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आश्विन, कार्तिक सं० २४६६
अक्टूबर १९४०
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सम्पादक
जुगलकिशोर मुख्तार
अधिष्ठाता वीर सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर)
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प्रकाशक
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वर्ष ३, किरण १२ वार्षिक मूल्य ३ रु०
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संचालकतनसुखराय जैन
कनॉट सर्कस पो० बो० नं० ४८ न्यू देहली ।
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मुद्रक और प्रकाशक- अयोध्याप्रसाद गोयलीय
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विषय-सूची
१: जिनसेन -स्मरण
पृष्ठ ६७७
२: श्रीभद्रबाहु स्वामी - [मु० ले मुनि श्री चतुरविजय अनु० पं० परमानन्द
६७८
३: शिक्षित महिलाओं में अपव्यय - [श्री ललिताकुमारी
දිල
४: प्रथम स्वहित और बादमें परिहित क्यों ? [श्री दौलतराम मित्र
६९०
५. आभार और धन्यवाद, अनेकान्सका आगामी प्रकाशन, मेरी आन्तरिक इच्छा [ सम्पादकीय ६९५
६. पण्डितप्रवर आशाधर [ श्री पं० नाथूराम प्रेमी
६९७
७. ऊँच-नीच गोत्र विषयक चर्चा [ श्री बालमुकुन्द पाटोदी
८. मेंढक के विषय में शंका [श्री दौलतराम मित्र
९. तामिल भाषाका जैन साहित्य [मूळ ले० प्रो० एः चक्रवर्ती अनु०पं० सुमेरचन्द दिवाकर
१० : प्रो० जगदीशचन्द और उनकी समीक्षा [ सम्पादकीय
११: वीर सेवामंदिर- विज्ञप्ति [अधिष्ठाता
१२: गो० कर्मकांडंकी त्रुटि पूर्ति के विचार पर प्रकाश [ पं० परमानन्द शास्त्र
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सरसावा, जि॰ सहारनपुर ।
७१८
७२१
७५५
वरसेवा मन्दिर को सहायता
- हाल में बा० विश्वम्भरदासजी जैन गार्गीय, झाँसी ने; वीरसेवामन्दिर में पधार कर उसके कार्यों पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे १०) रु० की सहायता प्रदान की है, जिसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं ।
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अनेकान्त
सत्य, शान्ति और लोकहितके संदेशका पत्र नीति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास-साहित्य-कला और समाजशास्त्रके प्रौढ़ विचारोंसे परिपूर्ण
सचित्र मासिक
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सम्पादक
जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' (समन्तभद्राश्रम)
सरसावा जि. सहारनपुर
तृतीय वर्ष [कार्तिकसे आश्विन, वीर नि०सं०२४६६]
सचालक
तनसुखराय जैन
व्यवस्थापक . अयोध्याप्रसाद गोयलीय कनाट सर्कस, पो० बोक्स नं० ४८, न्य देहली
वार्षिक मूल्य-)
.
(एक किरणका मूल्य
अक्टूबर सन् १९४० ई०
तीन रुपये
पाँच पाने
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'अनेकान्त' के तृतीय वर्षकी विषय-सूची
are और लेखक
•
अकलंक - स्मरण - [ सम्पादक
- सम्बोधन ( कविता ) – श्री 'युगवीर ' अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह
- [ पं० परमानन्द जैन शास्त्री अनुकरणीय - [ व्यवस्थापक, कि०२ टा० ४,
पृष्ठ
१४१
६०
२५६
कि०५ टा० ४ १७६ २८०
भगवत्
अनुपम क्षमा - [ श्रीमद् राजचन्द्र अनुरोध (कविता) - श्री जैन अन्धी बस्ती ( कविता ) - [ माहिर, कि० ३ टा० ४ अमर मानव - [ श्री सन्तराम बी. ए.
५३३
प्रकाशिका और पं० सदासुखजी
...
६२७
-- [प्रो० हीरालाल एम. ए. ६३५ गो० कर्मकाण्डकी त्रुटि पूर्ति लेखपर विद्वानों के विचार और विशेषसूचना - [ सम्पादक - [ पं० परमानन्द शास्त्री ५१४ छोटे राष्ट्रोंकी युद्धनीति - [ श्री काका कालेलकर ४६५ अहिंसा - श्री० वसन्तकुमार, एम. एस. सी. ३६० जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैहिंसाका प्रतिवाद - [ श्रीदरबारीलाल 'सत्यभक्त' ४३० श्रहिंसाकी कुछ पहेलियाँ - [ श्रीकिशोरीलालमशरू. १६२ हिंसा कुछ पहलू - [ श्री काका कालेलकर ४६१ हिंसातत्त्व - [पं० परमानन्द शास्त्री अहिंसासम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नावली
३१६
विषय और लेखक
क्या स्त्रियाँ संसारकी क्षुद्र रचनाओं में से हैं ?
-- [ ल लिताकुमारी जैन 'प्रभाकर' ५६६ गोत्रविचार—[ जैनहितैषीसे उद्धृत १८६ गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है - [पं० परमानन्दशास्त्री २६७ गो०कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति - [पं० ० परमानन्द शास्त्री५३७ गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति के विचार पर प्रकाश - [पं० परमानन्द शास्त्री ७७५
गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति पर विचार
...६७७
[ श्री० ला• हरदयाल एम. ए. ३६० जिनसेन - स्मरण - [ सम्पादक जीवन-साध ( कविता ) - [पं० भवानीदत्त शर्मा २८५ जैन और बौद्ध निर्वाण में अन्तर
११६
-- [ प्रो० जगदीशचन्द्र एम. ए. २६ १ -- [विजयसिंह नाहर श्रादि ६०५ जैनदर्शन में मुक्ति साधना -- -- [ श्रीगरचन्द नाहटा ६४० ग्रह ( कविता ) - - ब्र० प्रेमसागर 'पंचरत्न' ६४४ जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार-:श्रात्मिक क्रान्ति - [चा० ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. २८१ श्रात्मोद्धार - विचार - [ श्री० अमृतलाल 'चंचल' ५७३ अालोचन – [ श्री० 'युगवीर' आशा ( कविता ) – [ श्री रघुवीरशरण, एम.ए. ६५६ उच्चकुल और उच्च जाति (महात्मा बुद्ध के उदगार) [ श्री. बी. एल. जैन क्रि०१० टा०३ उपासनाका अभिनय - [पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ ४२६ उमास्वाति स्मरण – [ सम्पादक ३७७ उस दिन ( कहानी ) - - [ श्री भगवत् जैन विश्ववंद्य विभूतिका धुँधला चित्रण
२१७
-- [श्री देवेन्द्र जैन
ऊँचनीच गोत्र-विषयक चर्चा -- [ श्री बालमुकन्द
6.60
पाटोदी १६५, ७०७ एक महान् साहित्यसेवीका वियोग--[सम्पादक २६५
ठ
[ श्री महेन्द्रकुमार शास्त्री ३३ जैनधर्मकी विशेषता - [ श्री सूरजभान वकील २२१ जैनधर्म-परिचय गीता-जैसा हो - [ श्रीदौलतराम 'मित्र'६५७ जैनलक्षणावली -- [ सम्पादक जैन समाज के लिये अनुकरणीय आदर्श
१२६
- [ श्रीगर चन्द नाहटा २६३ जैनागमों में समयगणना-- [ श्रीनगरचन्द नाहटा ४६४ जैनियों की दृष्टि में बिहार -- [पं० के. भुजबली शास्त्री ५२१ ज्ञातवशका रुपान्तर जाटवंश
-- [ मुनि श्री कवीन्द्रसागरजी २३७
तत्वार्थधिगम भाष्य और कलंक
-- [प्रो० जगदीशचन्द्र जैन एम. ए.३०४, ६२३, तत्वार्थाधिगमभाष्य और कलंक पर 'सम्पादकीय विचारणा'--[ सम्पादक
... ३०७
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१२१
एम. ए.
विषय और लेखक तत्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति -- [ सम्पादक तामिल भाषाका जैनसाहित्य - [प्रां० ए० चक्रवर्ती ४८७,५६७,७२१ दर्शनों की आस्तिकता और नास्तिकताका आधार -- [पं० ताराचन्द जैन दर्शनशास्त्रा ३५२ दर्शनों की स्थूलरूपरेखा --- [ पं० ताराचंद जैन दीपक के प्रति ( कविता ) -- ( श्री रामकुमार स्नातक '५७२ देवनन्दि-पूज्यपाद - स्मरण - [ सम्पादक द्रव्यमन - [ प० इन्द्रश्चंद्र शास्त्री
८२
५५७
२५०
४८२
धर्मका मूल दुःख में छुपा है - [ श्री० जयभगवान वकील धर्म बहुत दुर्लभ है - [ श्री० जयभगवान वकील ५४५ धर्माचरण में सुधार - [ श्री बा० सूरजभान वकील ३८५ धवलादिश्रुत-परिचय - [ सम्पादक ... ३, २०७ नर कंकाल ( कविता ) [ श्री भगवत् जैन नवयुवकोंको स्वामी विवेकानन्द के उपदेश
४७
[ डा. बी. एल. जैन पी. एच. डी. ५६६ नृपतुंगका मतविचार [श्री एम. गोविन्द पै ५७८,६४५ परम उपास्य ( कविता ) श्री 'युगवीर' कि०१ टा०३ परमाणु ( कविता ) [पं० चैनसुखदाम, परवार जाति के इतिहास पर कुछ प्रकाश
४४०
पृष्ठ
...
[पं० नाथूराम प्रेमी ४४१ परिग्रहपरिमाण त के दासी दास गुलाम थे [ पं० नाथूराम प्रेमी ५२६ पंडितप्रवर श्राशावर [ पं० नाथूरामजी प्रेमी ६६६,६६७ पात्र केसरी स्मरण [ सम्पादक पुरुषार्थ ( कविता ) [ श्री मैथिलीशरण गुप्त २०६ प्रथम स्वहित और बाद में परहित क्यों ?
४८१
[ श्री दौलतराम 'मित्र' ६६० प्रभाचन्द्र का तत्वार्थसूत्र [ सम्पादक ३६३, ४३३ प्रभाचन्द्र-स्मरण [ सम्पादक.. ३१७ प्रश्न ( कविता ) श्री 'रत्नेश' विशारद ४१० प्राकृत पंचसंग्रहका रचनाकाल
[ प्रो० हीरालाल जैन एम. ए. ४०६
विषय और लेखक
पृष्ठ
प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा [ सम्पादक
६६६,७२
फूलसे ( कविता ) [ श्रीघासीराम जैन कि०८-६ टा१ ३१८ बढे चलो -- [ बा० माईदयाल जैन बी. ए. बंगीय विद्वानोंकी जैन साहित्य में प्रगति - [ श्रीनगरचंद नाहटा १४६ ५१०
बावलीघास -- [ श्री हरिशंकर शर्मा बुद्धि हत्याका कारखाना -- [ 'गृहस्थ' से उद्धृत १६४ बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में दीक्षा [प्रो० जगदीशचंद्र एम.ए. १४३ भगवान महावीर और उनका उपदेश --
[ श्री बा० सूरजभानजी वकील ३६६ भगवान महावीर के शासन में गोत्रकर्म-[ श्री कामताप्रसाद २८ भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान - [ श्री हरिसत्य भट्टाचार्य ४६७ ५३५ भूल स्वीकार - [ श्री सन्तराम बी. ए..... मज़दूरोंसे राजनीतिज्ञ -- [ श्री माईदयाल बी. ए. ८० मनुष्य जातिके महान् उद्धारक
-- [ श्री. बी. एल, सर्राफ ३२५ मनुष्यों में ऊँचता-नीचता क्यों ? -- [ श्री वंशीधर व्याकरणाचार्य ५१ महावीर - गीत ( कविता ) - [ श्री शान्तिस्वरूप जैन 'कुसुम' ३८६ मातृत्व ( कहानी ) - [ श्री 'भगवत्' जैन... मानवधर्म ( कविता ) [ श्री 'युगवीर'... मीन संवाद ( कविता ) - [ श्री 'युगवीर ... मेंडक के विषय में एक शंका - [ श्रीदौलतराममित्र ७१८ मोक्षसुख - [ श्रीमद् राजचन्द्र
७२ ३०३ ४०
४०७ ४६८ ५६
यति समाज - [ श्री अगरचन्द नाहटा यापनीय साहित्य की खोज [ श्री नाथूराम प्रेमी राग - [ श्रीमद् राजचन्द्र वास्तविक महत्ता - [ श्रीमद् राजचन्द्र ... विद्यानन्दकृत सत्यशासनपरीक्षा
१५६
२३६
[पं० महेंद्रकुमारजी शास्त्री ६६० विद्यानन्द स्मरण [ सम्पादक २ ६६
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विषय और लेखक पृष्ठ , विषय और लेखक पष्ठ विधवा-सम्बोधन-[श्री. 'युगवीर' ..... १४७ श्रीपाल चरित्र साहित्य के सम्बन्धमं शेष ज्ञातव्यविनयसे तत्त्वकी सिद्धि है-[ श्रीमद् राजचन्द्र ११८
[श्री अगर चन्द नाहटा ४२७ विविध प्रश्न-[ श्रीमद् राजचन्द्र "३२,७६,८१,८६ श्रीभद्रबाहु स्वामी-[ मुनि श्री चतुरविजय ६७८ विवेकका अर्थ-[ श्रीमद् राजचन्द्र... १२० - श्रीवीर स्मरण-[ सम्पादक वीतराग-प्रतिमाअोंकी अजीव प्रतिष्ठा विधि-... श्रीशुभचन्द्राचार्यका समय और ज्ञानार्णवकी एक प्राचीन [श्री सूरजभान वकील १०५ प्रति- [पं० श्री नाथुराम 'प्रेमी"
२७० वीरका जीवन-मार्ग-[श्री जयभगवान जैन वकील ४१४ श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दिगम्बर पंचसंग्रहवीरके दिव्य उपदेशकी एक झलक
. [५० परमानन्द जैन शास्त्री ३७८ . [श्री जयभगवान वकील ६५ श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि पं रतनलाल १७७ वीर नतुश्रा (कहानी)-[पं०मूलचन्द जी वत्सल' ३३६ सत्य अनेकान्तात्मक है-[ श्री जयभगवान वकील १७ वीर प्रभुकी वाणी (कविता)-[श्री 'युगवीर कि०१टा०३ सफल जन्म ( कविता )-[श्रो भगवत् जैन, ४४ वीरशासनकी पुण्य बेला-[ श्रीसुमेरचन्द दिवाकर ४८ सफेद पत्थर अथवा लालहृदय-['दीपक' से उद्घत ५७७ वीरशासनकी विशेषता-[श्रीश्रगरचन्द नाहटा ४१ सम्पादकीय (टिप्पणियां).. . ६६५ वीरशासन-जयन्ती-उत्सव-[ पं० परमानन्द शास्त्री सम्बोधन (कविता)-[ब्र० प्रेमसागर 'पंचरस्न' २८३
कि०८-६ टा०३ सरल योगाभ्यास-[श्री हेमचन्द मोदी ३४१ वीरशासन दिवस और हमारा उत्तरदायित्व
संसार में सुखको वृद्धि कैसे हो ?-[श्री दौलतराम ३६२ [श्री दशरथलाल जैन ६१ सामायिक-विचार-[ श्रीमद् राजचन्द्र कि० ४ टा० ३ वीरशासनमें स्त्रियोंका स्थान-[ श्री इन्दु कुमारी साहित्य-परिचय और समालोचना -[सम्पादक ६८, हिन्दीरत्न' ४५.
२००, ३१२, ३७४ कि० ६ टा० ३. वीरशासनाभिनन्दन-[ सम्पादक ... २ साहित्य-पम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैन दर्शन'वीरशासनांक' पर .. सम्मतियाँ-२३५,२६२,२६६
[पं० रतनलाल संघवी ५६, ४११, वीर-श्रद्धाजलि-[श्री रघुवीरशरण एम. ए. ४०८ सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और · राजवार्तिकवीरसेन-स्मरण-[सम्पादक...... ६२१
[पं० परमानन्द जैन शास्त्री ६२६ वीरसेवामन्दिरको सहायता-अधिष्ठाता कि०६टा० ४, सिद्धसेन-स्मरण-- सम्पादक .......
२०५ . कि०८-६ टा० ४ कि. १२ टा०२ सुधार संसू नन-[सम्पादक'.....
२१६ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमालाको सहायता-अधिष्ठाता सुभाषित--..."७६, कि० १टा०४, कि० ४ टा० ४
कि०१टा० ३ स्मतिमें रखने योग्य महावाक्य-[श्रीमद् राज चन्द्र २७ वीरसेवामन्दिर-विज्ञप्ति-अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' ७५५ हम और हमारा यह सारा संसार-- वीर-स्तवन-[श्री बसन्तीलाल न्यायतीर्थ कि०६टा०१
बा० सूरजभान वकील ५५६ वीरोंकी अहिंसाका प्रयोग-श्री महात्मा गांधी ६०७ हरिभद्रसरि-- [पं० रतनलाल संघवी २८६,३२६ शिकारी (कहानी)-[श्री 'भगवत्' जैन २७७ हिन्दी साहित्य सम्मेलन और जैन दर्शन-- शिक्षा ( कविता )-[ब्र प्रेमसागर 'पंचरत्न' ६५६ [पं० सुमेरचन्द जैन, न्यायतीर्थ २८४ शिक्षित महिलाओंका अपव्यय-[श्री ललिता कुमारी होलीका त्यौहार--[सम्पादक... ... ३५०
जैन 'प्रभाकर' ६८५ होली है ! ( कविता )-[ श्री 'युगवीर'... ३५६ श्री कुन्दकुन्द-स्मरण--[सम्पादक...... ४२५ होली होली है ! (कविता)-[श्री 'युगवीर'... ३५१
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वर्ष ३
ॐ अर्हम्
अनेकान
नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
सम्पादन-स्थान – वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि० सहारनपुर प्रकाशन-स्थान—फनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यू देहली आश्विना - कार्तिक वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं ०१६६७
जिनसेन- स्मरण
जिनसेनमुनेस्तस्य माहात्म्यं केन वर्यते । शलाकापुरुषाः सर्वे यद्वचोवशवर्तिनः ॥
किरण १२
- पार्श्वनाथचरिते, वादिराज सूरिः
सम्पूर्ण शलाकापुरुष जिनके वचनके वशवर्ती हैं- जिन्होंने महापुराण लिखकर ६३ शलाका पुरुषोंको ( उनके जीवन वृतान्तको ) अपने अधीन किया है- - उन श्री जिनसेनाचार्यका माहात्म्य कौन वर्णन कर सकता है ? कोई भी नहीं । "
याऽमिताऽभ्युदये पार्श्व जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्तिसंकीर्त्तयत्यसौ ।
- हरिवंशपुराणे, जिनसेनः
'पाश्वभ्युदय' काव्य में पार्श्वजिनेन्द्रकी जो अपूर्व गुणसंस्तुति है, वह श्री जिनसेन स्वामीकी कीर्तिका आज भी संकीर्तन -खला-गान कर रही है ।
यदि सकलकवीन्द्र - प्रोक्तसूक्त-प्रचार श्रवण-सरसचेतास्तत्त्वमेव सखे ! स्याः । कविवर जिनसेनाचार्यं वक्तारविन्द - प्रणिगदित-पुराणा कर्णनाभ्यर्ण कर्णः ।
-- कश्चिदज्ञातकविः
हे मित्र ! यदि तुम सम्पूर्ण कवि श्रेष्ठों की सूक्तियोंके प्रचारको सुन कर अपना हृदय सरस बनाना चाहते हो, तो कविवर जिनसेनाचार्य के मुख कमल द्वारा कथित पुराणको सुननेके लिये कानोंको समीप लाभो —'आदिपुराण' को ध्यानपूर्वक सुनो।
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श्रीभद्रबाहु स्वामी
[लेखक-मुनि श्री चतुरविजयजी ] - (अनुवादक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
तत्त्वार्थरलौघविलोकनार्थ सिद्धान्तसौधान्तरहस्तदीपाः, दोनोंकी उलझी हुई जीवन घटनाओंके सुलझाने के नियुक्तयो येन कृताःकृतार्थस्तनोतु भद्राणि स भद्रबाहु : लिये ही मेरा यह प्रयास है।
-मुनिरत्न, अममचरित्र आज तक उपलब्ध जैनवाङ्मयकी ओर दृष्टि श्री भद्रबाहुस्वामी समर्थ तत्ववेत्ता हो गये दौड़ानेसे किसी भी स्थल पर दूसरे भद्रबाहुका हैं। इनकी साहित्य-सेवा जैन समाजको गौरवास्पद उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। पूर्वकालीन बनाती है, जैनागमोंको अलंकृत करने वाली उनकी - रची हुई निक्तियोंको देखकर विद्वजन मंत्रमुग्ध यह कथन श्वेताम्बर जैन वाङ्मयकी दृष्टिसे हो जाते हैं। ऐसे महापुरुषके जीवन-सम्बन्धमें जान पड़ता है; क्योंकि दिगम्बर जैन वाङ्मयमें बरादो शब्द लिखनेका आज सुअवसर प्राप्त हुआ,
बर दो भद्रबाहुओंका उल्लेख मिलता है। और वह भी आसन्नोपकारी श्रीविजयानन्द सूरी
-अनुवादक
* वंदामि भद्दबाहुँ पाईणं चरमसयलसुयनाणि । श्वर जैसे पुनीत महात्माके शताब्दीस्मारक ग्रन्थ के लिये, यह बात मुझे अत्यन्त आनन्द प्रदान सुत्तस्स कारगमिसि दसासु कप्पे य ववहारे ॥ करती है।
दशाभुतस्कंधचूर्णि पी० ४, १०० श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, सभी कोई श्री- पंचकल्पभाष्य-संघदासगणि, पी०४, १०३ भद्रबाहुको मानते हैं, और दोनों ही पक्षके अनेक अनुयोगदायिनः सुधर्मस्वामिप्रभृतयो यावदस्य विद्वानों द्वारा थोड़े-बहुत फेरफारके साथ लिखा भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चर्तुदशपर्व• हुआ इनका जीवनचरित्र संख्याबद्ध प्रन्थों में देखने धरस्याचार्यस्तान् सर्वानिति । में आता है और जैनसमाजका अधिकांश भाग
__-शीलांकाचार्य, आचारांगवृत्ति उससे परिचित होने के कारण उसको यहाँ बतलाने
__ अरहते वंदित्ता च उदसपुव्वी तहेव दसपुव्वी। की आवश्यकता नहीं। परन्तु भद्रबाहु नामके दो
एक्कारअंगसुत्तधारए सव्वसाहू य ॥ व्यक्ति भिन्न भिन्न समयोंमें हो गये हैं, उन
ओघनियुक्ति गा०१ इसी 'जन्म शताब्दीस्मारक ग्रन्थ' में यह लेख इस गाथामें दशपर्वी वगैरहको नमस्कार गुजराती भाषामें मुद्रित हुआ है,और उसी परसे उसका करनेसे नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वी नहीं हैं, ऐसा यह अनुवाद किया गया है। -अनुवादक मालूम होता है और इसीलिये टीकाकार शंका उठा
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वर्ष ३, किरण १२]
श्रीभद्रबाहु स्वामी
प्रन्थकार तो एक ही व्यक्ति मानकर हर एक आद्य भद्रबाहु श्री यशोभद्रसूरिके शिष्य थे, प्रसंगको पंचम श्रुतकेवली के नाम पर ही बतलाते हैं चतुर्दशपूर्वधर (पंचमश्रुतकेवली) थे,मौर्यवंशीयां परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिमे देखते हुए और चन्द्रगुप्तके समयमें हुए थे, और उन्होंने वीर अनेक इतर साधनों द्वारा सूक्ष्मावलोकन करते निर्वाण दिवससे १७० वें वर्ष में देवलोक प्राप्त हुए आधुनिक विद्वानोंको भद्रबाहु नामके दो भिन्न किया था। इनके जीवन विषयमें मेरी धारणाके व्यक्ति मालूम होते हैं ।
अनुसार प्राचीनसे प्राचीन उल्लेख परिशिष्टपर्वमें
दृष्टिगोचर होता है । उसमें श्री स्थूलभद्रको पूर्वकी ता है कि-'भद्रबाहुस्वामिनश्चर्तुदशपर्वधरत्वाद्दश- वाचना देनेकी हक़ीक़त है परन्तु नियुक्ति वगैरह पर्वधरादीना न्यनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति? ग्रन्थों तथा वराहमिहरक सम्बन्धमें नाम निशान परन्तु उस समय ऐतिहासिक साधनोंकी दुर्लभता भी नहीं हैं । यदि निर्य क्तियाँ वगैरह उनकी कृति होने के कारण पारंपरिक प्रघोष के अनुसार नियुक्ति होती तो समर्थ विद्वान् श्रीहेमचन्द्राचार्य उनका कारको चतुर्दशपूर्व धरत्वकी कल्पना कर यथामति
उल्लेख किये बिना नहीं रहते। न
. .. शंकाका समाधान करता है। वह अप्रस्तुत होनेसे ।
__ दूसरे भद्रबाहु विक्रमकी छठी शताब्दीमें हो यहाँ नहीं लिखा जाता। दशवैकालिकस्य च नियुक्तिश्चतर्दशपर्व विदा भद्रबाह गये हैं, वे जातिमें ब्राह्मण थे, प्रसिद्ध ज्योतिषी स्वामिना कृता।
वराहमिहर इनका भाई था; परन्तु यह नहीं कहा मलयगिरी, पिण्डनिर्याक्तिवृत्ति जा सकता कि वे किसके शिष्य थे । नियुक्तियां अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधुवर्गस्य आदि सर्वकृतियाँ इनके बुद्धिवैभवमेंसे उत्पन्न नित्योपयोगितांच विज्ञाय चतुर्दशपर्वधरेण श्रीभद्रबाहु हुई हैं । स्वामिना तद्व्याख्यानरूपा 'आभिनिबोहियनाणं प्राचीन मान्यताके अनुसार नियुक्तिकारको सुअनाणं चेव ओहिनाणं च, इत्यादि प्रसिद्धग्रंथरूपा चतुर्दशपूर्वधर कहा जाता है, परन्तु आवश्यक नियुक्ति।
+ चन्द्रगुप्त का राज्यारोहणकाल वीर-निर्वाणसे -मलधारी हेमचन्द्रमूरि-विशेषावश्यकवृ०
१५५ वें वर्ष में है । देखो, परिशिष्टपर्व सर्ग ८ वे का + देखो इतिहासप्रेमी मुनि कल्याणविजयजी द्वारा
निम्नलिखित श्लोक-- लिखी हुई 'वीर निर्वाण-संवत् और जैन कालगणना'
एवं च श्रीमहावीरमुक्तेर्वर्षशते गते । नामकी हिन्दी पुस्तक, तथा न्या० व्या० तीर्थ पं० बेचर
___पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः॥ दास जीवराज-द्वारा संशोधित पूर्णचन्द्राचार्य-विरचित उपसग्गहरं स्तोत्र लघुवत्ति-जिनसूरमुनिरचित प्रियं- वीरमोक्षाद्वर्षशते सप्त्यग्रे गते सति । करनृपकथा समेत में की प्रस्तावना (शारदाविजय- भद्रबाहुरपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ॥ ग्रन्थमाला, भावनगर द्वारा प्रकाशित) ।
परि० स०९, श्लोक ११२
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६८०
अनेकान्त
नियुक्तिको २३० वीं गाथा में श्री वज्रस्वामीका# और २३२ वीं गाथा में अनुयोगपृथक्करण सम्बन्ध में कारक्षितका उल्लेख आता है ।
इसके बाद निन्हवपरक बन करते हुए महावीर निर्वाण ४०९ वर्ष पीछे बोटिक ( दिगम्बर) मतकी उत्पत्ति बतलाई है। वह इस प्रकार हैः
बहुरय पएस अन्वत्त सामुच्छा दुग तिगे अबद्धियाँ चैव एएसि निग्गमणं वोच्छं हाणुपुत्र्वी ॥ २३५ ॥ बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुताओ । अव्वत्तासाढ़ाओ सामुच्छे अस्समिताओ ॥ २३६॥ गंगा दोकिरिया छल्लुग्ग तेरासियाण उपत्ती | थेराय गोट्ठमाहिल पुट्ठमबद्धं परूविति ॥ २३७ ॥ सावत्थी उसभपुरं सेयंबिया मिहिल उल्लुग्गतीरं । पुरिमंतर जिया दसरह वीरपुर च नगराई || २३८ ॥
[प्राश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६३
चौदस सोलसवासा चोद्दसवी सुत्तरा य दुणिसया । अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया य चोआला ॥ २३६ ॥ पंचे सया चुलसीओ छच्चेव सया नवुत्तरा हुंति । नागुप्पत्तीए दुवे उप्पन्ना निव्वए सेसा ॥ २४० ॥ - गाथा इत्यादि
अर्थ - ( १ ) भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न होने से १४ वर्ष पीछे श्रावस्ती नगरी में जमाली । आचार्य में बहुरत निन्हत हुआ । ( २ ) भगवान की ज्ञानोत्पत्ति के पश्चात् १६ वें वर्ष में ऋषभपुर नगर में तिष्यगुप्त आचार्य से छेल्ला प्रदेशमें जीवत्व मानने वाला निन्हव हुआ । ( ३ ) भगवान के निर्वाण के २१४ वर्ष पीछे श्वेताम्बिका नगरी में आषाढाचार्य से अव्यक्तवादी निन्हव हुआ । ( ४ ) भगवान के निर्वाण के २२० वर्ष पीछे मिथिला नगरी में अश्वमित्राचार्य से सामुच्छेदिक निन्हव हुआ । ( ५ ) निर्वाण से २२ वर्ष में उल्लूका के तट पर गंगाचार्य से द्विक्रिय निन्हव हुआ । ( ६ ) निर्वाण मे ५४४ वर्ष पीछे अंतरंजिका नगरी में षडुल्ल काचार्य से त्रैराशिक निन्हव हुआ । ( ७ ) निर्वाण ने ५८४ वर्ष पीछे दशपुर नगर में स्पृष्टकर्म के प्ररूपक स्थविर गोष्ठामाहिल से अवद्धिक निन्हव हुआ । ( ८ ) और आठवा बोटिक ( दिगम्बर) निन्हव रथवीरपुर नगर में भगवान के निर्वाणके ६०९ वर्ष पीछे हुमा । इस प्रकार भगवानके केवलज्ञान उत्पन्न होने के पीछे दो, और निर्वाण के पीछे छह ऐसे आठ निन्हव हुए ।
इससे भी नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी के पंचमश्रुतकेवली मे भिन्न होनेका निश्चय होता है, क्योंकि पूर्व समय में हुआ व्यक्ति भविष्य में होने वाले के वास्ते 'अमुक वर्ष में अमुक हुआ' ऐसा प्रयोग नहीं
( विक्रम सं० २६) ५०४ ( वि० सं०
* वीर निर्वाण संवत् ४६६ वज्रका जन्म, वीर नि० [सं० ३४ ) में दीक्षा, वी० निर्वाण सं० ५४८ ( वि० सं० ७८) में युगप्रधानपद और वी० नि० स० ५८४ ( वि० सं० ११४ में स्वर्गवास हुआ था ।
+ वीर नि० सं० ५२२ (वि० सं०५२) में जन्म, वीर नि० सं० ५४४ (वि० सं० ७४ ) में दीक्षा, वीर नि० सं० ५८४ – ( वि० सं० ११४ में युग प्रधानपद और वी० नि० सं० ५६७ ( वि० सं १२७ ) में स्वर्गस्थ हुए थे । माथुरी वाचनानुसार वी० नि० सं० ५८४ में स्वर्गवास माना जाता है ।
* आगमोदय समिति द्वारा मलयगिरिकृत टीकासहित मुद्रित प्रतिमें ये गाथाएँ क्रमशः ७६६, ७७३ नं० पर पाई जाती । ——अनुवादक
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वर्ष ३, किरण १२]
श्रीभद्रबाहु स्वामी
६८.
करता, इसलिये नियुक्तिकार भद्रबाहुका समय वीर उपलब्ध होते हैं। उनमें अन्तका ग्रन्थ खगोल निर्वाणसं १७० वर्ष बाद नहीं हो सकता। शास्त्रका व्यावहारिक ज्ञान कराने वाला 'पंचसिद्धाश्री संघतिलक सूरिकृत सम्यक्त्वमप्ततिका
. न्तिका' है। उसमें उसका रचनाकाल शक संवत
४२७ बताया है। वृत्तिक, श्री जिनप्रभसूरिकृत 'उपसर्गहरें' स्तोत्र
देखो, उमकी निम्न लिखित आर्यावृत्ति तथा मेरुतुंगाचार्यकृत प्रबन्ध चिन्तामणि वगैरह श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें भद्रबाहुका प्रखर
सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । ' ज्योतिषी वराहमिहरके भाईके तौर पर वर्णन किया
अर्धस्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥ है । वराहमिहरके रचे हुए चार ग्रन्थ । इस समय
वराहमिहरका समय ईस्वी सन्की छठी
शताब्दी है (५०५ से ५८५ तक)। इससे भद्रबाहुका * तत्थ य चउदस विज्जाठाणपारगो छक्कम्म
समय भी छठी शताब्दी निर्विवाद सिद्ध होता है । मम्मविऊ ‘पयईए' भद्दों 'भद्दबाहू' नाम 'माहणो
___ श्री भद्रबाहु स्वामी नियुक्ति वगैरह किसी भी हुत्था । तस्स य परमपिम्म सरिसीरुहमिहरो वराह- .
ग्रन्थमें अपना रचनाकाल नहीं बताते हैं; मात्र मिहरो नाम सहोयरो।
कल्प सूत्रमें-संघति० सम्यक्त्व सप्त० वराहमिहरका जन्म उजैनके आस पास हश्रा था। , समएस्स भगवश्री महावीरस्स जाव सवदक्खइसने गणितका काम ई० सन् ५०५ में करना प्रारम्भ प्पहीएस्स नववाससयाइं विइकताइं, दसमस्स य किया था और इसके एक टीकाकारके कथनानुसार
वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ । उसका ई० स०.५८७ में मरण हुअा था।
* वायणंतरे पुण अयं ते एउए संवच्छरे काले -प्रो० ए० मेक्डानल्ड-संस्कृत साहित्यका इतिहास ५६४ गच्छइ। (सूत्र १४८)
। बृहत्संहिता ( जो १८६४-१८६५ की * इस वाक्यका अर्थ कल्पसूत्रके टीकाकार भिन्न Bibiothica Indiea में कर्नने प्रसिद्ध की है भिन्न रीतिसे उत्पन्न करते हैं । परन्तु ठीक हकीकत तो और Journal of Asiatic Society की ऐसी मालूम होती है कि उस समय विक्रम सम्वत् ५१० चौथी पुस्तकमें इसका अनुवाद हुआ है। इसी चालू होगा, और उस विक्रमके राज्यारोहण दिवससे तथा ग्रन्थकी भट्टोत्पलनी टीका के साथकी नई श्रावृत्ति १८९५. सम्वत्सरकी प्रवृत्तिदिवससे गणना सम्बन्धी मत भेद ६७ में एस० द्विवेदीने बनारसमें प्रसिद्ध की है)। होगा । श्री महावीर प्रभुके निर्वाणसे ४७० वर्ष में विक्रम होराशास्त्र ( जिसका मद्रासके सी० आयरने १८८५ राजा गद्दी पर बैठा, उसके बाद १३ में वर्ष में सम्वत्सर में अनुवाद किया है )। लघुजातक ( जिसके थोड़े प्रवर्तीया था, इसलिये विक्रम सम्वत्में ४७० जोड़नेसे वीर भागका वेबर और जेकोबीने १८७२ में भाषान्तर किया सं०९८० अाता है और ४८३ जोड़नेसे ६६३ वर्ष श्राता है) और पंचसिद्धान्तिकाको बनारसमें थीवो और एस. है। इस बात के समर्थन के लिए देखो, कालिकाचार्यकी द्विवेदीने १८८६ में प्रसिद्ध किया है और उसके मोटे परम्परामें होने वाले श्रीभावदेवसूरि द्वारा रचित कालिभाग का अनुवाद भी किया है।
काचार्यको कथाको निम्नलिखित गाथाएं- .
