पखण्ड पर जो ऊपर क्रमशः सकरा होता धिक अल्पमात्रा में है। कारीतलाई से एक जैन देवालय गया है, सहस्र जिन बिंब उत्कीर्ण है। यह जैन ग्रंथो के चौखट का खण्ड प्राप्त हुआ है, जिसके दाहिने पोर में वर्णित सहस्रकूट जिन चैत्यालय का प्रतीक है। इसके के अर्धभाग मे कोई तीर्थङ्कर पद्मासन मे बैठे है। उनके चारो ओर छोटी-छोटी बहत सी जिन प्रतिमायें अंकित दोनों ओर एक-एक तीर्थङ्कर कायोत्सर्ग आसन मे ध्यानस्थ है। सभी जिन प्रतिमायें पद्मासन मे सहस्र को संख्या में खडे है। धुर छोर पर मकर और पुरुष है। है। इस शिल्पखण्ड मे ७ पक्तिया है। इन पक्तियों मे बायें ओर के अर्वभाग के ऊपर एक विद्याधर अकित प्रतिमायो की अकित प्रतिमानो को सख्या इस प्रकार है- ऊपर की प्रथम पंक्ति है और नीचे पाले में अम्बिका और पद्मावती एक साथ मे प्रत्येक ओर तीन-तीन, दूसरी पवित मे प्रत्येक ओर ललितासन मे बेटी है। दोनो देवियां क्रमश नेमिनाथ पाच-पाच, तीसरी से पाचवी पक्ति में प्रत्येक ओर छ-छ, एवं पार्श्वनाथ की यक्षी है। अम्बिका की गोद मे शिशु छठी पक्ति मे प्रत्येक अोर सात-सात एवं सातवी पक्ति में की और पद्मावती के मस्तक पर सर्प का फण है। प्रत्येक और सात-सात । इन सभी प्रतिमानो के मस्तक के स–श्रुत देवि पीछे पद्माकृति एव तेजोमण्डल है । __ कलचुरि कला मे श्रुत देविया कम मात्रा में उपलब्ध उपरोक्त मतियो के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है हुई है। कारीतलाई से एक मरस्वती की प्रतिमा प्राप्त कि कलचुरि मूतिकारो ने जैन प्रतिमानो के निर्माण मे हुई है जो रायपुर सग्रहालय में है। जैन देवी देवताओं में शास्त्रीय नियमो का पूर्णरूपेण ध्यान रखा है। तत्कालीन ज्ञान की अधिष्ठात्री सरस्वती देवी का विशिष्ट स्थान है। जैन प्रतिमायो मे यद्यपि रूप रम्यता के साथ-साथ सामादिगम्बर सम्प्रदाय क अनुसार इनका वाहन मोर एव । न्य से सामान्य बातो को प्रकट करने का पूरा प्रयत्न वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुमार हम है। कुछ प्राचार्यों ने किया है। किन्तु इस मूर्तिकला पर गुप्तकालीन मूर्तिकला इसे चतुर्भुजा एवं कुछ ने द्विभजा बतलाया है। का प्रभाव अवश्य पटा है। इसके वावजद भी यह निश्चित मरस्वती की यह प्रतिमा अत्यन्त खडितावस्था में रूपेण कहा जा सकता है कि कलचुरि कालीन जैन प्रतिप्राप्त हुई है। देवी का मस्तक और हाथ खडित है पर मानो में कुछ रूदियों का दृढ़ता से पालन किया गया है। तेजोमण्डल पूर्ण एवं स्पष्ट है। ललितासनारूढ देवी के तन पर विभिन्न ग्राभूपण है। चतुर्भजी देवी के दक्षिण गुप्तकाल में कला का जो रूप प्रतिष्ठित हुआ उसका निचले एवं वाम ऊर्ध्व हाथ मे वीणा है। नीचे एक भक्त विकमित रूप हम गुर्जर प्रतिहारों एव चदेलो की कला देवी की पूजा कर रहा है । दोगे पोर विद्याधर है। मे पाते है और कलचुरियों ने इससे प्रेरणा प्राप्त की थी। -अन्य चित्रण कलचरिकालीन जैन प्रतिमानो मे चदेलो की अपेक्षा कलचुरि कला मे उपरोक्त वर्गों के अतिरिक्त अन्य अधिक भाव प्रदर्शन मिलता है, साथ ही साथ अंगो के चित्रण में सर्वतोभद्रिका एवं सहस्र जिनबिब का वर्णन विन्यास में भावाभिव्यक्ति मिलती है। चदेल कला की किया जा सकता है। कारीतलाई से प्राप्त एक शिखरा अपेक्षा इस कला में अधिक सौकमार्य, उत्तम प्रगविन्यास कार शिल्प मे चारो ओर एक-एक तीर्थ और पद्यामन में एक सुन्दर भावो की अभिव्यक्ति के साथ-साथ शरीरगत ध्यानस्थ बैठे है। चार तीर्थङ्करो मे से केवल पार्श्वनाथ । एवं भावगत लक्षण इन प्रतिमानों में उत्कृष्ट है । प्राभही स्पष्ट रूपेण पहिचाने जा सकते है। अन्य तीर्थङ्करो। षणो का प्रयोग चदेलो पर परमारों' से कम मात्रा हमा मे सम्भवतः ऋषभनाथ, नेमिनाथ एव महावीर है क्योकि है। कला में मौलिकता के अधिक दर्शन होते है। सर्वतोभद्रिका प्रतिमानो में चार विशिष्ट तीर्थदूरो की
SR No.538027
Book TitleAnekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1974
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size6 MB
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