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
इस प्रकार उल्लेख देखनेमें आता है, यह बात लघुबन्धुका विशेषणा देता है। खास ध्यानमें रखने योग्य है । हम इस ग्रन्थको इससे उम्र सम्बन्धी शंका फिर विशेष मजबूत यदि इनकी प्राथमिक कृति के रूपमें मानलें, तो हो जाती है। आचार्यश्रीने अपनी १५ वर्ष लगभगकी किशोर वीर निर्वाण संवत ९८० ( वाचनांतर ९९३) अवस्थामें ग्रन्थरचना की शुरुआत की होगी ओर- वर्ष में देवगिणि* क्षमा श्रमणने पुस्तक लिखवाने तेहि नाणबलेण बराहमिहरवंतरस्स दुचिट्ठ नाऊण- की प्रवृत्ति प्रारम्भ की, उस समय उसने यह सिरिपास सामिणो 'उवसग्गहर'थवणं काऊणसंघकए स्थविरावली (पट्टावली) बनाई है, ऐसा भी मानने पेसियं
-संघति०-सम्यक्त्वस० में आता है। परन्तु यह मान्यता दोष रहित नहीं इस वर्णनकी तरफ लक्ष्य खींचनेसे वराह- है। दूसरेके किये हुए ग्रन्थमें दूसरेके प्रकरण वगैरह मिहरके अवसान ( ई० सं० ५८५) के चार पाँच को जोड़ने में उस ग्रन्थकी महत्ताको हानि पहुँचती वर्ष बाद तक आचार्यश्री जीवित रहे होंगे, ऐमा है, ऐसा कार्य शिष्ट पुरुष कभी भी नहीं करते। मानिए तो इनकी कुल आयु १२५ वर्षसे ऊपर और थोड़े समय के लिये हम स्थविरावलिको देवर्द्धिगणि१५०के बीचकी निर्धारित की जा सकती है। परन्तु क्षमाश्रमण कृत मान भी लें तो फिर उसके अन्तमें इतनी लम्बी आयके लिये शंकाको ठीक स्थान दी हुईमिलता है।
सुत्तत्त्थरयणभरिये खमदममद्दवगुणेहि संपुगणे । वराहमिहरने ई० स०५०५ से गणितका काम
देवड्डि खमासमणे कासवगुते पणिवयामि ॥ . करना प्रारम्भ किया और वह ई० स० ५८७ तक इस गाथाकी क्या दशा होवे ? कोई भी जीवित था, उसने लगभग १५-२० वर्षकी अवस्था विद्वान स्वयं अपने लिये ऐसे शब्दोंको क्या उच्चारण में यदि कार्य प्रारम्भ किया हो तो उसकी उम्र भी करेगा ? इसलिये यह गाथा जरूर अन्यकृत १०० वषसे ऊपरकी कल्पित की जा सकती है। माननी पड़गा। श्री भद्रबाहु उससे बीस तीस वर्ष बड़े हों तो नीट
" श्रीभद्रबाहुनामानं जैनाचार्य कनीयांस सोदरम् । उपर्युक्त आयुका मेल बराबर बैठ जाता है । परन्तु
-प्रबन्धचि० सर्ग ५ प्रबन्धचिन्तामणिकार ( मेरुतुगाचार्य ) इनको
* एतत्सूत्रं श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः प्रक्षिप्तविक्कमरज्जरम्भा पुरओ सिरिवीरनिव्वुइ भणिया । मिति क्वचित् पर्यषणाकल्पाव चूर्णी, तदभिमात्रेण सुन्नमुणिवेद्य(४७०) जुत्तं विक्कमकालाउ जिणकानें श्रीवीरनिर्वाणात नवशताशीतिवर्षातिक्रमे सिद्धान्तं विक्कमरज्जाणंतर तेरसबासेसु (१३ ) वच्छरपक्ती। पुस्तके न्यसद्भिः श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः श्रीपर्यषसिरिवीरमुक्खो सा चउसयतेसीइं (४८३)वासा र णकल्पस्यापि वाचना पुस्तके न्यस्ता तदानीं पुस्तक जिणमुक्खा चउवरिसे(४)परामरो दूसम उय सजाओ लिखनकालज्ञापनायैतत् सूत्रं लिखितमिति । अरया चउसयगुणसी (४७६) वासेहि विक्कम वासं ॥ -कल्पदीपिका (सं० १६७७ ) जयविजय
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-
वष३, किरण१२]
श्रीभद्रबाहुस्वामी पूरा ग्रन्थ कोई रचे (बनावे ) और बीचमें ऋषिकाषित नियुक्ति*. प्रकरण अन्य जोड़े तथा उसके लिये उल्लेख तीसरा ८ पिंड + , व्यक्ति करे तो यह क्या सम्भवित मालूम होता ९ ओघ , है ? इसलिये मेरी धारणाके अनुमार तो मूल ग्रंथ १० संसक्त ,
और उसकी अन्य गाथा तक स्थविरावली यह सब नियुक्ति तथैव मूल ग्रन्थ भी खुदके बनाये हुएहैंएक ही व्यक्ति ( दूसरे भद्रबाहु ) की रचना है। · ११ बृहत्कल्प :
- ग्रन्थकार उपयुक्त गाथा लिखकर पट्टावलीकी १२ व्यवहार समाप्ति करता है, इस कारण वह स्वयं श्रीदेवर्द्धि- १३ दशाश्रुतस्कंध x गणि क्षमाश्रमण का शिष्य है, सतानीय है या अन्य १४ भद्रबाहुसंहिता ® वंशका है, इसके लिये अधिक ऊहापोह करनेकी १५ ग्रहशान्ति स्तोत्र आवश्यकता है।
१६ उवसग्गहरं स्तोत्र * . इनके रचे हुए ग्रन्थ
* इस समय उपलब्ध नहीं। १ आचारांग नियुक्ति ।
येनैषा पिण्डनियुक्तियुक्तिरम्याकिनिर्मिता । २ सूत्रकृतांग ,
द्वादशांगविदेतस्मै नमःश्रीभद्रबाहवे ।। ३ दशवकालिक ,,
-मलयगिरि, पि० नि० वृ० ४ उत्तराध्ययन ,,
* श्रीकल्पसूत्रममृत विबुधोपभोगयोग्यं५ श्रावश्यक
जरामरणदारुण दुःखहारि। ६ सूर्यप्रज्ञप्ति ,,
येनोद्धृतंमतिमतामथितात् श्रुताब्धेः अपनी रची हुई नियुक्तियों के नाम ग्रन्थकार श्रीभद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽ स्म तस्मै । स्वय इसप्रकार बतलाते हैं
-क्षेमकीर्ति वृहत्कल्पटीका श्रावस्सय दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे। - हाल में जो मंगल के निमित्तपयषण पर्वमें वाँचा सुयगडे निज्जुत्तिं वोच्छामि तहा दसाणं च ।। जाता है वह कल्पसूत्र इस ग्रन्थका अाठवां अध्ययन है, कप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्स य परमणिउणस्स। इस विषयमें निश्चित प्रमाण नहीं। सूरियपन्न तीए वोच्छं इसिभासियाण च ॥
तथान्यां भगवाँश्च के सहिता भद्रबाहवीम् । आवश्यक निगा० ८२, ८३ इत्यादि कथन होनेसे इन्होंने स्पष्ट संहिता रची है यह + यह नियुक्ति इस समय उपलब्ध नहीं । देखो, ठीक, परन्तु हाल में जो भद्रबाहुसंहिता नामकी पुस्तक निम्नलिखित उल्लेख
छपी है वह इन भद्रबाहुकी बनाई हुई नहीं है । अस्या नियुक्तिरभूत् पूर्वे श्रीभद्रबाहुसूरिकृता। के यह ग्रंथ संस्कृत पद्यबद्ध है, इसका त्रुटित कलिदोषात् साऽनेशत् व्याचक्षे केवलं सूत्रम् ॥ भाग हमारे देखने में आया है, सम्पर्ण ग्रन्थ कितने
, मलयगिरि -सूर्यप्रज्ञप्ति । श्लोकप्रमाण होगा यह नहीं कहा जा सकता।
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१८४
१७ द्वादशभाव-जन्मप्रदीप १८ वसुदेवहिडी *
अनेकान्त
* यह ग्रन्थ मूल प्राकृत भाषा में रचा हुआ सवा लाख श्लोक प्रमाण था ऐसा सुप्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य के गुरुदेव देवचन्द सूरि बतलाते हैं कि
वंदामि भद्दवाहुँ जेण य अइर सिधबहुक हाक लियं । रइयं सवायलक्खं चरियं वसुदेवरायस्स ॥
शान्तिनाथचरित्र, मंगलाचरण
[ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
इन सब ग्रन्थोंमें नियुक्तियाँ मुख्यस्थान रखती हैं।
इनका जन्म, दीक्षा, अवसानसमय तथा शिष्या दिसंतति जानने के लिये मेरी दृष्टिमें आने वाले ग्रन्थों में कोई स्थल या साधन प्राप्त नहीं होते । श्रागमके अभ्यासी और इतिहास के बेता . कोई नवीन तत्र बाहर लावेंगे तो हम जैसों क ऊपर उनका महान् उपकार होगा, ऐसी आशा रखकर विराम लेता हूँ ।
तथा श्री हंस विजयजी जैन लायब्रेरीकी ग्रंथमाला तरफ से छपाई हुई नर्मदा सुंदरीकथा के अन्त में -- इति हरिपितृहिण्डेर्भद्रबाहुप्रणीविरचितमिह लोकश्रोत्रपात्रैकपेय
चरितममलमेतन्तमदासुन्दरीयं भवतु शिवनिवासप्रापकं भक्तिभाजाम् ॥ २४६ ॥
हाल में उपलब्ध वसुदेवहिण्डी तो संघदासक्षमाश्रमणने आरंभ की थी और धर्मसेनगणी महत्तरने पूरी की थी, उससे यह भिन्न होगी ।
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शिक्षित महिलाओं में अपव्यय
[लेखिका-श्री ललिताकुमारी जैन विदुषी 'प्रभाकर' ]
बरे बड़े अर्थ शास्त्रवेत्ता कहते हैं कि एक कौड़ी भी कभी अपने कर्तव्य और हितकी भोर विचार नहीं 7 निरर्थक खर्च करना अपने प्रात्मा, कुटुम्ब, देश करेगा। उसे ऐसा करनेकी फुरसत ही कहाँ है ? फिजून व समाजसे विद्रोह करना है। असज में यह है भी खर्च करते करते जब उसके पास अपनी और अपने बिल्कुल सस्य और स्पष्ट । अपव्यय (फिजल खर्च ) कुटुम्बकी अनिवार्य ज़रूरतोंके लिए भी पैसा न बचा जहाँ तक इसका सासाँरिक धन-सम्पति और रुपये पैसे रहा तो अन्याय पर उतर पड़ता है । वह दाव जग से सम्बन्ध है अपने और समाज दोनों ही के लिए एक जाने पर दूसरोंका माल हड़प करने में भी नहीं चूकता अभिशाप है । अपव्ययसे मनुष्य अनावश्यक भोग- और यदि कुछ चालाक हुमा तो विविध छल कपट व विनासकी ओर प्रवृत्ति करता है, खोटो खोटी आदते षड्यन्त्रोंसे दूसरेकी सम्पत्ति हरण करनेकी चेष्टा करता डाल लेता है, इन्द्रियोंको बेलगाम घोड़ेकी तरह निर- है। वह चोरीके लिए चित्त चलायमान करता है और र्थक विषयोंकी ओर दौड़ने के लिए विवश करता है उसके प्रयत्न करनेमें पकड़ा जाकर धर्म, समाज व तथा पाप और वासनाके लिए नये नये रास्ते खोजता कानून तीनों ही का अपराधी ठहरता है । लोकमें रहता है।
निन्दा होती है और परलोकमें बड़ी बड़ी यातनाएँ अपव्ययी मनुष्य ज़रूरतके लिए खर्च नहीं करता सहनेको मिलती हैं। बल्कि खर्च करने के लिए नयी नयी अनावश्यक जरूरतें इसी तरह समाजके लिये भी अपव्यय बड़ा अनिष्टपैदा करता है । ऐसा देखा गया है कि फिजल खर्च कर है । एकको अपव्यय करते हुए देखकर तथा करने वाला जब किसी समय अपनी एक ज़रूरतको फिजूलखर्चीसे नानावाहियात विनोद एवं रंगरेलियाँ पूर्ण हुई देखता है तो तुरन्त उसके मनमें यह खयाल करते हुए देखकर समाजके दूसरे व्यक्तिके मनमें भी पैदा होता है कि खर्च करनेके लिए अब वह कौनसी वैसी ही चाह पैदा होती है । एक दूसरेके मनमें ईष्या जरूरत पैदा करे । इस तरह वह सदा कुछ न कुछ खर्च और जलनके भाव पैदा होते हैं। बड़ी बड़ी लड़ाइयाँ करने ही की धुनमें रहता है । वह कभी अपने आपको हो जाती हैं । पार्टीबन्दियाँ हो जाती हैं। एक दूसरेके शान्त एवं स्वस्थ अनुभव नहीं करेगा । उसके दिमाग़में घमंड को चूर चूर करनेकी चेष्टा करता है और दूसरा नयी नयी इच्छाएं और उनको पूरा करनेके लिए अप- अपने बड़प्पन और शान शौकतको सुरक्षित रखनेके व्ययकी चालें चलित हुआ करेंगी । वह स्थिर होकर लिए चिन्तित रहता है । तथा इसी कसाकसीमें रुपया
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अनेकान्त
पानीकी तरह बहाना पड़ता हैं इससे व्यक्तियोंका भी पतन होता है और उनसे बनने वाले समाजको भी क्षति पहुँचती है। यदि मनुष्य अपने पैसे को अपने ही निरर्थक और क्षुद्र स्वार्थों में न खर्च करके समाज व देश के हितों की रक्षा के लिए उसका उपयोग करे तो फिर किसीकी धन-सम्पत्तिले श्रापसमें जलन या ईष्यके भाव पैदा होनेका अवसर ही न आवे । अपव्ययसे समाज में पाप और अन्यायका प्रसार होता है तथा दुर्गुणोंकी वृद्धि होती है । जो पैसा उपयोगी और उत्तम कार्यों में लगना चाहिए था वह वाहियात और व्यर्थ की शानशौकत में खर्च किया जाता है। इससे समाज कमज़ोर और 'क्षुद्र बना रहता है। जिस समाज में वाहियात फिजूलखर्ची की जाती है वह दूसरे समाजोंके सामने मुकाबले में खड़ा नहीं रह सकता और हर बातमें उसको नीचा देखना पड़ता है । उसका अपमान और तिरस्कार करना दूसरेके लिए एक खेलसा हो जाता है । क्योंकि समाजकी उन्नतिके बहुतसे उपायों में एक मुख्य उपाय उसमें रहने वाले व्यक्तियोंकी धन-सम्पत्ति और उसका समुचित उपयोग भी है । एक अर्थ शास्त्रविद्या विशारद पंडितने किसी जगह लिखा था कि किसी समाज या देशकी शक्ति और बलको मापने का यन्त्र उसमें रहने वाले व्यक्तियोंकी सम्पत्तिका उपयोग है । अगर उनकी सम्पत्तिका उपयोग उत्तम और समयोपयोगी कार्यों में होता है तो वह समाज भी उन्नत एवं व्यवस्थित है और यदि उसका उपयोग अनुचित रूपसे होता है तो उस समाजकी भींत भी बालू रेत पर खड़ी है जो जब कभी धक्का देकर गिराई जा सकती है ।
[आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
होता जारहा है, शिक्षित महिला समाजमें फिजूलखर्ची के नये नये तरीके ईजाद होते जा रहे हैं। यह तो सच है ही कि पुरानी चाल वाली माताओं व बहनों में कुछ ऐसे संस्कार पड़े हुए हैं कि वे पुरानी चालोंको चाहे वे कितनी ही खर्चीली क्यों न हों और चाहे उनमें होने वाले खर्चे से उनके घर कितने ही तबाह क्यों न हो जाएँ पर वह उन्हें छोड़नेके लिए किसी भी तरह तैयार नहीं हैं; पर हमारी श्राज कलकी बहनों में उनकी अपनी ही चर्या में ऐसे छोटे छोटे सैंकड़ों ही निरर्थक अपव्यय के मार्ग पैदा हो गये हैं जिनसे भली भली और सम्पन्न से | सम्पन्न गृहस्थीका भी चकनाचूर हुए बिना नहीं रह सकता । इन वाहियात खर्चोंसे पुरुषोंके गाढ़े पसीने से कमाये हुए धनका ही नाश नहीं होता है बल्कि हमारी गृह देवियोंका सुन्दर जीवन भी भोग विलास और फैशन के साँचे में इस तरह ढाल दिया जाता है कि वह न तो उनके अपने मतलबका ही रहता है और न समाज व देश के अर्थका ही ।
इसी अपव्यय के अवगुणसे हमारी धाधुनिक शिक्षित बहनें भी रहित नहीं हैं। यह देखने में धाता है कि ज्यों ज्यों आधुनिक सभ्यता और शिक्षाका प्रसार
आज कलकी बहनों में यदि पुरानी चांलके गहनों का शौक कुछ कम हुआ तो नयी चालके गहनों का शौक उससे भी अधिक बढ़ गया । गोखरू बँगड़ीके स्थान पर सोने की चूड़ियां पहनी जाने लगीं । बाली और कानके छल्लोंकी जगह नये नये इयरिंग काम में लिये जाने लगे । सरमें पात व वौरकी जगह विविध रंगरंजित क्लिपें दिखाई देने लगीं, जो रोज रोज या तो टूटती रहें और यदि बदकिस्मती से साबुत रह जायें तो फैशन बदल जानेसे बेकार जायँ । गले में सोनेकी कंठीके बिना तो गलेकी शोभा ही नहीं। रिस्टवाच और जीरोपावरके चश्मेका शौक तो ऐसा बढ़ा है कि उसकी कोई हद्द नहीं । और अफ़सोस तो यह है कि घड़ीसे समयका सदुपयोग रत्तीभर नहीं किया जाता और
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वर्ष ३, किरण १२
शिक्षित महिलाओं में अपव्यय
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चश्मेसे प्रांखोंका सर्वनाश करके भी उसका शौक पूरा वालेका अफगान स्नो इस्तेमाल करते करते मैं तो थक किया जाता है । कुछ लिखनेकी पादन हो और मौके चुकी इस बार रातके लिए पान्ड्सकोल्ड क्रीम और बेमौके कुछ लिखनेका काम पड़ जाता हो सोबात नहीं पर दिन में लगाने के लिए पान्ड्स वेनिशिंग क्रीम लाइगा।' पारकर पेन जे बमें जरूर सुशोभित होना चाहिए। मेंहदीका इस वेढङ्गे रवैये में कमी होना तो दूर रहा किन्तु हमारे स्थान क्यूटेक्सने लिया । नाकमें नथकी जगह पर बाज़ारू घरोंकी जड़ोंको खोखला करनेके लिए इसकी चक्रवृद्धि कांटोंने कब्जा किया । रोज काम में आने वाली जुल्फे व्याजकी तरह दिन दूनी और चौगुनी बढ़वारी हो रही बंगाल बहार, हेयर प्राइल, भूतनाथ तेल, कामिनिया है। समाजका भला चाहने वाले नेताओंने हमारे बहार तेल, ठेठ लन्दन का बना कोकोनट हेयर प्राइल, सामाजिक फिजूल खर्चों पर गला फाड़ फाड़कर ताला जुल्फे बहार, लक्ससोप, पियर्स सोप, गोडरेज, हम्माम, लगानेकी कोशिश की तो इधर हमारी शिक्षित देवियोंने सनलाइट सोप, हेयर क्रीम, हिमानी स्नो, हवाइर स्नो, अपने मेक अप करनेके खर्च को बेशुम्मार बड़ा दिया जो पोण्ड्स क्रोम, कोल्ड क्रीम, वेसलीन,तरह तरहके सेण्ट, उससे भी खतरनाक और बेकाबूका हो रहा है । यदि लवण्डर, गुलाबी पाउडर, टुथ पाउडर, ऐसी सैंकड़ों ही हिसाब लगाकर देखा जाय तो प्राजकी पढ़ी लिखी कमसे कम उपयोगी और अधिक से अधिक खर्चीली साधारणसे साधारणु हैसियय वाली बहनका सिर्फ चीजोंका स्टेशन के मालगोदामसे आने वाली गाड़ीमें, बालों और मुँहके मेकअप करनेके खों में कमसे कम जते हुए बैलोंकी तरह भार ढोते ढोते घरके श्रादमियोंकी १०) ११) २० माहवार तो तेल, साबुन, क्रीम आदि पीठ पर बल पड़ गये, पैरों फफोले हो गये और पाकिट चीजों में ही पड़ जाता है। पैसोंसे विद्वेष करने लगा, पर हमारो गृह देवियोंके द्वारा इसके अतिरिक्त कपड़े लत्तोंका खर्च देखिए ? मौके-बेमौके, असमय, दिन और रात जब कभी भेंट साड़ियां ? उफ ? एक से एक बढ़कर नित नयी पहनने हुई, पुरुषोंके साथ बरते जाने वाले–“देखिये न को चाहिएँ । आज एक साड़ी खरीदी गई और कल जो पाउडरका डिब्बा आज दो रोज़से खाली पड़ा है ? और यदि उसके डिजायनका फैशन बदल गया तो उसमें इस बार कोटेका एयर स्पन पाउडर लाइएगा, वड़ी रुपये जो खर्च हुए वे सब बेकार गये। हैसियतके तारीफ सुनी है उसकी ।' 'अरे मुन्नू ! जा वो तेरे अनुसार एक एक साड़ीमें १०) १५)२५) ३०) १०) बापूजी बाजार जा रहे हैं, उनसे कह, आते समय आज १००) और इससे भी अधिक रुपया खर्च होता है। विलायती टूथ पाऊडर और क्रोम, स्नो, बिवेलिन आजकल जारजटको साड़ियोंका ऐसा सिलसिला बंधा हेयर प्राइल और कोई अच्छा सा बिलायती सोप है कि हर एकके घरमें दस पांच साड़ियां खरीदी ही जरूर लेते प्रावें । पहले ही देशी तेल-साबुन लाकर जाती हैं । इन साड़ियों में पैसा तो अधिक खर्च होता रख दिया किसी कामका नहीं।' 'अजी सुना है बालोंके ही है साथ ही इन्हें पहन कर बहनें अपने खास लिए विटेक्स औप नाखूनों के लिए क्यूटेक्स बड़ा अच्छा आभूषण लज्जासे भी बेखबर हो जाती हैं । सलूके, रहता है फिर वह जापानी हेयर क्रीम औ स्थूलनका पेटीकोट, जम्पर आदिमें रोज नयी नयी कांट छाँट चलती ज्विल्टन क्यों काममें लिया जाय।' 'देखिएजी पाटन रहती हैं जिनमें कीमती कपडा और सजावटका सामान
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अनेकान्त
[ आश्विन, वीर निर्माण सं०२४६६
तो खर्च होता ही है, साथमें दरजीको दुगुनी तिगुनी बला हटी। कितना भाराम रहा ! बाजारू चाट, नमकीन सिलाई और देनी पड़ती है, वरना वे तत्काल ही ईजाद मिठाई श्रादिपे पुरानी पद्धति वाली माताओं को इतनी हुए फैशनसे रहित रह जायें । हाथमें कमसे कम १) ११) नफरत है कि वे उनका नाम तक नहीं लेती किन्तु रुपयेका एक रेशमी रुमाल चाहिए जो एक बार पसीने भाजकल वाली बहनोंमें इनका शौक ऐसा बढ़ा है कि पोछने पर डस्टरके काम लिया जाने लगे और कर वे इनको बहुत ही अज़ीज़ समझ कर खाती हैं और कमलों की शोभाके लिए तुरन्त ही ताजा रूमालके लिये धर्म तथा धन दोनों ही से हाथ धो बैठती हैं। बार्डर जारी हो जाय । कपड़ों में जी खोल कर तरह घरमें काम करनेको नौकर चाकर हैं और समाज तरहके बिलायती सेन्ट उंडेल दिए जाते हैं, जिनकी सेवा, देश सेवा तथा साहित्य सेवासे लगन · नहीं। कीमत भारी भारी होती है और उपयोग रंचमात्र नहीं आदमी सोये भी तो कितना सोये । ज्यादासे ज्यादा इसके अलावा सर्दी में काम आने वाले बढ़ियासे बढ़िया ७ घंटे रातमें और २ घंटे दिनमें समझ लीजिए । ३ घंटे स्वेटर, गुलबन्द, जुर्राव, दस्ताने श्रादिका ऐसा अनावश्यक भोजन करने आदिके और निकाल दीजिए । बचे हुए खर्च बढ़ा है कि हर जाड़ेमें प्रति घर १००) ५०) रु. १२ घंटों में अब करे तो क्या करें ? बस रेडियो और खर्च होता ही है। वास्तवमें देखा जाय तो महिलाओं ग्रामोफोन ! जो उन रसिक बहनोंको इश्क और ऐय्याशी ने जो इनका उपयोग करना शुरु किया वह सर्दीसे के गन्दे गाने सुनाते रहें और उनके दिल और दिमाग बचनेके लिए नहीं किन्तु केवल फैशनके लिए किया को दूषित करते रहें । फिर ग्रामोफोनके रेकार्ड नित है। हाँ, यह खुशीकी बात है कि अब अधिकांश बहनें नये नये चाहिएं । एक रेकार्ड एक बार सुना और वह इन चीज़ोंको हाथसे बुन कर काममें लेने लगी हैं। तबियतसे उतर गया । एक एक रेकार्ड होना भी इससे खर्च भी कम करना पड़ता है और चीज़ भी चलाऊ चाहिए कमसे कम २॥) ३) का । वरना वह स्पष्ट तैयार होती है।
श्रावाज़ नहीं दे। अगर महिने में १० रेकार्ड भी नये हमारी नये युगकी बहनोंको खाने पीनेको वस्तुओं खरीद लिए जाते हो तो २५) ३०) रुपये माहवारका में भी अनावश्यक खर्च करना पड़ता है और साथ ही तो यही खर्च पल्ले बँध गया । दिन भर चक चक जरूरी संयमका भी ध्यान नहीं रक्खा जाता । सुबह करने वाले रेडियो में जो बिजली ख़र्च हुई वह तो उठे चायका एक कप जरूर चाहिए । नाश्ता करनेके शायद खयाल में पाती ही नहीं है। और फिर दिन भर लिए घरमें कौन चीज़ बना कर रक्खें । हाथसे बनाना रेडियो और रेकार्ड के निराकार गानोंको सुनकर भी तो सीखा ही कहाँ । फिर वही बाजारसे लिल्ली बिस्कुट तबियत ऊब उठी तो शामको सिनेमाकी सैर होती है। ब्रिटेनिया बिस्कुटके डिब्बे मंगाये जाते हैं, जिनमें शुद्धता हैसियतके अनुसार १) २) रु० का टिकट खरीदा जाता
और संयमको तो लात मार दी ही जाती है किन्तु रुपया है। साथमें रसिक सखी-सहेलियोंका होना भी श्रावपैसा भी मिट्टीकी तरह बरतना पड़ता है। कोई मेहमान श्यक होता है वरना अकेलेमें कोई दिल
आया बाजारसे मिठाई मंगाली गयी । पैसे खर्च हुए तो चस्पी नहीं। उनके टिकटोंका भार भी अपने ही पुरुषोंकी जेबसे और उनकी खुदकी रसोई में धुआंधोरीसे ऊपर लेना होता है।
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इस तरहके सैंकड़ों ही अनावश्यक और निरर्थक ख़र्च हैं, जो दिन पर दिन हमारी शिक्षित बहनों में बढ़वानलकी तरह बढ़ रहे हैं। जिनको यदि रोका न गया तो वे सचमुच हमारे घरोंको जल्दी ही भस्मसात् कर देंगे । पुरुष रातदिन परिश्रम कर गर्मी, सर्दी, बरसात, धूप, भूख, प्यास, गुलामी आदि की कठिन वाधाएँ सह कर बड़ी मुश्किलसे रूपया पैदा करें और हम बहनें आसानी के साथ हमारे क्षणिक श्रानन्दके लिए उसको ख़र्च करदें । यह हमारे लिए कितने भारी कलंक और शर्मकी बात है। अफ़सोस तो यह है कि हमारे देश में जो कुछ था वह तो पहले ही विदेशियों ने निकाल लिया किन्तु जो थोड़ा बहुत तन और पेटकी लाज
शिक्षित महिलाधों में अपव्यय
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रखने लायक इधर उधर चौमासेमें चमकने वाले श्रगिये की तरह दिखाई दे रहा है वह भी हम इस तरह नष्ट भ्रष्ट कर हमारे देश की सम्पत्तिका क्या कतई दिवाला निकाल बैठें, जो एक दिन ज़रूरी भोजन-वस्त्र मिलना भी दुर्लभ हो जाय ? इस पर हमारी शिक्षित बहनोंको खूब गौरके साथ विचार करना चाहिये और शीघ्र ही अपने अपने अनावश्यक तथा फैशनकी पूर्ति के लिये किये जाने वाले खर्चेको घटाकर तथा बन्द करके अपनी अपने समाजकी और अपने देशकी उन्नत्ति में अग्रसर होना चाहिये । यही इस समय उनका मुख्य धर्म और ख़ास कर्तव्यकर्म है।
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प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ?
[ लेखक-श्री दौलतराम 'मित्र' ]
धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे।
आत्मप्रबोधविरहादविशुद्धबुद्धर, . नात्मव्रतं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे ॥ अन्यप्रबोधनविधि प्रति कोऽधिकारः ।
-पंचाध्यायी, २८०४ सामर्थ्यमस्ति तरितुं सरितो न यस्य अर्थात-धर्मका आदेश और धर्मका उपदेश तस्य प्रतारणपरा परतारणोक्तिः ॥ देकर दूसरों पर अनुग्रह (उपकार) करना चाहिये। कर्तुं यदीच्छसि पर प्रतिबोधकार्य परन्तु आत्म व्रतको-आत्माके हितकी बातको- आत्मानमुन्ननमते ! प्रतिबोधय त्वं । छोड़कर दूसरोंके रक्षणमें-उन्हींके हितसाधनमें- चक्षुष्मतैव पुरमध्वनि याति नेतुम् । तत्पर नहीं रहना चाहिये।
अन्धेन नान्ध इति युक्तिमती जनोक्तिः ॥ आदहिंदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं ।
-प्रारमप्रबोध ४-५ आदहिदपरहिदादो आदहिद सुह, कादव्वं ॥ अर्थ ( पद्य में )
____..-ग्रन्थान्तर-पंचा० २-८०५ आत्म-बोधसे शन्य जनोंको नहि परबोधनका अधिकार अर्थात-आत्महित (अपना हित ) मुख्य तरण कलासे रहित पुरुषका यथा तरण शिक्षण निःसार कर्तव्य है। यदि सामर्थ्य हो तो परहित भी करना जो अभीष्ट पर-बोधन तुझको तो आत्मन् ! हो निजज्ञानी चाहिये । आत्महित और परहितका युगपत प्रसंग नेत्रवान अन्धेको खेता, नहिं अन्धा, यह जग जानी" उपस्थित होने पर दोनों से आत्महित श्रेष्ठ है, इससे यह बात स्पष्ट होजाती है कि-किसीका उसे ही प्रथम करना चाहिये।
प्रथम तिर जाना या ज्ञानी हो जाना यद्यपि स्वहित यह एक आदेशरूप आगमका कथन है, अत- हुआ, तथापि वह है परहितके साधनरूप-उसमें एव इसमें, ऐसा क्यों करना चाहिये, इस 'क्यों के सहायक; और ऐसा स्वहित-निरत व्यक्तिही परहित संतोष लायक खुलासा नहीं है । और इस 'क्यों'रू- करनेमें समर्थ हो सकता है जो खुद ही रास्ता पी दरबानको संतोष कराए बिना यह किसी बातको भला हो वह दूसरोंको रास्ते पर क्या लगा भीतर-गले नीचे-उतरने नहीं देता । अतएव सकता है ? इस लेखमें इसी 'क्यों' का खुलासा करना है । अब हित-अहित क्या हैं, और उनके कारण खुलासा यह है कि
क्या हैं, इस पर विचार करें:
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वर्ष ३, किरण १२]
प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ?
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यह तो सभी जानते हैं कि सुख 'हित' है और अपने आत्माका घात होता है, यह बात सिद्ध है।। दुःख 'अहित' है अतएव इनकं कारण बतलाते हैं- आत्मेतरांगिणामंगरक्षणं यन्मतं स्मृतौ।
"सर्व परवशं दुःखं सर्व प्रात्मवशं सुखम् । तत्परं स्वात्मरक्षायाः कृतं नातः परत्र यत् ॥ .. वदंतीति समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥"
-पंचा० २-७१६ -अमितगति योगसार 8-१२
अर्थात-आत्मासे भिन्न दूसरे प्राणियोंके अर्थात-जो परवश ( पराधीन ) होना है वह शरीरकी रक्षाका जो विधान स्मृतिशास्त्र में है, वह सब दुःख है, और जो स्ववश ( स्वाधीन ) होना केवल अपनी ही रक्षाके लिये है, इससे वस्तुतः है वह सब सुख है, यह सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण दूसरोंकी रक्षाकी बात कुछ नहीं है। है । और इसलिये आत्माक साथ कर्मका भावार्थ-रागादिक भाव ही परहिंसा और जो दृढ़ बन्धन है । जिसने आत्माको मूलतः और स्वहिसा अथवा पर-अहित और स्व-अहित पराधीन कर रक्खा है वह सब दुःखरूप है, और होनेके कारण हैं । और भी स्पष्ट कहा हैउस बन्धनसे जितना जितना छुटकारा मिलना अर्थाद्रागादयो हिसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः । ( मुक्त होना ) है वह सब सुखरूप है। अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल ॥ अब कर्मबन्ध होने का कारण बतलाते हैं
-पंचा०२-७५५ सत्सु रागादिभावेषु बन्धः स्यात्कर्मणां बलात् । अर्थात्-रागादिक भाव ही हिंसा है, अधर्म तत्पाकादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो बधः ॥ है, व्रतच्युति है । और रागादिक-त्याग ही अहिंसा
-पंचा० २-७५७ है, धर्म है, व्रत है। । अर्थात्-रागादिक भावोंके होने पर अवश्य अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । कर्मबन्ध होता है और उस कमबन्धके फलसे तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ आत्माको दुःख होता है, इसलिए रागादिक भावोंसे
- -पुरुषार्थसि० ४४ "दुःखोदकमिहाऽडितं सुखरसोद हितं तय॑ताम्"।
___अर्थात-रागादिक भावोंका उत्पन्न न होना
ही निश्चितरूपसे अहिंसा है, और उन्हीं रागादिक --श्रात्मप्रबोध, ३२
भावोंकी जो उत्पत्ति है वह हिंसा है, ऐसा जिन+सर्व परवशं दुःखं सर्व प्रारमवशं सुखम् । सिद्धान्तका संक्षिप्त रहस्य है। एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुख दुःखयोः॥ सर्वतः सिद्धमेवैतद् व्रतं बाह्यं दयाऽङ्गिषु। . -मनुस्मृति:-१६०
व्रतमन्तःकषायाणां त्यागः सैवात्मनि कृपा॥ ... * राग-द्वेष दोनों साथी हैं, जैसा कि पंचाध्यायीके
--पंचा० २-७१३ निम्न वाक्यसे प्रकट है
" परदम्वरो वम्झदि विरो मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । "यद्यथा न रतिः पक्षे विपक्षेप्यरति विना। एसो जिणउवदेसो समासदो बंध-मुक्खस्स ॥". नारतिर्वा स्वपक्षेपि तद्विपक्षे रति विना ॥' २-५४१
-मोक्षपाहुड १३
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
अर्थात्-यह बात सब प्रकारसे सिद्ध है कि अर्थात्-उस मावद्ययोग ( अन्तर्बाह्य हिंसक प्राणियों पर दया करना 'बाह्यव्रत है' और कषायों उपयोग ) के अभाव होनेका नाम ही निवृत्ति का (रागादिकोंका) त्याग करना अंतर्बत है । तथा कहलाती है, उसीका नाम व्रत है । यदि सावद्ययोग यही अन्तर्वत निजात्मापर दयाभाव कहलाता है। की निवृत्ति अंश (अणु ) रूपसे है तो व्रत भी
इमी 'अन्तवत' को 'इंद्रिय निरोधसंयम' अंश ( अणु ) रूपसे है, और यदि मावद्य योगकी और 'वाह्यव्रत' को 'प्राणिरक्षणसंयम' भी कहते निवृत्ति मवीश ( महान् ) रूपम है तो व्रत भी हैं। यथा
सर्वाश । महान् ) रूपमै है। सत्यमक्षार्थसम्बन्धाज्ज्ञानं नाऽसंयमाय तत।
भावार्थ-व्रतक पालकजन दो प्रकारके हैं, तत्र रागादिबुद्धिर्या सयमस्तनिरोधनम् ॥
अणुव्रतक पालक गृहस्थ हैं जिनकी 'उपासक' त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मनः । सज्ञा है, और महान व्रतकं पालक वनस्थ हैं जिनकी न वचो न वपुः क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।। 'साधक-साधु संज्ञा है ।।
-पंचा० २, ११२२-२३ तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह अर्थात-इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्धसे जो अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय, पाँच चारित्र, और ज्ञान होता है वह असंयम नहीं करता है। किन्तु बारह प्रकारकं तप, ये अंतव्रत प्रधान या निवृत्ति इन्द्रिय और पदार्थके सम्बन्ध होने पर यम पदार्थमें प्रधान महान धर्मके अंग हैं। जो राग द्वेष परिणाम होते हैं वे ही असंयमको औषधि, आहार, ज्ञानसाधन और अभय, इन करने वाले हैं। उन राग-द्वेष रूप परिणामोंको -
गृहस्थके व्रतको 'अणुव्रत' कहने से यह नहीं रोकना ही 'इन्द्रिय-निरोध-संयम' है । तथा त्रस
समझना चाहिये कि-अणुव्रती गृहस्थको हिंसा स्वरूप और स्थावर जीवोंको मारने के लिये मन वचन
पांच पाप अणुप्रमाण अंशमें करनेकी तो मनाई है और कायकी कभी प्रवृत्ति नहीं करना ही प्राणि संरक्षण'
शेष अंशमें करनेकी छुट्टी है । ऐसा समझ लेने या प्रगट संयम है।
होनेसे तो हम दो तरहसे अपना अहित कर बैलेंगे। ____ एक खुलासा और है कि अहिंसाधर्म-व्रत
एक तो हम पंच पाप करनेमें अधिकांशमें प्रवृत्त हो के पालक दो तरहके होते हैं । यथा -
जायेंगे, दूसरे राजन्यायालय हमारी ज़बानका एतबार तस्याभावोनिवृत्तिः स्याद् व्रतं चार्थादिति स्मृतिः ।
' ' नहीं करेगा, जिससे कि हमारा न मालूम कितने प्रसंगों अंशात्साप्यंशतस्तत्सा सर्वतः सर्वतोपि तत् ॥
पर अहित हो जाना संभव है। अतएव हमें पंच पापोंसे - --पंचा०२-७५२
कमसे कम राज-कानूनकी मंशाके अनुसार तो बराबर
- * दर्शन, ज्ञान और चारित्र 'बन्धके कारण नहीं, (सर्वाशमें ) बचना ही चाहिये । ऐसा करनेसे हम किंतु बंधका कारण राग है।
राज-कानून भंगका फल ( दंड ) भी नहीं पायेंगे और (देखो, पु० सि० श्लोक २१२ से २१४) हमारी राजन्यायालय में वचन-साख भी कायम रहेगी।
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चार दानोंके द्वारा दूसरों के प्राकृतिक या परजनकृत दुःख (कष्ट) दूर करना - उनकी सहायता करना - याने जीवोंकी दया पालना, तथा धर्म, अर्थ + और काम इस त्रिवर्गका विरोधरूपसे सेवन करना बाह्य व्रत-प्रधान या प्रवृत्ति प्रधान अणुधर्मके
अंग हैं।
प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ?
महान् और अणु यों हैं कि - जहाँ अन्तव्रत- प्रधान या निवृत्ति प्रधान धर्मका अनुष्ठाता साधु ( वनस्थ ) अपनी ओर से किसीको दुःख (कष्ट) नहीं पहुँचा करके - किसीके प्रति सर्व शिमें प्रशस्त और अधिकाँश में प्रशस्त रागद्वेष नहीं करके अपना और दूसरोंका हित संपादन करता हैं, वहाँ बाह्य व्रतप्रधान या प्रवृत्ति प्रधान धर्मका अनुष्ठाता उपासक (गृहस्थ ) दूसरोंके प्रति अधिकांश प्रशस्त रागद्वेष करके अपना और दूसरोंका हित-अहित दोनों संपादन करता है । उदाहरण लीजिये
(१) मनुष्यसमाज के विषय में उदाहरणधर्म ( पारलौकिकधर्म = सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र-वीतरागता ), अर्थ और कामका अविरोध रूपसे सेवन करने वाले गृहस्थका जीवन ऐसे अनेक जटिल प्रसंगों का - समस्याओं का - समुदाय है,जिनमें प्रशस्त राग-द्वेष किए बिना जीवन निर्वाह नहीं हो सकता है।
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मित्रोंका प्राप्त करना और उनकी वृद्धि करना
+ "विद्या-भूमि- हिरण्य-पशु-धान्य- भांडोपस्कर-मित्रा दीनामर्जनमर्जितस्य विवर्धनमर्थः ।"
( वात्स्यायन, कामसूत्र २ - १ ) "यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ।”
- सोमदेव - नीतिवाक्यामृत २
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भी अर्थ पुरुषार्थ में गर्भित है । अब जरा सोचिये तो, क्या यह पुरुषार्थ यूँ ही — सहज हो - सिद्ध हो जाता है ? - इसके लिये लौकिक धर्म (लोकसमर्थित राजधर्म - राजनियम ) का पालन करना पड़ता है तब कहीं जाकर यह सिद्ध होता है ।
गृहस्थ के ऊपर इधर तो लौकिकधर्म पालन की ज़िम्मेदारी और उधर पारलौकिकधर्म पालनकी ज़िम्मेदारी है । जैसा कि कहा है
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥ - यशस्तिलक सर्व एव विधिजैनः प्रमाणं लौकिकः सर्ता । यत्र न व्रतहानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खंडनं ॥
--रत्नमाला ६५
ate धर्मो गृहस्थrti किकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ -- यशस्तिलक
भावार्थ - गृहस्थसे लौकिक या राजनियम ऐसे स्वीकार कराना अथवा ऐसा राजशासन स्थापित कराना कि जो धर्मको दूषण लगाने वाला न हो ।
कि
कितनी जटिल समस्याएँ हैं ! यही कारण है धर्म पालक गृहस्थ के लिए एक ऐसा जीवनमार्ग निश्चित किया गया है कि जिस पर चलने से वह दोनों जिम्मेदारियोंके विरोधरूपी खतरेसे बच जाता है । वह मार्ग है, शिष्ट (लोक या राजनियम पालक ) जनोंका अनुग्रह करना और दुष्ट ( बदनियती लोक या राज-नियम तोड़क) जनोंका निग्रह करना, चाहे वे कोई हों, बस इसीका नाम है प्रशस्त राग-द्वेष |
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अनेकान्त
माश्विन, वीरनिर्वाण सं०२४६६
.साधुजन लौकिक जिम्मेदारीसे रहित हैं. अतः होने योग्य ) जीवोंको बतलाऊं-वही मनुष्य एव उनके लिए शत्रु-मित्र दोनों बराबर हैं, उन्हें अगले जन्ममें तीर्थकर होकर साधु अवस्था धारण किसीसे राग-द्वेष नहीं है। ,
___ करके फलस्वरूप वीतराग (निष्पक्ष ) सर्वज्ञ, और (२) पशु-समाजके विषयमें उदाहरण- हितोपदेशक होता है।
एक चूहे पर बिल्ली झपटी, गृहस्थने बिल्लीको अब समझमें आ जाना चाहिये कि जिन्होंने अघातक मार मारकर चूहेको छुड़ाया, गृहस्थ की स्वहित प्राप्त किया है, अथवा जिन्होंने वीतरागता. यह प्रवृत्ति चूहे के प्रति अधिकांशमें प्रशस्तराग और पूर्वक हितको देख-जान लिया है और अनुभव बिल्लीके प्रति प्रशस्त द्वेषरूप हुई । इसी प्रकार एक कर लिया है, वे ही 'हितोपदेशक' होने के पूर्ण कुत्ता बिल्लीके ऊपर झपटा, गृहस्थने बिल्लीको अधिकारी हैं। छुड़ाया,गृहस्थकी यह प्रवृत्ति बिल्ली के प्रति अधिकांश अतएव ऐसा नहीं समझा जाय कि जैनागममें में प्रशस्तराग और कुत्ते के प्रति प्रशस्तद्वेष रूप हुई। परहितका स्थान गौण और जैनागमोक्त साधु___ यहां पर अगर पूछो कि साधुजन दान के द्वारा चरित्र निम्न कोटिका है । बल्कि यह स्पष्ट कहा सहायता तो नहीं कर सकते, सो तो ठीक; परन्तु गया है किक्या उनमें अनुकम्पा-वृत्ति भी नहीं है ?-तो उत्तर ____ साधारणा रिपौ मित्रे साधकाः स्वपरार्थयोः । यह है कि उनमेंअनुकम्पावृत्ति जरूर है,परन्तु उनकी साधुवादास्पदीभूताः साकारे साधकाः स्मृताः ॥" वृत्ति सवाशमें अप्रशस्त और अधिकांशमें प्रशस्त
. -आत्मप्रबोध, ११२ राग-द्वेषरहित, अंतर्मुखी होनेसे वह ऐसे समयमें अर्थात-जो शत्रु-मित्रमें समान है-मित्रोंसे दुःखी-कष्टो-जीवोंकी दशा पर अनकम्पापूर्वक राग और शत्रुओंसे द्वेष नहीं करते-अपने और "वस्तुस्वरूप-विचार" की ओर झक जाती है। परके प्रयोजनको सिद्ध करनेवाले हैं, और साधवाद ___ इस प्रकार यहाँ आकर यह स्पष्ट हो जाता है के स्थान हैं-सब लोग जिनकी प्रशंसा करते हैं, कि जो परहित ( दूसरोंके साथ प्रशस्त रागादिक वे 'सा' अक्षरके वाच्यरूप 'साधक' अथवा नहीं करना) है, उसमें स्वहित समाया हुआ है,और 'साधु' हैं। वह स्वयं प्रथम हो जाता है।
____सर गुरूदास बनर्जीने अपने "ज्ञान और आगममें यहाँ तक बतलाया है कि जो मनष्य कम" नामक ग्रन्थमें स्वार्थ ( स्वहित ) और परार्थ पर्वभवमें दर्शनविशुद्धि, मार्गप्रभावना, प्रवचन- (परहित) की व्याख्या करते हुए बहुत कुछ लिखा वत्सलत्व आदि सोलह भावना भाता है-यह है, जिसका सारांश यह है कि हमारा स्वार्थ भाता है कि कब मेरे रत्नत्रयकी ( सम्यग्दर्शन. परार्थ-विरोधी नहीं, बल्कि परार्थके साथ सम्पर्ण स० ज्ञान, स.चारित्रकी ) शुद्धि हो और कब मैं रूपसे मिला हुआ है। खुद स्वार्थसिद्ध किए बिना शुद्धिका मार्ग (मोक्षका मार्ग ) सम्पूर्ण भव्य (मुक्त हम परार्थ सिद्ध नहीं कर सकते । मैं अगर खद
असुखी हूँगा तो मेरे द्वारा दूसरोंका सुखी होना लोक या रा जनियम तोड़नेवाले अपने पुत्रोतकको कभी सम्भव नहीं। प्राण दण्ड-जैसा निग्रह करने के अनेक उदाहरण पुराणों आशा है, इतने विवेचनसे उक्त 'क्यों' रूप में पाये जाते हैं।
शंकाका कुछ समाधान होगा।
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सम्पादकीय
१ आभार और धन्यवाद
उस सबका मुख्य श्रेय आप दोनों सज्जनोंको है। 'अनेकान्त' एक वर्ष चल कर घाटेके कारण जो अच्छे कामोंका निमित्त जोड़ते हैं वे ही प्रधानबन्द हो गया था और कुछ वर्ष तक बन्द रहा था, तया श्रेयके भागी होते हैं और इसलिये आप यह बात किसीसे छिपी नहीं है। सन १९३८ में जब समाजकी ओरसे भी विशेष धन्यवादके पात्र हैं। ला०तनसुखरायजी न्यू देहली, वीरशासन जयन्तीके , यहाँ पर मैं उन उदार परोपकारी सज्जनोंका शुभअवसर पर सभापतिकी हेमियतसं वीरसेवा. आभार प्रदर्शित किये बिना भी नहीं रह सकता मन्दिरमें सरसावा तशरीफ लाए और आपके साथ जिन्होंने अपनी ओरसे अजैन संस्थाओं-स्कूलों, उत्साही नवयुवक भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय कालिजों तथा पब्लिक लायबेरियों आदिको 'अनेभी पधारे, तब आप दोनों ही सज्जनोंने वीर मेवा. कान्त' फ्री (विना मूल्य) भिजवाया है, और इस मन्दिरके कार्योंको देखकर 'अनेकान्त' के पुनः तरह अनेकान्त-साहित्यको दूसरों तक पहुँचा कर प्रकाशनकी आवश्यकताको महसूस किया, लाला उसके प्रचारमें सहायता पहुँचाई है, इतना ही नहीं जोने पत्रके घाटे की जिम्मेदारीको अपने ऊपर बल्कि 'अनेकान्त' के घाटेको रकमको कम करनेमें लिया और गोयलीयजीने पूर्ववत प्रकाशकके भारको सहयोग देकर उसके संचालकादिके उत्साहको अपने ऊपर लेकर प्रकाशन तथा व्यवस्था-सम्बन्धी बढाने में भी मदद की है। अस्त; इस पुण्य चिन्ताओंका मार्ग साफ कर दिया, और इस तरह सबसे अधिक सहयोग श्रीमान दानवीर रा० ब० मुझे फिरसे 'अनकान्त' को निकालने के लिये सेठ हीरालालजी इन्दौरने प्रदान कित्रा है-आपने प्रोत्साहित किया । तदनुसार दो वर्षसे यह पत्र ५००) रु० की रकम देकर १५० अजैन संस्थाओं बराबर ला० तनसुखरायजी के संचालाकत्व और को एक वर्ष और १०० जैन मन्दिरों-पुस्तकालयों भाई अयोध्याप्रमादजी गोयलीय व्यवस्थापकत्वमें को छह महीने तक 'अनेकान्त' भिजवानेकी आनन्दके साथ प्रकाशित होता आ रहा है। दो वर्ष उदारता दिखलाई है। शेष सज्जनोंमेंसे चार के भीतर पत्रको जो घाटा रहा वह सब लालाजीने नाम यहाँ और भी खास तौरसे उल्लेखनीय हैंउठाया और गोयलीयजीको अपने आफिसवर्कके (१) ला० छुट्टनलालजी मैदे वाले देहली, जिन्होंने अतिरिक्त ओवरटाइममें प्रेस तथा प्रूफादिकी सबसे पहले ५१) रुपये देकर इस परोपकार व्यवस्थादि-विषयक जो दिन रात भारी परिश्रम एवं सत्सहयोगके कार्य में पेश क़दमी की, (२) उठाना पड़ा उमे आपने खशी मे उठाया । इस तरह श्रीमन्त सेठ लक्ष्मी चन्दजी भेलसा ने १०१) रु. आप दोनों सज्जनोंकी बदौलत 'अनेकान्त' को दो (३) जैन नवयुवक सभा जबलपुर, ने ३०) रु० वर्षका नया जीवन प्राप्त हुआ, इसके लिये मैं आप (४) सेठ गुलाबचन्दजी टोग्या इन्दौरने २५) रु० दोनों सज्जनोंका बहुत आभारी हूँ.और अपको देकर संस्थाओंको पत्र फ्री भिजवाये। हार्दिक धन्यवाद भेट करता हूँ। आपके इस निमित्त इस अवसर पर मैं अपने उन लेखक महानुको पाकर कितनोंको लेख लिखने की प्रेरणा हुई, को कभी नहीं भूल सकता, जिन्होंने समय समय कितने नये लेख लिखे गये, कितनी नई खोजें हुई, पर अपने महत्वके लेखों द्वारा मेरी, अनेकान्तकी कितनी विचार-जागृति उत्पन्न हुई, कितने ठोस और समाजकी सेवा की है । आपके सहयोगके साहित्यका निर्माण हुआ और उससे समाजको विना मैं कुछ भी नहीं कर सकता था । 'अनेक्या कुछ लाभ पहुंचा, उस सबको बतलानेकी कान्त' को इतना उन्नत, उपादेय तथा स्पृहणीय जरूरत नहीं, यहाँ संक्षेपमें इतना ही कहना है कि बनाना यह सब आपके ही परिश्रमका फल है।
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अनेकान्त
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और इसलिये मैं आपका सबसे अधिक आभार उमे मिल कर उठा लेवें, अथ गा इसके संचालनके मानता हैं। इन सज्जनों में बा० सूरजभानजी वकोल लिये समाजका एक सुव्यवस्थित बोर्ड नियत हो पं नाथूरामजी 'प्रेमी', बा. जयभगवानजी वकील, जावे, जिम में यह पत्र मर्वथा पर नुराखपेक्षा न रहेपं० परमानन्दजी शास्त्री, न्यायाचार्य पं. महेन्द्र- किसीकी किसी भी कारणवश सहायताकं बन्द हो कुमारजी, बा० अगरचन्दजी नाहटा, पं.रतनलाल- जाने पर इसका जीवन खतरेमें न पड़ जाय और जो संघवी, भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय, इमं अपना जीवन संकट टालने के लिये इ पं० भगवत्स्वरूपजी 'भगवत्', व्याकरणाचार्य पं० भटकना न पड़े इसे स्वावलम्बी बनन तथा घाटम वंशीधरजी, बा० माईदियालजी बी. ए., प्रो० मुक्त रहनेका पूरा प्रयत्न किया जाय और इसे जगदीशचन्दजी एम. ए., पं० कैलाशचन्दजो शास्त्री क्रमशः 'कल्याण' की कोटि का पत्र बनाया जाय । पंताराचन्दजी दर्शनशास्त्री और भाई बालमुकन्द- साथ ही, इमका प्रकाशन भी सम्पादनकी तरह जी पाटोदीके नाम खास तौरसे उल्लेख योग्य है। वीरसेवामन्दिर सरसावासे हो बराबर होता रहे, आशा है ये सब सज्जन ागेको इससे भी अधिक जो इसके लिये उपयक्त तथा गौरवका स्थान है । उत्साहके साथ 'अनेकान्त' की सेवा में तत्परर हेंगे, समाजकी माली हालत.धर्म कार्यों में उसके व्यय और और दूसरे सुलेखक भी आपका अनुकरण करेंगे। उसके श्रीमानोंकी उदार परिणतिको देखते हुए यह
२ अनेकान्तका आगामी प्रकाशन सब उसके लिये कुछ भी नहीं है। सिर्फ थोडासा 'अनेकान्त' की गत ११ वी किरणमें व्यवस्थापक योग इस तरफ देने-दिलाने की जरूरत है, जिसके अनेकान्तने जो सूचना निकाली थी उसके अनुसार इस लिये अनेकान्तके प्रेमियोंको खासतौरसे प्रयत्न कियाबाद में अनेकान्तका देहलीसे प्रकाशन बन्द हो करना चाहिये । मेरो रायमें बोड जैसी किपी बड़ा रहा है। श्रतः इस पत्रके आगामी प्रकाशनकी एक स्कीमसे पहले 'अनेकान्तके कुछ सहायक बनाए बड़ी समस्या सामने है । व्यवस्थापकजीकी सूचनाको जावें और उनके १००), ५०) तथा २५) के तीन पढ़कर मेरे पास पं० मुन्नालाल जी जैन वैद्य मलकापुर ग्रेड रक्खे जाएँ । कमसे कम १५ सज्जन सौसौकी (बरार) का एक पत्र अाया है, जिसमें उन्होंने २० सज्जन पचास पचासकी और २० सज्जन 'अनेकांत' के संचालन और उसके घाटेके भारको पच्चीस पञ्चीस रुपएकी सहायता करने वाले यदि उठाने के लिये अपने को पेश किया है और लिखा है कि मिल जाएँ तो अनेकान्त कुछ वर्षों के लिए घाटेकी स्वीकारता मिलने पर वे अपने श्रीमहावीर प्रिटिंग चिन्तासे मुक्त हो सकता है और इस असेंमें वह प्रेसमें अनेकान्त के योग्य नये टाइपों आदिकी व्यवस्था फिर अपने पैरों पर भी आप खड़ा हो सकता है । कर दगे और पत्रका सुन्दरता तथा शुद्धताक साथ यदिइस किरणके प्रकाशित.होनस १५दिन के भीतर छापकर प्रकाशित करनका पूरा प्रयत्न करेंगे । इस १५ नवम्बर तक मुझे ऐसे सहायकोंकी ओरसे प्रशंसनीय उत्साह के लिये आप निःसन्देह धन्यवादके एक हजार रुपयकी सहायताके वचन भी मिल गये पात्र हैं । अस्तु, अभी आपसे पत्रव्यवहार चल रहा है, तो मैं वीरसेवामन्दिर से ही अनेकान्तके चौथे कुछ समस्याएं हल होनेको बाकी हैं, जैसा कुछ अन्तिम वषका प्रकाशन शुरु कर दूंगा। आशा है अनेकान्त निर्णय होगा उसकी सूचना निकाली जायगी। के प्रेमी इस विषयकी महत्ताका अनुभव करते हुए
३ मेरी आन्तरिक इच्छा शीघ्र ही इस ओर योग देन-दिलानमें पेशकदमी मेरी आन्तरिक इच्छा तो यह है कि 'अनेकान्त' करेंगें और मुझे अपनी सहायताके वचनसे शीघ्र के घाटेका भार समाजके किसी एक व्यक्ति पर न ही सूचित करने की कृपा करेंगे। रक्खा जाय, बल्कि समाजके कुछ उदार सज्जन
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पंडितप्रवर अाशाधर
[ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी ]
(गत किरणसे आगे) -
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.-भट्टारक विनयचन्द्र-इष्टोपदेशकी टीकाके है-"रचितमिदं राजगुरुणा मदनेन ।' मदन गौड़ अनुसार ये सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य थे और ब्राह्मण थे। पण्डित आशाधरजीने इन्हें काव्य-शास्त्र इन्हें पण्डितजीने धर्मशास्त्र का अध्ययन कराया पढ़ाया था। था। इन्हींके कहनेसे उन्होंने इष्टोपदेशकी टीका -पंडित जाजाक- इनकी प्रेरणासे पण्डितजीने बनाई थी।
प्रति दिनके स्वाध्यायके लिए त्रिषष्टिस्मृति-शास्त्रकी -महाकवि मदनोपाध्याय-हमारा अनुमान है रचनाकी थी। इनके विषयमें और कुछ नहीं कि ये विन्ध्यवर्माके संधिविग्रहिक मंत्री बिल्हण मालूम हुआ। कवीशके ही पुत्र होंगे 18 'बाल-सरस्वती' नामसे १०-हरदेव-ये खण्डेवाल श्रावक थे और ये प्रख्यात थे और मालवनरेश अर्जुनवर्मा के गुरु अल्हण-सुत पापा साहुके दो पुत्रों बहुदेव और थे। अर्जुनवर्माने अपनी अमरुशतककी संजीविनी पद्मसिंहमेंसे बहुदेवके पुत्र थे । उदयदेव और टीकामें जगह जगह 'यदुक्तमुपाध्यायेन बाल-सरस्वत्या- स्तम्भदेव इनके छोटे भाई थे। इन्हींकी विज्ञप्तिसे परनाम्नामदनेन' लिखकर इनके अनेक पद्य उद्धृत पंडितजीने अनगारधर्मामृतकी भव्यकुमुदचंद्रिका किये हैं। उनसे मालूम होता है कि मदनका कोई टीका लिखी थी। अलंकार-विषयक ग्रन्थ था। महाकवि नदनकी पारि- ११ महीचन्द्र साहु-ये पौरपाट वंशके अर्थात् जातमंजरी नामकी एक नाटिकाथी,जिसके दो अंक परवार जातिके समुद्धर श्रेष्ठीके लड़के थे हैं। इनकी धारकी 'कमाल मौला' मसजिदके पत्थरों पर खदे प्रेरणासे सागारधर्मामृतकी टीकाकी रचना हुई थी हुए मिले हैं। अनुमान किया जाता है कि शेष और इन्हींने उसकी पहली प्रति लिखी थी। अंकोंके पत्थर भी उक्त मसजिदमें कहीं लगे होंगे। १२ धनचन्द्र--इनका और कोई परिचय नहीं पहले यह नाटिका महाराजा भोजदेवद्वारा स्थापित दिया है। सागार-धर्मटीकाकी रचनाके लिये इन्होंने शारदा-सदन नामक पाठशालामें उत्कीर्ण करके भी उपरोध किया था। रक्खी गई थी और वहीं खेली गई थी। अर्जुन- पौरपाट और परवार एक ही हैं, इसके लिए वर्मदेवके जो तीन दान-पत्र मिले हैं, वे इन्हीं देखिए मेरा लिखा हुआ 'परवार जातिके इतिहास पर मदनोपाध्यायके रचे हुए हैं । उनके अन्तमें लिखा प्रकाश' शीर्षक विस्तृत लेख, जो 'परवारबन्धु' और * देखिये आगे प्रशस्तिके ६-७ वें पद्यकी व्याख्या। 'अनेकान्त' में प्रकाशित हुआ है।
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अनेकान्त
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१३ केल्हण--ये खण्डेलवालवंशके थे और जो एक श्रेष्ठ मार्ग था, उसे छोड़कर मैं बहुत काल इन्होंने जिन भगवानकी अनेक प्रतिष्ठायें कराके तक भटकता रहा, अन्त में बहुत थक कर किसी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। सूक्तियों के अनुरागसे अर्थात तरह काललब्धिवश उसे फिर पाया । सो अब सुन्दर कवित्वपूर्ण रचना होने के कारण इन्होंने जिनवचनरूप क्षीरसागरसे उद्धृतकिये हुए धर्मामृत 'जिनयज्ञ-कल्प'का प्रचार किया था। यज्ञकल्पकी (आशाधरके धर्मामृतशास्त्र ? ) को सन्तोषपूर्वक पहली प्रति भी इन्हींने लिखी थी।
पी पीकर और विगतश्रम होकर मैं अहंदुद्भगवानका १४ धीनाक--ये भी खण्डेवाल थे। इनके पिता दास होता हूँ ॥ ६४ ॥ का नाम महण और माताका कमलश्री था। इन्होंने मिथ्यात्व-कर्म-पटलसे बहुत काल तक ढंकी हुई त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की सबसे पहली प्रति लिखी थी। मेरी दोनों आंखें जो कुमार्गमें ही जाती थीं,
कविअर्हददास-मुनिसुव्रतकाव्य, पुरुदेवचम्प आशाधरकी उक्तियों के विशिष्ट अंजनसे स्वच्छ और भव्यजनकंठाभरणके कर्ता हैं। पं० जिनदास ह गई और इसलिए अब मैं सत्पथका आश्रय शास्त्रीके खयालसे ये भी पण्डित आशाधरके शिष्य लेता हूँ ॥ ६५ ॥ थे। परन्तु इसके प्रमाणमें उन्होंने जो उक्त ग्रन्थोंके इसी तरह पुरुदेवचम्पूके अन्तमें अखिोंके पद्य उद्धृत किये हैं-उनसे इतना ही मालम होता बदले अपने मनके लिए कहा हैहै कि आशाधरकी सूक्तियोंसे और ग्रन्थोंसे उनकी मिथ्यात्वपंककलुषे मम मानसेऽस्मिन् दृष्टि निर्मल हो गई थी। वे उनके साक्षात शिष्य प्राशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने । थे. या उनके सहवास में रहे . यह प्रकट नही अर्थात-मिथ्यात्वकी कीचड़मे गँदले हुए मेरे . होता। पण्डित आशाधरजीने भी उनका कहीं स्पष्ट इस मानसमें जो कि अब आशाधरकी सूक्तियोंकी उल्लेख नहीं किया है। अब उन पद्योंपर विचार निर्मलीके प्रयोगसे प्रसन्न या स्वच्छ हो गया है । कीजिए। देखिए मुनिसुव्रत काव्यके अन्त में कहा है- भव्यकण्ठाभरणमें भी आशाधरसूरिकी इसी धावन्कापथसंभते भववने सन्मार्गमेकं परम तरह प्रशंसा की है कि उनकी सूक्तियाँ भवभीक त्यक्त्वा श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम्।।
___ गृहस्थों और मुनियों के लिए सहायक हैं।
___ इन पद्योंमें स्पष्ट ही उनकी सूक्तियों या उनके सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात्,
सद्ग्रन्थोंका ही संकेतहै जिनके द्वारा अर्हदासजीको पायं पायमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यहंतः ॥६४॥ ,
१४॥ सन्मार्गकी प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिष्यत्वका नहीं। मिथ्यात्वकर्मपटलैश्विरमावते मे
हाँ, चतुर्विशति-प्रबन्धकी कथाको पढ़ने के ___ युग्मे दृशेः कुपथयाननिदानभूते। बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता आशाधरोक्तिलसदंजनसंयोगै
है कि कहीं मदनकीर्ति ही तो कुमार्गमें ठोकरें खाते - रच्छीकृतेपृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥६५॥ खाते अन्तमें आशाधरकी सूक्तियोंसे अर्हदास न अर्थात् कुमार्गोंसे भरे हुए संसाररूपी बनमें बन गये हों। पूर्वोक्त प्रन्थमें जो भाव व्यक्त किये
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३, किरण १२]
पंडितप्रवर आशाधर
गये हैं, उनसे इस कल्पनाको बहुत कुछ पुष्टि मिलती "व्याघ्र वालवंशस रोज हंसः काव्यामृतौघरसपानसुतृप्तगात्रः
सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचतुराशाध
है । और फिर यह अर्हदास नाम भी विशेषण : जैसा ही मालूम होता है । सम्भव है उनका वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । यह नाम तो एक तरह की भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट करता है ।
इस सम्बन्धमें एक बात और भी नोट करने लायक है कि अर्हद्दासजीके प्रन्थोंका प्रचार प्रायः कर्णाटक प्रान्त में ही रहा है जहां कि वे चतुर्विंश तिप्रबन्धकी कथा के अनुसार सुमार्ग से पतित होकर रहने लगे थे । सत्पथपर पुन: लौटने पर उनका वहीं रह जाना सम्भव भी जंचता है ।
इतना सब लिख चुकने के बाद अब हम पं० आशाधर जी के अन्तिम ग्रन्थ अनगारधर्मामृत टीकाकी अन्त्य प्रशस्ति उद्धृत करके उसका भावार्थ भी लिख देते हैं जिसके आधार पर पूर्वोक्त सब बातें कही गई हैं । यह उनकी मुख्य प्रशस्ति है, अन्य ग्रंथोंकी प्रशस्तियाँ इसीमें कुछ पद्य कम ज्यादा करके बनी हैं । उन न्यूनाधिक पद्योंको भी हमने टिप्पणी में दे दिया है और आगे चलकर उनका भी अभिप्राय लिख दिया है ।
मुख्य प्रशस्ति
श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शाकम्भरीभूषणस्तत्र श्रीरतिधाम मण्डलकरं नामास्ति दुर्गं महत् । श्रीरम्यामुपादि तत्र विमलब्याघ्र रवालान्वयाच्छ्रीसल्लक्षणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधरः ॥१॥ सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वस्यामजीजनद् । यः पुत्रं छाहडं गुण्यं रंजितार्जुनभूपतिम् ॥२॥
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६६६
विजयतां कलिकालिदासः " ॥ ३ ॥ इस्युदय सेन मुनिना कविसुहृदा योऽभिनन्दितः प्रीया । "प्रज्ञापुंजोऽसी" ति च योऽभिहितो
मदन कीर्तियतिपतिना || lif म्लेच्छ्रेशेन + सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तपतित्रासाद्विन्ध्य नरेन्द्र दोः परिमलस्फूर्जस्त्रिवगौजसि । प्राप्तो मालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन् यो धारामपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे महावीरतः ॥en "श्राशावरत्वं 'मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौदर्यमजर्यमार्य । सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाण्यमयं प्रपञ्चः " ॥६॥ इत्युपश्लोकितो विद्वद्बिह्नणेन कवीशिना । श्रीविन्ध्यभूपतिमहा सान्धिविग्रहिकेण यः ॥ ७ ॥ श्रीमदर्जुन भुपालराज्ये श्रावकसं कुले । जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ॥ ८ ॥ यो द्राव्याकरणाधिपारमनयच्छुश्रूषमाणान कान्, षट्तक परमास्त्रमाध्य न यतः प्रत्यर्थिनः केऽचिपन् ।
+ मूलाराधना टीका ( शोलापुर ) जिस प्रति परसे प्रकाशित हुई है, उसमें प्रशस्तिके ये चार ही पद्य मिले हैं और सम्पादक पं० जिनदास शास्त्रीने प्रशस्तिको अपूर्ण लिखा है । शायद आगेका पत्र गायब है ।
त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की प्रशस्ति में प्रारम्भके दो पद्यों के बाद 'व्याघ्रेरवाल' आदि पद्य न होकर 'म्लेच्छेशेन' आदि पाँचवाँ पद्य है । उसके बाद 'श्रीमदर्जुन भूपाल' आदि आठवाँ और फर 'योद्राग्व्याकरणाब्धि' आदि नवाँ पद्य दिया है।
+ म्लेच्छेशेन साहिबुदीन तुरुष्कराजेन । -भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका |
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अनेकान्त
चेरुः केऽस्खलितं न येन जिनवागूदीपं पथि प्राहिताः । पीत्वा काव्यसुधां यतश्च रसिकेष्वापुः प्रतिष्ठां न के ॥ ६ ॥ स्याद्वादविद्याविशदप्रसादः प्रमेय रत्नाकरनामधेयः ।
राजीमतीविप्रलम्भं नाम नेमीश्वरानुगम् । व्यधत्त खण्डकाव्यं यः स्वयंकृतनिबन्धनम् ॥१२॥ श्रादेशात्पितुरध्यात्मरहस्यं नाम यो व्यधात् ।
तर्कप्रबन्ध निरवद्यपथ पीयूषपूरो वहति स्म यस्मात् ॥ १० ॥ शास्त्रं प्रसन्न गम्भीरं प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥ १३ ॥
सिद्धयङ्कं भरतेश्वराभ्युदय सत्कान्यं निबन्धोज्ज्वलं, यस्त्रैविद्यकवीन्द्र मोदनसहं स्वश्रेयसे ऽरीरचत् ।
द्वाक्यरसं निबन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतं, निर्माय न्यदधान्मुमुचुविदुषामानन्दसान्द्रे हृदि ॥११॥ ] * त्रिषष्टिस्मृतिकी प्रशस्ति में इस पद्यका नम्बर पाँच है । उसके आगे नीचे लिखे पद्य हैं
यो मूलाराधनेष्टोपदेशादिषु निबन्धम् । व्यधत्तामरकोषे च क्रियाकलापमुजगौ ॥ १४ ॥ रौद्रस्य व्यधास्काव्यालंकारस्य निबन्धनम् । सहस्त्रनामस्तवनं सनिबन्धं च योर्हताम् ॥ १३ ॥ सनिबन्धं यश्च जिनयज्ञकल्पमरीरचत् । त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र यो निबन्धालंकृतं व्यधात् ॥ १६ ॥ यो महाभिषेकाचविधि मोहत मोरविम् ।
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चक्रे नित्य महोद्योतं स्नानशास्त्र जिनेशिनाम् ॥ १७ ॥ रत्नत्रय विधानस्य पूजामाहात्म्य वर्णकम् । taarविधानाख्यं शास्त्र वितनुते स्म यः ॥ १८॥
धर्मामृतादिशास्त्राणि कुशाग्रीयधियामिव । यः सिद्धय क महाकाव्यं रसिकानां मुदेऽसृजत् ॥ ६ ॥ सोहमाशाधरः कण्ठमलंकर्तुं सधर्मिणाम् । पञ्चिकालंकृतं ग्रंथमिमं पुण्यमरीरचम् ॥ ७ ॥ क्वार्षमब्धिः क्व मद्धीस्तैस्तथाप्येतद्यूतं मया । पुण्यैः सदृद्भ्यः कथारत्नान्युद्धृत्य प्रथितान्यतः ॥८ संक्षिप्यतां पुराणानि नित्यस्वाध्यायसिद्धये । इति पण्डितजाजाका द्विज्ञप्तिः प्रेरिका मे ॥ ६॥ यच्छद्मस्थतया किञ्चिदत्रास्ति स्खलितं मम । तत्संशोध्य पठन्त्वेनं जिनशासनभाक्तिकाः ॥ १० ॥ महापुराणान्तस्तत्त्वसंग्रहं पठतामिमं । त्रिषष्टिस्मृतिनामानं दृष्टिदेवी प्रसीदतु ॥ ११ ॥ प्रमारवंशवार्धीन्दु देवपालनृपात्मजे ।
श्रीमतु देिवेऽसिस्थानावन्तीमवत्यलम् ॥ १२ ॥ नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमि चैत्यालये ऽसिधत् । ग्रंथोऽयं द्विनवद्वय कविक्रमार्कसमात्यये ॥ १३ ॥ खाण्डिल्यवंशे महणकमलश्रीसुतः सुदृक् । वीनाको वर्धतां येन लिखितास्याद्यपुस्तिका ॥ १४ ॥
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इसके श्रागे 'राजीमती' और 'श्रादेशात् ' श्रादि दो पद्य सागारधर्मामृत और जिन यज्ञकल्पकी प्रशस्तियों में नहीं है।
इस पद्यके श्रागे जिनयज्ञकल्पमें नीचे लिखे पद्य दिये हैं
प्राच्यानि संचर्च्य जिनप्रतिष्ठाशास्त्राणि दृष्ट्वा व्यवहारमैन्द्रं । आम्नाय विच्छेदतमच्छिदेयं ग्रंथः कृतस्तेन युगानुरूपः ॥ १८
खाण्डिल्यान्वयभूषणाल्हण सुतः सागारधर्मे रतो, वास्तव्यो नलकच्छचारु नगरे कर्ता परोपक्रियाम् । सर्वज्ञाचंनपात्रदानसमयोद्योत प्रतिष्ठाप्रणीः, पापासाधुरकारयत्पुनरिमं कृत्वोपरोधं मुहुः ॥ १६ ॥ विक्रमवर्षसपंचाशीतिद्वाशदशशतेष्वतीतेपु, आश्विन सितान्त्य दिवसे साहसमल्लाप राख्यस्य । श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये, नलकच्छपुरे सिद्धोग्रन्थोयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥ २० ॥ अनेकात्प्रतिष्ठाप्तप्रतिष्ठैः केल्हणादिभिः । सद्यः सूक्तानुरागेण पठित्वायं प्रचारितः ॥ २१ ॥ नन्द्यात्खाण्डिल्यवंशोत्थः केल्हणो न्यासवित्तरः । लिखितो येन पाठार्थमस्य प्रथमपुस्तकम् ॥ २२ ॥
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वर्ष ३, किरण १२]
पण्डितप्रवर पाशाधर
आयुर्वेदविदामिष्टं व्यक्तु वाग्भटसंहिताम् । नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् । भष्टाङ्गहृदयोद्योतं निबन्धमसृजच्च यः ॥ १६ ॥
विक्रमाब्दशतेष्वेषा त्रयोदशसु कार्तिके ॥ ३१ ॥ सोहमाशाधरोऽकार्ष टीकामेतां मुनिप्रियाम् । मुख्य प्रशस्तिका भावार्थ स्वोपज्ञधर्मामृतोक्तयतिधर्मप्रकाशिनीम् ॥ २० ॥ शाकंभरीभषण सपादलक्ष । देशमें लक्ष्मीसे शब्द चार्थे च यत्किचिदवास्ति स्खलितं मम । भरा परा मण्डलकर नामका किला था । वहा छमस्थभावात् संशोध्य सूरयस्तत् पठन्त्विमाम् ॥२१ - नलकच्छपुरे पौरपौरस्त्यः परमार्हतः ।
* इसके स्थान पर सागारधर्मामृतमें निम्न जिनयज्ञगुणौचिस्यकृपादानपरायणः ॥ २२ ॥ श्लोक हैंखंडिल्यान्वयकल्याणमाणिक्यं विनयादिमान् ।
नलकच्छपुरे श्रीमन्नैचैत्यालयेऽसिधत् । साधुः पापाभिधः श्रीमानासीत्पापपराङ्मुखः ॥२३॥ टीकेयं भव्यकुमुदचन्द्रिकेत्युदिता बुधैः ॥ २० ॥ तत्पुत्रो बहुदेवोऽभूदायः पितृभरक्षमः ।
षण्णवद्धय कसंख्यानविक्रमांकसमात्यये।। द्वितीयः पद्मसिंहश्च पनालिगितविग्रहः ॥२४॥ सप्तम्यामसिते पौषे सिद्धेयं नंदताच्चिरम् ॥ २१ ॥ बहुदेवात्मजाश्वासन हरदेवः स्फुरद्गुणः ।
श्रीमान् श्रेष्ठिसमुद्धरस्य तनयः श्रीपौरपाटान्वयउदयी स्तम्भदेवश्च त्रयस्त्रैवर्गिकाताः ।। २५ ॥ व्योमेन्दुःसुकृतेन नन्दतु महीचन्द्रो यद॑भ्यर्थनात् । मुग्धबुद्धिप्रबोधार्थ महीचन्द्रेण साधुना ।
चक्रे श्रावकधर्मदीपकमिमं ग्रन्थं बुधाशाधरो धर्मामतस्य सागारधर्मटीकास्ति कारिता ॥ २६॥ ग्रन्थस्यास्य च लेखितोऽपि विदधे येनादिमः पुस्तकः ॥२२ तस्यैव यतिधर्मस्य कुशाग्रीयधियामपि । इष्टोपदेश-टीकाकी प्रशस्तिमें नीचे लिखे तीन पद्य हैंसुदुर्बोधस्य टीकार्य प्रसादः क्रियतामिति ॥ २७ ॥ विनयेन्दुमुनेर्वाक्याद्भव्यानुग्रहहेतुना । हरदेवेन विज्ञप्तो धनचन्द्रोपरोधतः ।
इष्टोपदेशटीकेयं कृताशाधरधीमता ॥ २॥ पंडिताशाधारश्चक्रे टीकां चोदक्षमामिमाम् ॥ २८॥ उपशम इव मूर्तः सागरेन्दुमुनीन्द्राविद्वद्भिभव्यकुमुदचन्द्रिकेत्याख्ययोदिता।
दजनि विनयचन्द्रः सच्चकोरैकचन्द्रः । द्विष्ठाप्याकल्पमेषास्तां चिन्त्यमाना मुमुक्षुभिः ॥२६॥ जगदमुतसगर्भाशस्त्रसन्दर्भगर्भः प्रमारवंशवार्थीन्दुदेवपालनृपात्मने ।
शुचिचरित वरिष्णोर्यस्य धिन्वंति वाचः॥ श्रीमजैतुगिदेवेसिस्थाम्नाऽवन्तीनऽवस्यलम् ॥३०॥ जयन्ति जगतीवन्द्या श्रीमन्नेमिजिनाह्वयः।
रेणवोऽपि शिरोराज्ञामारोहन्ति यदाश्रिताः॥ ३ ॥ + यह पद्य सागारधर्मामत--टीका में और जिनयज्ञकल्पमें ११ नम्बरके बाद दिया है।
- सपादलक्षको भाषामें सवालख कहते हैं । नागौर ___इसके बदले सागारधर्मामत-टीकामें नीचे लिखा (जोधपुर) के अासपासका प्रदेश सवालख नामसे हुआ पद्य है।
प्रसिद्ध है । वहां पहले चौहान राजाओंका राज्य था। सोऽहमाशाधरो रम्यामेता टीका व्यरीरचम्। फिर सांभर और अजमेरके चौहान राजाओंका सारा धर्मामृतोक्तसागारधर्माष्टाध्यायगोचराम् ॥ १८॥ देश सपादलक्ष कहलाने लगा, और उसके सम्बन्धसे
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अनेकान्त
बघेरवाल वंशमें श्री सल्लक्षण नामक पिता और श्रीरत्नी माता से जैनधर्म में श्रद्धा रखने वाले पण्डित आशाधरका जन्म हुआ । १
अपने आपको जिस तरह सरस्वती (वाग्देवता) में प्रकट किया उसी तरह जिसने अपनी पत्नी सरस्वतीमें छाहड़ नामक गुणी पुत्रको जन्म दिया, जिसने मालव- नरेश अर्जुनवर्मदेवको प्रसन्न किया | २
[ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
होजाने पर सदाचार-नाशके डर से जो बहुत से परिजनों या परिवार के लोगों के साथ बिन्ध्यवर्मा राजाकं † मालव मण्डल में आकर धारानगरी में बस गया और जिसने वादिराज पण्डित घर सेनके शिष्य शहाबुद्दीन ग़ोरी हो है । इसने वि० सं० १२४६ ( ई० सं० ११९२ ) में पृथ्वीराजको हराकर दिल्लीको अपनी राजधानी बनाया था। उसी वर्ष अजमेरको भी अपने अधीन करके और अपने एक सरदारको सारा कारबार सौंपकर वह गज़नी लौट गया था । शहाबुद्दीनने पृथ्वीराज चौहान से दिल्लीका सिंहासन छीनते ही अजमेर पर धावा किया होगा; क्योंकि अजमेर भी
कवियोंके सुहृद्उदयसेन मुनिद्वारा जो प्रीति पूर्वक इन शब्दोंद्वारा अभिनन्दित किया गया— बघेरवाल वश-सरोवरका हंस, सल्लक्षणका पुत्र, काव्यामृतके पानसे तृप्त, नय- विश्वचक्षु, और पृथ्वीराज के अधिकार में था और उसी समय सपादलक्ष देश उसके अत्याचारोंसे व्याप्त हो रहा होगा । इसी समय कलिकालिदास पण्डित आशाधरकी जय हो ।” अर्थात् विक्रम संवत् १२४६ के लगभग पं० शाधर और मदनकीर्ति यतिपतिने जिसे 'प्रज्ञापुंज' कहकर मांडलगढ़ छोड़कर धारा में आये होंगे । अभिहित कियो । ३-४
म्लेच्छ नरेशके द्वारा सपादलक्ष देश के व्याप्त
चौहान राजाओंको 'सपादलक्षीय नृपति' विशेषण दिया जाने लगा । साँभरको ही शाकंभरी कहते हैं । साँभर झील जो नमकका आकार है, उस समय सवालख देश की सिंगार थी, अर्थात् साँभरका राज्य भी तब सवालख में शामिल था । मण्डलकर दुर्ग अर्थात् मांडलगढ़ का किला इस समय मेवाड़ राज्य में है, परन्तु उस समय मेवाड़का सारा पूर्वीय भाग चौहानों के अधीन था। चौहान राजाओंके बहुतसे शिलालेख वहां पर मिले हैं। पृथ्वीराजके समय तक वहांके अधिकारी चौहान रहे हैं। अजमेर जब मुसलमानोंके क़ब्जे में आया तब माँडलगढ़ भी उनके हाथ चला गया ।
धर्मामृतक टीका में इस म्लेच्छ राजाको "साहिबुद्दीन तुरुष्क” बतलाया है । यह गज़नीका बादशाह
+ नगारधर्मामृत की मुद्रित टीका में विन्ध्यभूपतिका खुलासा 'विजयवर्म मालवाधिपतिः ' किया है; परन्तु हमारे अनुमानसे लिपिकार के दोषसे अथवा प्रूफसंशोधककी असावधानीसे ही 'विन्ध्यवर्म की जगह 'विजयवर्म' हो गया है । परमारवंशकी वंशावलियों और शिलालेखों में विन्ध्यवर्माका 'विजयवर्मा' नामान्तर नहीं मिलता । श्रीयुक्त लेले और कर्नल लुग्रर्डने विन्ध्यवर्माका समय वि० सं०१२१७ से १२३७ तक निश्चित किया है; परन्तु पं० श्राशाधरजीके उक्त कथनसे कमसे कम १२४९ तक विन्ध्यवर्माका राज्यकाल माना जाना चाहिए । उक्त विद्वानोंने विन्ध्यवर्मा के पुत्र और उत्तराधिकारी सुभटवर्मा ( सोहड़ ) का समय १२३७ से १२६७ तक माना है, परन्तु सुभटवर्मा १२३७ में राजा था, इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है, वह १२४६ के बाद ही राजपद पर आया होगा ।
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पंडितप्रवर आशाधर
वर्ष ३, किरण १२ ]
पं० महावीरसे जैनेन्द्र प्रमाण- शास्त्र और जैनेन्द्र रूपसे न चलाया हो और ऐसे कौन हैं जिन्हें काव्यसुधा पिला करके रसिकोंमें प्रतिष्ठा न प्राप्त कराई हो ॥ ९ ॥
( इस श्लोक की टीका में पं० आशाधरजीने जुदा जुदा विषयोंका अध्ययन करनेवाले अपने शिष्यों के नाम भी देदिये हैं । उन्होंने पण्डित देवचन्द्रादिको व्याकरण, वादीन्द्र विशालकीर्त्यादिको न्यायशास्त्र, भट्टारक विनयचन्द्र आदिको धर्मशास्त्र और बालसरस्वती महाकवि मदनादिको काव्यशास्त्रका अध्ययन कराया था ) |
व्याकरण पढ़ा ॥ ५ ॥
)
विन्ध्यत्रर्माके सान्धिवैग्रहिक मन्त्री ( फॉरेन सैक्रेटरी) बिल्हण कविराजने जिसकी इस प्रकार स्तुति की " हे आशाधर, हे आर्य, सरस्वतीपुत्रता से तुम मेरे साथ अपनी स्वाभाविक सहोदरता ( भाईपन और अन्वर्थक मित्रता समझो। ( 'सरस्वतीपुत्रता' लिष्ट पद है । अर्थात् जिस तरह तुम सरस्वतीपुत्र हो उसी तरह मैं भी हूँ । शारदाकं उपासक होने से दोनों सरस्वतीपुत्र तो थे ही, साथ ही आशाधरकी पत्नीका नाम सरस्वती था और उससे छाहड़ नाम का पुत्र था । उस सरस्वती पुत्र आशाधरको सरस्वती-पुत्रता प्राप्त थी । उधर मेरा अनुमान है कि बाल-सरस्वती महाकवि मदन भी बिल्हणके पुत्र होंगे, इसलिए उन्हें भी सरस्वती - पुत्र कहा जा सकता है । इस रिस्तेसे बिल्हणने आशाधरको सहोदर भाई कहा है ) ।। ६-७ ।।
जो अर्जुनदेव के राज्य-काल में नकच्छपुर में | जो श्रावकों के घरोंसे सघन था जैनधर्मका उदय करने के लिए जाकर रहा ॥ ८ ॥
जिसने शुश्रूषा करने वाले अपने शिष्यों में से ऐसे कौन हैं जिन्हें व्याकरण समुद्रके पार न पहुँचाया हो, ऐसे कौन हैं जिन्हें षट्दर्शन के तर्कशस्त्रको देकर प्रतिवादियोंपर विजय प्राप्त न कराई हो, ऐसे कौन हैं जिन्हें जिन वचनरूपी दीपक ( धर्मशास्त्र ) ग्रहण कराके धर्म - मार्ग में निरतिचार
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+ नलकच्छपुरको इस समय नालछा कहते हैं । यह स्थान धार ( मालवा ) से १० कोसकी दूरी पर है । ब भी वहां पर श्रावकोंके कुछ घर हैं, जैनमन्दिर भी हैं ।
जिसने (आशा धरने) 'प्रमेयरत्नाकर' नामका तर्क - प्रन्थ बनाया, जो स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसाद है और जिसमेंसे सुन्दर पद्योंका पीयूष (अमृत) प्रवाहित होता है ॥ १० ॥
जिसने 'भरतेश्वराभ्युदय' नामका सत्काव्य, जो निबन्धोज्ज्वल अर्थात् स्वोपज्ञ टीकासे स्पष्ट है, त्रैविद्य कविराजों को प्रसन्न करनेवाला है, सिद्धचक है, अर्थात जिसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में 'सिद्धि' शब्द आया है, अपने कल्याणके लिए रचा। जिसने जिनागमसंभूत धर्मामृत नामका शास्त्र, 'निबन्धरुचिर, अर्थात् ज्ञानदीपिका नामका पञ्जिका टीकासे सुन्दर बनाकर मुमुक्षु विद्वानोंके हृदय में अतिशय आनन्द उत्पन्न किया ॥११॥
जिसने श्री नेमिनाथविषयक 'राजमती - विप्रलंभ' नामक खण्ड काव्य स्वोपज्ञ टीकासे युक्त
बनाया || १२ ॥
जिसने अपने पिता की आज्ञासे योगशास्त्र का अध्ययन आरम्भ करने वालोंके लिए प्यारा और प्रसन्न गम्भीर अध्यात्म रहस्य नामक शास्त्र बनाया ।। १३ ।।
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
जिसने मूलाराधना (भगवतीआराधना ) पर, जिसने वाग्भट संहिताको स्पष्ट करने के लिए इष्टोपदेश ( पूज्यपादकृत ) आदिपर और अमर- आयुर्वेद के विद्वानोंके लिए इष्ट 'अष्टांगहृदयोद्योत' कोशपरके टीकायें लिखीं और 'क्रियाकलाप' की नामका निबन्ध ( टीका ग्रन्थ ) लिखा ॥ १९॥ रचना की । (आदि शब्दकी टीकामें आराधनासार ऐसा मैं आशाधर (जिसका परिचय ऊपर ( देवसेन कृत ) और भूपाल चतुर्विशतिका आदि दिया जा चुका है ) धर्मामृतके यतिधर्मको प्रकाशित की भी टीकायें बनानेका उल्लेख किया है। ) ॥१४॥ करनेवाली और मुनियोंको प्यारी यह टीका ___ जिसने रुद्रटाचार्यके 'काव्यालङ्कार' की टोका रचता हूँ ॥२०॥ बनाई और स्वोपज्ञ टीका सहित जिनसहस्र नाम यदि इसमें छद्मस्थताके कारण शब्द-अर्थका बनाया ॥ १५॥
कुछ स्खलन हुआ हो, तो धर्माचार्य और विद्वान जिसने जिनयज्ञकल्पदीपिका नामक टीका उसे सुधार कर पढ़ें ॥ २१ ॥ सहित 'जिनयज्ञकल्प' और सटीक त्रिषष्टि-स्मृति- नलकच्छपुर ( नालछा ) में गृहस्थोंके अगुए, शास्त्र' की रचना की ॥ १६ ॥
परम आहेत, जिनपजा-कृपादानपरायण, सोनाजिसने अर्हत् भगवानकी अभिषेक सम्बन्धी
माणिक-विनयादिसे युक्त, पापोंसे पराङ्मुख,खण्डेविधिके अन्धकारको दूर करने के लिए सूर्यके सदृश
लवाल वंशके पापा नामक साहूकार हैं ॥२२.२३।। 'नित्य-महोद्योत' नामका स्नानशास्त्र बनाया ॥१७
उनके दो पुत्र हैं, पहले पिताकी गृहस्थीके भारको
संभालनेवाले बहुदेव और दूसरे लक्ष्मीवान पद्मसिंह - जिसने रत्नत्रय-विधानकी पूजा और
॥ २४ ॥ बहुदेवके तीन पुत्र हैं-हरदेव, उदयदेव माहात्म्यका वर्णन करनेवाला 'रत्नत्रय-विधान'
और स्तंभदेव । ये तीनों धर्म, अर्थ, कामका साधन नामका शास्त्र बनाया ॥१८॥
करनेवाले हैं ।। २५ ॥ साहू महीचन्द्रने बालबुद्धियों * पहले भ्रमवश यह समझ लिया गया था कि को समझानेके लिए धर्मामृतशास्त्र के सागार-धर्मकी अमरकोशकी जो पं० आशाधरकी लिखी टीका है, टीका बनवाई और उसी धर्मामृतके यतिधर्म उसका नाम 'क्रियाकलाप' होगा । इस विषयमें 'विद- (अनगारधर्म ) पर भी जो कुशाग्रबुद्धिवालोंके द्रत्नमाला' के लेखका अनुसरण करके प्रायः सभी लिए भी दुर्बोध्य है, टीका बना दीजिए, इस प्रकार विद्वानोंने इस ग़ल्तीको दुहराया है । यहाँ तक कि पं० को हरदेवकी विज्ञप्ति और धनचन्द्र के अनुरोधसे पन्नालालजी सोनीने भी अपने अभिषेकसंग्रहकी भमिका पण्डित आशाधरने यह क्षोदक्षमा ( विचारसहा ) में यही माना है । साहित्याचार्य पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ टीका बनाई ।। २६-२८ ।। भी अपने पिछले ग्रंथ 'राजा भोज' में 'अमरकोशकी विद्वानोंने इसे भव्यकुमुदचन्द्रिका नाम दिया। क्रियाकलाप-टीका' लिख गये हैं । वास्तवमें क्रिया-कलाप ये दोनों सागार-अनगार-टीकायें कल्पकालपर्यंत पं० आशाधरका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और उसकी एक रहें और मुमुक्षुजन इनका चिन्तन, अध्ययन करते हस्तलिखित प्रति बम्बईके सरस्वतीभवनमें मौजूद है। रहें ॥ २९ ॥
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वर्ष ३, किरण १२]
पंडितप्रवर पाशाधर परमारवंश-समुद्रके चन्द्रमा श्री देवपाल श्री नेमिनाथ-चैत्यालयमें यह ग्रंथ वि० सं० १२९२ राजाके पुत्र जैतुगिदेव जब अपने खड्गबलसे अव- में सिद्ध हुआ ॥ १२-१३ ॥ खण्डेलवालवंशके महम न्तीका पालन कर रहे हैं तब यह टीका नलकच्छ- (पिता) और कमलश्री (माता) के पुत्र सदृष्टि पुरके . श्रीनेमिनाथ चैत्यालयमें वि० सं० १३०० घीनाककी वृद्धि हो, जिसने इस प्रन्थकी पहली कार्तिक सुदी पंचमी सोमवारके दिन समाप्त प्रति लिखी ॥ १४॥ हुई ॥ ३०-३१॥ ___ इस मुख्य प्रशस्तिसे अधिक जो पद्य अन्य जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिका भावार्य ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में हैं, उनका भी सारांश आगे
प्राचीन प्रतिष्ठाशास्त्रोंकी अच्छी तरह चर्चा करके दे दिया जाता है । मूल पद्य मुख्य-प्रशस्तिके नीचे आलोचना करके और इन्द्रसम्बन्धी व्यवहारको टिप्पणीके तौर पर दिये जा चुके हैं। देखकर आम्नायविच्छेदरूप अन्धकारको नष्ट करने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रकी प्रशस्तिका भावार्थ वाला यह युगानुरूप प्रन्थ उसने बनाया ॥ १८ ॥
- खण्डेलवाल वंशके भूषण, अल्हणके पुत्र, श्रावक जिसने धर्मामृतादि शास्त्र कुशाग्र बुद्धिवालोंके धर्ममें रत, नलकच्छपुरके रहनेवाले, परोपकारी, लिये और सिद्धयक महाकाव्य (भरतेश्वराभ्युदय) जिनपूजा, पात्रदान, और समयोद्योतक प्रतिष्ठा रसिकोंके आनन्दके लिये लिखा ॥६॥ उसी करनेवालोंमें अगुए, पापा साहू ने बारबार अनुरोध
आशाधरने सहधर्मियोंके कण्ठको अलंकृत करनेके करके यह बनवाया ॥१९॥ आश्विन सुदी १५ वि० लिए यह पञ्जिका टीकायुक्त पवित्र ग्रन्थ रचा सं० १२८५ को परमारकुलशेखर देवपालके सुराज्य ॥७॥ कहाँ तो आर्ष ( महापुराणरूप ) समुद्र में, जिनका दूसरा नाम साहसमल है, यह ग्रंथ और कहाँ मेरी बुद्धि, तो भी सज्जनोंके लिए मैंने नलकच्छपुरके नेमि-चैत्यालयमें सिद्ध हुआ ॥२०॥ उसमेंसे कथा रत्नोंको उद्धृत करके इस शास्त्रमें बहुत-सी प्रतिष्ठायें करानेवाले केल्हणादिने सूक्तियों प्रथित कर दिया है ॥ ८॥ प्रतिदिनके स्वाध्यायके या सुभाषितके अनुरागसे पढ़कर इसका जल्दी ही लिए पुराणोंको संक्षिप्त कर दीजिये, पं० जाजाककी प्रचार किया। खण्डेलवाल वंशके ये न्यासवित् इस विज्ञप्तिने मुझे प्रेरित किया ॥ ९॥ इसमें मेरी केल्हण प्रसन्न रहें जिन्होंने इसकी यह पहली प्रति छद्मस्थताके कारण यदि कुछ स्खलन हुआ हो तो पाठ करने के लिए लिखी ॥ २१-२२ ॥ जिनशासनभक्त उसको सुधार कर पढ़ें ॥ १० ॥ इस महापुराणके अन्तस्तत्त्वसंग्रहके पढ़नेवालों पर सागारधर्मामृत-टीकाकी प्रशस्तिका सम्यग्दृष्टि देवी प्रसन्न हो ॥ ११ ॥ परमारवंश-संमुद्रके चन्द्रमा देवपाल राजाके
___ भावार्थ पुत्र जैतुगिदेव जब अपनी तलवारके जोरसे अवन्ती यह भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका नलकच्छपुरके (मालवा) पर शासन कर रहे हैं तब नलकच्छपुरके नेमि-चैत्यालयमें पौष वदी सप्तमी सं० १२९६ को
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समाप्त हुई || २०-२१ ॥ पौरपाट ( परवार) वंशरूप आकाशका चन्द्रमा और समुद्धर श्रेष्ठीका पुत्र महीचन्द्र प्रसन्न रहे, जिसकी प्रार्थना से आशाधरने यह श्रावकधर्मका दीपक ग्रंथ बनाया और जिसने इसकी पहली प्रति लिखी ॥ २२ ॥
इष्टोपदेश - टीकाकी प्रशस्तिका भावार्थ
अनेकान्त
विनयचन्द्र मुनिके कहने से और भव्यों पर दया करके पं० आशाधरने यह इष्टोपदेश टीका बनाई । साक्षात् उपशमकी मूर्तिके तुल्य सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र हुए जो सज्जन चकोरोंके लिए चन्द्र हैं, पवित्रचरित्र हैं और जिनकी वाणी अमृतगर्भा और शास्त्रसन्दर्भगर्भा है ॥ २ ॥
जगद्वन्द्य श्री नेमिनाथ के चरणकमल जयवन्त हों, जिनके आश्रयसे धूल भी राजाओं के सिर पर चढ़ती है ॥ ३ ॥
परिशिष्ट
उक्त लेख के छप चुकने के बाद मैं अपने कुछ पुराने काग़जात देख रहा था कि उनमें स्व० पं० पन्नालालजी बाकलीवाल की भेजी हुई कुछ ग्रन्थ प्रशस्तियाँ मिलीं, जो उन्होंने जयपुर के कई पुस्तक भंडारोंसे नकल करके भेजी थीं। उनसे पता चला
[ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
कि वहाँ के पाटोदीजी के मन्दिर में भूपालचतुर्वि - शतिकाकी टोका और जिनयज्ञकल्प सटीक मौजूद हैं। पहले प्रन्थ में १४ पत्र और ४०० श्लोक हैं । उसका प्रारंभ इस प्रकार होता हैप्रणम्य जिनमज्ञानां सज्ञानाय प्रचचयते । अशाधरो जिनस्तोत्रं श्रीभूपालकवेः कृति ॥ १॥ अन्त में लिखा है
* यह लेख 'दि० जैन पुस्तकालय' सूरत से शीघ्र प्रकाशित होने वाली 'सागार धर्मामृत भाषा टीका' की भूमिका के लिये लिखा गया है। - लेखक
उपशम इव मूर्त्तिः पूतकीर्तिः स तस्मादनि विन (न) यचन्द्रः सच्च कोरे कचन्द्रः । नगदमतसगर्भाः शास्त्रसन्दर्भगर्भाः शुचिसिनो (वरिष्णो) यस्य धिन्वन्ति are: विनयचन्द्रस्यार्थमित्याशाधरविरचिता भूपालचतुर्वि - शतिजिनेन्द्रस्तुतेष्टीका परिसमाप्ता ।
२५००
दूसरे ग्रंथ में १०२ पत्र हैं और श्लोक संख्या है । उसका प्रारंभ इस प्रकार होता है-. नत्था परापरगुरून्मन्दधियामर्थतत्त्वसंवित्तै । विदधेल्पशो निबन्धं स्वकृतेर्जिनयज्ञकल्पस्य ॥ अन्त में लिखा है
इत्याशाधरब्धे जिनयज्ञकल्पनिबन्धे कल्पदीपकनाग्नि षष्ठोध्यायः ॥ ६
इत्याशाधर विरचितो जिनयज्ञकल्पनिबन्धो कल्पदीपको नाम समाप्तः । संवत् १४१५ शाके १३६० वर्ष माघ वदि = गुरुवासरे ।
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ऊँच नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
लेखक-श्री बालमुकुन्द पाटोदी जैन, 'जिज्ञासु']
ज्योतिष श्रादि सीखकर विद्यागणोंकी वद्धि में अपनी घानेकान्तके इसी वर्षकी दूसरी किरणमें, मैंने अपने उन्नति किया करते हैं और कोई यम-नियम, तप संयम,
- उपर्युक्त शीर्षक वाले लेखमें 'मनुष्यों में क्या, ज्ञान-ध्यान-स्वाध्यायादि संसारोच्छेदक अनुष्ठानोंको संपूर्ण साँसारिक जीवों में अपने अच्छे बुरे आचरणके करके धर्माचरणोंमें अपनी उन्नति किया करते है। और
आधार पर ही ऊँचता अथवा ऊँचगोत्रोदय तथा इस तरह सहस्रों प्रकारके कार्यों में अपनी उन्नति करके नीचता अथवा नीच गोत्रोदय हैं,' इस प्रकार चर्चा की अपने अपने नियम के(वृद्ध बढ़े) हुये अथवा बड़े कहलाते थी, अब इस दूसरे लेखमें मैं उसे कुछ विशेष रूप हैं; जैसे वयोवृद्ध, धनवृद्ध, गुणवृद्ध या विद्यावृद्ध, देखा हूँ और इस विषय में अपनी समझ तथा अनेक बुद्धिवृद्ध, और धर्मवृद्ध आदि । और जो इन उपयुक्त विद्वानोंके लेखोंके अध्ययन-मनन परसे बने हुए अपने विषयोंमें अवनत होते हैं वे हीन तथा छोटे कहलाते हृदयके भावको और अधिक स्पष्टताके साथ ब्यक्त करता हैं । यह सहस्रों प्रकार के विषयों ( कार्य, कला, विद्या
आदि ) की उन्नति, अवनति ही ऊँच नीच गोत्र कर्मो
दय है । गोत्र कमके अगणित भेद हैं। ऊँच-नीचगोत्रकर्मोदय क्या है ? ___ मुमुक्षु-भावनासे श्रोत-प्रोत हृदयों वाले हमारे संपूर्ण संसारके जीव और विशेष करके मनुष्य प्राचार्योंने आत्मा के अन्य कार्योंकी उन्नति-अवनतिके अपनी अपनी यथासंभव और यथाशक्ति उन्नति करने विषयमें लिखनेको अप्रयोजनभूत समझ कर उसकी के सदैव इच्छुक रहा करते हैं और उन्नति करते भी उपेक्षा की और प्रधानतया आत्माकी प्रयोजनभूत केवल रहते हैं। कोई स्वास्थ्यके नियमोंका पालन करके धार्मिक उन्नति के विषय में ही जिसका कि वे अभ्यासकर बधुत काल तक जीते रहने में अपनी उन्नति करते हैं, रहे थे, गहरी छान, बीन, खोज तलाश, तर्कवितर्क आदि कोई बहुत धन कमा कर धनवृद्धि में अपनी उन्नति करनेमें ही अपनी सारी शक्ति लगादी और अगणित करते हैं; कोई नानापकारकी युक्तियाँ सीखकर और साहित्यका निर्माण कर डाला । बताकर तथा कठिनसे कठिन कार्यको भी सरलतापूर्वक जिन आचरणोंसे जन्म-मरणरूप संसार-भ्रमणकी करलेनेकी तरकीबें ( उपाय ) सोच सोच कर अपनी वृद्धि ( उन्नति ) होती है, उन आचरणोंको त्याग करके बुद्धिकी वृद्धि में उन्नति करते हैं; और कोई नानाप्रकार उनके विरुद्ध अहिंसा, सत्य, शील,संयमादि अाचरणोंको की कलाएँ-विद्याएँ, जैसे चित्रकारी, राग, वाद्य, वैद्यक अंशरूपसे तथा पूर्णरूपसे पालन करने और अपने
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
आपको उन आचरणोंमय बना देनेको 'धार्मिक उन्नति' चरण कम होने वाले प्राणीकी अपेक्षा नीच गोत्रका भी करना कहते हैं। यह धार्मिक उन्नति प्रत्येक मनुष्यकी उदय है।
और प्रत्येक प्राणीकी भिन्न भिन्न प्रकारकी होती है और इस धार्मिक उन्नतिको एक दूसरे प्रकारसे भी नित्य-निगोदसे निकलते ही यह धार्मिक उन्नति प्रारम्भ बतलाया जा सकता है और वह यह कि, इस धार्मिक हो जाती है । उदाहरण के लिये तीन मनुष्योंको लीजिये, उन्नतिके भी असंख्यात स्थान हैं, परन्तु समझने के जिनमें से एक तो देवगुरु-धर्मकी श्रद्धा-पूर्वक अष्ट मूल लिये यहाँ केवल एक शत स्थानोंकी कल्पना कीजिये । गुणोंका पालन करता है; दूसरा पंच अणुव्रतों और एक प्राणीने तो सिर्फ पांच स्थान तक उन्नति की है, सप्त शीलवतोंके अनुष्ठानमें लीन रहता है, और तीसरा दूसरेने पैंतालीन स्थान तक, तीसरे ने पचपन स्थान तक, अहिंसादि व्रतोंके अनष्ठानपर्वक सप्तम प्रतिमातकके चौथेने पिच्यानवें स्थान तक उन्नति की है। जिसने पांच आचरणको लिये हुए पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करता है। स्थान तक उन्नति कीहै उसके अपनेसे नीचेके स्थानोंकी इनमें से पहलेकी बाबत कहना होगा कि उसने दूसरे- अपेक्षा ऊँच गोत्रका उदय है और अपनेसे ऊपर वाले तीसरेकी अपेक्षा कम धार्मिक उन्नति की, दूसरेने पहलेसे पैत्तालीस आदि स्थानों वाले प्राणियोंकी अपेक्षा नीच अधिक और तीसरेसे कम उन्नति की,और तीसरेने पहले गोत्रका उदय है । जिसने पैतालीस स्थानोंतक उन्नति की तथा दूसरे दोनोंकी ही अपेक्षा अधिक धार्मिक उन्नति है उसके अपने पाँच आदि स्थान वाले प्राणियोंकी की। इस धार्मिक उन्नतिको दूसरे शब्दोंमें यं भी बतलाया अपेक्षा ऊँच गोत्रका उदय है और अपनेसे ऊपर के जा सकता है कि, पहले मनुष्यके अंदर दूसरे तथा पचपन आदि स्थानों वाले प्राणियोंकी अपेक्षा नीच तीसरेके मुकाबिलेमें धर्माचरण कम और असंयमाचरण गोत्रका उदय है । इसी तरहसे जिसने पचपनस्थान तक अधिक है, अतः दूसरे तथा तीसरे की अपेक्षा इसके नीच उन्नति की है वह अपनेसे नीचे के पैंसालीस आदि स्थान गोत्रका उदय है । तीसरे मनुष्य के अन्दर पहले तथा वाले प्राणियोंकी अपेक्षा ऊँचा है-बड़ाहै - और अपने दसरेके मुकाबिलेमें असंयमाचरण कम और धर्माचरण से ऊपरके पिच्यानवें श्रादि स्थान वाले ईश्वरत्वको प्राप्त अधिक है अतः पहले और दूसरेकी अपेक्षा इसके ऊँच हुये अात्माओंसे नीचा है-छोटा है और जिसने पिच्यानवें गोत्रका उदय है । और तीसरे मनुष्य के अन्दर पहलेकी स्थान तक उन्नति की है वह अपनेसे नीचे वाले पचपन अपेक्षा तो असंयमाचरण कम और धर्माचरण अधिक आदि स्थान वाले प्राणियोंकी अपेक्षा बड़ा है ऊँचा है हैं अतः पहलेकी अपेक्षा इसके ऊँच गोत्रका उदय है तथा अपनेसे ऊपर वाले स्थान वालोंकी अपेक्षा छोटा है
और तीसरेकी अपेक्षा धर्माचरण कम और असंयमा- इस तरह पर प्रत्येक प्राणीके अन्दर किसी एक अपेक्षा चरण अधिक है, अतः तीसरेकी अपेक्षा इसके नीच से ऊँच गोत्रका उदय है, और किसी दूसरी अपेक्षासे गोत्रका भी उदय है । इस तरह पर प्रत्येक मनुष्य और नीच गोत्रका उदय है-अर्थात् अपनी २ अलग र प्रत्येक प्राणीके अपनेसे असंयमाचरण अधिक और अपेक्षासे प्राणी मात्रमें बड़ापना और छोटापना दोनों धर्माचरण कम होने वाले प्राणीकी अपेक्षा ऊंच गोत्रका धर्म पाये जाते हैं। इस कारण ऊँचगोत्री कहलाना भी उदय है और अपनेसे धर्माचरण अधिक और असंयमा- अपने २ धार्मिक सदाचरणोंको श्रादि लेकर नाना..
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वर्ष. ३, किरण
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ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
७.१.
विषयोंकी उन्नतिकी सीमा बतलाने का एक तरहका गोत्र' कहते हैं । और नीचे आचरणको 'नीच गोत्र' प्रकार है,और नीचगोत्री कहलाना भी अपने २ असंयमा- कहते हैं । इस गाथामें "संतानक्रमेणागत" पद पड़ा चरणोंकी उन्नति ( वृद्धि ) को श्रादि लेकर नाना हुवा है, जो जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण विषयोंकी अवनतिकी हदको कह कर समझानेका एक है; यह पद जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण तरहका तरीका है।
होनेसे इसका अर्थ अपने पिता प्रपितादिकोंके कुलकी गाथोक्त ऊँचनीचगोत्रका सर्वांगी अर्थ परिपाटीसे चला आया हुअा .आचरण नहीं हो सकता;
बल्कि जीवके अपने स्वयं के पूर्व पूर्व आचरणोंके संसार-स्थित आत्माके अन्दर गोत्र कर्म नामका भी
संस्कार-जन्य इच्छासे उत्पन्न संतानरूप अपर-अपर एक धर्म है, जिसका आत्माके सम्यक् चारित्रकी
अाचरण होता है। इसलिये "संतान-क्रमेणागतजीवाउन्नति होनेसे सम्बन्ध है । यह गोत्रकर्म, अग्रवाल,
चरणस्य गोत्रमिति संज्ञा" इस गाथार्धका साफ अर्थ खंडेलवाल, परवार अादि, और गोयल, सिंहल, वत्सल,
हुआ-"पूर्व पूर्वके आचरणोंके संस्कार-जन्य इच्छासे सोनी, सेठी, पाटोदी, काशलीवाल आदि; तथा ब्राह्मण,
उत्पन्न अपर-अपर आचरणोंके संतानक्रमसे आये हुये क्षत्रिय, वैश्यादि; मूलसंघ, सेनसंघ श्रादि और दूसरे
जीवके अपने स्वयंके आचरणकी गोत्र संज्ञा है" । भी अनेक गण-गच्छादि भेद-प्रभेदोंको लिये हुए मनुष्य
यहाँ जीवके अपने स्वयंके पाचरणोंके संतानक्रमको समूहोंके बतलाने वाले संसारके सांकेतिक और व्यवहारिक
और समझ लेना चाहिये । नीचे उसीका स्पष्टीकरण गोत्रधर्मोसे 'सर्वथा भिन्न है । इसके जैन सिद्धान्त में
किया जाता है:ऊँच गोत्र और नीच गोत्र ऐसे दो भेद माने गये हैं, इस
प्रत्येक जीवात्माके अंदर आचरणोंकी दो प्रकारकी कारणसे यह आत्माका स्वतन्त्र धर्म न रह कर सापेक्ष
धारायें बहती हैं -एक अधोधारा और दूसरी ऊर्ध्वधारा। धर्म हो जाता है । अर्थात् नीच गोत्रके सद्भावमें ऊँच
बहती हुई परिणामोंकी ऊर्ध्वधाराको जब कोई बुरा. का होना और ऊँच गोत्रके सद्भावमें नीच गोत्रका
कारण मिल जाता है तो उस बुरे कारणका निमित्त पाहोना तथा नीच गोत्रके अभाव में ऊंच गोत्रका न होना
कर ऊर्ध्वधाराका प्रवाह मुड़कर अधोरूपमें बहना प्रारम्भ और ऊंच गोत्रके अभावमें नीच गोत्रका न होना, इस
हो जाता है और बहते२ अधोस्थानके अंत तक वह धारा प्रकारकी व्यवस्था वाला धर्म हो जाता है । इसका वर्णन
पहुँच जाती है, और यदि बीच में ही उसे कोई अच्छा श्री गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा नं० १३ में किया
कारण मिल गया तो वह उस अच्छे कारणका निमित्त गया है, जिसकी संस्कृत छाया इस प्रकार है
पाकर पुनः अधःसे ऊर्ध्वरूपमें बहने लगती है और संतानक्रमेणणागत-जीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा। बहते २ ऊर्ध्वस्थानके अन्तको प्राप्त हो जाती है, तथा उच्चं नाच्चं चरणं उच्चैर्नीच्चैर्भवेत् गोत्रम् ॥१३॥ आत्माको अपने शुद्ध-बुद्ध-सिद्धस्वरूपमें विराजमान
इसका अर्थ बिलकुल साफ़ है और वह यह है कर देती है । इसी तरहसे बहती हुई परिणामोंकी कि-जीवके अपने स्वयं के ( कि पिता-प्रपितादिकोंके) अधोधाराको जब कोई अच्छा कारण मिल जाता है तो आचरणकी ‘गोत्र' संज्ञा है, ऊंचे आचरणको 'ऊँच उस अच्छे कारणका निमित्त पाकर उस अधोधाराका
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
प्रवाह मुड़कर ऊर्ध्वरूपमें बहने लगता है और बहते २ रूप होने लगते हैं । जब एक परिणाम, असंयमाचरण ऊर्ध्वस्थानके अन्त तक वह धारा पहुँच जाती है, और रूप होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे यदि बीचमें ही उसे कोई बुरा कारण मिल गया तो उसकी संतान-रूप, उससे गिरता हुआ, नीचेका दूसरा वह उस बुरे कारणका निमित्त पाकर पुनः ऊर्ध्वमे परिणाम होता है । जब दूसरा परिणाम होता है तब अधोरूपमें बहने लगती है और बहते बहते अधःस्थान उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, के अन्तको प्राप्त हो जाती है और आत्माको अपने उससे गिरता हुआ नीचे का तीसरा परिणाम होता है। निम्मेदके अविनाशी पर्याय ज्ञानमें स्थापन कर देती है। जब तीसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, अर्थात् प्रत्येक प्रात्माके अन्दर दो प्रकारके परिणाम उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे गिरता हुश्रा, होते हैं, एक संयमाचरणरूप परिणाम और दूसरे नीचेका चौथा परिणाम होता है। इस तरह पर्व पूर्व असंयमाचरणरूप परिणाम । काल-लब्धिका निमित्त परिणामों के संस्कारसे, उनकी संतान दर संतानरूप, पाकर जब यह आत्मा नित्य निगोदसे निकलता है तब उत्तर उत्तर परिणाम, नीचेसे नीचे असंयमाचरणरूप अहिंसा, सत्य, शीलादिके अभ्यास साधनका अच्छा (यदि बीच में कोई अहिंसा-सत्य-शीलादिके अभ्यास निमित्त पाकर इसके परिणाम संयमाचरणरूप होने साधनका अच्छा निमित्त नहीं मिला तो ) होते चले लगते हैं। जब एक परिणाम संयमाचरणरूप होता है जाते हैं, और होते होते अन्तमें नीचताकी सीमाको प्राप्त तब उसका निमित्त पाकर उसके संस्कारसे, उसकी कर लेते हैं और आत्माको अपने अविनाशी स्वरूप संतानरूप, उससे ऊपरका, ऊँचा तीसरा परिणाम होता वाले निगोदके पर्यायज्ञानमें स्थापन कर देते हैं। है; जब तीसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त अब यहाँ पर परिणामोंके संतान दरसंतान रूपसे पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे ऊपर अधोरूपमें गिरने, और उर्ध्वरूपमें चढ़नेको दृष्टान्तों का ऊँचा चौथा परिणाम होता है । इस तरह पर पूर्वर द्वारा स्पष्ट किया जाता हैपरिणामोंके संस्कारसे उनका सन्तान दर सन्तानरूप किसी मनुष्यको दुःसंगति के कारण जुवा खेलनेका उत्तर-उत्तर परिणाम ऊँचेसे ऊँचे संयमाचरणरूप व्यसन लग गया । और वह अपने मित्र जुवारियोंमें ( यदि बीचमें कोई हिंसा झूठ चौर्यादिके अभ्यास-साधन जाकर प्रति दिन जुवा खेलने लगा । जब अपना का निमित्त नहीं मिला तो) होते चले जाते हैं और होते सारा धन जवेमें हार गया तो उसे फिर जबा खेलने होते अन्तमें उच्चताकी सीमाको प्राप्त कर लेते हैं और के लिये धनकी आवश्यकता हुई तब उसने सोचा कि
आत्माको अपने सच्चिदानन्दरूप मोक्ष स्वभावमें स्थित चोरी द्वारा धन प्राप्त करके जवा खेलना चाहिये, कर देते हैं।
__ ऐसा सोच कर वह चोरी करने लगा और चोरी में इसी तरह पर जब यह आत्मा मुनिपद धारण करके धन प्राप्त कर करके जुवा खेलने लगा । जब चोरी और ग्यारहवें गुणस्थानको प्राप्त होकर वहाँसे गिरता है करने में अतिशय निपुण हो जाने के कारण चोरीमें उसे तब प्रमाद, कषाय, असत्य, कुशीलादिके अभ्यास-साधन पर्याप्त धन मिलने लगा तो जुवा खेलनेमें हार जाने के का बुरा निमित्त पाकर इसके परिणाम असंयमाचरण उपरान्त भी उसके पास धन बचने लगा और बहुतसा
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ऊँच नीच गोत्र विषयक चर्चा
वर्ष ३, किरण १२ ]
खाद्य
धन उसके पास हो गया । एक दिन वह किंनी वेश्या के द्वारके सामने होकर जा रहा था कि उसके एक जुवारी मित्रने उसे आवाज़ देकर वहाँ बुला लिया; जब वेश्या का उससे साक्षात् हुवा तो वेश्याने अपने हाव भाव कटाक्षोंसे उसे अपने में अनुरक्त कर लिया और वह वेश्या सेवन करने लगा । तथा चोरी द्वारा पर्याप्त धन ला ला कर वेश्याको देने लगा । वेश्या सेवन में त्रिषयानन्दकी वृद्धि के लिये मदिरा पानका चस्का भी वेश्या ने उसे लगा दिया और वह रात दिन मदिराके नशे में चूर रहने लगा | मदिराके नशे में खाद्या विचार भी उसे न रहा और वह वेश्याके साथ मांसादि अखाद्य वस्तुओं को भी भक्षण करने लगा | जब मांस भक्षणकी उसे आदत हो गई तो वह मांस प्राप्तिके लिये जंगलादिमें जाकर बिचारे दीननाथ एवं कायर पशुओं का वध ( शिकार ) भी करने लगा और मार मार कर उन्हें खाने लगा तथा अतिशय क्रूर परिणामी हो गया । क्रूर परीणामी हो जाने और नशे में चूर रहने के कारण वह परस्त्रियोंके साथ बलात्कार भी करने लगा और बल पूर्वक उनका सतीत्व हरण करके अतिशय व्यभिचारी और लोकनिंद्य हो गया | इस तरह पर एक जना व्यसनके लग जाने के कारण उसके सन्तान दर सन्तानरूप चौय्र्य्यादि व्यसनों के सेवनकी इच्छा और चत्राले परिणाम होने के कारण वह सातों व्यसनों का सेवन करने वाला अतिशय पापी, भ्रष्ट और परिणामको नीचे गिराने वाला दुर्गतिपात्र हो गया ।
इसी तरहसे एक जीव अपनी शुभ काललब्धिको पाकर नित्य निगोदसे निकलता है और अपने ऊँचेसे ऊँचे विशुद्ध परिणामों को करता हुआ मनुष्य पर्याय धारण करता है । मनुष्य पर्याय धारण करके आठ वर्ष
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की अवस्था होने पर सम्यग् दर्शनको प्राप्त होकर योग्यता प्राप्त होने पर मुनिव्रत धारण करके और अपने परिणामों को सन्तान दर सन्तानरूप उतरोत्तर ऊँचेसे ऊँचे और विशुद्ध बनाता हुआ और समय प्रति समय विशुद्धता की वृद्धि करता हुआ अपनी परिणामधाराको ऊर्ध्व रूप में बाता हुआ केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है और अन्त में सम्पूर्ण कर्मोंसे सर्वथा मुक्ति लाभ करके अपने शुद्ध-बुद्ध सिद्ध स्वरूप में जा विराजता है ।
इस तरह पर मेरा विचार है कि जीवके, अपने स्वयंके एकके कारण से दूसरे और दूसरे के कारण से तीसरे होनें वाले शुभाशुभ आचरण को दी संतानक्रमसे आया हुआ जीवका आवरण कहते हैं। यदि मेरा उपर्युक्त विचार जिनागमसे विरुद्ध नहीं है तो क्या मैं यह कह संकता हूँ कि इससे गोत्र कर्मोदयके सम्बन्ध में लगाने हुये सम्पूर्ण दोषों का अपहार हो जावेगा ? गोत्र कर्मव्यवस्था प्रकृति-विकाशके विरुद्ध है, वह सार्वकालिक और चतुर्गतिके सारे जीवों पर लागू होने वाली नहीं है, वह केवल मनुष्यों और मनुष्यो में भी केवल भारतवासियों के व्यवहारानुसार बनी है, इत्यादि और भी जो दोष गोत्र-कर्म-व्यवस्था पर लगाये जाते हैं, वे सब दोष श्री गोमट्टसार कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथाका उपर्युक्त अर्थ मानने पर दूर हो सकेंगे, यदि सब दोष दूर हो सकेंगे तो २३ वीं गाथाका उपर्युक्त अर्थ ही सर्वाङ्गी अर्थ कहलाएगा । अस्तु ।
संक्षेप में गोमट्टसार कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथाकी व्याख्या करने और यह चतलाने के बाद कि 'ऊँच-नीच गोत्र कर्मोदय क्या है ?', अब मैं चारों गतियों के जीवों में गोत्रकर्मके उदयकी कुछ व्याख्या करना चाहता हूँ । देवोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय
जैन सिद्धान्तमें, देवों में जो ऊँच गोत्रका उदय
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अनेकान्त
[ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
देवोंमें गोत्रोदय माननेसे, जैनागममें जो देवोंमें उच्चगोत्रोदय कहा है उससे विरोध नहीं सकता; क्योंकि वह सामान्यतया मनुष्यसमूहकी अपेक्षा से देवसमूहमें उच्च गोत्रका उदय है, इसी अपेक्षा से कहा हुआ, जान पड़ता... है । यहाँ अपेक्षा -भेदका स्पष्टीकरण न करके गुप्त रख लिया गया है | विचार करनेसे यहाँ उपर्युक्त प्रकार अपेक्षा ही ठीक बैठती है और वही युक्तिसंगत प्रतीत होती है !
राज
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बतलाया है वह मनुष्यसमूहकी अपेक्षासे है, उसका यह भाव नहीं है कि उनमें नीच गोत्रका उदय है ही नहीं । जब क़िसी हीन शक्ति के मुकाबले में उनमें उच्च गोत्रका उदय है तो किसी महान् शक्ति के मुकाबिले में उनमें नीच गोत्रका उदय भी होना चाहिये । क्योंकि गोत्र धर्म सापेक्ष धर्म है। जिनागम में भी देवोंमें चार मूलभेद और इन्द्र सामाजिक, त्रामसत्रिशत् आदि उत्तर भेद माने गये है, जो उनमें परस्पर उच्चगोत्र व नीच गोत्रका होना सिद्ध करते हैं । इसके अतिरिक्त पंचमगुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान वाले मनुयोंकी अपेक्षा उनमें नीचगोत्रका उदय है । मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि देवोंमें उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यों की अपेक्षा मिथ्यादृष्ट असुर कुमारादि पापाचारी देवोंमें नीच गोत्रका उदय है । चतुर्थ व पंचम गुणस्थानी तिर्यंचोंकी अपेक्षा भी असुरकुमारादि पापी मिथ्यादृष्टि देवों में नीच गोत्रका उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी सम्यग्दृष्टि, व तीर्थंकर प्रकृति खङ्घ सम्यक्त्वी नारकियोंकी अपेक्षा भी श्रसुर कुमारादि दुराचारी और मिथ्यादृष्टि देवोंमें नीच गोत्रका उदय है । पंचमगुणस्थानी तिर्थैचोंकी अपेक्षा चतुर्थगुणस्थानी देवोंमें नीच गोत्रका उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी तिर्यंचों और चतुर्थगुणस्थानी व तीर्थंकरप्रकृतिबद्ध सम्यक्त्वी नारकियोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिदेवों में उच्च गोत्रका उदय है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्येचों, व न्परकियोंके सम्यक्त्वसे सम्यग्दृष्टि देवोंका तद्रूप सम्य क्त्व विशेष निर्मल होता है । और सामान्यतया तिर्यंच समूह और नारकी समूहकी अपेक्षा देव समूहमें ऊँच गोत्रका उदय है ही । इस तरह पर विचार करनेसे देवों में नानादृष्टिकोण की अपेक्षा उच्च व नीच गोत्रोदय प्रत्यक्ष सिद्ध है | मेरेँ विचारसे उपर्युक्त रीति के अनुसार
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मनुष्यों में ऊँच नीच गोत्रोदय
जिनागम में, मनुष्यों में जो सामान्यतया ऊँच व नीच दोनों गोत्रोंका उदय बतलाया गया है वह अपने अपने सदाचरण दुराचरणके आधार पर परस्परकी अपेक्षा से है । भोग भूमिके मनुष्यों के जो केवल उच्च गोत्रका उदय बतलाया है वह उनकी मंदकषायरूप उच्च प्रवृत्ति की अपेक्षा से है ं। भोगभूमिके मनुष्यों की अपेक्षा यहाँ कर्मभूमि के अधिकांश मनुष्यों में नीच गोत्रका उदय है । भोगभूमिमें भी कई मनुष्य सम्यकः दृष्टि हैं तथा कई विशेष मंद कषाय वाले हैं तथा कई मनुष्य कम मंद कषाय वाले हैं और मिथ्यादृष्टि भी हैं. अतः वहाँ भी उनमें परस्परकी अपेक्षा ऊँच गोत्र व नीच गोत्रका उदय होना सिद्ध है । अर्थात् विशेषमंद कषायवाले और सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की अपेक्षा कममन्द कषायवाले और मिथ्यादृष्टि जीव नीच गोत्रोदयवाले हैं और कममंद कषाय वाले तथा मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की अपेक्षा सम्यकदृष्टि और विशेषमंद काय वाले मनुष् उच्च गोत्रोदय युक्त हैं । सामान्यतया देवोंकी अपेक्षा मनुष्यों में नीच गोत्रका उदय है तथा तिर्येचों व नारकियोंकी अपेक्षा मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । विशेषतया भोग भूमिके चतुर्थं गुणस्थानी मनुष्यों की
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वर्ष ३, किरण १२] .
ऊँच-नीच-मोत्र-विषयक चर्चा
अपेक्षा कर्म भूमिके चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्योंमें अपने इस बातको बतलाता है कि उपर्युक्त आर्य अपने अपने अपने सम्यक्त्वकी निर्मलतानुसार उच्च व नीच दोनों क्षेत्र, जाति, कर्म श्रादि एक एक रूपसे ही आर्य हैंगोत्रोंका उदय है, मिथ्यादृष्टि असुरकुमारदि पापाचारी दूसरे रूपोंसे या पूर्ण रूपसे आर्य नहीं । अर्थात् उनमें देवोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि मनुष्योंमें उच्च गोत्रका अधिकाँश रूपसे या अल्पांश रूपसे . आर्यत्वकी न्यूनता उदय है। चतुर्थ गुणस्थानी देवोंकी अपेक्षा चतुर्थ है । यह बात इस प्रकार भी कही जा सकती है कि, गुणस्थानी मनुष्योंमें अपने अपने सम्यक्त्वकी निर्मलता. कोई मनुष्य तो केवल क्षेत्ररूपसे ही आर्य है अन्य नुसार ऊँच नीच दोनों गोत्रोंका उदय है। चतुर्थगुण- जात्यादि चारों रूपोंसे अार्य नहीं । अर्थात् केवल अार्य स्थानी तिर्यंचों व नारकियोंकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी क्षेत्रमें उत्पन्न होने के कारण आर्य है, अन्य कारणोंसे मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थगुणस्थानी आय नहीं, वह ब्यभिचार जात है, कर्म (जीविका) देवोंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानीसे लेकर चतुर्थदश म्लेच्छों जैसे माँस विक्रयादि करता है, दर्शन चारित्रका गुणस्थानी तक मनुष्योंमें ऊँच गोत्रका उदय है। देव उसमें नाम नहीं । कोई प्राय क्षेत्रमें उत्पन्न होने और ऋषिदेवोंकी अपेक्षा अष्टम प्रतिमाधारी मनुष्योंमें ब्राह्मण क्षत्रियादि होने के कारण प्राय है-अन्य उच्च गोत्रका, चतुर्थगुणस्थानो मनुष्योंमें नीचगोत्रका कारणोंसे आर्य नहीं, वह जीविका म्लेच्छोंकी सी मद्य
और पंचम गुणस्थानी मनुष्योंमें उच्च गोत्रका उदय है। विक्रयादि करता है, दर्शन चारित्र उसमें बिल्कुल नहीं । सम्यकदृष्टि व तीर्थंकर प्रकृतिबद्ध नारकियोंको अपेक्षा कोई प्राय क्षेत्रमें उत्पन्न होने, ब्राह्मण-क्षत्रि-वैश्यादि मिथ्यादृष्टि मनुष्योंमें नीच गोत्रका और चतुर्थ गुणस्थानी होने, खेती श्रादि सावद्यकर्म, कपड़ेका व्यापार आदि मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थ व पंचम गुण- अल्प सावद्यकर्म मणि-मुक्तादिका व्यापार आदि असास्थानी तिर्यंचोंकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्योंमें वद्य कर्म करने वाला होने के कारण आर्य हैं- अन्य नीच गोत्रका उदय है। पंचम गुणस्थानी तिर्यंचोंकी कारणोंसे आय नहीं, दर्शन चारित्रको वह नहीं धारण अपेक्षा पंचम गुणस्थानी मनुष्योंमें उच्चगोत्रका उदय कर रहा है। कोई आय क्षेत्रमें उत्पन्न होने, शुद्ध जाति है । इस तरह पर व्यक्तिगत रूपसे तिर्यचों और नार. होने, अल्प सावद्य या असावद्य कर्म करने वाला होने कियोंके मुताबिले में भी मनुष्योंमें नीच गोत्रता अनुभव और चारित्र धारण करने वाला होनेके कारण प्राय गोचर होती है।
है--अन्य कारणसे श्राय नहीं, वह शुद्ध दर्शन वाला
नहीं । अन्य कोई पाँचों प्रकारसे श्रार्य है अर्थात् आय आर्यों में ऊँच-नीच गोत्रोदय
क्षेत्रमें उत्पन्न होने, शुद्ध जाति होने, असावध कर्म श्रीविद्यानन्दादि जैनाचार्योंने अनृद्धिप्राप्त पार्यो के करने वाला होने, चारित्रवान् होने और सम्यग्दर्शन क्षेत्राय, जात्याय, कर्माय ,चारित्रा, दर्शनार्य आदि वाला होने के कारण प्राय है। इन सब अार्योमें जो भेद किये हैं और "उच्चगोत्रोदय आदि गुणवाले जो हों केवल एक प्रकारसे आय है, जिसमें आर्यत्वकी अधिवे आय हैं" यह आर्योंका लक्षण किया है । यहाँ काँश रूपसे न्यूनता है, वह अधिकाँश रूपसे असंयम आर्योंको क्षेत्र-जाति-कर्म आदिका विशेषण दिया जाना भाव वाला होने और अत्यल्पांशरूपसे संयमभाव वाला
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अनेकान्त
आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
होने अथवा पूर्णांशरूपसे असंयमभाववाला होने रूप उच्चगोत्रोदय आदि गुणवाले क्षेत्रादि पाँचों
और संयम भाव वाला न होने के कारण नीच गोत्र प्रकारके आर्यत्वकी पूर्णताको प्राप्त हुये श्रार्योंकी वाला है । उसके नीच गोत्रका उदय है । इसलिये अपेक्षा उनमें नीच गोत्रका उदय ही पाया जाता है। उसमें अधिकाँशरूपसे आर्यत्वकी न्यूनता होनेके कारण तथापि उनमें, म्लेच्छों म्लेच्छोंकी अपेक्षा परस्परमें, "उच्चाचरणरूप उच्चगोत्रोदय श्रादि गण वाला श्राय उच्च गोत्र और नीच गोत्र भी पाया जाता है । उदाहै" यह लक्षण नहीं घटता । और जो एकसे अधिक हरणके लिये जिन्हें हम म्लेच्छ समझते हैं उनमें सुना प्रकारसे श्राय है, जिसमें अल्याँशरूपसे आयत्वको जाता है कि एक बादशाह ऐसे त्यागी हुये हैं जो राज्य न्यनता है अथवा पर्णा शरूपसे आर्यत्वकी प्रादुर्भति है, कोषसे एक पैसा भी अपने भरण पोषण के लिए न ले वह अल्पाँशरूपसे असंयमभाव वाला न होने और कर किसी दूसरे प्रकारसे-अपने स्वयं शरीरसे परिश्रम अधिकांशरूपसे संयमभाव वाला होने व पूर्णाशरूपसे करके-आजीविका करते थे और अपना व अपनी संयम भाव वाला होने के कारण ऊँच गोत्र वाला है। रानीका भरण पोषण करते थे दूसरे एक अपने शरीरसे उसके ऊँच गोत्रका उदय है । इसलिये उसमें आर्यत्व भी अतिशय निस्पृह और दयालु महानुभाव उनमें की अल्पांशरूपसे न्यनता अथवा पूर्णा शरूपमें आर्यत्व हुये हैं, जो अपने शरीरके ब्रोंमें पड़े हुए क्रमियों की प्रादुर्भूति होने के कारण उपर्युक्त प्रायका लक्षण (कीड़ों) को ब्रणों से गिर जाने पर भी उठा उठा घट जाता है। जिसमें असंयम भाव अधिक और संयम कर पीछे उन ब्रोंमें ही रख लिया करते थे । और भाव कम है उसे असंयमकी अधिकताकी अपेक्षा नीच तीसरे एक ऐसे दानी बादशाह भी उनमें हो गये हैं गोत्री ही कहेंगे और जिसमें संयमभाव अधिक व पर्ण जो दीन दुखियोंकी पुकारको बहुत ही गौरसे सुना है और असंयमभाव कम अथवा नहीं है उसे संयमकी करते थे और उन्हें बहुत ही अधिक धन दानमें दिया अधिकता वा पूर्णताकी अपेक्षा ऊँच गोत्री ही कहेगे। करते थे। आज भी उनमें अनेक दानी, त्यागी, सत्य अर्थात् मनुष्य में जितने अंशोमं असंयम भाव है, उतने वादी, दयालु और अपनी इन्द्रियों पर काब रखने वाले अंशोंमें उसके नीच गोत्रका उदय है और जितने अशोंमें मौजूद हैं, जिनकी उदारता, सहायता और परोपकारता संयमभाव है उतने अंशोंमें उसके उच्च गोत्रका उदय आदिसे कितने ही लोग उपकृत हुए हैं और हो रहे हैं। है। इस तरह पर प्रत्येक मनष्य प्राणीमें दोनों गोत्रका अनेक गरीब तो उनकी कृपास लक्ष्मापति तक बन उदय समय समय पर पाया जाता है।
गये हैं । इस प्रकार इन म्लेच्छोंकी उदारता,दानशीलता
निस्पृहता' आदि उच्च गोत्ररूप उच्चाचरणके कई म्लेच्छोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय
दृष्टान्त दिये जा सकते हैं नीच गोत्ररूप नीचाचरणोंके यद्यपि श्री विद्यानंदाचार्यने नीच आचरणरूप दृष्टान्तोंके लिखनेकी तो यहां कोई आवश्यकता ही नहीं नीचगोत्रोदय आदि लक्षण वालोंको म्लेच्छ कहा है क्यों कि असमर्थों पर इनके किये हुये हज़ारों जुल्म तथापि उनमें उच्च गोत्रोदय भी कहा जा सकता है । प्रसिद्ध ही हैं, और आज भी ये लोग नाना प्रकार के उच्च गोत्रोदय पाया भी जाता है। यद्यपि उच्चाचरण अगणित अमानुषिक, जुल्म गरीबों पर किया ही करते
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वर्ष ३, किरण१२]
ऊच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
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हैं । इस तरह पर इनके परस्परकी अपेक्षा और श्रात्व गुणस्थानी नारकीके नीच गोत्रका उदय है की न्यनताको प्राप्त हुये क्षेत्रादि अपूर्ण अार्योकी क्योंकि नारकीके सम्यक्त्वसे मनुष्यका तद्रूप अपेक्षा भी नीच गोत्र और उच्च गोत्र दोनों के उदय इन सम्यक्त्व निर्मल होता है । मिथ्यादृष्टि तिर्यचकी म्लेच्छोंमें सिद्ध हैं।
अपेक्षा सम्यक्त्वी नारकीके उच्च गोत्रका उदय है । म्लेच्छोंमें उपयुक्त प्रकारसे उच्च गोत्रोदय तथा इसी सम्यक्त्वी तिर्यचकी अपेक्षा सम्यक्त्वी नारकीके सरह पर अपर्ण अायोंमें भी नीच गोत्रोदय मानने पर नीच गोत्रका उदय है क्योंकि नारकीके सम्यक्त्वसे विद्यानन्द स्वामीके आर्य म्लेच्छ विषयक स्वरूप कथनसे तिर्यचका तद्रूप सम्यक्त्व अपेक्षाकृत अच्छा विरोध भी नहीं आ सकता, क्योंकि उन्होंने आर्योंमें, होता है । उच्च गोत्रोदय, आर्यत्वके क्षेत्रादि रूपोंकी, और उच्चा- इसके अतिरिक्त नारकियोंमें परस्परकी अपेक्षा चरणोंकी अधिकताको अपेक्षा कहा है तथा म्लेच्छोंमें मे भी उच्च व नीच गोत्रका उदय पाया जाता है। नीच गोत्रोदय, नीचाचरणोंकी अधिकताकी अपेक्षा सातवें नरकके नारकियोंसे ऊपरके नारकियोंके कहा है । ऐसा मेरा विचार है।
उत्तरोत्तर ऊँच गोत्रका है तथा ऊपरके नारकियोंसे
नीचे के नारकियों के नीचका उदय है। मिथ्यादृष्टि नारकियोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय
नारकीकी अपेक्षा सम्यग् दृष्टि नारकीके उच्च गोत्रका जैन सिद्धान्तमें नारकियोंमें जो नीच गोत्रका उदय उदय है । सम्यक्त्वी नारकीकी अपेक्षा मुनि हो कहा है वह उनके विशिष्ट पापोदयकी अपेक्षा और देव सकने वाले, केवली हो सकने वाले, और तीर्थकर मनुष्यादि के मुकाविलेमें हीन होनेकी अपेक्षासे कहा है, हो सकने वाले नारकियोंके उत्तरोत्तर उच्च गोत्रका परन्तु इसका यह प्रयोजन नहीं है कि उनमें ऊँच गोत्रका उदय है । इस तरह पर नारकियोंमें पच्च व नीच उदय है ही नहीं। विचार करने पर उनमें अपेक्षाकृत दोनोंका उदय पाया जाता है । इस ऊँचता-नीचता ऊंच व नीच दोनोंका उदय विद्यमान है, ऐसा प्रतीत से इनकार नहीं किया जा सकता। होता है । सामान्यतया देव-मनुष्य-तिर्यचौकी अपेक्षा तो उनमें नीच गोत्रका उदय है ही, परन्तु व्यक्तिगत
तिय चोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय रूपसे मिथ्यादृष्टि असुर कुमारादि पापाचारी देवोंकी जिनागममें तिर्यचोंके जो नीच गोत्रका उदय अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी, तीर्थकर व प्रकृतिवद्ध बतलाया गया है उसे देव मनुष्योंकी अपेक्षा नारकीके उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी समझना चाहिये, उसे उनमें स्थायी रूपसे मान देवकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी नारकीके नीच लेना सत्यतासे इनकार करना है, उनमें परस्परमें गोत्रका उदय है, क्योंकि नारकीसे देवका तद्रुप ऊँच नीचता प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होती है । पशुओंमें सम्यक्त निर्मल होता है । मिथ्यादृष्टि मनुष्यको सिंह, शादूल, हाथी, अश्व, वृषभ आदि ऊँचे और अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी नारकीके उच्च गोत्रका अच्छे समझे जाते हैं, तथा सर्प, वृश्चिक, शृगाल, उदय है । चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्यकी अपेक्षा चतुर्थ बिडाल आदि नीचे और बुरे समझे जाते हैं।
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अनेकान्त
वन, वीर निर्वाण सं०२४६६
पक्षियोंमें हंस मयूर, तोता,मैना, कोकिला सारसादि का उदय है। इस तरह पर नाना दृष्टिकोणोंसे और ऊँचे और अच्छे समझे जाते है तथा काक, कुक्कुट, नाना अपेक्षाओंसे तिर्यचोंने भी उच्च व नीच रख, उलूक, चील, चिमगादड़ आदि नीचे और दोनों गोत्रोंका उदय दृष्टिगोचर होता है। बुरे समझे जाते हैं । पशु-पक्षियों में यह अच्छा व इस प्रकार ऊँच व नीच दोनों गात्रोदय, देव, बुरा तथा ऊँचा व नीचा समझा जाना क्या है ? मनुष्य, नरक, तियेच, इन चारों गतियों के प्राणियों यह ऊँच गोत्रोदय व नीच गोत्रोदय ही है । जैन में प्रत्यक्ष अनुभव गोचर होते हैं। आचार दृष्टि से मिथ्यादृष्टि असुरकुमारादि पापाचारी देवोंकी अपेक्षासम्यकदृष्टि तिर्यचोंमें व पंचम
इसमें लेखकके मन्तव्य गुणस्थानी तिर्यचोंमें उच्च गोत्रका उदय है। (१) खंडेलवाल, अग्रवाल, परवार, पाटोदी चतुर्थ गुणस्थानी देवों की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी सेठी, सोनी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दिगम्बर तिर्यंचोंमें नीच गोत्रका उदय है क्योंकि तिर्यचके श्वेताम्बर, मूलसंघ सेनसंघ अर्धफालक संघ और सम्यक्त्वसे देवोंका सम्यक्त्व निर्मल होता है। गणगच्छादि गोत्र कम नहीं हैं । ये केवल भिन्न भिन्न चतुर्थ गुणस्थानी देवोंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानी प्रकारके मनुष्य समूहोंको बतलाने वाले संकेत तिर्यचों में उच्च गोत्रका उदय है मिथ्यादृष्टि मात्र है । . मनुष्यों की अपेक्षा चतुर्थ व पंचम गुणस्थानी (२) अपनी लौकिक व धार्मिक प्रत्येक विषयको तिय चोंमें ऊँच गोत्र का उदय है । सम्यक्त्वी उन्नति अवनतिको 'गौत्रकर्म' कहते हैं। मनुष्योंकी अपेक्षा सम्यक्त्वी तिर्य चोंमें नीच (३) लौकिक विद्याओं जैसे यंत्र विद्या, गोत्रका उदय है, क्योंकि तिय चोंके सम्यक्त्व गायन, वाह्य, युद्ध, वैद्यक, ज्योतिष आदि विद्याओं से मनुष्योंका सम्यक्त्व निर्मल होता है । की उन्नति अवनति भी गोत्र कर्म ( लौकिक ) के सम्यक्त्वी मनुष्योंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानी ही भेद हैं। तिर्यचोंमें उच्च गोत्रका उदय है । पंचम गुणस्थानी (४) जैन सिद्धान्तमें विवक्षित गोत्रकर्म मनुष्योंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानी तिर्य चोंमें संयमा-चरण असंयमाचरणकी उन्नति अवनति नीच गोत्रका उदय है, क्योंकि तिय चोंके व्रतसे रूप है। मनुष्योंका व्रत ऊँचे दर्जे का होता है । मिथ्या दृष्टि (५) गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथा नारकीकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि व चतुर्थ व पंचम का वह आशय नहीं है जो आमतौरसे लिया जाता गुणस्थानी तिर्यचोंमें उच्चगोत्रका उदय है । सम्यक्त्व है। उसमें पड़े हुए 'सन्तानक्रमेणागत' विशेषणम नारकीकी अपेक्षा सम्यक्त्वी तिर्यंचोंमें उच्च गोत्रका अपने ही, आचरणकी परम्परा विवक्षित है-पिता उदय है, क्योंकि नारकीके सम्यक्त्वसे तिर्यचका प्रपितादिके आचरणकी नहीं। तद्रूप सम्यक्त्व निर्मल होता है। सम्क्त्वो नारकी (६) जीवका अपना स्वयंका आचरण ही की अपेक्षा पंचम गुणस्थानी तियं चमें उच्च गोत्र अपना गोत्र कर्म है।
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वर्ष ३ किरण १२
ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा
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(७ ) अपने पिता प्रपितादिकोंसे आया हुवा विद्वानों से विनम्र प्रार्थना आचरण अपना गोत्रकर्म नहीं है ।
इस लेखमें ऊँच-नीच गोत्रकर्मोदय पर जो (८) चारों गतिके जीवोंमें ऊँच व नीच दोनों कुछ भी लिखा गया है, वह अनेक विद्वानोंके गोत्र गोत्रकर्मों का उदय प्रत्यक्ष सिद्ध व अनुभव कर्म विषयक लेखादिकोंके अध्ययन-मनन परसे बना गोचर है।
हुआ केवल मेरा अपना विचार है । मैं जिनागमका (९) इस लेख में सिद्ध किये हये प्रत्येक अभ्यासी और जानकार स्वल्प भी नहीं हूँ, केवल प्राणीके ऊँच-नीच गोत्रकर्मोदयसे और जिनागममें नाम मात्रको स्वाध्याय कर लेता हूँ, इसलिये दया वर्णित देवोंमें उच्च मनष्यों में ऊँच व नीच. व करके विद्वान लोग वात्सल्य भाव पूर्वक बतलावें नारकी तिर्यचोंमें, नीच गोत्र कोदयसे विरोध कि यह लेख जिनागमसे कितना अनुकूल व कितना नहीं है।
प्रतिकूल है, ताकि मैं अपने विचारों में सुधार
कर सकू। - (१०) अपने अपने ऊँचव नीच आचरणानुसार समय समय प्रति ऊँच व नीच गोत्र विचार-स्वातन्त्र्यके कारण, इस लेखमें मुझसे कर्मका रसानुभव होता रहता है।
अत्युक्तियाँ अथवा अन्योक्तियाँ भी बहुत हुई
होंगी, अतः कृपा कर उन मेरी अत्युक्तियों और (११) गोत्रकर्म संसारस्थ आत्माका सापेक्ष
अन्योक्तियोंको बतलानेका जरूर कष्ट उठावें, इस धर्म है।
प्रकार समाजके सभी विद्वानोंसे मेरी विनम्र (१२ ) गोत्र कर्मोदय स्थायी नहीं है । आदि, प्रार्थना है ।
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मेंडकके विषयमें एक शका
[ले-श्री दौलतराम 'मित्र'] :-चेन्द्रिय तिर्यच जातिके जीव लिंगकी दृष्टिम इस श्लोकको टीकामें खुलासा किया गया है
गर्भज और अगर्भज (समृर्छन ) दोनों कि जिस प्रकार मंडूकके चूर्णसे पीछे बहुतमे प्रकारके होते हैं ऐसा गोमट्टसार-जीवकाण्डको मंडूक उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार अशुभ गाथा नं० ७९ से जाना जाता है।
(पाप-बन्धक ) क्रियाकं चूर्ण ( हानी ) में शुभ __परन्तु सवाल यह है कि उनमेंसे मेंडक-वर्गक (पुण्य बन्धक ) क्रियाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जीव गर्भज हैं या समूर्छन ?
(३) मेंडक तो ऐसा विचित्र जन्तु है. और प्रमाण तो इसी बातके मिलते हैं कि यह जीव अपने जन्मका ऐमा सुन्दर नाटक दिखलाता है कि समूर्च्छन हैं । देखिये
लोग दंग रह जाते हैं। किसी मेंडकका चूर्ण बनाकर (१) "जीवे दादुर ( मेंडक ) बरसे तोय।।
और बारीक कपड़ेसे छान कर शीशीमें बन्द कर सुन बानी सरजीवन होय ॥ १४॥ लीजिये । वर्षातम उस चर्णको पानी बरसते समय यह आचार्य अचलकीर्ति-कृत संस्कृत विषापहार जमीन पर डाल दीजिये, तुरन्त हो छोटे २ मेंडक का भाषापद्यानुवाद परमानन्दजो कृत है।
कूदने लगेंगे।' ___ इसमें बतलाया है कि हे भगवन् ! जिस प्रकार पानी बरसने पर मेंडक सरजीवन हो जाते
___-पंरघुनदन्दन शर्मा, अक्षर विज्ञान पृ०२२ हैं-मरे मेंडक पीछे जी उठते हैं-उसी प्रकार (४) देखनेमें आता है कि यदि आज वर्षात
आपकी बाणी सुन कर भव्य जीव नवजीवन हो जाय तो कल ही मटीले जलाशयों में ( जैसे (ज्ञान-चेतना, सम्यक्त्व ) प्राप्त कर लेते हैं । पोखरे, तालाब कच्चे कुएं आदि ) दो प्रकार के मेंडक (२) द्वितीया दोषहानिः स्यात् काचित् मंडक चणवत पाये जावेंगे । एक तो दो दो सेर वजनके बड़े बड़े आत्यंतिकी तृतीयात्तु गुरू-लाघव-चिन्तया ॥, और दूसरे तीन तीन माशे तक छोटे २ । कारण
यह जान पड़ता है कि-जिन मेंड कोंक मृतक शरीर --यशोविजय (श्वे ) अध्यात्मसार १-४३
अक्षय ( पूरे ) रह कर मिट्टीमें दब गये उनके तो सकिन्चसद्दर्शनं हेतुः संविञ्चारित्रयोर्द्वयोः। बड़े २ मेंडक बन जाते हैं, और जिनके मृतक शरीर सम्यग विशेषणस्योच्चै यद्वा प्रत्यग्रजन्मनः ।। के टुकड़े टुकड़े हो गये उनके छोटे २ मंडक बन
-पंचाध्यायी, २-७३८
जात है
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asha विषय में एक शङ्का
वर्ष ३, किरण १२]
( १ ) यदि कोई कहे कि अंडे गर्भज होते हैं, मेंडक के अंडे देखे गये हैं, तो उत्तर यह कि अंडों अंडों में फर्क है, अंडे गर्भज ( रजवीर्यज ) और समूर्च्छन दोनों प्रकार के होते हैं । जैसा कि पंडित बिहारीलालजी चैतन्य-रचित "बृहद् जैन शब्दार्णव' ( पृ० २७७ ) में लिखा है कि
"नोट ३ – अंडे दो प्रकार के होते हैं, गर्भज और मूर्च्छन । सीप, घांघा, चींटी (पिपिलिका) मधुमक्षिका ( भौंरा ), बर्र, ततईया, आदि बिकलभय ( द्वोन्द्रिय, त्रान्द्रिय, चतुन्द्रिय) जीवों के
समूर्च्छन ही होते हैं, जो गर्भसं उत्पन्न न हो कर उन प्राणियों द्वरा कुछ विशेष जातिकं पुद्गल स्कंधों के संग्रहीत किए जाने और उनके शरीर के पसेव या मुखकी लार ( ष्ठीवन ) या शरीर की उष्णता आदिकं संयोग से अंडाकार से बन जाते हैं । या कोई समूर्च्छन प्राणी के समूच्छंन अंडे योनि द्वारा उनके उदरसे निकलते हैं, परन्तु वे उदर में भी गर्भज प्राणियों के समान पुरुष के शुक्र और स्त्रियोंके शोणितसे नहीं बनते । क्योंकि समूर्च्छन प्राणी सब नपुंसक लिंगी ही होते हैं। और न वे योनि से सजीव निकलते हैं, किंतु बाहर आने पर जिनके उदरसे निकलते हैं उनको या उसी जातिके अन्य प्राणियों की मुखलार आदि संयोगसे उनमें जीवोत्पत्ति हो जाती है ।"
" नोट ४ – समूर्च्छन प्राणी सर्व ही नपुंसक लिंगी होने पर भी उनमें नर मादीन अर्थात् पुलिंगी स्त्रीलिंगी होनकी जो कल्पना की जाती है, वह केवल उनके बड़े छोटे मोटे पतले शरीराकार और स्वभाव शक्ति और कार्यकुशलता आदि किसी न किसी गुण विशेषकी अपेक्षासे की जा सकती है । वास्तव में
उनमें गर्भज जीवोंके समान शुक्र - शोणित- द्वारा संतानोत्पत्ति करनेकी योग्यता नहीं होती । "
( ६ ) ऐसी मुर्गियाँ मौजूद हैं, जो बिना मुर्गे का संयोग किए अंडे देती हैं, पर वह अंडे सजीव नहीं होते ।
इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि मेंडक समूर्च्छन है, गर्भज नहीं है ।
मेंडक के विषय में - यहाँ पर एक खास वार्ता ( कथा ) विचारणीय है । वह यह कि - भगवान महावीरकी पूजा करने की इच्छासे राजगृही- समवशरण के रास्ते गमन करता हुआ एक मेंडक हाथी के पाँव के नीचे दब जानेसे मर कर देव हुआ ।
इस कथा पर कुछ सवाल उठते हैं
( १ ) अगर वह मेंडक सम्यग् दृष्टि (४ गु० ) था तो उसका गर्भज और संज्ञी होना आवश्यक है ( लब्धिसार गा० २ ) । परन्तु मेंडक गर्भज नहीं है, समूर्च्छन है ।
( २ ) अगर वह मेंडक मिध्यादृष्टि ( ३ गु० ) था तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि तीसरा गुणस्थान रहते मरण नहीं होता है ।
( गो० जी० २३-२४ )
( ३ ) अगर वह मेंडक मिध्यादृष्टि ( १ गु० ) था तो उसके समवशरण में जाकर तमाशा देखने की इच्छा तो हो सकती है, परन्तु जिन पूजा करने की इच्छा नहीं हो सकती है ।
सच बात तो यह है कि कथाएँ दो प्रकार की होती हैं, एक ऐतिहासिक दूसरी कल्पित । किसी प्रबोध-प्रयोजन पोषणकं लिये कथाएँ कल्पित भी की जाती हैं। कहा है -
"प्रथमानुयोग विषे जे मूल कथा हैं ते तो जैसी
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
हैं तैसी ही निरुपित हैं । अगर तिन विर्षे प्रसंग तिर्यंच भी देव हो सकता है तो मनध्यकी तो बात पाय व्याख्यान हो है, सो कोई तो जैसाका तैसा ही क्या ? हो है, कोई ग्रन्थकर्ताका विचारके अनुमार होय, और भी ऐसी कथाएँ हैं जैसे सुदृष्टि सुनारकी परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है।"
कथा । कथानक यों है कि-अपनी स्त्रीसे मैथुन "बहुरि प्रसंग रूप कथा भी ग्रंथकर्ता अपने
करते ममय सुदृष्टि सुनार को, उसके वक्र नामक विचार अनुसार कहे जैसे “धर्मपरीक्षा" विर्षे
शिष्यने जो कि सुदृष्टिकी स्त्री विमलामे लगा हुआ मूर्खनिकी कथा लिखी, सो एही कथा मनोग
था-व्यभिचार करता था-, मार डाला । मर कही थी, ऐसा नियम नाहीं; परन्तु मूर्खपनाको ही
कर वह अपनी ही स्त्रीके गर्भ में आगया । जन्मा पोषती कोई बार्ता कही, ऐसा अभिप्राय पोषे है।
और बड़ा होने पर जातिस्मरण हो जानेसे उसने ऐसे ही अन्यत्र जानना।"
सब बात जानी, तब उसे वैराग्य हो आया । मुनि (मोक्षमार्ग प्र०, पं० टोडरमलजी)
दीक्षा ली, और तपस्या करके मोक्ष चला गया।अतएव कल्पित कथाओं के साथ साथ सिद्धातों
अब देखिये, सिद्धान्तसे तो इसका मेल (संगति) की संगति नहीं बैठ सकती है । सिद्धान्तोंकी
" नहीं बैठता है; क्योंकि सिद्धान्त तो यह है किसंगति तो उन्हीं कथाओंके साथ बैठेगी जो ऐति
एक तो सुनार दूसरा व्यभिचारज, दोनों तरहसे हासिक होंगी।
शूद्र होने वह मोक्ष नहीं जा सकता । परन्तु - मेरा ऐसा ख्याल है कि दृष्टान्त प्रामाणिक
प्रयोजन (उद्देश्यसे इस का मेल बराबर बैठता है। चीज़ है क्योंकि वह प्रत्यक्ष हो चुका है । दृष्टांतों
उद्देश्य यह दिखानेका था कि देखो, संसार कैसा परसे तो सिद्धान्त बने हैं, जैसे उच्चारणोंपरसे
विचित्र है कि पिता खुद ही अपना पुत्र भी हो व्याकरण बना । अथवा इष्टात (अतम दिखाइ सकता है और स्त्री का पति भी उसका पुत्र बन देने वाली चीज़) और सिद्धांत (अंतमें सिद्ध
। होने वाली चीज ) एक ही चीज तो है ।
मेंडकको कथा कल्पित जान पड़ती है। उसका आशा है, इस मेंडक सम्बन्धी शंका पर कोई यही उद्देश्य नजर आता है कि जिनपूजाके फलसे सज्जन जरूर प्रकाश डालेंगे।
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तामिल भाषाका जैनसाहित्य
[ले० - प्रोफेसर. ए. चक्रवर्ती, एम.ए. आई. ई. एस., ] [अनुवादक - पं० सुमेरचन्द दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री बी. ए., एलएल. बी., सिवनी] [ १०वीं किरण से आगे ]
छ विद्वानों का कहना है कि वह ग्रन्थ आठवीं
पद्यों में 'मुत्तरियर' शब्द पाया जाता है । उनके कथनका आधार यह है कि यह 'मुत्तरियर' शब्द पल्लवराज्यके भीतर रहने वाले एक छोटे नरेशको घोषित करता है । यह परिणाम केवल इस एक शब्दके साथ की अल्प शाब्दिक साक्षीके आधार पर है । इसके सिवाय और कोई साक्षी नहीं है, जिससे इस नरेशका उन जैन साधुओं से सम्बन्ध स्थापित किया जाय, जो इन पद्योंके निर्माणके वास्तव में जिम्मेदार थे । इसके सिवाय 'मुत्तरियर' शब्दका अर्थ 'मुक्ता- नरेश', जो पांड्य नरेशों को सूचित करता है, भी भली भांति किया जा सकता है । पुरातन इतिहास में यह बात प्रसिद्ध है, कि पांड्य देशमें मुक्ता-अन्वेषण एक प्रधान उद्योग था, और पांड्य-तटों से विदेशोंको मोती भेजे जाते थे । यह उचित तथा स्वाभाविक बात है कि जैन मुनिगण पांड्यवंशीय अपने संरक्षकका गुणानुवाद करें । एक दूसरी युक्ति और है, जिससे यह ग्रन्थ ईसाकी पिछली शताब्दियों का बताया जाता है। विद्वानोंका अभिमत है कि इस ग्रन्थके अनेक पद्योंमें भर्तृहरि के संस्कृत ग्रंथकी प्रतिध्वनि पाई जाती है । भर्तृहरि नीतिशतक लगभग ६५० ईसवी में रचा गया था । अतः यह कल्पना कि जाती है, कि
नालदियार सातवीं सदीके बादका होना चाहिए।
संस्कृत तथा तामिल इन दोनों भागों में निपुण थे, सम्भवतः पुरातन संस्कृत सूक्तियोंसे सुपरिचित थे, जिन्हें भर्तृहरिने अपने ग्रंथ में शामिल किया है । यदि आप यह मानें कि नाल दियार के लिए जिम्मेदार जैन मुनिगण कुंदकुंदाचार्यके नेतृत्व वाले द्राविड़ संघ के सदस्य थे, तब भी इस रचनाको प्रथम शताब्दीके बादका सिद्ध नहीं किया जा सकता । इस प्रसंग में यह उल्लेख करना उचित है कि तामिल भाषाकी प्रख्यात टीकाओं में बहुत प्राचीन काल से नालदियार के पद्य उद्धृत हुए पाए जाते हैं। इ दो महान् ग्रन्थोंके सिवाय नीति के अष्टादशप्रन्थों में सम्मिलित दूसरे ग्रंथ ( यथा 'अरनेरिश्वारम् - सद्गुण मार्गका सार, 'पलमोलि'- सूक्तियां, ईलाति आदि) मूलतः जैन आचार्योंकी कृतियाँ हैं । इनमेंसे हम संक्षेपमें कुछ पर विचार करेंगे ।
१.
अरनेरिश्वारम् -'सधर्म-म र्ग-सार' के रचयिता तिरुमुनैधादियार नामक जैन विद्वान हैं । यह अंतिम संगमकाल में हुए थे । इस महान् ग्रन्थ में ये जैनधर्मसे सम्बन्धित पंच सदाचार के सिद्धान्तों का वर्णन करते हैं, यद्यपि ये सिद्धान्त दक्षिण के अन्य धर्मों में भी पाए जाते हैं । इन सिद्धान्तों को पंचव्रत कहते हैं, जो चरित्र - सम्बन्धी
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अनेकान्त
पाँच नियम हैं, और जो गृहस्थ तथा मुनियोंके लिए आवश्यक हैं। ये अहिंसा, अस्तेय, सत्य, ब्रह्मचर्य तथा परिमित परिग्रह कहे जाते हैं । ये सदाचार-सम्बन्धी पंचव्रत कहे जाते हैं, और अरनंरिश्वारम् नामक ग्रन्थ में इनका वर्णन है ।
1
२. पलमोलि अथवा सूक्तिएँ - इसके रचयिता मुनरुनैयर अनार नामक जैन हैं। इसमें नालदियारके समान वेणवा वृत्त में ४०० पद्य हैं। इसमें बहुमूल्य पुरातन सूक्तियाँ हैं, जो न केवल सदाचार के नियम ही बताती हैं बल्कि बहुत अंश में लौकिक बुद्धित्तासे परिपूर्ण हैं । तामिलके नीतिविषयक अष्टादश ग्रन्थोंमें कुरल, नालदियारके बाद इसका तीसरा नंबर है ।
३. इस अष्टादश ग्रंथ-समुदाय में सम्मिलित “तिनैमालैनूरैम्वतु” नामका एक और ग्रन्थ हैं जिसका रचयिता है करिणमेदैयार । यह जैन लेखक भी संगमके कवियोंमें अन्यतम हैं । यह प्रन्थ शृंगार तथा युद्ध के सिद्धान्तों का वर्णन करता है तथा पश्चात्वर्ती महान् टीकाकारों के द्वारा इस ग्रंथके अवतरण बखूबी लिए जाते रहे हैं । नश्चिन किनियार तथा अन्य ग्रन्थकारोंने इस ग्रन्थ के अवतरण दिए हैं।
[ श्राश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
सुगंधित काष्ट, चन्दन तथा मधुके सुगन्धपूर्ण संग्रहको घोषित करता है । ग्रन्थ के इस नामकरणका कारण यह हैं कि इसके प्रत्येक पद्य में ऐसे ही सुरभिपूर्ण पाँच विषयों का वर्णन है । इस ग्रन्थका मूल जैन है | ग्रन्थकारका नाम कणिमेडैयार है जिनकी विद्वत्ता सबके द्वारा प्रशंमित है । यह संगम साहित्यकं अष्टादश लघुग्रंथों में अन्यतम है । लेखक के सम्बन्ध में केवल इतना ही मालूम है, कि वह माक्कानारका शिष्य तथा तामिलाशिरियरका पुत्र है, जो मदुरा संगम के सदस्य थे । साधारणतया वे ग्रंथ यद्यपि उन अष्टादशलघुग्रन्थोंमें शामिल किए जाते हैं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं हैं, कि वे उसी शताब्दी के हैं। ये अनेक शताब्दियों के होने चाहिएँ । हम कुछ दृढ़ता के साथ इतना ही कह सकते हैं, कि ये दक्षिण भारत में हिन्दूधर्म के पुनरुद्धार काल के पूर्ववर्ती हैं। अतः इनका समय सातवीं सदी के पूर्वका होना चाहिए ।
अब हम काव्य साहित्यका वर्णन करेंगे । महाकाव्य और लघुकाव्यके भेदसे काव्य - साहित्य दो प्रकारका है । महाकाव्य संख्या में पाँच हैं - चितामणि शिलप्पडिकारम् मणिमेखलै, वलैयापति और कुंडलकेशि । इन पांच काव्यों में चिंतामणि, सिलप्पडिकारम, और वलैतापति तो जैन लेखकों की कृति हैं और शेष दो बौद्ध विद्वानोंकी कृति हैं। इन पांच मेंसे केवल तीन ही अब उपलब्ध होते हैं; कारण वलैयापति तथा कुंडलकेशि तो इस जगत से लुप्त हो गए हैं। टीकाकारों द्वारा इधर-उधर उद्धृत कतिपय पद्योंके 'सिवाय इन ग्रंथोंके सम्बन्ध में कुछ भी विदित नहीं है । प्रकीर्णक रूपमें प्राप्त कतिपय पद्योंसे यह स्पष्ट है कि 'वलैया पति' जैन ग्रन्थकार
४. इस समुदायका एक ग्रन्थ 'नान्मणिक्कडिगे' अर्थात् रस्नचतुष्टय-प्रापक है । इसके लेखक जैन विद्वान विलम्बिनथर हैं । यह वेणूबा छन्द में है, जो अन्य ग्रन्थों में प्रसिद्ध है । प्रत्येक पद्य में रत्नतुल्य सदाचार के नियम चतुष्टयका वर्णन है और इसीसे इसका नाम नान्मणिक्कडिगे है ।
५. इसके बाद एलाति तथा दूसरे ग्रंथ आते हैं एलाति शब्द इलायची, कर्पूरे, ईरीकारसू नामक
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वर्ष ३, किरण १२]
तामिल भाषाका जैन साहित्य
के द्वारा रचित था । कथाका क्या ढाँचा था,लेखक हित्यके समय-निर्णयमें सीमालिंगका काम देनेवाला कौन था और वह कब विद्यमान था, ये सब बातें समझा जाता है। उसके लेखक चेरके युवराज हैं,जो केवल कल्पनाकी विषय रह गई हैं। इसी प्रकार 'लंगोवडिगल' नामके जैन मुनि हो गए थे। बौद्ध ग्रन्थ कुंडलकशिके लेखक अथवा उसके समय यह महान् ग्रंथ साहित्यिक रिवाजोंके विषयमें के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात नहीं है । नीलकेशि ग्रंथमें प्रमाणभत गिना जाता है और बादके टीकाकारांके उद्धृत पद्योंस यह स्पष्ट होता है कि कुण्डलकेशि द्वारा इसी रूपमें उद्धृत किया जाता है । इसका एक दार्शनिक ग्रंथ था, जिसमें वैदिक तथा जैन सम्बन्ध नगरपुहार, कावेरिपूमपट्टणमके, जो चोल दर्शन जैसे अन्य दर्शनोंका खण्डन करके बौद्ध राज्यकी राजधानी था, महान् वणिक परिवारसे दर्शनको प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गई है। बताया जाता है । करणकी नामकी नायिका इमी दुर्भाग्यसं इन दोनों महाकाव्योंकी उपलब्धिकी कोई वैश्य वंशकी थी और वह अपने शील तथा पतिआशा नहीं है । प्रकाण्ड तामिल विद्वान डा. वी. भक्ति के लिए प्रख्यात थी । चूंकि इस कथामें पांड्य स्वामिनाथ अय्यरके प्रशंसनीय परिश्रमसं केवल राज्यकी राजधानी मदुरामें नूपुर (anklet ) तीन अन्य ग्रन्थ ही इस समय उपलब्ध हैं । यद्यपि अथवा शिलम्बु बेचने का प्रसंग है, इसलिए यह काव्योंकी गणनामें चिंतामणिका गौरवपूर्ण स्थान दुःखान्त रचना नपुर अथवा शिलम्बुका महाकाव्य है, क्योंकि उस ग्रंथराजको सर्वमान्य साहित्यिक कही जाती है। चूंकि इस कथामें तीन महाराज्यों कीर्ति है, परन्तु इसम यह कल्पना नहीं की जा का सम्बन्ध है अतः लेखक, जो चेर-युवराज्य है, सकती कि यह गणना ऐतिहासिक क्रम पर अव. पुहार, मदुरा तथा वनजी नामकी तीन बड़ी लम्बित है । प्रायःवलैयापति एवं कुंडलकेशि नामक राजधानियोंका विस्तारके साथ वर्णन करता है, लुप्त ग्रन्थ दूसरोंकी अपेक्षा ऐतिहासिक दृष्टिस जिनमेंसे वनजी चेरराज्यकी राजधानी थी। पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं, किन्तु इन ग्रंथोंके विषयों इस ग्रंथके रचियिता लंगोबडिगल चेरलादन कुछ भी विदित नहीं है, अत: हम निश्चयपूर्वक कुछ नामक चेर नरेशके लघ पुत्र थे, जिसकी राजधानी भी नहीं कह सकते हैं। अवशिष्ट तीन ग्रंथों में वनजी थी। ल्लंगोवाडिगल चेरलादनके पश्चात होने शिनप्पडिकारम् तथा मणिमेकले परम्पराके द्वारा वाले नरेश शेनगुटटुवनका अनुज था; इसीसे समकालीन बताए जाते हैं, किन्तु चिंतामणि प्रायः उसका नाम ल्लंगोवाडिगल अर्थात् छोटा युवराज पश्चात्तवर्ती है । मण ने कलै के बौद्ध ग्रंश होनेके था। जब वह मुनि हुए तब उन्हें लंगोवाडिगल कारण हम अपनी आलोचनामें उसे स्थान नहीं दे कहते थे, 'अडिगल' शब्द मुनिका उल्लेख करने सकते, यद्यपि कथाका सम्बन्ध शिलप्पडिकारम वाला एक सम्मानपूर्ण शब्द है । एक दिन जब से है जो कि स्पष्टतया जैन प्रन्थ है।
यह साधु युवराज वनजी नामकी राजधानीमें स्थित शिलप्पडिकारम्-'नपुरका महाकाव्य' अत्यन्त जिनमन्दिरमें थे, तब कुछ पहाड़ी लोग उनके पास महत्वपूर्ण तामिल ग्रंथ है, कारण वह तामिल सा- गए और उनने उस आश्चर्यकारी दृश्यका वर्णन
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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४१५
किया, जिसे उनने देखा था और जो करणकी मुख्य बंदरगाह था और वह चोलनरेश करिकालकी नामकी नायिकासे सम्बन्धित था । उनने पर्वत पर राजधानी था । व्यापारका मुख्य केन्द्र होने के कारण एक स्त्रोको, जिसका एक स्तन नष्ट हो गया था, राजधानीमें बहुतसे विशाल व्यापारिक भवन थे। किस प्रकार देखा; किस तरह उसके समक्ष इन्द्र इनमें मासत्तवन नामका एक प्रख्यात् व्यापार
आया और किस भांति कोवलन नामक उसका था जो व्यापारियों के शिसोमणियों के उज्ज्वल परिपति देवके रूपमें उससे मिला और अन्तमें किम वारका था । उसका पुत्र कोवलन था, जो कि इस प्रकार इन्द्र उन दोनोंको विमान में बैठाल कर ले कथाका नायक है। वह उसी नगरके मा-नायकन गया; ये सब बातें चेरके यवराजके समक्ष उसके नाम के दूसरे महान् व्यापारीकी कन्या करणकीके मित्र और मणिमे कलैके प्रख्यात लेखक कुलवाणि- साथ विवाहा गया था । कोवलन और उसकी गन् शाटन नामक कविकी मौजूदगीमें कही गई। पत्नी कएणकी एक बड़े पैमाने पर निर्मित स्वतंत्र इम मित्रने नायक तथा नायिकाको पर्ण कथा कही भवनमें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार कुछ और वह राजर्षिके द्वारा बड़ी रुचिसे सुनी गई। काल तक बड़े ठाठ-बाट तथा आनन्दके साथ
शाट्टनके द्वारा कथित इस कथामें तीन मुख्य रहते थे, गृहस्थोंके नियम तथा आचार के अनुसार तथा मूल्यवान सत्य हैं जिनमें राजर्षिने बहुत उनकी प्रवृत्ति थी और उनका आनन्द पात्रभूत दिलचस्पी ली। पहला, अगर एक नरेश सत्यके गृहस्थों तथा मुनियोंका अत्यधिक आदर-सत्कार मार्गसे तनिक भा विचलित होता है तो वह अपनी करनेमें था। अनीतिमत्ताके प्रमाणस्वरूप अपने तथा अपने जब कि वे अपने जीवनको इस प्रकार सुखसे राज्यके ऊपर संकट लाएगा; दूसरा, शीलके मार्ग बिता रहे थे, तब कोवलनको एक अत्यन्त सुन्दरी पर चलने वाली महिला न केवल मनुष्यों के द्वारा तथा प्रवीण माधवी नामकी नर्तकी मिली, वह प्रशंसित एवं पूजित होती है किन्तु देवों तथा उस पर आसक्त होगया और उसके अनुकूल मुनियों के द्वारा भी; और तीसरे कर्मों की गति बर्तने लगा, और इसीलिये वह अपना अधिकांश इस प्रकारकी है कि उसका फल अवश्यंभावी है, समय माधवीकं साथ व्यतीत करता था, जिससे जिमसे कोई भी नहीं बच सकता और व्यक्तिके उसकी धर्मपत्नी कण्णकीको महान् दुःख होता पूर्व कर्मों का फल आगामीकालमें अवश्य भोगना था। इस विलासता पूर्ण जीवनमें उसने प्रायः पड़ेगा। इन तीन अविनाशी सत्योंका उदाहरण सब संपत्ति स्वाहा कर दी,किन्तु करणकाने अपना देनके लिये राजर्षिने मनुष्यजातिके कल्याणके दु:ख कभी भी प्रकट नहीं किया और वह उसके लिये इस कथाकी रचना करनेका कार्य किया। प्रति उसी प्रकार भक्त बनी रही जिस प्रकार कि इस शिलप्पदिकारम अथवा नूपुर (चरणभूषण) वह अपने वैवाहिक जीवन के प्रारंभमें थी। सदा के महाकाव्यमें पहला दृश्य चोलकी राजधानी की भाँति इन्द्रोत्सवका त्यौहार अथवा प्रसंग पुहारमें है। यह कावेरी नदीके मुखपर स्थित आया । कोवलन अपनी प्रेयसीक साथ उत्सवमें
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वर्ष ३, किरण १२]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
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Sa.
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सम्मिलित होने के लिये समुद्र तट पर गया। जबकि राजधानीको छोड़कर मदुराके लिये रवाना हो वे एक कौनेमें बैठे थे, कोवलनने माधवीके हाथमे गया। मार्गमें वह कावेरीके उत्तरतटकी ओर स्थित वीणा ले ली और वह प्रेमकी कुछ मधर गीनि- जैन साधओंके एक आश्रममें पहुँचा। उस आश्रम में काएँ बजाने लगा। माधवीको तनिक शंका हुई कि उनको कौंडा नामकी साध्वी मिली, जो उन दोनोंके उसके प्रति कोवलनका प्रेम कम हो रहा है। साथ चलनेको इसलिए बिल्कुल राजी थी, कि उसे किन्तु जब उसके हाथसे माधवीने वीणा लेकर पांड्यन राजधानी स्थित अपना गीत प्रारंभ किया, तो कोवलनको इम आचार्योस मिलनेका सौभाग्य प्राप्त होगा। ये तीनों बातका संदेह होने लगा कि माधवीका गुप्त रूपमे मदुराकी ओर रवाना होगये । कावरी नदीको पार किसी अन्य व्यक्तिके साथ सम्बन्ध है । इस पार- करनके उपरांत जब कौलवन और उसकी स्त्री एक स्परिक संदेहसे उनमें जुदाई हो गई, और तलाबके तटपर बैठे, तब अपनी दुष्टा प्रेयसीके साथ कोवलन एक सम्माननीय गृहस्थके रूपमें फिरसे वहां भ्रमण करने वाले एक दर्जनने कोवलन और जीवन आरंम्भ करनेके पवित्र संकल्पको लेकर उसकी पत्नीका बहुत तिरस्कार किया । इससे पूर्ण गरीबीकी अवस्थामें घर लौटा । उसको शोल- उनकी साध्वी मित्र कौंडी उत्तेजित हो उठी और वती पत्नीने, उसकी अतात उच्छं खलवृत्ति पर उसने इनको शृगाल बननेका शाप दिया । परन्तु क्षोभ व्यक्त करनेके स्थानमें उसे स्नेहके साथ कोवलन एवं कएणकीकी हार्दिक प्रार्थनाओं पर धीरज बँधाया, जो शीलवती महिलाके अनुरूप उस शापमें यह परिवर्तन किया गया कि वे अपने था, और उसके निजके व्यवसायको पुन: पूर्वरूपको एक वर्षमें प्राप्त कर लेंगे। आरंभ करके जीवन प्रारंभ करने सम्बन्धी निश्चय इस लम्बी यात्राके कष्टोंको भोगते हुए वे मदुरा को प्रोत्साहित किया। उसके पास तो दमड़ी भी के समीप पहुंचे, जो पांड्यन राजधानी थी। अपनी नहीं बची थी कारण जब वह अपनी प्रेयसी माधवी पत्नी कएणकीको कौण्डीके पास और उसकी में आसक्त था, तब वह अपना सर्वस्व स्वाहा कर जिम्मेदारी पर सौंपकर कौवलनने नगरमें प्रवेश चुका था। किन्तु उसकी पत्नीके पास दो चार किया, ताकि वह उह उचित स्थानका निश्चय करे, भूषण विद्यमान थे। वह स्त्री उनको देने को तैयार जहाँ पर व्यवसाय प्रारम्भ करेगा। जब कौबलन थी, यदि वह उनको बेचकर प्राप्त कर द्रव्यसे अपना अपने मित्र मादलनके साथ नगरमें अपना समय व्यवसाय प्रारम्भ करनेमें पूंजी लगानेकी सावधानी व्यतीत कर रहा था, तब कौण्डी कगणकीको माधरी करे । किन्तु वह अपनी राजधानीमें अब बिल्कुल नामकी साधुस्वभाव वाली वहाँकी भेड़ चराने भी नहीं ठहरना चाहता था। इससे उसने इन चरण वाली के यहाँ छोड़ना चाहती थी। जब कौवलन भूषणोंको पांड्यन राजधानी मदुरामें जाकर बेचने नगरसे वापिस आया, तब वह और उसकी स्त्री का निर्णय किया । किसीको भी परिज्ञान हुए अयरवाड़ी लाए गए और वे उस गड़रियेकी स्त्रीके बिना वह उसी रातको अपनी पत्नीके साथ चोल यहां ठहराए गए। उस गड़रिया स्त्रीकी लड़की
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अनेकान्त
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स्थित काकीको अपने ऊपर कहान संकट के सूचक अनेक अपशकुन दिखाई पड़े। जब गड़रियन माधरी वैगई नदीमें स्नान करने गई तब नगरसे लौट कर आने वाली एक गड़रियन कोवलनका हाल विदित हुआ, जो रानीके चरण भूषण चुराने के अपराध में राजाज्ञा के अनुसार मार डाला गया था । जब यह समाचार करणकीने सुना तब वह क्रुद्ध हुई अपने हाथमें दूसरा चरण भूषण लेकर नगर में घुसी ताकि वह राजाके समक्ष अपने पति के निर्दोषपनेको सिद्ध करे । राजमहल में पहुंच कर करणकीने द्वारपालके द्वारा यह समाचार पहुँचवाया कि मैं राजा से मिलना चाहती हूँ ताकि अपने पतिकी निर्दोषताको सिद्ध कर सकूँ, जो उचित जांचके बिना ही फाँसी पर टाँग दिया गया है। उसने राजाको बतलाया कि मेरे पति के पास से गृहीत चोरीके समझे गये मेरे चरण भूषण के भीतर जवाहरात थे, किन्तु महारानीके चरण-भूषण में भीतर की ओर मोती थे। जब काकीके चरण भूषणको तोड़ कर राजाको यह बात दिखाई गई, तब राजानं वैश्यों के एक कुलीन वंशके निर्दोष व्यक्तिका कठोरता पूर्वक प्राणहरण करने की भयंकर भूलको पहचाना। वह चिल्ला उठाकि दुष्ट सुनार मुझसे मूर्खता पूर्ण यह भयंकर भूल कराई है और वह राज्यासनमे गिरकर मूर्छित हो गया एवं तत्काल ही प्राण-हीन हो गया। अपने पतिकी निर्दोषताको सिद्ध करनेके अनन्तर अत्यन्त क्षोभ तथा क्रोध में करणकीने सम्पूर्ण मदुरा नगर को शाप दिया कि वह अग्नि से भस्म हो जाय और उसने अपना बाम स्तन काट कर अपने शापके साथ नगर की ओर फेंक दिया शापने अपना काम किया
कण्णकी की सेवा के लिये नियुक्त हुई जो कि अपने पति सहित उस आयरपाडीमें प्रतिष्ठित मेहमान थी । कष्टों तथा क्षतियोंके कारण दुःखी होता हुआ कौवलन अपनी स्त्रीके पास से बिदा होकर चरण भूषखोंमेंसे एकको बेचने के लिए नगरी लौटा। जब वह प्रधान बाजार की सड़क पर पहुँचा, तब उसे एक स्वर्णकार मिला । उसने अपने आपको राजाके द्वारा संरक्षित स्वर्णकार बतलाया और उससे कहा कि मेरे पास रानीके पहनने योग्य एक चरण भूषण है | उसने उससे उसका मूल्य जाँचने को कहा। वह सुनार उसका मूल्य जाँचना चाहता था, अतः स्वामीने उस भूषणको उसे दे दिया । उस दुष्ट स्वर्णकार ने अपने मनमें कोवलनको ठगनेकी बात सोची और उससे पासके घर में ठहरने को कहा और यह बचन दिया कि मैं राजासे इस विषय में सौदा करूँगा, कारण वह चरण-भूषण इतना मूल्यवान है कि केवल महारानी ही उसका मूल्य दे सकेगी। इस प्रकार बेचारे कोवलिनको अकेला छोड़ कर वह उस चरण-भूषणको लेकर राजाके पास पहुँचा और उसने बात बदल कर यह कहा कि कोवलन एक चोर है, उसके पास रानीके पासका एक चरण-भूषण है, जो कुछ दिन पूर्व राजमहल से चोरी गया था । कोई विशेष जांच किए बिना ही राजाने आज्ञा देदी कि चोरको फांसी देदी जाय तथा तत्काल ही चरण-भूषण ले लिया जाय । दुष्ट स्वर्णकार राजाके कर्मचारियोंके साथ लौटा, जिन्होंने मूर्ख राजाकी आज्ञाका अक्षरशः पालन किया, और इस तरह विदेशमें अपना जीवन आरम्भ करनेके उद्योग में कोवलनको अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा । इस अर्से में गड़रियेकी स्त्रीके घर में
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वर्ष ३, किरण १२]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
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और वह नगर जल कर भस्म हो गया । मदुराकी आकांक्षाके अनुसार उसने इस शील देवीके लिए देवीसे यह बात जान कर कि यह सब उसके एक मन्दिर का निर्माण कराना चाहा। इस उद्देश्यसे पूर्वोपार्जित कर्मों का परिणाम है तथा यह सान्त्वना- वह अपने मन्त्रियों एवं सेनाओंके साथ हिमालय प्रद बात जान कर कि वह एक पक्षमें देवरूपमें की ओर गया ताकि वहाँसे एक चट्टान लाकर अपने पतिसे मिलेगी, करणकी मदुरा छोड़ कर कण्णकी की मूर्ति बनवाए और उसे उसके नामसे पश्चिमकी ओर मलेन्दुकी ओर चली गई । बनवाए हुए मन्दिमें प्रतिष्ठित करें । मार्गमें अनेक तिरुच्चेन्गुणरम नामक पर्वत पर चढ़कर वह आर्य नरेशोंने उसके साथ प्रति द्वंदिता की,जिनको वेनगै वृक्षकी छायामें चौदह दिन प्रतीक्षा करती चेर-नरेशने हराया और वे चेर राजधानीमें कैदीके रही तब एक दिन उसके पति कोवलनके देवरूपमें रूपमें लाये गये। चेर राजधानीमें उसने करणकीके दर्शन हुए, जो उसे अपने बिमानमें स्वर्ग ले गया, नाम पर एक मन्दिर बनवाया और प्रतिष्ठा जहां वह स्वयं देवोंके द्वारा पूजित था। इस प्रकार महोत्सव कराण, जिसके अनुसार शीलकी देवी मदुरेम्काँडम नामका दूसरा अध्याय पूर्ण होता है। करणकीकी मूर्ति पूजाके लिये मन्दिर में स्थापित की ___ इसके अतन्तर तीसरे भागमें, जो वंजिक गई । इस बीचमें कोवलन एवं करणकीके माता काण्ड कहलाता है, चेरकी राजधानी वंजिका वर्णन पिता अपने बच्चोंके भाग्यका हाल सुककर सब है । जिन पहाड़ी लोगोंने करणकीको उसके पति सम्पत्ति छोड़कर साधु बन गए। जब चेर नरेश द्वारा दिव्य विमानमें बिठा कर ले जाए जानेके सेनगुट्टवनने शील देवताकी पूजा-निमित्त मन्दिर महान दृश्यको देखा, उसने अपनी झोपड़ियोंमें बनवाया, तब आर्यावर्तके अनेक नरेशों; मालवाके कुरवेकूट नामक उमंग पूर्ण नतन के रूपमें इस नरेश और लंकाधीश गजवाहने, जो सब उस घटनाको मनाया। इसके अनन्तर इन व्याधोंने समय चेर-राजधानीमें थे. अपनी २ राजधानीमें अपने राजा मनगुट्ठवनको यह आश्चर्य-जनक घटना इसी प्रकार मन्दिर कणकीके लिये बनवाने का बतलाना चाहा और इसके लिये हर एकने राजाके निश्चय किया और यह चाहा इसी प्रकारसे उसकी लिये उपहार लेकर राजधानीकी ओर प्रस्थान पूजाकी प्रवृत्ति की जाय, ताकि वे भी शीलके अधि किया । वहाँ वे चेर नरेशम मिले, जो कि उस देवताका आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। इस प्रकार समय अपनी महारानी और छोटे भाईके साथ करणकीकी पूजा आरम्भ हुई जिससे पूजकोंकी चतुरंग सेनाकं मध्यमें स्थित था। जब राजाने यह सर्वसम्पत्ति एवं समृद्धिकी प्राप्ति हुई । इस प्रकार कथा सुनी कि किस प्रकार कोवलन मदुरामें मारा शिलप्पडिकारम्की कथा पूण होती है । इसके तीन गया, किस प्रकार करणकीके शापसे नगर भस्म महा खंड हैं और कुल अध्याय तीस हैं । इस ग्रन्थ हो गया और किस प्रकार पांड्यनरेशका प्राणान्त पर अदियारक्कुनल्लार-रचित एक बड़े महत्वकी टीका हुआ, तब वह करणकीकी महत्ता और शीलसे विद्यमान है । इस टीकाकारके सम्बन्धी कुछ भी अत्यन्त प्रभावित हुआ । अपनी महारानीकी ज्ञात नहीं है । चूंकि नचिनारम्किनियर नामक
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अनेकान्त
पश्चात् कालीन दूसरा टीकाकार इस टीकाकारका उल्लेख करता है इससे हम इतना ही कह सकते हैं कि वह नचिनार म्किनियर से पूर्ववर्ती होना चाहिये । इस ग्रन्थकी महत्व पूर्ण टीकासे यह स्पष्ट है कि वह टीकाकार एक महान विद्वान हुआ होगा । वह गायन, नृत्यकला, तथा नाचशास्त्र के सिद्धान्तों में अत्यन्त निपुण था, यह बात इन विषयोंको स्पष्ट करने वाली टीकासे स्पष्ट विदित होती है इस नूपुर ( चरण भूषण) वाले महाकाव्य में दक्षिण भारतके इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले विद्वानोंके लिये बहुत कुछ ऐतिहासिक सामग्री विद्यमान है । कनका भाई पिल्ले के समय से जिन्होंने १८०० वर्ष पूर्वके तामिलजन" नामका ग्रंथ लिखा अब तक यही ग्रन्थ तामिल देशके अनुसंधानक छात्रों के परिज्ञान एवं पथप्रदर्शन के लिए कारण रहा है । सोलौन के नरेश गजवाहु बंजी राजधानी में राजकीय अतिथियोंमेंसे एक थे, यह बात ग्रन्थके कालनिर्णय के लिए मुख्य बताई गई है। बौद्ध ग्रन्थ महावंशके अनुसार ये गजबाहु ईसाकी दूसरी शताब्दी के कहे जाते हैं। इस बात के आधार पर आलोचकों का यह अभिमत है कि चेर-नरेश सेनगुट्टवन और उनके भाई ब्ल्लंगोबडिगल ईसाके लग भग १५० वर्ष पश्चात् हुए होंगे, अतः यह ग्रन्थ उसी कालका समझा जाना
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चाहिये । इस बात पर सभी एक मत नहीं है, किंतु जो इस विषय में भिन्न मत हैं, वे महावंश में वर्जित गजवाहु द्वितीयके अनेक शताब्दी पीछेके काल में इसे खेंचते हैं। मिस्टर लोगन (Logan ) अपनी मलावार डिस्ट्रिक्ट मेनुअल में अनेक महत्वकी बातें बताते हैं जिनसे कि हिन्दू धर्मके प्रवेश से पहले मलावार में जैनियों का प्रभाव व्यक्त होता है चूंकि इस समय काल निणयकी बात में हमारी साक्षात रुचि नहीं है अतः हम इस बातको इतिहास के विद्वानों के लिए छोड़ते हैं । हमारी राय में इस ग्रन्थका द्वितीय शताब्दी वाले गजवाहुने सम्बन्ध स्थापित करने की बात सर्वथा असम्भव नहीं है । किन्तु हम एक महत्वपूर्ण बात पर जोर देना चाहते हैं । सम्पूर्ण ग्रन्थ में हम अहिंसा सम्बन्धी सिद्धान्तों का स्पष्टीकिरण एवं उस पर विशेष जोर से वर्णन पाते हैं तथा कहीं २ इस सिद्धान्त के अनुसार मन्दिर पूजाका भी उल्लेख पाया जाता है । इस समय के लगभग सम्पूर्ण तामिल देश में पुष्पों से पूजा प्रचलित थी । इसे "पुष्पकी" अर्थात् पुष्पोंसे बलि कहते हैं । 'बलि' शब्द तो यज्ञों में होने वाले बलिदानको बताता है और पुष्प बलिका अर्थ टीकाकार पुष्पों ईश्वर की पूजा करना बताते हैं ।
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प्रो०जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
[सम्पादकीय ]
अब मैं प्रो० साहबकी उस समीक्षाकी परीक्षा करता हूँ जो उन्होंने उक्त 'सम्पादकीय-विचारणा' पर लिखी है और उसके द्वारा यह बतला देना चाहता हूँ कि वह कहाँ तक निःसार है:
(सम्बन्ध वाक्य)
पोसाहबने अपनी मान्यता एवं धारणाको सत्य वार्तिकको लिखा है,” शब्दसादृश्यको लिये हुए कुछ
सिद्ध करने और उसे दूसरे विद्वानोंके गले तुलनात्मक उदाहरण यह सिद्ध करनेके लिये दिये उतारने के लिये अपने पर्व लेख (अनेकान्त वर्ष ३. थे कि 'राजवार्तिककारने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगमकिरण ४) में जिन यक्तियों ( मुद्दों ) का आश्रय लिया भाष्यका भी काफी उपयोग किया है । और उनके द्वारा था उन्हें आपने चार भागोंमें बाँटा था । अर्थात- अपनी इस दृष्टि एवं धारणाको व्यक्त कि
(१) प्रथम भागके चार उपभागोंमें कुछ दिगम्बर- बातें सर्वार्थसिद्धि में नहीं अथवा संक्षेपसे पाई जाती हैं श्वेताम्बर सूत्रपाठोंका उल्लेख करके यह नतीजा और भाष्यमें हैं अथवा कुछ विस्तारसे उपलब्ध होती निकाला था कि- "इत्यादिरूपमें राजवार्तिकमें तत्वार्थ- हैं, वे सब राजवार्तिकमें प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्यसे सूत्रों के पाठभेदका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया ही ली गई हैं। है । इससे यह बात स्पष्ट है कि उनके सामने कोई (३) तीसरे भाग; "इतना ही नहीं" इन शब्दोंके दूसरा पाठ अवश्य था, जिसे अकलंकने स्वीकार नहीं साथ एक कदम आगे बढ़कर यह भी प्रतिपादन किया किया ।" . .
था कि “राजवार्तिककारने तत्वार्थभाष्यकी पंक्तियाँ उठा (२) दुसरे भागमें स्वयं ही यह शंका उठाकर कर उनकी वार्तिक बनाकर उन पर विवेचन किया है । कि “सूत्रपाठमें भेद होने का जो अकलंकने उल्लेख उदाहरण के लिये 'श्रद्धासमयप्रतिषेधार्थ च' यह भाष्यकी किया है उससे यही सिद्ध होता है कि उनके सामने पंक्ति है (५-१); इसे श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च' वार्तिक कोई दूसरा सूत्रपाठ था, जिसे दिगम्बर लोग न मानते थे बनाकर इस पर अकलंकका विवेचन है। साथ ही,यह लेकिन इससे यह नहीं कहा जासकता कि वह सूत्रपाठ सूचना भी की थी कि इसी तरह अकलंकदेवने भाष्य तत्त्वार्थाधिगम भाष्यका ही था । संभव है वह अन्य कोई में उल्लिखित काल, परमाणु आदिकी मान्यताओं पर
ही पाठ रहा हो।" और साथ ही यह बतलाकर भी यथोचित विचार किया है । और उनसे अपने कथन कि अकलंकके सामने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि मौजूद की संगति बैठानेका प्रयत्न किया है। अवश्य ही कहीं थी तथा उन्होंने सर्वार्थसिद्धिको सामने रख कर ही राज- विरोध भी किया है ।" और फिर (तदनन्तर ही) यह
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अनेकान्त
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नतीजा निकाला था । कि-"इससे ऊपरकी (नं० २ होता है। साथ ही, यह भी बतलाया था कि श्वेतामें वर्णित ) शंकाका निरसन हो जाता है, और. इससे म्बर विद्वान् सिद्धसेनगणि भी इस (भाष्य) का 'अर्हमालूम होता है कि अकलंकके सामने कोई दूसरा सूत्र त्प्रवचन नामसे उल्लेख करते हैं ।" और प्रमाणमें पाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वय तत्वार्थभाष्य सिद्धसेनकी तत्वार्थवृत्तिका यह वाक्य उद्धृत किया मौजद था, जिसका उपयोग उन्होंने वार्तिक अथवा था-"इति श्रीमदहत्प्रवचने तत्वार्थाधिगमें उमास्वातिवार्तिकके विवेचनरूपमें यथास्थान किया है ।' . वाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायां (४) चौथे भागमें कुछ उद्धरणोंको तीन उप
सिद्धसेनगणिविरचितायां अनगारागारिधर्मप्ररूपकासप्तमोभागों ( क, ख, ग ) में इस प्रतिज्ञा के साथ दिया था ऽध्यायः ।" कि, "उनमें अकलंक देवने भाष्य के अस्तित्वका स्पष्ट
और अन्त में उक्त कारिकाका यह अर्थ देकर कि उल्लेख किया है, इतना ही नहीं उसके प्रति बहुमान
"उत्तम पुरुषोंने तत्वार्थसूत्रका भाष्य लिखा है, उसमें का भी प्रदर्शन किया है ।" उनमेंसे पहला उद्धरण है.- तर्क संनिहित है और न्याय अागमका निर्णय है" यह "उक्तं हि-महप्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणागुणा इति, नतीजा निकाला था कि "अकलंक देव तो तत्त्वार्थाधि. दूसरा उद्धरण है-"कालोपसंख्यानमिति चेन गम भाष्यसे अच्छी तरह परिचित थे, और वे तत्त्वार्थसत्र वक्ष्यमाणलक्षणत्वात्स्यादेतत कालोऽपि कश्चिदजीव
और उसके भाष्य के कर्ताको एक मानते थे ।" पदार्थोऽस्ति अतश्चास्ति यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्व्याणि
प्रो० साहब के इस युक्ति-जालसे वह बात सिद्ध इत्युक्तं अतोस्योपसंख्यानं कर्तव्यं इति ? तन्न, किं कारणं
होती है या कि नहीं जिसे आप सिद्ध करके दूसरों के वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ।" और तीसरा उद्धरण है राज- गले उतारना चाहते है, इतनी बातका विचार करने के वार्तिककी अन्तिम कारिकाका, जो ग्रन्थ के अन्तमें लिये ही उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' लिखी गई थी; 'उक्तंच'रूपसे दी हुई ३२ कारिकाओंके अनन्तर ग्रन्थकी जैसाकि उसके शुरूके निम्न प्रस्तावना-वाक्यसे भी समाप्ति को सूचित करने वाली है । यद्यपि वह मुद्रित प्रकट हैप्रतिमें नहीं पाई जाती परन्तु पना आदिकी कुछ हस्त- _ "यह सब बात जिस आधार पर कही गई है लिखित प्रतियोंमें उपलब्ध है और वह इस प्रकार है- अथवा जिन मुद्दों आदि (उल्लेखों)के बल पर सुझाने की "इति सस्वार्थसूत्राणं भाष्यं भाषितमुत्तमैः ।
चेष्टाकी गई है उन परसे ठीक-बिना किसी विशेष
बाधाके–फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस यत्र संनिहितस्तकः न्यायागमविनिर्णयः ॥" विचारणाका मुख्य विषय है ।" इस तरह पिछले दो उद्धरणोंमें प्रयुक्त हुए 'भाष्ये' और इसलिये 'विचारणा' में, प्रो० साहबकी और 'भाष्यं पदोंका वाच्य ही उक्त श्वेताम्बरीय तस्वार्था- उक्तियोंकी जाँच करके उन्हें सदोष एवं बाधित सिद्ध धिगमभाष्य सुझाया था और पहले उद्धरणमें प्रयुक्त हुए करते हुए इतना ही बतलाया गया था कि उनके 'महत्प्रवचने' पदके विषयमें स्पष्ट लिखा था कि “यहाँ आधार पर प्रो० साहब जो नतीजा निकालना चाहते हैं अर्हत्प्रवचनसे तत्वार्थभाष्यका ही अभिप्राय मालम वह नहीं निकाला जा सकता । इसके अतिरिक्त 'विचा
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वर्ष३, किरण १२]
प्रोजगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
रणा' में अपनी ओरसे कोई खास दावा उपस्थित नहीं चौथे भागमें सबसे पहले “उक्तं हि अर्हस्पचने" इत्यादि किया गया--अपनी तरफसे किसी नये दावेको पेश वाक्यको उद्धृत करके जो यह बतलाया था कि “यहाँ करके साबित करना उसका लक्ष्य ही नहीं रहा है । 'अर्हत्प्रवचन' से 'तत्त्वार्थभाष्यका ही अभिप्राय मालम ऐसी हालतमें विचारणाकी समीक्षा लिखते हुए प्रो० होता हे," और इसकी पुष्टिमें सिद्ध सेनगणिके एक साहबको उचित तो यह था कि वे उनमें उन दोषोंका वाक्यको उद्धृत किया था उस सब पर विचार करते भले प्रकार परिमार्जन करते जो उनकी युक्तियों पर हुए मैंने जो अपनी 'विचारणा' प्रस्तुत की थी वह सब लगाये गये हैं--अर्थात् यह सिद्ध करके बतलाते कि इस प्रकार है-- वे दोष नहीं दोषाभाष हैं, और इसलिये उनकी युक्तियाँ " 'उक्तं हि अर्हस्प्रवचने द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा अपने साध्यकी सिद्धि करने के लिये निर्बल और असमर्थ इति' यह मुद्रित राजवार्तिकका पाठ जरूर है; परन्तु नहीं किन्तु सबल और समर्थ हैं । परन्तु ऐसा न करके, इसमें उल्लिखित 'अर्हत्प्रवचन' से तत्त्वार्थभाष्यका ही अप्रो० साहबने 'विचारणा' की कुछ बातोंको ही अन्यथा भिप्राय है ऐसा लेखक महोदयने जो घोषित किया है वह रूपमें पाठकोंके सामने रखनेका प्रयत्न किया है और कहाँसे और कैसे फलित होता है यह कुछ समझमें नहीं उसके द्वारा अपनी समीक्षाका कुछ रंग जमाना चाहा आता । इस वाक्यमें गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है
सूत्रका उल्लेख है वह तत्वार्थाधिगमसूत्रके पांचवें अध्याय "श्रागे चलकर तो मुख्तार साहबने एक विचित्र का ४० वाँ सूत्र है, और इसलिये प्रकटरूपमें 'अर्हत्प्रकल्पना कर डाली है । आपका तर्क है, क्योंकि राज- वचन'का अभिप्राय यहाँ उमास्वातिके मूल तत्वार्थाधिवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है, अतएव राज- गमसूत्रका ही जान पड़ता है-तत्त्वार्थभाष्यका नहीं । वार्तिक में "उक्तं हि अर्हत्प्रवचने" श्रादि पाठ भी अशुद्ध सिद्धसेनगणिका जो वाक्य प्रमाणमें उद्धृत किया गया हैं; तथा 'अर्हत्प्रवचन' के स्थान पर 'अर्हत्प्रचनहृदय' है उसमें भी 'अर्हत्प्रचन' यह विशेषण प्रायः तत्त्वार्थाहोना चाहिये।"
धिगमसत्र के लिये प्रयुक्त हुआ है--मात्र उसके भाष्यके ____ इस वाक्यमें यह प्रकट किया गया है कि लिये नहीं । इसके सिवाय, राजवार्तिक उक्त वाक्यसे मैंने यह दावा किया है कि "उक्तहि 'अर्हत्प्रवचने पहले यह वाक्य दिया हुआ है-"अर्हत्प्रवचनहृदयादिषु द्रव्याश्रया निगुणाः गुणाः' यह पाठ अशुद्ध है गुणोपदेशात् ।" और तत्सम्बन्धी वार्तिक भी इस तथा 'अर्हत्प्रचन' के स्थान पर 'अर्हत्प्रचन हृदय' रूपमें दिया है- "गुणाभावादयुक्तिरिति चेन्नाईस्प्रवहोना चाहिये; और अपने इस दावेको सिद्ध चनहृदयादिषु गुणोपदेशात् ।'' इससे उल्लेखित ग्रन्थका करने के लिये सिर्फ यह युक्ति दी है कि "क्योंकि राज. नाम 'अर्हत्प्रवचनहृदय' जान पड़ता है, जो उमास्वातिवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है ।” परन्तु मैंने कर्तृकसे भिन्न कोई दूसरा ही महत्वका ग्रन्थ होगा । अपनी 'विचारणामें', जिसे पाठक देख सकते हैं, कहीं बहुत संभव है कि 'अर्हत्प्रवचनहृदये' के स्थान पर भी उक्त रूपका दावा नहीं किया और न उक्त तर्क ही 'अर्हत्प्रवचने' छप गया हो। इस मुद्रित प्रतिके अशुद्ध उपस्थित किया है। प्रो० साहबने अपनी युक्तियोंके होनेको प्रोफेसर साहबने स्वयं अपने लेखके शुरूमें स्वी.
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०३२
अनेकान्त
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[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
कार भी किया है । अतः उक्त वाक्यमें पहप्रवचने' पद हैं। यदि गुण भी कोई तत्व होता तो उसके विषय के प्रयोगमात्रसे यह नतीजा नहीं निकाला जासकता कि को लेकर मूननयके तीन भेद होने चाहिये थे-तीसरा अकलंकदेवके सामने वर्तमानमें उपलब्ध होने वाला मूलनय गुणार्थिक होना चाहिये था परन्तु वह तीसरा श्वेताम्बर-सम्मत तत्वार्थभाष्य मौजूद था, उन्होंने नय नहीं है । अतः गुणाभाव के कारण (द्रव्यके लिये) उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है और उसके गुणपर्यायवान् ऐमा निर्देश ठीक नहीं है, समाधानरूप में प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया है ।' अकलंकदेवने तो कहा गया है--"तन किं कारणं ? अर्हत्प्रवचनहृदयादिषु इस भाष्यमें पाये जाने वाले कुछ सूत्रपाठोंको पार्षविरो- गुणोपदेशात्" । अर्थात् यह श्रीपत्ति ठीक नहीं, क्योंकि धी-अनार्य तथा विद्वानोंके लिये अयाह्य तक लिखा है। 'अहंप्रचनहृदय' आदि शास्त्रों में गुणका उपदेश पाया तब इस भाष्यके प्रति, जिसमें वैसे सूत्रपाठ पाये जाते जाता है । इसके अनन्तर ही उन शास्त्रों के दो प्रमाण हों, उनके बहुमान-प्रदर्शनकी कथा कहाँ तक ठीक हो निम्न रूपसे उद्धृत किये गये हैं, जिनमेंसे एक के साथमें सकती है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं ।" प्रमाण ग्रन्थकी सूचनाके रूपमें वही 'प्रहरप्रवचने' पद
लगा हुआ है और दूसरेके साथमें पूर्व ग्रन्थसे भिन्न ताका इससे स्पष्ट है कि विचारणामें उक्त प्रकारका कोई द्योतक 'अन्यत्र' पद जुड़ा हुआ है । दावा अथवा तर्क उपस्थित नहीं किया गया है। 'अहं - स्प्रवचनहृदये' के स्थान पर 'अहप्रवचने' के छपनेकी "उक्त हि अर्हस्प्रवचने द्रव्याश्रया निगु गुणा इति" संभावना जरूर व्यक्त की गई है परन्तु निश्चितरूपसे यह "अन्यत्र चोक्तंनहीं कहा गया कि 'अहत्प्रवचने' पाठ अशुद्ध है, जिससे वह दावेकी कोटिमें आजाता–सम्भावना गुण इति दवयिधाणं दव्ववियारोय पज्जयो भणिदो। सम्भावना ही होती है, उसे दावा नहीं कह सकते । और तेहि भणणं दव्वं अजुदवसिद्धं हवदि णिच॥३॥ इति संम्भावनाकी कल्पनाका कारण भी यह नहीं है कि
___इनमें से पहला प्रमाण, कथनक्रमको देखते हुए, "राजवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है" जिसे मेरे
अर्हस्प्रवचनहृदयका और दूसरा उन शास्त्रों से किसी बिना कहे भी मेरी अोरसे इस बातको सिद्ध करने के
एकका है जिनका ग्रहण 'अर्हस्प्रवचनहृदयादिषु' इस लिये हेतुरूप में प्रस्तुत किया गया है कि उक्त "अहत्प्र. पद में 'आदि' शब्दके द्वारा किया गया है । वचने' पाठ अशुद्ध है; बल्कि यह कारण है किराजवार्तिकके "गुणाभावादयु क्तिरितिचेचाहत्प्रवचन- "गुणा इति संज्ञाः तंत्रान्तराणां, आर्हतानां तु हृदयादिषुगुणोपदेशात्" इस वार्तिक (५, ३७, २) के द्रव्य पर्यायश्चेति द्वितयमेव तत्वं अतश्च द्वितयमेव तद्भाष्यमें यह बहस उठा कर कि 'गुण यह संज्ञा अन्य द्वयोपदेशात् । द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिक इति हावेव मूलशास्त्रोंकी है, अर्हतोंके शास्त्रोंमें तो द्रव्य और पर्याय नयौ । यदि गुणोपि कश्चित्स्यात्, तद्विषयेण मूलनयेन इन दोनोंका उपदेश होनेसे ये दो ही तत्व हैं, इसीसे तृतीयेन भवितव्यं । न चास्त्यसावित्यतो गुणभावात्, द्रब्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो मूल नय माने गये गुणपर्यायवदिति निर्देशो न युज्यते ?
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वर्ष ३ किरण १२]
प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
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दूसरे प्रमाणमें दी हुई गाथा 'सर्वार्थसिद्धि' में भी प्रोफेसर जैसे विद्वानों के लिये ऐसा करना शोभा भी नहीं 'उक्तं च'रूपसे पाई जाती है और इससे वह कुन्दकुन्दा- देता । अस्तु । दि-जैसे प्राचीन श्राचार्यों के किसी ग्रन्थकी गाथा जान अब देखना यह है कि समीक्षामें अन्य प्रकारसे क्या पड़ती है। ऐमी हालतमें कथनके पूर्वापर-सम्बन्धको कुछ कहा गया है । मेरी (सम्पादकीय) "विचारणा' का देखते हुए, 'अहंस्त्रवचने' के स्थान पर 'अहप्रवचन- जो अंश ऊपर उद्धृत किया गया है उसकी अन्तिम हृदये' पाठके होनेकी बहुत बड़ी संभावना है, इसी एक पंक्तियोंमें भाष्य के प्रति अकलंकके बहुमान-प्रदर्शनकी कारणसे मैंने इस संभावनाकी कल्पना की थी, जिसे बात पर जो आपत्तिकी गई है उसका तो समीक्षामें कहीं समीक्षा में प्रकट भी नहीं किया गया ! और यहाँ तक कोई विरोध नहीं किया गया, जिससे मालम होता है लिख दिया गया है कि "इस कल्पनाका कोई आधार प्रो०साहबने मेरी उस आपत्तिको स्वीकार कर लिया है। नहीं"!! साथ ही,यह बात भी कह दी गई हैकि 'यदि मैं शेष अंशकी समीक्षाको क्रमशः ज्योंका त्यों नीचे दिया किसी हस्तलिखित प्रति परसे उक्त पाठको मिलान करने जाता है । साथ ही, अालोचनाको लिये हुए उसकी का कष्ट उठाता तो मुझे शायद वैसी कल्पना करनेका परीक्षा भी दी जाती है, जिससे पाठकोंको उसका मूल्य अवसर ही न मिलता,' जो उक्त विवेचन तथा आगेके भी साथ साथ मालूम होता रहे:स्पष्टीकरणकी रोशनीमें निरर्थक जान पड़ती है । क्योंकि । समीचा-"मुख्तारसाहब लिखते हैं-"'अई. कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें वही पाठ होने पर भी कथन प्रवचनका तात्पर्य मूलतत्वार्थाधिगमसूत्रसे है, तत्वार्थ के पूर्वाऽपरसम्बन्ध परसे जो नतीजा निकाला गया है भाष्यसे नहीं।" अच्छा होता .प० जुगलकिशोरजी इस उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ सकता । तब 'अर्हत्प्रवचन' कथनके समर्थन में कोई युक्ति देते।" पद अहत्प्रवचनहृदये' का ही संक्षिप्त रूप कहा जासकता १ परीक्षा-यहाँ डबल इनवर्टेड कामाज़ के भीतर है। बाकी प्रो० साहबने अपने लेखमें वर्तमानके मुद्रित जो वाक्य दिया है और जिसका मेरी श्रोरसे लिखा राजवार्तिको खुद ही अधिक अशुद्ध बतलाया था, इस- जाना प्रकट किया है वह उस रूपमें मेरा वाक्य न हो लिये मैंने साथमें यह भी लिख दिया था कि “इस कर प्रो० साहबके साँचे में ढला हुश्रा वाक्य है, जिसे मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसरसाहबने स्वयं कुछ काट-छाँट करके रक्खा गया है-इस बातको अपने लेखके शुरूमें स्वीकार, भी किया है;" परन्तु पाठक 'विचारणा की ऊपर उद्धृत की हुई पंक्तियों पर ऐसा तर्क नहीं किया था कि "क्योंकि राजवार्तिक से सहज ही मालम कर सकते हैं। अन्यत्र भी वास्यों बहुत जगह अशुद्ध छपा है अतएव......।" के उद्धृत करने में इस प्रकारकी काट छाँट की गई है.
इस एक नमने और उसके विवेचनपरसे साफ जो प्रामाणिकता एवं विचारकी दृष्टिसे उचित मालम प्रकटहै कि समीक्षा में सम्पादकीय विचारणाको गलतरूप नहीं होती । इस काट-छाँटके द्वारा मेरे वाक्यके शुरूका से प्रस्तुत करनेका भी आयोजन किया गया है, जिससे "प्रकटरूपमें" जैसा आवश्यक अंश भी निकाल दिया 'समीक्षा'समीक्षा-पदके योग्य नहीं रहती और न समीक्षक है, जो इस बातको सूचित करनेके लिये था कि 'अहत्प्रका उसमें कोई सदुद्देश्य ही कहा जासकता है। साथ ही वचन' का अभिप्राय प्रकटरूपमें (बाह्य दृष्टिसे) मूल
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तत्वार्थाधिगम सत्रका जान पड़ता है, सर्वथा नहीं। क्या इष्ट है, यह भी स्पष्ट नहीं होता।" ( इसके बाद श्राभ्यन्तर अथवा साहित्यके पर्वापरसम्बन्धकी दृष्टिसे सिद्धसेनगणिका वह वाक्य फिरसे दिया है, जो प्रो० विचार करने पर वह 'अर्हत्पचनहृदय' का वाचक जान साहब के चौथे भागकी युक्तियोंका उल्लेख करते हुए पडता है. जिसके स्थान पर वह या तो गलत छपा है ऊपर उद्धत किया जाचुका है । )
और या उसके लिये संक्षिप्त रूपमें प्रयुक्त हुआ है, जैसा २ परीक्षा- उक्त वाक्यमें प्रयुक्त हुए "मात्र कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है।
उसके भाष्य के लिये नहीं" इन शब्दों परसे 'प्रायः' रही कथनके समर्थनमें कोई युक्ति न देनेकी शब्दके इष्टको सहज ही में समझा आसकता है । वह शिकायत, वह बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है ! वह बतलाता है कि 'अर्हत्प्रवचन' विशेषण, जो 'तत्वार्थाकथन तो 'विचारणा' में युक्ति देनेके अनन्तर ही धिगम' नामक सूत्रके ठीक पूर्व में पड़ा है वह अधिकांश "इसलिये प्रकटरूपमें" इन शब्दोंसे प्रारम्भ होता है । में अपने उत्तरवर्ती विशेष्य ( तत्वार्थाधिगम ) के लिये "उक्तंहि अर्हस्प्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा' इति," ही प्रयुक्त हुअा है; क्योंकि दूसरे नम्बर पर पड़े हुए इस वाक्यमें गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस सूत्रका 'भाष्य' का "उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्र" यह विशेषण उल्लेख है वह चूंकि तत्वार्थाधिगमसूत्रके पांचवें अध्या- भाष्य शब्दके साथ जुड़ा हुआ है और तीसरे नम्बर पर यका ४० वाँ सूत्र है, इसलिये प्रकटरूपमें 'अर्हत्प्रव- पड़ी हुई 'ट.का' के दो विशेषण-भाष्यानुसारिणी और चन' का अभिप्राय यहाँ उमास्वाति के मूलतत्वार्थाधि- 'सिद्धसेनगणिविरचिता'-उसी टीकायां'पदके आगे-पीछे गमसत्रका जान पड़ता है, यह कथन क्या प्रो० साहब लगेहुए हैं । इस तरह उक्त वाक्य में मूल तत्त्वार्थाधिगम की समझमें युक्तिविहीन है ? यदि है तो ऐसी समझ सूत्र,भाष्य और टीका तीनों ग्रन्थों के मुख्य विशेषणोंकी की बलिहारी है ! और यदि नहीं तो कहना होगा कि अलग अलग व्यवस्था है । मूल सूत्र और भाष्य का एक समीक्षामें युक्ति न देनेकी शिकायत करके 'विचारणा' ही प्रन्थकर्ता माने जानेकी हालतमें मूलसूत्र (तस्वार्थाको गलतरूपमें प्रस्तुत किया गया है।
धिगम) के 'अर्हस्प्रवचन' विशेषणको वहाँ कथंचित् यहाँप र इतना और भी जान लेना चाहिये कि भाष्यका विशेषण भी कहा जासकता है-सर्वथा नहीं। 'विचारणा' के शुरू में जो यह पछा गया था कि राजः परन्तु इसका यह अाशय नहीं कि जहाँ भी 'अर्हत्प्रवचन' वार्तिक के उक्त वाक्य में उल्लेखित 'अहप्रवचन' से का उल्लेख देखा जाय वहाँ उसे तत्वार्थाधिगमसूत्रका तत्वार्थभाष्यका ही अभिप्राय है-मूलसूत्रका नहीं,ऐसा प्रस्तुत भाष्य समझ लिया जाय । ऐना समझना निताजो प्रो० साहबने घोषित किया है वह कहाँसे और कैसे न्त भ्रम तथा भूल होगा । इसी अनेकान्तका द्योतन फलित होता है ? उसका समीक्षा में कोई उत्तर अथवा करने के लिये उक्त वाक्यमें 'प्रायः' ' तथा 'मात्र' जैसे समाधान नहीं है।
शब्दोंका प्रयोग हुआ है । जो कथन के पूर्वापरसम्बंध २ समीक्षा-"सिद्धसेनगणिके वाक्यमें अर्हत्प्रचन परसे भले प्रकार समझा जासकता है। विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्रके लिये है, मात्र ३समीक्षा-"यहाँ [सिद्धसेनगणि के उक्त वाक्य में] उसके भाष्यके लिये नहीं।" यहाँ प्रायः शब्दसे श्रापको अर्हत्प्रवचने, तत्त्वार्थाधिगमे और उमास्वातिवाचकोपज्ञ
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सूत्रभाष्ये-ये तीनों पद सप्तम्यन्त हैं । उमास्वाति- 'तत्त्वार्थाधिगम नामके अर्हत्प्रवचनमें, उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्यसे स्पष्ट है कि उमास्वातिवाचकका वाचकोपज्ञसूत्रभाष्यमें, और भाष्यानुसारिणी टीकामें, स्वोपज कोई भाष्य है । इसका नाम तत्त्वार्थाधिगम है। जोकि सिद्धसेनगणि-विरचित है, अनगार (मुनि) और इसे अहत्प्रवचन भी कहा जाता है । स्वयं उमास्वातिने अगारि (गृहस्थ) धर्मका प्ररूपक सातवाँ अध्याय समाप्त अपने भाष्यकी निम्न कारिकामें इसका समर्थन किया हुआ ।'
और इसलिये प्रो० साहबका 'अर्हस्प्रवचने' आदि तत्त्वार्थाधिगमापं बह्वयं संग्रहं लघुग्रंथं । तीन सप्तभ्यन्त पदोंको एक ही ग्रन्थ 'भाष्य' का वाचक वयामि शिष्यहितमिममहद्ववनैकदेशस्य ॥" समझना और यह बतलाना कि भाष्यका नाम 'तत्वार्था
धिगम' है और उसीको 'अर्हत्प्रवचन' भी कहा जाता है, ३ परीक्षा-यह ठीक है कि 'अर्हत्प्रवचने' आदि
नितान्त भ्रममूलक है । भाष्यका नाम न तो 'तत्त्वार्थातीनों पद सप्तम्यन्त हैं; परन्तु सप्तम्यन्त होने मात्रसे
धिगम' है और न 'अर्हत्प्रवचन', 'तत्वार्थाधिगम' मूलक्या सिद्ध होता है ? यह यहाँ कुछ बतलाया नहीं गया !
सूत्रका नाम है और 'अर्हस्प्रवचन' यहाँ 'अर्हत्प्रवचनयदि सप्तम्यन्न होने मात्रसे प्रो० साहबको यह बतलाना
संग्रह' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, जो कि मूलतत्वार्थ इष्ट हो कि जो जो पद सप्तम्यन्त हैं वे सब एक ही ग्रन्थ
सूत्रका ही नाम है; जैसाकि रॉयल एशियाटिक सोसाके वाचक है तो क्या उक्त वाक्यमें प्रयुक्त हुए दूसरे
इटी कलकत्ता द्वारा संवत् १६५६ में प्रकाशित तत्वार्थासप्तम्यन्त पदों-'टीकायां' आदिका वाच्य भी श्राप
धिगमसूत्रके निम्न संधिवाक्यसे प्रकट हैएक ही ग्रन्थ बतलाएँगे? यदि ऐसा न बतलाकर टीका को भाष्यसे अलग ग्रन्थ बतलाएँगे तो फिर टीका और "इति तत्त्वार्थाथिगमाख्येऽहस्प्रवचनसंग्रहे देवगतिभाष्यसे भिन्न मूल 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्रको वहाँ अलग प्रदर्शनो नाम चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः।" ग्रन्थरूपसे उल्लेखित बतलानेमें क्या श्रापत्ति हो सकती है ? सिद्धसेनकी तस्वार्थवृत्तिमें तो मूलसत्र, सूत्रका तत्वार्थसूत्रके इस संस्करण में, जो बहुतसी ग्रंथ. भाष्य और भाष्यानुसारिणी टीका तीनों ही शामिल हैं प्रतियों के आधार पर भाष्य-सहित मुद्रित हुआ है, सर्वत्र
और तीनों ही की समाप्तिको लिये हुए सप्तम अध्यायका संधिवाक्योंमें 'तत्वार्थाधिगम' और 'अहत्प्रवचनसंग्रह' उक्त संधिवाक्य ( पुष्पिका ) है । ऐसा भी नहीं कि ये दोनों ही नाम मूलसूत्रके दिये हैं । तत्वार्थसत्रकी जिस सप्तम अध्यायका जो विषय 'अनगारागारि-धर्मप्ररुपण' सटिप्पण प्रतिका परिचय मैंने अनेकान्तके वीरशासनाङ्क' बतलाया है वह मूलसत्रका विषय न होकर भाष्य तथा में दिया था उसमें भी सर्वत्र 'इति तत्वार्थाधिगमेऽहत्प्र. टीकाका ही विषय हो । ऐसी हालतमें 'तत्त्वार्थाधिगमे' वचनसंग्रहे प्रथमो (द्वतीयो, तृतीयो.) ऽध्यायः' पदको उसके 'अर्हत्प्रवचने' विशेषण-सहित मूलतत्त्वार्थ- रूपसे मूलसूत्र के लिये इन्हीं दोनों नामोंका प्रयोग किया सूत्रका वाचक न मानना युक्तिशन्य जान पड़ता है। है । खुद सिद्धसेनगणिकी टीकामें भी दूसरे अनेक वास्तवमें उक्त वाक्यका अर्थ इस प्रकार है
स्थानों पर जहाँ भाष्यका नाम भी साथमें उल्लेखित
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नहीं है, इन्हीं दोनों नामोंका मूलसूत्रके लिये प्रयोग भाष्यका नहीं-भाष्यका परिमाण तो उससे कई गुणा पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं- अधिक है । ग्रन्थ के बहुअर्थ और लघु (अल्याक्षर) "इति तत्वार्थाधिगमेऽहप्रवचनसंग्रहे भाष्यानुसारिण्यां विशेषण भी उसके सूत्रग्रंथ होने को ही बतलाते हैं, अतः तत्वार्थटीकार्या(वृत्तौ)संवर(मोक्ष) स्वरूपनिरूपको नवमो इस विषयमें कोई संदेह नहीं रहता कि 'तत्त्वार्थाधिगम' (दशमो)ऽध्यायः।"
और 'अर्हस्प्रवचनसंग्रह' ये दोनों मूल तत्वार्थसूत्रके ही इसके अतिरिक भाष्यकी जिस कारिकाको प्रो० नाम हैं--उसके भाष्यके नहीं । साहबने अपने कथनकी पुष्टि में प्रमाणरूपसे पेश किया
___ और इसलिये राजवार्तिक के उक्त वाक्यमें प्रयुक्त है उसमें भी 'तत्त्वार्थाधिगम' यह नाम मूल सूत्रग्रंथ
हुए 'अर्हत्प्रवचने' पद परसे प्रो० साहबने जो यह (बहर्थ लघुग्रंथ ) का बतलाया है और साथ ही उसे
नतीजा निकालना चाहा था कि उससे तत्वार्थभाष्यका 'अद्विचनैकदेशका संग्रह' बतलाकर प्रकारान्तरसे
ही अभिप्राय है वह नहीं निकाला जा सकता, और न उसका दूसरा नाम 'अर्हत्पवचनसंग्रह' भी सूचित किया
उसके आधार पर यह फलित ही किया जा सकता है है-भाष्यके लिये इन दोनों नामोंका प्रयोग नहीं किया
कि 'अकलंकदेवके सामने वर्तमानमें उपलब्ध होनेवाला है, जैसा कि प्रो० साहब समझ बैठे हैं ! चुनाँचे खुद
श्वेताम्बर-सम्मत तत्वार्थभाष्य मौजूद था और उन्होंने प्रो० साहबके मान्य विद्वान् सिद्धसेन गणि भी इस कारिकाकी टीकामें ऐसा ही सूचित करते हैं,वे तत्वार्था
उसके द्वारा उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है धिगम' को इस सूत्रग्रन्थकी अन्वर्थ ( गौण्याख्या )
तथा उसके प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया है ।' खेद संज्ञा बतलाते हैं और साफ़ तौरसे यहाँ तक लिखते हैं
है कि प्रो० साहबको इतना भी विचार नहीं पाया कि कि जिस लघुग्रन्थ के कथनकी प्रतिज्ञाका इसमें उल्लेख
राजवार्तिकके उक्त वाक्यमें जिस सूत्र ( 'द्रव्याश्रया है वह मात्र दोसौ श्लोक-जितना है । यथाः
निगुणा गुणाः' ) का उल्लेख है वह भाष्यकी कोई "तत्त्वार्थोऽधिगम्यतेऽनेनास्मिन् वेति तस्वार्थाधिगमः,
पंक्ति न हो कर मूलतत्वार्थसूत्रका वाक्य है, और इयमेवास्य गौण्याख्या नामेति तत्वार्थाधिगमाख्यस्तं,
इसलिये प्रकटरूपमें 'अहत्प्रवचन' का यदि कोई दूसरा बह्वर्थ सञ्च ब्रह्मर्थः बहुविपुलोऽर्थोऽस्येति बह्वर्थः सप्त
अर्थ लिया जाय तो वह उमास्वातिका मूलतस्वार्थाधिपदार्थनिर्णयएताबांश्च ज्ञेयविषयः । संग्रहं समासं, लघु
गमसूत्र होना चाहिये, न कि उसका भाष्य ! फिर उस ग्रंथं श्लोकशतद्वयमात्रं ।”
अर्थ तक तो उनकी दृष्टि ही कहाँ पहुँचती, जिसका
स्पष्टीकरण ऊपर परीक्षा नं० २ में और उसके पूर्व दोसौ श्लोक जितना प्रमाण मूलग्रंथका ही है,
किया जा चुका है । बहुत संभव है कि प्रथम लेखके • 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' इस प्रकारसे लिखते समय प्रो० साहबके सामने राजवार्तिक और भाष्यका नाम साथमें उल्लेख करने वाला पद सातवें सिद्धसेनकी टीका न रहकर उनके नोट्स ही रहे हों अध्यायको छोड़ कर अन्य किसी भी अध्यायके अन्तमें तथा साथमें पं० सुखलालजीकी हिन्दी टीकाकी प्रस्तानहीं पाया जाता है।
वना भी रही हो और उन्हीं परसे आपने अपने लेखका
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संकलन किया हो, और समीक्षाके समय भी उन ग्रन्थों और अकलंकके कथनकी दृष्टि अकलंकके साथ । को देखनेकी ज़रूरत न समझी हो । इसीसे आप अपनी मेरी कथनदृष्टिसे, जो बात आपत्ति के योग्य नहीं, समीक्षा में कोई महत्वका क़दम न उठा सके हों और अकलंककी कथन दृष्ठि से वही अापत्ति के योग्य हो
आपकी यह सब समीक्षा महज़ उत्तरके लिये ही उत्तर जाती है, तब अकलंक मेरी कथनदृष्टिसे अपना लिखे जाने के रूप में लिखी गई हो।
कथन क्यों करने लगे ? उसकी कल्पना करना ४ समीक्षा--"इसके अतिरिक्त कुछ ही पहिले ही निरर्थक है । प्रकलंकके कथनकी दृष्टि उनके मुख्तार साहब कह चुके हैं कि "अहत्पवचन' विशेषण उस वार्तिक तथा वातिकके भाष्यमें संनिहित है मूल तत्वार्थसूत्रके लिये प्रयुक्त हुआ है" तो फिर यदि जिसका उल्लेख ऊपर 'विचारणा' को उद्धृत अकलंकदेव “उक्तं हि अर्हस्प्रवचने 'द्रव्याश्रया निगुणा करने के अनन्तर की गई विवेचनामें किया गया है । गुणाः" कहकर यह घोषित करें कि अर्हत्प्रचनमें उसके अनुसार 'अर्हत्प्रवचन' से अकलंकका अभिप्राय अर्थात् तत्वार्थसूत्र में ( स्वयं मुख्तारसाहबके ही कथना- 'अर्हत्प्रवचनहृदय' का जान पड़ता है-उमास्वातिके नुसार ) "दव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' कहा है तो तत्वार्थसूत्रका नहीं । उमास्वाति के 'गुणपर्यायवद्य' इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? 'अर्हत्प्रवचन' पाठ इस सूत्रमें आए हुए 'गुण' शब्दके प्रयोग पर तो वहाँ को अशुद्ध बताकर उसके स्थानमें 'अर्हत्प्रवचनहृदय' यह कहकर आपत्ति की गई है कि 'गुण' संज्ञा अन्य पाठकी कल्पना करनेका तो यह अर्थ निकलता है कि शास्त्रोंकी है,अाहतों के शास्त्रोंमें तो द्रव्य और पर्याय इन अर्हत्प्रवचनहृदय नामका कोई सूत्रग्रन्थ रहा होगा, तथा दोनोंका उपदेश होनेसे ये ही दो तत्त्व हैं, इसीसे द्रव्या"द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" यह सूत्र तत्वार्थ सूत्रका न र्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो मूल नय माने गये हैं। होकर उस अर्हत्प्रवचनहृदयका है जो अनुपलब्ध है ।" यदि 'गुण' भी कोई वस्तु होती तो उसके विषयको ले
४ परीक्षा-यहाँ भी डबलइन्वर्टेड कामाज़के भीतर कर मूलनयके तीन भेद होने चाहिये थे; परन्तु तीसरा दिये हुए मेरे वाक्यको कुछ बदल कर रक्खा है और मूलनय ( गुणार्थिक ) नहीं है । अतः गुणोपदेशके वह तबदीली उससे भी बढ़ी चढ़ी तथा अनर्थ-कारिणी है अभावके कारण सूत्रकारका द्रव्य के लिये गुणपर्यायवान् जो इसी वाक्यको इससे पहलेकी समीक्षा (नं० १) में ऐसा निर्देश करना ठीक नहीं है ।' और फिर इस देते हुए कीगई थी । शुरुका वह 'प्रकटरूपमें' अंश आपत्तिके समाधानमें कहा गया है कि 'वह इसलिये इसमेंसे भी निकाल दिया गया है जो मेरे कथनकी दृष्टि ठीक नहीं है क्योंकि 'अर्हत्प्रवचन हृदय' श्रादि शास्त्रोंमें को बतलाने वाला था और जिसकी उपयोगिता एवं गुणका उपदेश पाया जाता है, और इसके द्वारा यह
आवश्यकतादिको परीक्षा नं १ में बतलाया जा चुका सूचित किया गया है कि 'अर्हत्प्रवचनहृदय' जैसे है । अस्तु; मेरा वाक्य जिस रूपसे ऊपर उद्धृत 'विचा- प्राचीन ग्रन्थोंमें पहलेसे गुणतत्त्वका विधान है, उमारण' में दिया हुआ है उसे ध्यान में रखते हुए, इस स्वातिने वहींसे उसका ग्रहण किया है, इसलिये उनका समीक्षाका अधिकांश कथन अविचारित रम्य जान यह निर्देश अप्रामाणिक तथा आपत्ति के योग्य नहीं है। पड़ता है। वास्तव में मेरे कथनकी दृष्टि मेरे साथ है प्रमाणमें दो शास्त्रोंके वाक्योंको उद्धृत किया है,
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जिनमें से एक तो मुख्यतया नाम लेकर उल्लेखित लिए इस प्रकारके कथनमें कोई सार नहीं कि 'अह. 'प्रवचनहृदय' का और दूसरा 'श्रादि' शब्दके द्वारा प्रवचनहृदय नामका कोई अन्य अब तक कहीं सुनने उल्लेखित किसी अन्य ग्रन्थका होना चाहिये । साथ ही में नहीं आया अथवा उसका कहीं पर उल्लेख नहीं ये दोनों ग्रंथ उमास्वातिसे पूर्ववर्ती होने चाहिये; तभी मिलता ।' राजवातिकमें उसका स्पष्ट उल्लेख है इनके द्वारा उक्त आपत्तिका परिहार हो सकता है । और वह कुछ कम महत्वका नहीं है । इससे पहले यदि पहले वाक्य के साथ प्रमाणग्रंथकी सूचनाके रूपमें 'अहं- अर्हत्प्रवचनहृदयका नाम नहीं सुना गया तो वह अब त्प्रवचने' पद लगा हुआ है, जिसका मूलरूप या तो सुना जाना चाहिये । सैंकड़ों महत्वके ग्रंथ रचे गये हैं, उसके पूर्ववर्ती भाष्य और वार्तिकके अनुसार 'अर्हत्पव- जिनके आज हम नाम तक भी नहीं जानते और जो चनहृदये' है और या वह उसके लिये प्रयुक्त हुआ उस- नष्ट हो चुके अथवा लुप्तप्राय हो रहे हैं, लनमेंसे कोई का संक्षिप्त रूप है । इस ग्रंथका जो वाक्य उद्धत किया ग्रंथ यदि कहीं उल्लेखित मिल जाय या उपलब्ध हो है वह "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" है । यह वाक्य जाय तो क्या उसके अस्तिस्वसे महज़ इसलिये इनकार यद्यपि उमास्वाति के तत्वार्थसत्र में पाया जाता है। परन्तु किया जासकता है कि उसका नाम पहलेसे सुनने में वह मूलतः उमास्वातिके तत्वार्थसत्रका नहीं हो सकता; नहीं श्राया था ? यदि नहीं तो फिर उक्त प्रकारके क्योंकि उमास्वातिकी सत्ररचना पर उठाई गई उक्त कथनका क्या नतीजा, जो प्रो० साहबकी समीक्षा में आपत्ति का परिहार उन्हींके शास्त्रवाक्यसे नहीं किया अभ्यत्र (लेख के शुरूमें) प्रकीर्णक रूपसे पाया जाता जा सकता-वह असंगत जान पड़ता है । ऐसी हालत है ? ऐसे ग्रंथोंका तो कुछ भी अनुसन्धान मिलने परमें यह मानना होगा कि उमास्वातिने अपने ग्रन्थमें सुराग़ चलने पर-उनकी खोजका पूरा प्रयत्न होना उक्त वाक्यका संग्रह 'अर्हत्प्रवचनहृदय' ग्रन्थ परसे चाहिये। किया है। उनका तत्वार्थसूत्र अर्हस्प्रवचनका एक- समीक्षा-"श्वेताम्बर ग्रन्थों में श्रागमोको निग्रंथदेशसंग्रह होनेसे, इसमें आपत्तिकी कोई बात भी नहीं प्रवचन अथवा अर्हत्प्रवचनके नाससे कहा गया है । है । और इसलिये 'अहस्प्रवचने' पदको 'अर्हत्प्रवचन- स्वयं उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थाधिगमभाष्यको 'अहंहृदये' पदका अशुद्धरूप अथवा संक्षिप्तरूप कल्पना द्वचनैकदेश' कहा है, जैसा ऊपर आ चुका है । अहकरने पर जो अर्थ निकलता है उसे निकलने दीजिये, त्प्रवचनहृदय अर्थात् अर्हत्प्रवचनका हृदय, एक देश इसमें भयकी कोई बात नहीं हैक्योंकि उक्त कल्पना अथवा सार । इस तरह भी अर्हत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य निरर्थक नहीं है । अकलंकदेवने बहुत स्पष्ट शब्दोंमें भाष्य हो सकता है । अथवा अर्हत्प्रवचन और अर्हस्प'अर्हत्प्रवचनहृदय' ग्रंथके अस्तित्वकी सूचना की है। वचनहृदय दोनों एकार्थक भी हो सकते हैं । हमारी उनके 'अहत्प्रवचनहृदयादिषु पदमें प्रयुक्त हुए 'आदि' समझसे भाष्य, वृत्ति, अर्हत्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदय शब्दसे और दो शास्त्रोंके वाक्योंको प्रमाण में उद्धृत इन सबका लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य है । जब करनेसे उसकी स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है, और तक अर्हत्प्रवचनहृदय आदि किसी प्राचीन ग्रन्थका कहीं वह अति प्राचीन सूत्रग्रंथ जान पड़ता है । और इस. उल्लेख न मिल जाय, तब तक पं० जुगलकिशोरजी की
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कल्पनाओं का कोई आधार नहीं माना जा सकता ।" ५ परीक्षा - समीक्षा के इस अंशमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता । इसमें अधिकाँश बातें ऐसी हैं जिन पर ऊपर की परीक्षाओं में काफ़ी प्रकाश डाला जा चुका है अथवा उन परीक्षाओं की रोशनी में जिनकी आलोचना करके उन्हें सहज ही में निःसार प्रमाणित किया जा सकता है । इसलिये उन पर पुनः अधिक लिखने की जरूरत नहीं; यहाँ संक्षेपरूप में इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि - दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी आगमोंके लिये अर्हत्प्रवचन जैसे नामोंका उल्लेख है, 'ऊपर या चुका है' इन शब्दोंके द्वारा 'तत्वार्थाधिगमाख्यं' नामकी जिस कारिकाकी ओर संकेत किया गया है उसमें 'तत्वार्थाधि गम' नामके मूलग्रन्थको, ‘अर्हद्वचनैकदेश' कहा हैभाष्यको नहीं, अर्हत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य भाष्य किसी प्रकार भी नहीं हो सकता - वह मूलसूत्र ग्रंथ है और उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र से पहलेका रचा होना चाहिए, 'अर्हत्प्रवचन' का प्रयोग यदि 'अर्हत्प्रवचनहृदय' के स्थान पर संक्षेपरूपमें किया गया हो तो दोनों एकार्थक भी हो सकते हैं, अन्यथा नहीं; 'अर्हत्प्रवचनहृदय' आदि दो प्राचीनग्रन्थोंका स्पष्ट उल्लेख कलंक के राजवार्तिक में मिल रहा है, इसलिये " जब तक कहीं उल्लेख न मिल जाय तब तक पं० जुगलकिशोरजी की कल्पनाओं का कोई आधार नहीं माना जा सकता" यह कथन कोरा प्रलापजान पड़ता है ।
प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
अत्र रही प्रोफेसर साहबकी समझकी बात, आपकी समझके अनुसार राजवार्तिक में जहाँ कहीं भी भाष्य, वृत्ति,
प्रवचन और प्रवचनहृदय इन नामोंका उल्लेख है उन सबका लक्ष्य उमास्वातिका ( उमास्वाति के नाम पर चढ़ा हुआ ) प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य है । परन्तु यह समझ ठीक नहीं है । भाष्यके जिन दो उल्लेखों को आपने
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अपने प्रथम लेख में प्रस्तुत किया था और जिन्हें, आपकी युक्तियों का परिचय देते हुए, ऊपर (भाग नं०४ में) उद्धृत किया जा चुका है, वे श्वेताम्बर सम्मत प्रस्तुत भाष्य के उल्लेख नहीं हैं, यह बात सम्पादकीय विचारणा में स्पष्ट की जा चुकी है। स्पष्ट करते हुए राजवार्तिककी अन्तिम कारिका के उल्लेख-विषय में जो युक्तियां दी गई थीं उन पर इस समीक्षा में कोई आपत्ति नहीं की गई, जिससे ऐसा मालूम होता है कि प्रो० साहबने उन्हें स्वीकार कर लिया है - अर्थात् यह मान लिया है कि उस अन्तिम कारिका में प्रयुक्त हुए 'भाष्य' पदका अभिप्राय राजवार्तिक नामक तत्वार्थ भाष्यके सिवा किसी दूसरे भाष्यका नहीं है । दूसरे उल्लेखको इष्टसिद्धि के लिये असंगत और
समर्थ बतलाते हुए जो युक्तियां दी गई थीं उनसे अभी तक प्रो० साहबको संतोष नहीं हुआ, इसलिये उनकी समीक्षा का इस लेख में आगे चल कर विशेष विचार किया जायगा; साथमें 'वृत्ति' का जो नया उल्लेख समीक्षा में उपस्थित किया गया है उस पर भी विचार किया जायगा, और इस सब विचार-द्वारा यह स्पष्ट किया जायगा कि भाष्य और वृत्ति दोनों के उल्लेख इष्टसिद्धि के लिये -- उन्हें प्रस्तुत भाष्य के उल्लेख बतलाने के लिये - पर्याप्त नहीं हैं। बाकी ईश्प्रवचन और ग्रहप्रवचनहृदय के उक्त उल्लेखोंके विषय में ऊपर यह स्पष्ट किया ही जा चुका है कि वे प्रस्तुत भाष्य तो क्या, उमास्वातिके मूल तत्वार्थ सूत्र के भी उल्लेख नहीं हैं ।
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि 'प्रवचन' का अर्थ आगम है ("श्रागमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो” – धवला ) और इसलिये 'ईप्रवचन' का अर्थ हुआ अर्हदागम - जिनागम आदि । अर्हत्प्रवचनको कलंकदेवने जिनप्रवचन, जैनप्रवचन, श्रर्हतप्रवचन, आईत आगम और परमागम जैसे नामोंसे
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उस कथन में विरोध आएगा जिसमें भाष्य, वृत्ति, श्रप्रवचन और अर्हत्यप्रवचनहृदय इन सबका एक लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य बतलाया गया है । अस्तु ।
ऊपरकी इन सब परीक्षाओं परसे स्पष्ट है कि प्रोफेसर साहब की समीक्षाओं में कुछ भी तथ्य अथवा सार नहीं है, और इसलिये वे चौथे भाग के 'क' उपभाग में दी हुई अपनी प्रधान युक्तिका समर्थन करने और उस पर कीगई सम्पादकीय विचारणाका कदर्थन करके उसे असत्य अथवा अयुक्त ठहराने में बिल्कुल ही असमर्थ रहे हैं। 'ग' उपभागकी युक्ति अथवा मुद्दे पर जो विचारणा की गई थी उसकी कोई समीक्षा आपने की ही नहीं, और इसलिये उसे प्रकारान्तरसे मान लिया जान पड़ता है, जैसा कि पहले जाहिर किया जा चुका । अब रही 'ख' उपभाग के मुद्दे (युक्ति) की बात, प्रो० साहबने राजवार्तिक से " कालोपसंख्यानमिति चेन्न यचयमाणलक्षणत्वात् – स्यादेतत् कालोऽपि कश्चिदजीवपदार्थोऽस्ति यद्भाष्ये बहकृत्वः षद्रव्याणि इत्य ुकं, अतोSस्योपसंख्यानं कर्तव्य इति ? तन्न, किं कारणं वच्य माणलक्षणत्वात्,” इस अंशको उद्धृत करके यह प्रतिपादन किया था कि अकलंकदेवने इसमें प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्यका सष्ट उल्लेख किया है । इस पर आपत्ति करते हुए मैंने अपनी जो 'विचारणा' उपस्थित की थी वह निम्न प्रकार है: --
भी उल्लेखित किया है और उसे 'अर्हत्प्रोक्त, ' 'अनादि निर्धन' जैसे विशेषणोंसे विशेषित करते हुए यहाँ तक लिखा है कि वह संपूर्ण ज्ञानका आकर है-कल्प, व्याकरण, छंद और ज्योतिषादि समस्त विद्याओंका प्रभव (उत्पाद) उसीसे है । जैसा कि नीचे के कुछ श्रवतरणोंसे प्रकट है -
“आर्हते हि प्रवचने ऽनादिनिधने ऽर्हदादिभिः यथा कालं अभिव्यक्तज्ञानदर्शनातिशयप्रकाशैरवद्योतितार्थसारे रूढा एताः (धर्मादयः) संज्ञा ज्ञेयाः । "
पृ०१८ "तस्मिन् जिनप्रवचने निर्दिष्टोऽहिंसादिलक्षणो धर्मंइत्युच्यते ।” –पृ०२६१ "अर्हता भगवता प्रेोक्ते परमागमेप्रतिषिद्धः प्राणिवधः "
"आर्हतस्य प्रवचनस्य परमागमत्वमसिद्धं तस्य पुरुषकृतित्वे सति श्रयुक्तेरिति तन्न, किं कारणं ? अतिशयज्ञानाकरत्वात् । "
" स्यान्मतमन्यत्रापि श्रतिशयज्ञानानि दृश्यन्ते कल्पभ्याकरणछंदज्योतिषादीनि ततोनैकान्तिकत्वात् नायं हेतुरिति । तन्न । किं कारणं ? अत एव तेषां संभवात् । श्रर्हतमेव प्रवचनं तेषां प्रभवः ।"
1
"श्रार्हतमेव प्रवचनं सर्वेषां श्रतिशयज्ञानानां प्रभव इति श्रद्धामात्रमेतत् न युक्तितममिति । तन्न ..... तथा सर्वातिशयज्ञानविधानत्वात् जैनमेव प्रवचनं चाकर इत्यवगम्यते ।” - ०२१५
ऐसी हालत में कलंककी दृष्टिसे 'त्प्रवचन ' अथवा प्रवचनका वाच्य प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्य नहीं हो सकता । इन अवतरणों में आए हुए हत्प्रवचन के उल्लेखों को भी प्रो० साहब यदि उक्त भाष्य के ही उल्लेख समझते हैं तो कहना होगा कि यह समझ ठीक नहीं है - सदोष है । और यदि नहीं समते तो उनकी वह प्रतिज्ञा बाधित ठहरेगी अथवा उनके
"चौथे नम्बर के 'ख' भाग में राजवार्तिकका जो अवतरण दिया गया है उसमें प्रयुक्त हुए " यद्भाष्ये बहु कृत्वः षड्द्रव्याणि इत्युक्तं" इस वाक्यमें जिस भाष्य का उल्लेख है वह श्वेताम्बर सम्मत वर्तमानका भाष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इस भाष्य में बहुत बार तो क्या एक बार भी 'षड्द्रव्याणि' ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता। इसमें तो स्पष्ट रूप से पाँच ही व्य
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प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
हैं- और तीसरे सूत्र के भाष्य में यहांतक लिखते हैं कि ये द्रव्य नित्य हैं तथा कभी भी पांचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं होते, और उनकी इस बातको सिद्धसेन गरिण इन शब्दों में पुष्ट करते हैं कि काल किसीके मत से द्रव्य है परन्तु उमास्वाति वाचकके मत से नहीं, वेतो द्रव्योंकी पांचही संख्या मानते हैं, तब प्रस्तुत भाष्य में पद्रव्यों का विधान क्रेसे हो सकता है ? और पद्रव्यों का विधान मान पर उक्त वाक्यों को असत्य अथवा अन्यथा कैसे सिद्ध किया जासकता है ? परन्तु स्पष्ट शब्दों में ऐसा कुछ भी न बतलाकर प्रोफेसर साहब प्रस्तुत विषयको यों ही घुमा-फिराकर कुछ गड़बड़ में डालने की चेष्टा की है, और जैसे तैसे मेरी विचाररणाके उत्तरमें कुछ-न-कुछ कहकर निवृत्त होना चाहा है। विचारका यह तरीका ठीक नहीं है । अस्तु, अब मैं ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव के क्रमश: इस विषयकी भी समीक्षाओं को लेता हूँ सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था ।” और परीक्षा द्वारा उनकी नि सारताको व्यक्त करता हूँ ।
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माने गये हैं, जैसा कि पांचवें अध्याय के 'द्रव्याणि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्रके भाग्य में लिखा है - "एते धर्मादयश्वत्वारो जीवाश्च पंचद्रव्याणि च भवन्तीति" और फिर तृतीय सूत्र में आए हुए 'अवस्थितानि' पदकी व्याख्या करतेहुए इसी बात को इस तरहपर पुष्ट किया है कि- " न हि कदाचिपंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति” अर्थात् ये द्रव्य कभी भी पांचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं होते । सिद्वसेन गणीने भी उक्त तीसरे सूत्रकी अपनी व्याख्या में इस बातको स्पष्ट किया है और लिखा है कि, ‘काल किसीके मतसे द्रव्य है परन्तु उमाखात वाचक के मतसे नहीं, वे तो द्रव्योंकी पांच ही संख्या मानते हैं।' यथा
"कालश्चेकीयमतेन द्रव्यमिति वदयते, वाचकमुख्यस्य पंचे वेति ।"
मेरी इस विचारणाको सदोष ठहराने और अपने अभिमतको पुष्ट करने अथवा इस बातको सत्य सिद्ध करने के लिये कि राजवार्तिकके उक्त वाक्यमें जिस भाष्यका उल्लेख है वह श्वेताम्बरसम्मत वर्तमानका भाष्य ही है, इसकी खास जरूरत थी कि प्रोसाहब कमसे कम तीन प्रमाण भाष्यसे ऐसे उद्धृत करके बतलाते जिनमें " षड्द्रव्याणि” जेसे पद प्रयोगोंके द्वारा छह द्रव्योंका विधान पाया जाता हो; क्योंकि "बहुकृत्वः” (बहुत बार ) पद का वाच्य कमसे कम तीन बार तो होना ही चाहिए। साथ ही, यह भी बतलानेकी जरुरत थी कि जब भाष्यकार दूसरे सूत्रके भाष्य में द्रव्योंकी संख्या स्वयं पांच निर्धारित करते हैं - उसे गिनकर बतलाते
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६ समीक्षा - "श्वेताम्बर आगमों में कालद्रव्यसम्बन्धी दो मान्यताओंका कथन आता है । भगवतीसूत्रमें द्रव्योंके विषय में प्रश्न होने पर कहा गया है - "कइणं भंते ! दव्वा पन्नता ! गोयमा छ दब्वा पन्नत्ता । तं जहा - धम्मत्त्थिकाए० जाव श्रद्धासमये” अर्थात् द्रव्य छह हैं, धर्मास्तिकायसे लेकर कालद्रव्य तक । आगे चलकर कालद्रव्यके सम्बन्ध में प्रश्न होने पर कहा गया है - " किमियं भंते कालोत्ति पच्चइ ? गोयमा जीवा चेच अजीवा चेच" अर्थात् कालद्रव्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं । जीव और अजीव ये दो ही मुख्य द्रव्य हैं। काल इनकी पर्यायमात्र है। यही मतभेद उमास्वाति
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अनेकांत
"कालश्चेत्येके” सूत्रमें व्यक्त किया है। इसका यह मतलब नहीं उमास्वाति कालद्रव्यको नहीं मानते, उन्होंने कहीं भी कालका खण्डन नहीं किया, अथवा उसे जीव जीवकी पर्याय नहीं बताया ।"
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६ परीक्षा - 'कालश्चेत्येके' सूत्र में क्या मतभेद व्यक्त किया गया है, इसके लिये सबसे अच्छी कसौटी इसका भाष्य हैं, और वह इस प्रकार है
'एके त्वाचार्या व्याचक्षते कालोऽपि द्रव्यमिति ।' इसमें सिर्फ इतना ही निर्देश किया है कि 'कोई कोई आचार्य तो काल भी द्रव्य है ऐसा कहते हैं? अर्थात कुछ आचार्यों के मतसे धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव इन पांच द्रव्योंके अतिरिक्त काल भी छठा द्रव्य है, जिसका स्पष्ट आशय यह होता है कि प्रन्थकार के मत से काल कोई पृथक् द्रव्य नहीं है, और इसलिये उनकी ओर से इस ग्रन्थ में छह द्रव्यों का विधान किया गया है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । यदि सूत्रकार के मत से काल कोई स्वतंत्र द्रव्य न होकर जीव अजीव की पर्याय मात्र है और इसी मत को इस सूत्र में, दूसरे मत को दूसरों का बतलाते हुए, व्यक्त किया गया है तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि इस सूत्र के रच यता उमास्वाति काल को 'द्रव्य' मानते हैं अथवा उन्होंने द्रव्य रूप से काल का खण्डन नहीं किया ? द्रव्य नित्य होता है, ध्रौव्य रूप होता है और द्रव्यार्थिक नयका विषय होता है, ये सब बातें उस व्यवहार काल में घटित नहीं होतीं जिसे स्वतंत्र सत्तारूप न मानकर जीव अजीव की पर्याय मात्र कहा जाता है । यहां द्रव्यत्व रूप से कालके विचार का प्रसंग चल रहा है, और इसलिये यह कहना कि "उन्होंने कहीं भी काल का खण्डन नहीं किया,
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अथवा उसे जीव जीव की पर्याय नहीं बताया " निरर्थक जान पड़ता है ।
७ समीक्षा - "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुतत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च " - भाष्यकी इस पंक्तिका भी यही अर्थ है कि "अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः " सूत्र में 'काय' शब्दका प्रण प्रदेशबहुव बतानेके लिये और कालद्रव्यका निषेध करने के लिये किया गया है। क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी होनेसे (?) कायवान् नहीं। इससे स्पष्ट है कि उमास्वाति काल को स्वीकार करते हैं, अन्यथा उसका निषेध कैसा ? यहां प्रश्न हो सकता है कि फिर “धर्मादीनि न हि कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरन्ति” इस भाष्यकी पंक्तिका क्या अर्थ है ? इसका उत्तर है कि यहां पंचत्व कहनेसे उमास्वातिका अभिप्राय पांच द्रव्योंसे न होकर पांच अस्तिका से है । उमास्वाति कहना चाहते हैं कि अस्तिकायरूपसे पांच द्रव्य हैं; काल का कथन आगे चलकर 'कालश्चेत्येके' सूत्र से किया जायगा ।
७ परीक्षा - यह समीक्षा बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है ! इसमें भाष्यकी एक पंक्तिका अर्थ देते हुए जब एक ओर यह बतलाया गया है कि 'काय' शब्द का ग्रहण कालद्रव्यका निषेध करनेके लिये किया गया है जो कि छठी समीक्षा में दिये हुए इस कथनके विरुद्ध है कि ‘कहीं भी कालका
खण्डन नहीं किया”-तब दूसरी ओर यह कहा गया है कि "उमास्वाति कालको स्वीकार करते हैं" और उसके लिये “अन्यथा उसका निषेध केसा ?" इस नई युक्तिका आविष्कार किया गया है !! जिसके द्वारा प्रो० साहब शायद यह सुझाना चाहते हैं. कि जिसका कोई निषेध करता है वह वास्तव में
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उसको स्वीकार करता है और इसलिये जो जिस का निषेध (खण्डन ) नहीं करता वह वास्तव में उसका खण्डन (अस्वीकार ) किया करता है !! अनेकान्तके पाठकों को इस से पहले शायद ऐसी नई युक्ति विकार का अनुभव न हुआ हो ! परन्तु खेद है कि प्रो० साहब अपने लेख में सर्वत्र इस नवा विकृत युक्ति एवं सिद्धान्त पर अमल करते हुए मालूम नहीं होते ! और इसलिये इसके लिखने अथवा निर्माण में जरूर कुछ भूल हुई जान पड़ती है। इसी तरह एक स्थान पर आप लिखते हैं कि 'काय' शब्द का ग्रहण प्रदेशबहुत्व बताने के लिये 'किया गया है" और फिर उसके अन्तर ही यह लिखते हैं कि "कालद्रव्य बहुप्र देशीहोने से कायवान् नहीं ।" ये दोनों बातें भी परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि सूत्र में 'काय' शब्द का प्रयोग प्रदेश बहुत्व को बताने के लिये हुआ है और काल द्रव्यको प्रो० साहब बहुप्रदेशी लिखते हैं तब वह कायवान् क्यों नहीं ? और यदि वह कायवान् नहीं है तो फिर उसे 'बहुप्रदेशी' क्यों लिखा गया ? यहां जरूर कुछ गलती हुई जान पड़ती है। मैं चाहता था कि इस ग़लतीको सुधार दूं परन्तु मजबूर था; क्योंकि प्रो० साहब का भारी अनुरोध था कि उनका यह लेख बिना किसी संशोधनादिके ज्यों का त्यों छापा जाय। इसीसे मैंने लेख में 'बहुप्रदेशी होने से' के आगे ब्रेकट में प्रश्नाङ्क लगा दिया था, जिससे यह गलती प्रेस की न समझली जाय । अस्तु ।
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देखना यह है कि प्रो० साहबने शंका उठाकर उसका जो समाधान किया है वह कहांतक ठीक है । शंका में भाष्य की जो पंक्ति कुछ गलत अथवा संस्कारित
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रूपमें उद्धृत की गई है वह नित्याव स्थितान्यरूपारिए' इस तृतीय सूत्र में आए हुए 'अवस्थितानि' पदके भाष्यकी है। इससे पहले द्रव्याणि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्र के भाष्य में लिखा है एते धर्मादयश्चत्वारो जीवा
पंचद्रव्याणि च भवन्तीति" । अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल ये चार तो अजीवकाय (अजीवास्तिकाय) और पांचवे जीव (जीवास्तिकाय) मिला कर 'पांचद्रव्य' होते हैं- पांचकी संख्याको लिये हुए धौव्यत्वका विषयरूप द्रव्य होते हैं। यहां द्रव्य होते हैं, अस्तिकाय होते हैं अथवा पंचास्तिकाय होते हैं ऐसा कुछ न कहकर जो खास तौर से 'पंचद्रव्य होते हैं' ऐसा कहागया है उसका कारण द्रव्योंकी इयत्ता बतलाना- उनकी संख्याका स्पष्टरूप में निर्देश करना है। इसकी पुष्टि अगले सूत्र अवस्थितानि पदके भाष्य में यह कहकर कीगई है कि " न हि कदाचि
भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति” अर्थात् ये द्रव्य कभी भी पांचकी संख्याका और भूतार्थता ( स्वतत्व) का अतिक्रम नहीं करते - सदाकाल अपने स्वतत्व तथा पांच की संख्या में अवस्थित रहते हैं । इसका सष्ट आशय यह है कि नतो इनमें से कोई द्रव्य कभी द्रव्यत्वसे च्युत होकर कम होसकता है और न कोई दूसरा पदार्थ इनमें शामिल होकर द्रव्य बन सकता तथा द्रव्योंकी संख्याको बढा सकता है । और इसलिये भाष्यकार का अभिप्राय यहां अस्तिकायों की संख्यासे न होकर द्रव्योंकी संख्या से ही है । इसीसे सिद्वसेन गणिने भी अपनी टीका में द्रव्य के नवादि भेदोंकी आलोचना करते हुए लिखा है - "कालश्चेकीयमतेन द्रव्यमिति वक्ष्यते वाचकमुख्यस्य पंचैवेति", अर्थात काल किसीके मतसे द्रव्य है ऐसा कहा जायगा परन्तु उमास्वाति वाचक के
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मतसे नहीं, वेतो पांच ही द्रव्य मानते हैं । साथ ही, परिज्ञानात्।अयमभिप्रायो वृतिकरणस्य-कालश्चेति आगे चलकर यह भी बतलाया हैं कि 'द्रव्याणि' पृथग्द्रव्यलक्षणं कालस्य वक्ष्यते। तदनपेक्षादिकृतानि पद द्रव्या स्तिक (द्रव्याथिक) नयके अभिप्राय को पंचैव द्रव्याणि इति षड्द्रव्योपदेशाविरोधः”। लिये हुए है पर्यायसमाश्रयण की दृष्टिसे नहीं है, अर्थात् वृत्ति में जो द्रव्यपंचत्त्वका उल्लेख है. वह द्रव्यास्तिक नयको ध्रौव्य इष्ट होताहै,उत्पाद विनाश कालद्रव्य की अनपेक्षासे ही है। कालका लक्षण नहीं । नित्यता के होनेपर इन द्रव्योंकी इयत्ताका निर्धा- आगे चलकर अलग कहा जायगा”। रण अवस्थित शब्दके 'उपादानसे होताहै । चूंकि जग
परीक्षा-राजावार्तिक में 'वृत्ति के नामोल्लेखत सदाकाल पंचारितकायात्मक है और काल इन पर्वक जो पंक्तियां उद्धृत की गई हैं और जिन्हें पंचास्तिकायों की पर्याय है, इसलिए द्रव्य पांच ही।
प्रो साहबने "अक्षरशः भाष्यकी पंक्तियां” बतलाया होतेहैं-कमती बढती नहीं, इसी संख्यानियमके
है वे अक्षरशः भाष्य की पंक्तियां नहीं हैं। प्रस्तुत अभिप्रायको 'अवस्थित' शद्ध लिये हुए है । यथाः- में उनका रूप है-"अवस्थितानि च, न हि "द्रव्याणीति द्रव्यास्तिनयाभिप्रायेण, न तु पर्नायस
कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति” इसमें ' माश्रयणात द्रव्यारितको हि ध्रौव्यमेवेच्छति, नो
"धर्मादीनि'पदकातोअभावहै और'च'तथा भूतार्थत्वं' सादविनाशौ, ...न कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरन्ति,
___ पद अधिक हैं । इतने पर भी प्रोत्साहब दोनों को तद्भावाव्ययतायां सत्यामियत्तेषां निर्धार्यतेऽवस्थित
अक्षरशः एक बतलाने का साहस करते हैं, यह शद्रोपादानात्,पञ्चैव भवन्त्येतानि न न्यूनान्यधिका
आश्चर्य तथा खेद की बात है !! वृत्ति और भाष्यके नि वेति संख्यानियमोऽभिप्रेतः सर्वदा पंचास्तिकाया
अवतरणों के इस अन्तर पर से तथा वृत्तिमें आगे त्मकत्वाज्जगतः कालस्य चेतत्पर्यायत्वादिति”।
'कालश्च' इस सूत्रका उल्लेख होनेसे तो यह स्पष्ट ऐसी हालत में प्रो साहब ने शंका का जो
जाना जाता है कि राजवार्तिक में जिस वृत्तिका समाधान किया है वह भाष्यकारके आशय के अवतरण दियागया है वह प्रस्तुत भाष्य न साथ संगत न होने के कारण ठीक नहीं है। होकर कोई जुदी ही वृत्ति है, जिसमें आगे चलकर
(८) समीक्षा-“कहने की आवश्यकता नहीं मूलसूत्र “कालश्च” दिया है न कि 'कालश्चेत्येके' । कि हमारे उक्त कथनका समर्थन स्वयं अकलंककी मूलसूत्रका दिगम्बरसम्मत 'कालश्च' रूप होनेकी राजवार्तिकमें किया गया है। वे लिखते हैं- हालतमें जब आगे वृत्तिमें उसके द्वारा कालका वृत्तौ पंचत्ववचनान् पड्द्रव्योपदेशव्याघात इते स्वतंत्र द्रव्यके रूपमें उल्लेख है तब तीसरे सूत्रकी चेन्न अभिप्रायापरिज्ञानात् (वार्तिक)-स्यान्मतं व्याख्या में 'पंचत्व' के वचन-प्रयोग से वृत्तिवृत्तावमुक्त ( वुक्त ? )मवस्थितानि धर्मादीनि न हि कारका वह अभिप्राय होसकता है जिसे अकलंककदाचित्यंचत्वं व्यभिचरंति ( ये अक्षरशः भाष्यकी देवने अपने राजावातिकमें व्यक्त किया हैपंक्तियां हैं) इति ततः पड्द्रव्याणीत्युपदेशस्य 'कालश्चेत्येके' ऐसा सूत्र होनेकी हालत में नहीं व्याघात इति । तन्न, किं कारणं ? अभिप्राया- होसकता। अतः सातवीं समीक्षा में दिये हुए प्रो०
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प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
कोई समर्थन नहीं होता ।
६. समीक्षा - " सिद्धसेन गरिने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगमभाष्य पर जो वृत्ति लिखी है, उसमें भी अकलंक के उक्त कथनका ही समर्थन किया गया है । सिद्धसेन लिखते हैं- “सत्यजीवत्वे कालः कस्मान्न निर्दिष्टः इति चेत् उच्यते-सत्वेकीयमतेन द्रव्य मित्याख्यास्यते द्रव्यलक्षणप्रस्ताव एव ।
साहबके कथन का राजवार्तिक की उक्त पंक्तियों से लक्षण - प्रस्तावमें किया जायगा । यहां तो इन अस्तिकायका कथन किया गया है। काल 'अस्तिकाय' नहीं है; क्योंकि वह एकसमयवाला है । ऐसी हालत में सिद्धसेन के इस कथनसे अकलङ्क देवके उक्त कथनका कोई समर्थन नहीं होता । और जब राजवार्तिकके कथनका ही समर्थन नहीं होता, जिसे प्रोफेसर साहब ने अपने कथन के समर्थनमें पेश किया है, तब फिर प्रोफेसर साहबके उस कथन का समर्थन तो कैसे हो सकता है जिसे आपने वीं समीक्षा में उपस्थित किया है ? खासकर ऐसी हालत में जबकि परीक्षा नं० ८ के अनुसार अकलङ्क के कथन से भी उसका समर्थन नहीं होसका ।
मी पुनरस्तिकाया: व्याचिख्यासिताः । न च कालोऽस्तिकायः, एकसमयत्वात् ” – अर्थात् यहां केवल पांच अस्तिकायका कथन किया गया है । अजीव होने पर भी यहां कालका उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि वह एक समय वाला है उसका कथन ‘कालश्चेत्येके' सूत्र में किया जायगा ।"
६ परीक्षा - सिद्धसेन गणिकी वृत्तिके उक्त कथनसे अकलङ्कदेवके उस कथनका कोई समर्थन नहीं होता जो पवीं समीक्षामें उद्धृत है। अकलङ्क के कथन की दिशा दूसरी और सिद्धसेन के कथन की दिशा दूसरी है । सिद्धसेन की उक्त वृत्ति "नित्यावस्थितान्यरूपाणि” सूत्रकी न होकर प्रथम सूत्र “अजीबकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः” की है, और उसमें सिर्फ यह शङ्का उठाकर कि 'अजीव होने पर भी' कालका इस सूत्र में निर्देश क्यों नहीं किया गया ? सिर्फ इतना ही समाधान किया गया है कि "काल तो किसी के मत से ( उमास्वाति के मतसे नहीं ) द्रव्य है, जिसका कथन आगे द्रव्य
* समाधानके इस प्रधान अंशको प्रोफेसर साहब ने अपने उस अनुवाद अथवा भावार्थ में व्यक्त ही नहीं किया जिसे आपने 'अर्थात् ' शब्द के साथ दिया है।
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१० समीक्षा - "स्वयं भाष्यकारने " तत्कृतः काल विभागः " सूत्रकी व्याख्यामें "कालोऽनन्तसमयः वर्तनादिलक्षण इत्युक्तम्” आदिरूपसे कालद्रव्यका उल्लेख किया है। इतना ही नहीं मुख्तार साहबको शायद अत्यन्त आश्चर्य हो कि भाष्यकारने स्पष्ट लिखा है - "सर्व पञ्चत्त्वं अस्तिकायावरोधात् । सर्वं षट्त्वं षड्व्यावरोधात्" । वृत्तिकार सिद्धसेनने इन पंक्तियोंका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है- " तदेव पवस्वभावं षट्स्वभावं षड्द्रव्यसमन्वितत्त्वात् । तदाह—सर्वं घट्कं षड्द्रव्यावरोधात् । षड्द्रव्याणि कथं, उच्यते— पश्ञ्च धर्मादीनि कालश्चेत्येके” । इ से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वावि छह द्रव्योंको मानते हैं । छह द्रव्योंका स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्य में किया है। पांच अस्तिकायोंके प्रसंग पर कालका कथन इसीलिये नहीं किया गया कि काल कायवान नहीं । अतएव अकलङ्क ने षड्द्रव्य वाले जिस भाष्यकी ओर संकेत किया है, वह उमास्वातिका प्रस्तुत तत्वार्थाधिगम भाष्य ही हैं ।
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( पश्चिमांश ) " यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसायस्थानान्तराख्येतानि तद्वन्नयवादा इति ।"
इस भाष्यका सूचन अकलङ्क ने "वृत्ति" शब्दसे किया है।"
१० परीक्षा --- भाष्यकार ने " इत्युक्तम् ” पदके साथ जिस वाक्यको उद्धृत किया है वह भाष्य में इससे पहले उक्त न होने के कारण किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थसे उद्धृत जान पड़ता है, और उसके उद्धृत करने का लक्ष्य उस व्यवहार कालको बतलाने के सिवा और कुछ मालूम नहीं होता जिसको लक्ष्य करके ही " तत्कृतः कालविभागः” यह सूत्र कहा गया है। इसीसे उक्त वाक्य के अनन्तर लिखा है - " तस्य विभागो ज्योतिषाणां गतिविशेषकृतश्चारविशेषेण हेतुना” और सूत्रके भाष्यकी समाप्ति करते हुए लिखा है - " एवमादि - र्मनुष्यक्षेत्रे पर्यायापन्नः कालविभागो ज्ञेय इति ।" इससे यहां मुख्य (परमार्थ) काल अथवा द्रव्यदृष्टिसे कालके विधानका कोई अभिप्राय नहीं है, और इस लिये इस उल्लेख परसे प्रोफेसर साहबका अभिमत सिद्ध नहीं हो सकता ।
यहां पर नयवादका प्रसंग है - नेगमादि नयोंका विषय परस्पर विरुद्ध नहीं है-एक वस्तु में सामान्यविशेषादि धर्म परस्पर अविरोध रूपसे रहते हैंइस बातको स्पष्ट किया गया है। किसीने प्रश्न किया कि जब एक पदार्थको आप नाना अध्य ( विज्ञनभेदों) का विषय मानते हैं तो इससे तो विप्रतिपत्ति (विरुद्धप्रतीति) का प्रसंग आता है । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि जैसे संपूर्ण जगत सत्की अपेक्षा -- सतकी दृष्टि से अवलोकन करने वालों की अपेक्षा एक रूप है, वही जीव अजीव की अपेक्षासे दो रूप है, द्रव्यगुण-पर्यायकी अपेक्षा तीन रूप है, चक्षु अच आदि चारदर्शनोंका विषय होने की अपेक्षासे चार रूप है, पंचास्तिकायकी अपेक्षासे पांचरूप है और पद्रव्यों की अपेक्षा -- पट द्रव्यों की दृष्टिसे अवलोकन करने वालों की अपेक्षा - पडूद्रव्यरूप है । इस प्रकार एक जगत् वस्तु में उपादीयमान ये एक-दो-तीन-चार-पांच-छह रूपात्मक अवस्थाएँ जैसे विरुद्ध प्रतीति को प्राप्त नहीं होतीं ये अध्यवसाय के स्थानान्तर हैं, वैसे ही अध्यवसायकृत नयवाद परस्पर विरोध को लिए हुए नहीं हैं।
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अब रही आपके दूसरे उल्लेखकी बात, मुझे तो उसे देखकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ उसमें भाष्यकार द्वारा विधान रूपसे "पद्रव्यारिण" ऐसा कहीं भी नहीं लिखा गया है। भाष्यके उस अंश में उल्लेखित वाक्योंकी जो दृष्टि है उसे अच्छी तरह समझने के लिये उसके पूर्वाश और पश्चिमांश दोनोंको सामने रखनेकी जरूरत है। अतः उन्हें नीचे उद्धृत किया जाता है
(पूर्वाश) "अत्राह - एवमिदानीमेकस्मिन्नऽर्थेभ्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसङ्ग इति । अत्रोच्यते - यथा सर्वं एकंसद विशेषात् । सर्वं द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् । सर्वं त्रित्वं द्रव्यगुणपर्याया वरोधात । सर्वं चतुष्टयं चतुर्दर्शन विषयावरोधात् । ”
द्रव्य किस दृष्टि से यहां विवक्षित हैं इसबा को सिद्धसेन ने ही अपनी उस वृति में स्पष्ट कर दिया है जिसे प्रो० साहब ने उदधृत किया है। वे कहते हैं पांच तो 'धर्मादिक' और छठा 'कालश्चेत्येके' सूत्रका विषय 'काल' । इससे भाष्यकार की मान्यता के सम्बन्ध में कोई नया विशेष उत्पन्न नहीं होता जिसका विचार ऊपर की परीक्षाओं
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बर्ष ३, किरण १२१
प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
में न किया जानुका हो । सिद्धसेन गणि जो यह शिलावाक्य में पाया जाता है, जो वहां उक्त कहते हैं कि काल किसी के मतसे द्रव्य है परन्तु टीका की प्रशस्ति पर से उद्धृत जान पड़ता है--- उमास्वाति वाचक के मत से नहीं, वे तो पांच ही तस्येवशिष्यशिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः। द्रव्य मानते हैं उसका उनके ऊपर के स्पष्टीकरण संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्यसूत्रं तदलंचकार । से कोई विरोध नहीं आता-वे उसके द्वारा अब
(शि० नं० १०५) 5 यह नहीं कहना चाहते कि भाष्यकार उमास्वाति । इस तरह मेरी उक्त विचारणा' पर जो छह द्रव्य मानते हैं अथवा छह द्रव्यों का विधान समीक्षा लिखी गई है उसमें कुछ भी सार नहीं है, करते हैं। भाष्यकार ने यहां आगमकथित दूसरी और इसलिये उससे प्रोफेसर साहब का वह मान्यता अथवा दूसरों के अध्यवसायकी दृष्टि से अभिमत सिद्ध नहीं हो सकता जिसे वे सिद्ध ही पडाव्य' का उल्लेखमात्र किया है। ऐसी करना चाहते हैं-अर्थात यह नहीं कहा जासकता हालत में यह कहना कि “उमास्वाति (श्वे० सूत्रपाठ कि अकलंक के सामने उमास्वाति का श्वेताम्बर: तथा भाष्यके तथाकथित रचयिता) छह द्रव्योंको सम्मत भाष्य अपने वर्तमान रूप में उपस्थित था मानते हैं। छह द्रव्योंका स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्यमें और अकलंक ने उसका अपने वार्तिक में उपयोग किया है" वुछ भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। तथा उल्लेख किया है बल्कि यह स्पष्ट मालूम होता फिर यह नतीजा तो उससे कैसे निकाला जासकता है कि अकलंकके सामने उनके उल्लेखका विषय है कि-"अकलंकने षडद्रव्य वाले जिस भाष्य की कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था, और वह उन्हीं ओर संकेत किया है वह उमास्वाति का प्रस्तुत का अपना 'राजवर्तिक-भाष्य' भी हो सकता है । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ही है" ? क्यों कि एकमात्र क्योंकि उसमें इससे पहले अनेकवार 'षण्णामपि "षड्व्यावरोधात” पद अकलंक के “यद्भाष्ये द्रंब्याणां, षडत्र द्रव्याणि' षडद्रव्योपदेश' इत्यादि बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं” इस वाक्य में आए रूप से छह द्रव्यों का उल्लेख आया है, और हुए “बहुकृत्वः षड् द्रव्याणि” पदों का वाच्य नहीं स्वकीय भाष्य की बातको लेकर सूत्र पर शंका हो सकता । अकलंक के ये पद भाष्य में कमसे उठाने की प्रवृत्ति अयत्र भी देखी जाती है, जिस कम तीन वार 'षड्द्रव्यागि" जैसे पदों के उल्लेख का एक उदाहरण 'स्वभावमार्दवं च' सूत्र के भाष्यका - को मांगते हैं। और न यही नतीजा निकाला निम्न वाक्य है-"ननु पूर्वत्र व्याख्यातमिदं पुनर्गजासकता है कि 'इस (प्रस्तुत) भाष्य का सूचन हणमनर्थक सूत्रेऽनुपात्तमिति कृत्वा पुनरिदमुअकलंक ने 'वृत्ति' शब्द से किया है। वृत्ति का च्यते ।” इससे पूर्व के, अल्पारंभपरिग्रहत्वं अभिप्राय किसी दूसरी प्राचीनवृत्ति अथवा उस मानुषस्य" सूत्र की व्याख्या में 'मार्दव' आनुका टीका से भी हो सकता है जो स्वामी समन्तभद्र थों; इसी से शंका को वहां स्थान मिला है । अस्तु । के शिष्य शिवकोटि आचार्य-द्वारा लिखी गई थी। यह तो हुई प्रो० साहब के पूर्व लेख के और जिसका स्पष्ट उल्लेख श्रवणबेल्गोल के निम्न नम्बर ४ की बात, जो तीन उपभागों (क, ख, ग)
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अनेकांत
आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६
में बँटा था और आपकी युक्तियों में सर्वप्रधान यह भी लिखा था किथा; अब लेख के शेष तीन नम्बरों अथवा भागों "यहां पर एक बात और भी जान लेने की है को भी लीजिये, जिनका परिचय इस लेखके शुरू और वह यह है कि श्री पूज्यपाद आचार्य सर्वार्थमें परीक्षारम्भ के पूर्व-विचारणा के लक्ष्यको सिद्धि में, प्रथम अध्यायके १६ वें सूत्र की व्याव्यक्त करते हुए, दिया जा चुका है। नं. १ ख्या में, "क्षिप्रानिःसृत' के स्थानपर 'क्षिप्रनिःसृत' में तत्त्वार्थसूत्रों के कुछ पाठभेद का पाठभेदका उल्लेख करते हुए लिखते हैंराजवार्तिक में उल्लेख बता कर यह नतीजा "अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः। त एवं निकाला गया था कि 'अकलंक के सामने कोई वर्णयन्ति-श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य दूसरा सूत्रपाठ अवश्य था जिसे अकलंक ने वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते।" स्वीकार नहीं किया' इस बात को अङ्गीकार करते जिस पाठभेद का यहां "अपरेषां” पदके हुए मैंने अपनी 'विचारणा' में लिखा था- प्रयोगके साथ उल्लेख किया गया है वह 'स्वोपज्ञ' - "इसमें सन्देह नहीं कि अफलंकदेव के सामने कहे जाने वाले उक्त तत्त्वार्थभाष्य में नहीं है, तत्वार्थसूत्र का कोई दूसरा सूत्रपाठ जरूर था, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पूज्यपादके जिसकेकुछ पाठोंको उन्होंनेस्वीकृत नहीं किया। इससे सामने दूसरोंका कोई ऐसा सूत्रपाठ भी मौजूद अधिक और कुछ उन आवतरणों परसे उपलब्ध था जो वर्तमान एवं प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य के सूत्रनहीं होता जो लेखके नं० १ में उद्धृत किये गये पाठ से भिन्न था। ऐसा ही कोई दूसरा सूत्रपाठ हैं । अर्थात् यह निर्विवाद एवं निश्चित रूपसे नहीं अकलंकदेव के सामने उपस्थित जान पड़ता है, कहा जा सकता कि अकलंकदेव के सामने यही जिसमें “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुतत्त्वार्थभाष्य मौजूद था । यदि यही तत्त्वार्थभाष्य षस्य" ऐसा सूत्रपाठ होगः-स्वभावमार्दवं' की गौजूद होता तो उक्त नं० १ के 'घ' भागमें जिन दो जगह 'स्वभावमार्दवार्जवं च' नहीं । इसी तरह सूत्रोंका एक योगीकरण करके रूप दिया है उनमें “बन्धे समाधिको पारिणामिकौ" सूत्रपाठ भी से दूसरा सूत्र ‘स्वभावमार्दवं च' के स्थान पर 'स्व- होगा,जिसके “समाधिकौ" पदकी आलोचना करते भावमार्दवावं च होता और दोनों सूत्रोंके एक हुए और उसे 'आर्षविरोधि वचन' होनेसे विद्वानों योगोकरणका वह रूप भी तब 'अल्पारंभपरिग्रहत्वं केद्वारा अग्राह्य बतलाते हुए "अपरेषां पाठः" लिखा स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्येति' दिया जाता; है- यह प्रकट किया है कि दूसरे ऐसा सूत्रपाठ परन्तु ऐसा नहीं है।"
. मानते हैं। यहां “अपरेषां" पदका वैसा ही प्रयोग . इसके अलावा अकलंक से पहले तत्वार्थसूत्र है जैसा कि पूज्यपाद आचार्यने ऊपर उद्धृत के अनेक सूत्रपाठों के प्रचलित होने और उनपर किये हुए पाठभेद के साथ में किया है। परन्तु अनेक छोटी-बड़ी टीकाओं के लिख जाने की इस 'समाधिकौ' पाठभेद का सर्वार्थसिद्धि में कोई बात को स्पष्ट करते हुए मैंने अपनी 'विचारणा' में उल्लेख नहीं, और इससे ऐसा ध्वनित होता है.
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वर्ष ३ किरण १२]
प्रो.जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
कि सर्वार्थसिद्धिकार प्राचार्य पूज्यपाद के सामने कथन वर्तमानके दिगम्वर श्वेताम्बर सूत्रपाठोंके प्रस्तुत तत्त्वाथभाष्य अथवा तत्त्वार्थभाष्यका शेष साथ सम्बद्ध नहीं है। इससे स्पष्ट है कि पहले वतमानरूप उपस्थित नहीं था, जिसका 'स्वो. तत्त्वार्थसूत्रके अनेक सूत्रपाठ प्रचलित थे और वे पज्ञ भाष्य' होनको हालतमें उपस्थित होना बहुत अनेक आचार्य परम्पराओंसे सम्बन्ध रखते थे। कुछ स्वाभाविक था, और न वह सूत्रपाठ ही उप- छोटी बड़ी टीकाएँ भी तत्तवार्थसूत्र पर कितनी ही स्थित था जो अकलंकके सामने मौजूद था और लिखी गई थीं, जिनमें मे बहुतसी लुम हो चुकी हैं जिसके उक्त सूत्रपाठको वे 'आर्षविरोधी' तक और वे अनेक सूत्रों के पाठभेदोंको लिये हुए थीं। लिखते हैं, अन्यथा यह संभव मालूम नहीं होता ऐसी हालतमें लेखक नं. ३ में प्रोफेसरसाहव कि जो आचाय एकमात्रा तकके साधारण पाठ- ने उक्त शंकाका । निरसन होना बतलाते हुए, जो भेदका तो उल्लेख करें वे ऐसे वादापन्न पाठभेद- यह नतीजा निकाला है कि "अकलंकके सामने को बिल्कुल ही छोड़ जावें।
कोई दूसरा सूत्रपाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने - सिद्धसन गणिकी टीकामें अनेक से सूत्र टों स्वयं तत्त्वाथभाष्य मोजूद था" वह समुचित का उल्लेख मिलता हे जो न तो प्रस्तुत तत्त्वाय प्रतीत नहीं होता।" । भाष्यमें पाये जाते हैं और न वतमान दिगम्बरीय इस सब 'विचारणा'की समीक्षा में प्रोफेसर अथवा सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठोंमें ही उपलब्ध साहब सिर्फ इतना ही लिखते हैं:होते हैं । उदाहरणके लिये "कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनु- ११ समीक्षा-"इसी तरह सूत्रोंके पाठभेद ज्यादीनामेकैकवृद्धानि" सूत्रको लीजिये, सिद्धसेन की बात है ।" 'बन्धे समाधिको पारिणामिकौ,' लिखते हैं कि इस सूत्रमें प्रयुक्त हुए 'मनुष्यादीनाम्' 'द्रव्याणि जीवाश्च' आदि सूत्र भाष्यमें ज्यों की पदको दूसरे ( अपरे ) लोग 'अनार्ष' बतलाते हैं त्यों मिलती हैं । उक्त विवेचनकी रोशनीमें कहा
और साथ ही यह भी लिखते हैं कि कुछ अन्य जा सकता है कि अकलंकका लक्ष्य इसी भाष्यके जन जो 'मनुष्यादीनाम्' पदको तो स्वीकार करते सूत्रपाठकी ओर था। हैं वे इस सूत्र के अनन्तर "अतीन्द्रियाः केवलिनः" 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं' आदि सूत्रके विषयमें यह एक नया ही सूत्रपाठ रखते हैं । यह सब सम्भवतः कुछ मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धि हो । शायद
* "अपरेऽतिविसंस्थुलमिदमालोक्य भाष्यं विष- वही पाठ मूल प्रतिमें हा और मुद्रितमें छूट गया राणाः सन्तःसूत्रे मनुष्यादिग्रहणमनार्षमिति संगिरन्ते। हो । इसके अतिरिक्त यहाँ मुख्य प्रश्न तो एक इदमन्तरालमुपजीव्यापरे वातकिनः स्वयमुपरम्य सूत्र- योगीकरणका है जो भाष्यमें बराबर मिल जाता है।" मधीयते-'अतीन्द्रियाः केवलिनः' येषां मनुष्यादीनां यह शंका वही है जिसे प्रो० साहबने खुद ही ग्रहणमस्ति सूत्रेऽनन्तरे त एवमाहुः-मनुष्यग्रहणात् सत्रपाठभेदोंके अपने नतीजे पर उठाया था और जिसे केवलिनोऽपि पंचेन्द्रियप्रसक्तेः अतस्तदपवादार्थमतीत्ये- प्रो० साहबके पूर्व लेखका परिचय देते हुए नं० २ में न्द्रियाणि केवलिनो वर्तन्त इत्याख्येयम् ।"
दिखलाया जा चुका है। .
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अनेकान्त
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[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
११ परीक्षा-उक्त विस्तृत विचारणाकी यह प्रतियोंमें 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" और समीक्षा भी क्या कोई समीक्षा कहला सकती है ? स्वभावमार्दवं च"येदोनों सूत्र अपने इसी रूपमें पाये इसे तो सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। यहां जाते हैं, टीकाओं में भी इनके इसी रूपका उल्लेख पर मैं सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि है और इनके योगीकरणका वह रूप नहीं बनता जब श्री पूज्यपाद, अकलंक और सिद्धसेनके सामने जो प्रस्तुत भाष्यमें उपलब्ध होता है । इसके सिवाय दूसरे कुछ विभिन्न सूत्रपाठोंका होना पाया जाता जब प्रो० साहबके पास भाण्डारकर इन्स्टिटयूटकी है तथा“त एवं वर्णयन्ति","मनष्यादिग्रहणमनार्ष- प्रतिके आधार पर लिये हुए राजवार्तिकके पाठान्तर मितिसंगिरन्ते" जैसे वाक्योंके द्वारा उन पर दूसरी हैं और पं० कैलाशचन्द्र जी की माफत बनारसको टीकाओंके रचे जानेका भी स्पष्ट आभास मिलता प्रतिके पाठों का भी आपने परिचय प्राप्त किया है और इस पर समीक्षामें कोई आपत्ति नहीं की है तब कम से कम अपनी उन प्रामाणिक प्रतियों गई, तब अमुक सूत्रोंके प्रस्तुत भाष्यमें मिलने मात्र के आधार पर ही आपको यह प्रकट करना चाहिये से, जिसमें एक योगीकरणकी बात भी आजाती है, था कि उनमें उन दो सूत्र के क योगीकरणका यह कैसे कहा जा सकता है कि "अकलंकका लक्ष्य वही रूप दिया है जो प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्यमें इसी भाष्यके सूत्रपाठकी ओर था ?" क्या प्रो० पाया जाता है। ऐसा न करके 'संभवतः' और साहबके पास इस बातकी कोई गारण्टी है कि 'शायद' शब्दोंका सहारा लेते हुए उक्त कथन करना अमुक सूत्र उन दूसरे सूत्रपाठोंमें नहीं थे ? यदि आपत्तिसे बचनेके लिये व्यर्थकी कल्पना करनेके नहीं, तो फिर उनका यह नतीजा निकालना कि सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता । आपत्तिसे "अककलंका लक्ष्य इसी भाष्यके सूत्रपाठकी ओर बचनेका यह कोई तरीका नहीं और न इसे समीक्षा था' कैसे संगत हो सकता है ? ऐसा कहनेका ही कह सकते हैं। तब उन्हें कोई अधिकार नहीं। उनके इस कथन प्रो० साहब के लेख के चौथे नम्बर के 'ख' से तो ऐसा मालूम होता है कि शायद प्रो० साहब भाग पर विचार करने के अनन्तर मैंने उनके लेख यह समझ रहे हैं कि सूत्रों परसे भाष्य नहीं बना के नं० २ पर, जिसका परिचय भी शुरु में दिया किन्तु भाष्य परसे सूत्र निकले हैं और सूत्रपाठ जा चुका है, जो विचारणा' लिखी थी वह इस भाष्यके साथ सदैव तथा सर्वत्र नत्थी रहता है ! प्रकार है :यदि ऐसा है तो निःसन्देह ऐसी समझकी बलिहारी “ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि अकलंक देव
के सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था । जब रही “अल्पारम्भपरिग्रहत्व” आदि सूत्रकी दूसरा ही भाष्य मौजूद It तब लेख के नं० २ में मुद्रणसम्बन्धी अशुद्धिकी बात, यह कल्पना आपत्ति कुछ अवतरणों की तुलना पर से जो नतीजा से बचनेके लिये बिल्कुल निरर्थक जान पड़ती है; निकाला गया अथवा सूचन किया गया है वह क्योंकि दिगम्बर सूत्रपाठकी सैंकड़ों हस्तलिखित सम्यक प्रतिभासित नहीं होता-उस दूसरे भाष्य
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वर्ष ३, किरण १२]
प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्ष
में भी उस प्रकारके पदोंका विन्यास अथवा परन्तु वे राजवार्तिकमें ज्योंकी त्यों अथवा मामूली वैसा कथन हो सकता है । अवतरणों में परस्पर फेर फार से दी हुई हैं।" कहीं कहीं प्रतिपाय-विषय-सम्बन्धी कुछ मतभेद १२ परीक्षा-इस समीक्षा में 'विचारणा' पर भी पाया जाता है, जैसा नं०२ के 'क'-'ख' भागों क्या प्रापत्ति की गई है और अपने पूर्व लेख को देखने से स्पष्ट जाना जाता है। ख-भाग में से अधिक क्या नई बात खोजकर रक्खी गई है ? जब तत्त्वाथभाष्य का सिहों के लिये चार नरकों इमे पाठक सहज ही में समझ सकते हैं। यदि तक और उरगों ( सो) के लिए पाँच नरकों तक "अनेक स्थानोंपर भाष्य और राजवार्तिक अक्षरशः उत्पत्ति का विधान है, तब राजवार्तिक का उरगों मिलते हैं" तो इसका यह अर्थ यह कैसे हो सकता के लिये चार नरकों तक और सिंहोंके लिये पाँच है कि राजवार्तिक में वे सब बातें ज्योंकी त्यों नरकों तक की उत्पत्ति का विधान है । यह मतभेद अथवा मामूली फेर-फार के साथ भाष्य से उठा एक दूसरे के अनुकरण को सूचित नहीं करता, न कर रखली गई है ? खास कर ऐसी हालतमें जब पाठ-भद की किसी अशुद्धि पर अवलम्बित है; कि अकलंक से पहले तत्वार्थसूत्र पर अनेक बल्कि अपने अपने सम्प्रदायके सिद्धान्त-भेदको टीकाएँ बन चकी थीं, कुछ उनके सामने मौजूद भी लिये हुए है । राजवार्तिक का नरकोंमें जीवोंके थीं और प्रस्तुत श्वेताम्बरीय भाष्य को प्रो० साहब उत्पादादि सम्बन्धी कथन 'तिलोयपण्णत्ती' आदि अभी तक
अभी तक स्वयं मूल सूत्रकार उमास्वाति आचार्य प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों के आधार पर अवलम्बित का बनाया हा 'स्वोपज्ञ भाष्य' सिद्ध नहीं कर
सके हैं ? दिगम्बर उमे 'स्वोपज्ञ' नहीं मानते और इसके उत्तरमें प्रो० साहबकी समीक्षाका रूप न इन पंक्तियों का लेखक ही मानता है, जिसकी मात्र इतना ही है
'विचारणा' की आप समीक्षा करने बैठे हैं। ___ १२ समीक्षा--"हम अपने पहले लेखमें भाष्य, यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना सर्वार्थसिद्धि और राज बार्तिकके तुलनात्मक चाहता हूँ कि मेरी विचारणा के “उस दूसरे भाष्य उद्धरण देकर यह बता चुके हैं कि अनेक स्थानों में भी उस प्रकार के पदों का विन्यास अथवा वैसा पर भाष्य और राजवार्तिक अक्षरशः मिलते हैं । कथन हो सकता है" इस वाक्य को लेकर प्रो० इनमें से बहुतसी बातें सर्वार्थसिद्धि में नहीं मिलतीं साहब ने अपने इस ममीक्षा-लेख के शुरू में यहां ___* देखो जैनसिद्धान्तभास्करके ५वें भागकी तीसरी तक
तक लिखने का साहम किया हैकिरण में प्रकाशित 'तिलोयपण्णत्ती' का नरक विषयक मुख्तार साहब के प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य के अकलंक प्रकरण (गाथा २८५, २८६ श्रादि), जिसमें वह विषय के समक्ष न होनेमें जो प्रमाण हैं वे केवल इसतर्क पर बहुत कुछ वर्णित है जो लेखीय नं०२ के अनेक भागोंमें अवलम्बित हैं कि इसी तरह के वाक्य-विन्यास और उल्लेखित राजवार्तिक के वाक्यों में पाया जाता है। कथन वाला कोई दूसरा भाष्य रहा होगा, जो आजकल
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[आश्विन, वीरनिर्वाण सं०२४६६
अनुलब्ध है। लेकिन यह तर्क सर्वथा निर्दोष नहीं कहा प्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणं क्रियते ।" इससे स्पष्ट है जा सकता।"
कि उक्त वार्तिक सर्वार्थसिद्धिके शब्दों पर ही अपना ___ मैंने इस प्रकारका कोई तर्क नहीं किया और न आधार रखता है. और इसलिये यह कहना कि मेरे सारे प्रमाण केवल इस तर्क पर अवलम्बिन हैं, यह भाष्यकी 'अद्वासमय प्रतिषेधार्थ च' इस पंक्ति को बात मेरी (सम्पादकीय) 'चिारणा' स दि । कर प्रकाश उक्त वार्तिक बनाया गया हे कुछ सगत मालूम नहीं की तरह स्पष्ट है । इतने पर भी प्रो० साहवका उक्त होता । ऊपरके सम्पूर्ण विवेचनकी रोशनीमें वह लिखना दूसरेके वाक्यका दुरुपयोग करना ही नहीं, और भी असंगत जान पड़ता है। बल्कि भारी ग़लत बयानीको लिये हुए है, और इस- इस 'विचारणा' पर प्रो० साहबने अपनी लिये बड़ा ही दुःसाहसका काम है । अपनी समीक्षाका समीक्षामें जो कुछ लिखा है वह सब इस प्रकार हैरंग जमाने के लिए अपनाई गई यह नीति प्रोफेसर १३ समीक्षा-कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थम जैसे विद्वानोंको शोभा नहीं देती । इसी प्रकारका एक द्धासमय प्रतिषेधार्थ च' भाष्यकी इस पंक्तिकी राजऔर वाक्य भी आपने मेरे नाम से अपने समीक्षालेखके वार्तिक में तीन वार्तिक बनाई गई हैं-'अभ्यंन्तर. शुरूमें दिया है, जो कुछ गलत सूचनाको लिये हुए है; कृतेवार्थः कायशब्दः'; 'तद्ग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वज्ञा. और इसलिये ठीक नहीं है।
पनार्थ,' 'श्रद्धाप्रदेश प्रतिषेधार्थ च'। कहना नहीं होगा प्रोफेसरसाहबके लेख के तृतीय भाग (नं० ३) कि वार्तिककी उक्त पंक्तियोंका साम्य सर्वार्थसिद्धि की, जिसका परिचय भी शुरूमें दिया जाचुका है, की अपेक्षा माध्यमे अधिक है। दूसरा उदाहरणअालोचना करते हुए मैंने जो 'विचारणा' उपस्थित 'नाणोः'-सूत्रके भाष्यमें उमास्वातिने परमाणुका की थी वह इस प्रकार है:
लक्षण बताते हुए लिखा है--'अनादिरमध्यो हि __ "इसी तरह भाष्यकी पक्तिको उठाकर वार्तिक परमाणुः' । सर्वार्थसिद्धि कार यहाँ मौन हैं । परन्तु बनाने आदिकी जो बात कही गई है वह भी कुछ राजवार्तिकमें देखिये-आदिमध्यान्तव्यपदेशाभावाठीक मालूम नहीं होती । अकलंकने अपने राज- दितिचेन्न विज्ञानवत् ( वार्तिक ) इसकी टीका वार्तिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिका प्राय: अनसरण लिखकर अकलंलने भाष्यक उक्त वाक्यका ही किया है। सर्वार्थसिद्धिमें पाँचवें अध्यायकं प्रथम समर्थन किया है। इस तरहके बहुतसे उदाहरण सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखा है--"कालो वक्ष्यते, दिये जा सकते हैं।" तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणम् ।" इसी बात १३ परीक्षा-'विचारणा' में उपस्थित विचार को व्यक्त करते हुए तथा काल के लिये उसके पर्याय का कोई उत्तर न देकर, यहाँ भाष्यकी जिस पंक्ति नाम 'श्रद्धा' शब्दका प्रयोग करते हुए राजवार्तिक परसे जिन तीन वार्तिकों के बनानेकी बात कही में एक वार्तिक “श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च" दिया है गई है वह समुचित प्रतीत नहीं होती; क्योंकि
और फिर इसकी व्याख्यामें लिखा है--"श्रद्धाशब्दो "अभ्यन्तरकृतेवार्थः कायशब्दः" इस वार्तिककी भाष्य निपातः कालवाची स वक्ष्यमाणलक्षणः तस्य प्रदेश- की उक्त पंक्ति परसे जरा भी उपलब्धि नहीं होती;
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वर्ष ३ किरण १२]
प्रो.जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
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प्रत्युत इस कं,सर्वार्थसिद्धि में यथा शरीरं पुद्गलदव्य- नहीं मालूम प्रो० माहबने 'श्रप्रदेशः' पद का परिप्रचयात्मक तथा धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया कार्याइव त्यागकर अधूरा लक्षण क्यों उद्धृत किया ? प्रदेशों काया इति" इस वाक्यक द्वारा जो भाव व्यक्त किया के कथनका तो खास प्रसंग ही चल रहा था और गया है उसीको लेकर उक्त वार्तिक बना है । दूसरा परमाणु के उनका निषेष करने के लिये ही 'नाणोः' वार्तिक सर्वार्थसिद्धि के "किमर्थः कायशब्दः ? प्रदेश- सूत्र का अवतार हुआ था,उसी प्रदेश निषेधात्मक बहुत्वज्ञापनार्थः" इन शब्दों परस बना है, और पद को यहाँ छोड़ दिया गया, यह आश्चर्य की बात तीसरा वातिक सर्वार्थसिद्धि परसे कैसे बना, यह है ! अस्तु; सर्वार्थसिद्धि में प्रकरणानुसार "अणोः बात ऊपर उद्धृत 'विचारणा' में दिखलाई ही जा प्रदेशा न सन्ति" इस वाक्य के द्वारा परमाणु के चकी है। ऐसी हालतमें उक्त तीनों वार्तिकोंका सब प्रदेशों का ही निषेध किया है, बाकी परमाणुओं से अच्छा बद्धिगम्य आधार सर्वार्थसिद्धि हो का लक्षण अथवा स्वरूप "प्रणवः स्कन्धाश्च" सत्र सकती है न कि भाष्य की उक्त पंक्ति । राजवार्तिक की व्याख्या में दिया है, जो इस प्रकार है “सौपम्या-. की तीन पंक्तियों मेंमे जब एक पंक्ति ही भाष्य परसे दात्मादय आत्ममध्या आत्मान्ताश्च" । साथ ही, इस उपलब्ध नहीं होती तब भाष्यके साथ उसका की पुष्टि में 'उक्तं च रूपसे "अत्तादि अत्तमझ” अधिक साम्य कैसे हो सकता है ? और कैसे उक्त नाम की एक गाथा भी उद्धत की है, जो श्री पंक्ति परसे तीन वार्तिकों के बनने की बात कही जा कुन्दकुन्दाचायक 'नियमसार' की २६वीं गाथा है। सकती है ? हाँ, समीक्षा-लेखकी समाप्ति करते हुए अकलंक ने भी गाथा-सहित यह सब लक्षण इसी प्रो० साहबने यह भी एक घोषणा की है कि- सूत्र की व्याख्या में दिया है। 'नाणोः' सूत्र की "समानता,सर्वाथसिद्धि और राजवार्तिकमें भी है। व्याख्या में परमाणु का कोई लक्षण नहीं दिया । परन्तु यहां म । आर राजवार्तिकको उन समान- प्रो. साहब ने जो वार्तिक उद्धत किया है वह ताओंसे हमा। अभप्राय है जिनकी चर्चा तक और उसका भाष्य इस शंका का समाधान करने सर्वार्थसिद्धिम नहीं।" इस परसे हर कोई प्रो० के लिये अवतरित हुए हैं कि परमाणु के आदिसाहबसे पूछ सकता है कि भाष्यकी पंक्ति परसे मध्य और अन्त का व्यपदेश होता है याकि नहीं ? जिन तीन वार्तिकोंक बनाये जानेकी बात कही गई यदि होता है तो वह प्रदेशवान् ठहरेगा और नहीं है उनके विषयकी चर्चा क्या सर्वाथसिद्धि में नहीं होता है तो खर विषाण की तरह उसके अभाव है ? यदि है तो फिर उक्त घोषणा अथवा का प्रसंग आएगा? ऐसी हालत में यह समझना विज्ञप्ति कैसी ?
कि सर्वार्थसिद्धि कार ने परमाणु का लक्षण नहीं अब रही परमाणु के लक्षण की बात, भाष्य दिया अथवा वे इस विषय में मौन रहे हैं और पर से जो लक्षण उद्धृत किया गया है वह भाष्य अकलंक ने उक्त भाष्य का अनुसरण किया है, में उस रूपसे नहीं पाया जाता। भाष्यके अनुसार नितान्त भ्रममूलक जान पड़ता है। उसका रूप है-'अनादिरमध्योऽप्रदेशो हि परमाणुः'।
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भनेकान्त
[आश्विन, पीरनिर्वाण सं०२४६६
उपसंहार
मैं समझता हूँ प्रो० साहबके समीक्षा लेखकी अब भाष्य अपने वर्तमानरूपमें अकलंकके सामने ऐसी कोई खास बात अवशिष्ट नहीं रही जो आलोचना मौजद था अलंकदेवं उससे अच्छी तरह परिचित थे, के योग्य हो और जिसकी आलोचना एवं परीक्षा न की (२) अकलंकने अपने राजवार्तिक में उसका यथास्थान जा चुकी हो । अतः मैं विराम लेता हुअा उपसंहाररूप उपयोग किया है, (३) अकलंकने'अहत्प्रवचने', 'भाष्ये' में अब सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि कारके और 'भष्यं' जैसे पदोंके प्रयोगद्वारा उस भाष्य के इस संपर्ण विवेचन एवं परीक्षण परसे जहाँ यह स्पष्ट है अस्तिस्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, (४) अकलंक उसे कि मेरी सम्पादकीय विचारणा' में प्रो० साहबके पूर्व स्वोपज्ञ' स्वीकार करते थे--तत्वार्थसूत्र और उसके लेखकी कोई खास बात विचारसे छूटी नहीं थी अथवा भाष्य के कर्ताको एक मानते थे, और (५) अकलंकने छोडी नहीं गई थी- उनके लेख के चारों भागों के सभी उसके प्रति बहमानका भी प्रदर्शन किया है. इनमेंसे मुद्दों पर यथेष्ट विचार किया गया था---और इसलिये कोई भी बात सिद्ध नहीं होती। साथ ही, यह भी स्पष्ट अपने समीक्षा-लेखके शुरूमें उनका यह लिखना कि है कि प्रो० साहबकी लेखनी बहुत ही असावधान है-वह “इसी युक्ति ( प्रस्तुत भाष्यमें षट् द्रव्योंका विधान न विषयका कुछ गहरा विचार करके नहीं लिखती. इतना मिलने मात्रकी बात) के आधार पर मुख्तारसाहबने मेरे ही नहीं, किन्तु दसरों के कथनोंको गलत रूप में बिचारके दुसरे मुद्दोंको भी असंगत ठहरा दिया है----उन पर लिये प्रस्तुत करती है और गलत तथा मन-माने रूप में विचार करनेकी भी कोई श्रावश्यकता नहीं समझी" दसरोंके वाक्योंको उदधत भी करती है। ऐसी असावधान सरासर ग़लत बयानीको लिये हुए है, वहाँ यह भी स्पष्ट लेखनीके भरोसे पर ही प्रो० साहब 'राजवार्तिक' जैसे है कि प्रो० साहबकी इस समीक्षा में कुछ भी -- रत्ती भर महान् ग्रंथका सम्पादन-भार अपने पर लेने के लिये भी सार नहीं है, गहरे विचार के साथ उसका कोई उद्यत हो गये थे, यह जान कर बड़ा ही अाश्चर्य सम्बाध नहीं. वह एकदम निष्प्राण-बेजान और समीक्षा- होता है। पदके अयोग्य समीक्षाभास है । इसीसे 'सम्पादकीय. अन्त में विद्वानोंसे मेरा सादर निवेदन है कि वे इस विचारणा'को सदोष ठहराने में वह सर्वथा असमर्थ रही विषय पर अपने खुले विचार प्रकट करने की कृपा करें है। और इसलिये उसके द्वारा प्रो० साहबका वह और इस सम्बन्धमें अपनी दूसरी खोजोंको भी व्यक्त करें, अभिमत सिद्ध नहीं हो सकता जिसे वे सिद्ध करके जिससे यह विषय और भी ज्यादा स्पष्ट होजाय । इत्यलम् । दसरे विद्वानोंके गले उतारना चाहते थे___ अर्थात् (१) तत्वार्थ सत्रका प्रस्तुत श्वेताम्बरीय वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० १८-१०-१६४०
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वर्ष ३, किरण १२]
वीरसेवामन्दिरकी विज्ञप्ति
वीरसेवामन्दिरकी विज्ञप्ति
'समंतभदभारती की प्रकाशन-योजना छपाईतथा जिल्द बँधाई भी अव्वल नम्बरकी होगी।
इस तरह इस ग्रथराजकके सर्वांग सुन्दर; अत्यन्त स्वामी समन्तभद्र के जितने भी ग्रंथ इस समय
उपयोगी और दर्शनीय बनानेका पूरा प्रयत्न किया उपलब्ध हैं उन सबका एक बहुत बढ़िया संस्करण
जायगा। 'समन्तभद्रभारती' के नामसे निकालनेका विचार स्थिर किया गया है। इस प्रन्थमें स्वामीजीके सब
___ पाठकोंको यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी ग्रथोंका मूलपाठ अनेक प्राचीन प्रतियोंपरसे खोजकर
कि ग्रंथराजका कार्य प्रारम्भ हो गया है-कुछ रक्खा जायगा;साथमें हिन्दीअनुवाद भी अपनी स्नास हा
विद्वानों ने बिल्कुल सेवाभावसे-स्वामी समन्तभद्र विशेषताको लिए हुए होगा । उसे पढ़ते हुए मूल
के ऋणसे कुछ उऋण होनेके खयालसे इसके ग्रन्थकी स्थिरिट में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा, उसकी
एक एक ग्रंथक अनुवाद कार्यको बाँट लिया है। धारा भी नहीं टूटेगी; और जो अर्थ शब्दोंकी तहमें पंबंशोधरजो व्याकरथाचार्यने बृहत् स्वतम्भूछिपा हुआ है अथवा रहस्यके रूयमें पर्दे के भीतर स्तोत्र' का, पं० फूलचंदजो शास्त्रीने 'युक्तनुशासननिहित ह वह सब प्रकट तथा स्पष्ट होता चला का, पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्यने 'जिनशतक, जायगा। और व्यर्थका विस्तार भी नहीं होने पाएगा नामकीस्तुति विद्याका और न्यायाचार्य पं० महेंद्र टीकाओं में उपलब्ध होने वाली कठिन पदोंकी संस्कृत कुमारजीने 'देवागम' नामक प्राप्तमीमांसाका टिप्पिणियाँ भी फुटनोटसके रूपमें रहेंगी । हिन्दीकी अनुवाद करना सहर्ष स्वीकार किया है--कई नई उपयोगी टिप्पणियाँ भी लगाई जायँगी । और विद्वानोंने अपना अनवाद- कार्य प्रारम्भ भी कर इन सबके अतिरिक्त साथमें ही बड़ी महत्वपूण- दिया है । अवशिष्ट 'रस्नकरण्डक' नामक उपासखोजपूर्ण प्रस्तावना होगी, जिसमें मूल ग्रथोंके विष- काध्ययनका अनुवाद मेरे हिस्से में रहा है, प्रस्तावना यादिक पर यथेष्ठ प्रकाश डाला जायगा--स्वामी तथा जोवन चरित्र लिखने का भारभी मेरे ही ऊपर समन्तभद्र का जीवन चरित्र होगा; पूरा शब्दकोश रहेगा, जिसमें मेरे लिये अनुवादकों तथा दूसरे होगा और पद्यानुक्रणिका आदिके अनेक उपयोगी विद्वानोंका सहयोग भी वांछनीय होगा। वीरसेवा परिशिष्ट भी रहेंगे । कागज बहुत पुष्ट तथा अधिक मन्दिरके कुछ विद्वान परिशिष्ट तैयार करेंगे, और समय तक स्थिर रहने वाला लगाया जायगा और यह दृढ़ आशा है कि प्रोफेसर ए.एन. उपाध्यायजी
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७५६
अनेकान्त
एम. ए., डो. लिट. अंग्रेजी में भूमिका लिख देनेकी भी कृपा करेंगे, और भी जो विद्वान इस पुण्य कार्य में किसी भी प्रकार से अपना सहयोग प्रदान करेंगे वह सब सहर्ष स्वीकार किया जायगा और मैं उन सबका हृदय से आभारी हूँगा । जहाँ जहाँ के शास्त्र भण्डारोंमें उक्त ग्रन्थोंको प्राचीन शुद्ध प्रतियां हों अथवा इनसे भिन्न समन्तभद्र के 'जीवसिद्धि' तथा 'तत्वानुशासन' जैसे ग्रन्थ उपलब्ध हों उन्हें खोज कर विद्वान लोग मुझे शीघ्र ही निम्न पते पर सूचित करने की कृपा करें ।
[ आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६
था, अब पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि एक मित्र महोदय के अश्वासन पर उसके प्रकाशन का कार्य शीघ्र प्रारम्भ होने वाला है और उसमें यह खास विशेषता रहेगी कि लक्षणों का हिन्दी में सार अथवा अनुवाद मा प्रकट किया जायगा, जिससे यह महान ग्रन्थ, जो धवला जैजी बड़ी बड़ी चार जिल्दों में प्रकाशित होगा, सभी के लिये उपयोगी साबित होगा - प्रत्येक स्वाध्यायप्रेमी इस से यथेष्ट लाभ उठा सकेगा और सभी मंदिरों तथा लायब्रेरियों में इसका रक्खा जाना आवश्यक समझा जायगा । इसकी विशेष योजना तथा प्रत्येक जिल्द (खण्ड) के मूल्यादि की सूचना बाद को दी जावेगी ।
(२) 'जैनलक्षणावली' का प्रकाशन
जिस 'जैनलक्षणावली' अर्थात् लक्षणात्मक जैन पारिभाषिक शब्दकोश का काम वीरसेवा मन्दिर में कई वर्ष से हो रहा है और जिसका एक नमूना पाठक अनेकान्त के वीरशासनाङ्क में देख चुके हैं, उसके प्रकाशन का कार्य आर्थिक सहयोग न मिलने के कारण एक साल से स्थगित
जुगलकिशोर मुख्तार
अधिष्ठाता 'वीर सेवा मन्दिर,
सरसावा जि०
सहारनपुर
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गो० कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्तिके विचार पर प्रकाश
[ लेखक--पं० परमानन्द जैन शास्त्री ]
मैंने 'गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति' नामका बिद्वानोंने स्पष्ट शब्दों में कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारका
- एक लेख लिखा था, जो अनेकान्तकी गत- त्रुटि-पूर्ण होना तथा कर्मकाण्डका अधूरापन स्वीकार संयुक्त किरण नं०८-६ में प्रकाशित हुआ है । इस लेख भी किया । उदाहरणके तौर पर पं० कैलाशचन्द्रजी में मुद्रित कर्मकाण्डके पहले अधिकार 'प्रकृतिसमुत्को- शास्त्री प्रधानाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय काशी तन' को त्रुटिपूर्ण बतलाते हुए, 'कर्मप्रकृति' नामक एक लिखते हैं कि--"इसमें तो कोई शक ही नहीं कि कर्म दूसरे ग्रन्थके आधारपर जो गोम्मटसारके कर्ता नेमि- काण्डका प्रथम अधिकार त्रुटि-पूर्ण है"। और उक्त चन्द्राचार्य का ही बनाया हुआ मालूम हुआ था, मैंने विद्यालयके न्यायाध्यापक न्यायाचार्य पं० महेन्द्र
धकारकी टि-पूर्ति करनेका प्रयन्न किया था, कुमारजी शास्त्री लिखते हैं कि-- "यदि यह प्रयत्न और यह दिखलाया था कि ७५ गाथाएँ जो कर्मप्रकृतिमें सौलह आने ठीक रहा और कर्मकाण्डकी किसी प्राचीन कर्मकाण्डके बर्तमान अधिकारसे अधिक हैं और किसी प्रतिमें भी ये गाथाएँ मिल गई तब कर्मकाण्डका समय कर्मकाण्डसे छूट गई अथवा जुदा पढ़ गई हैं, अधूरापन सचमुच दूर हो जायगा"। उन्हें कर्मकाण्डमें यथास्थान जोड़ देनेसे सहज ही में परन्तु प्रो० हीरालालजी अमरावतीको मेरा उक्त उसकी त्रुटि पूर्ति हो जाती है और वह सुसंगत तथा लेख नहीं अँचा' और उन्होंने उसपर आपत्ति करते हुए सुसंबद्ध बन जाता है क्योंकि यह संभव नहीं है कि अपना विचार एक स्वतन्त्र लेख द्वारा प्रकट किया है, एक ही ग्रन्थकार अपने एक ग्रन्थ अथवा उसके एक जो अनेकान्तकी गत ११ वी किरण में 'मुद्रित हो चुका भागको तो सुसंगत और सुसम्बद्ध बनाए और उसी है। इस लेखमें आपने यह सिद्ध करनेकी चेष्टाकी है कि विषयके दूसरे ग्रन्थ तथा दूसरे भागको असंगत और (१) कर्मकाण्डसे ७५ गाथाओं का छूट जाना या जुदा असम्बद्ध रहने दे। साथ ही, यह भी व्यक्त किया था पड़ जाना संभव नहीं, (३) कर्मकाण्ड अधूरा न होकर कि कर्मकाण्डके इस प्रथम अधिकारके त्रुटिपूर्ण होनेको पूरा और सुसम्बद्ध है; और (६) कर्मप्रकृति ग्रंथका दूसरे भी अनेक विद्वान् पहलेसे अनुभव करते आरहे हैं गोम्मटसारके कर्ता द्वारा रचित होनेका कोई प्रमाण
और उनमेंसे पं० अर्जुनलाल सेठीका नाम खास तौर नहीं, वह किसी दूसरे नेमिचन्द्र की रचना हो सकती से उनके कथन के साथ उल्लेखित किया था। मेरे इस है। चुनाँचे इन सब बातोंका विवेचन करते हुए,थापने लेखको पढ़कर अनेक विद्वानोंने उसका अभिनन्दन अपने लेखका जो सार अन्तिम पैरेग्राफमें दिया है वह किया तथा अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त की, और कई इस प्रकार है:--
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अनेकान्त
प्राश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
"इस प्रकार न तो हमें कर्मकाण्डमें अधूरे व लंडूरे की प्रति परसे जो कोई असावधान लेखक कापी करे पनका अनुभव होता है, न उसमें से कभी उतनी गाथा. वह उस एक पंक्तिके नायक खाली स्थानको नहीं छोड़
ओंके छूट जाने व दूर पड़ जानेकी सम्भावना जंचती सकता,और इस तरह फिर उसकी प्रति परसे यह कल्पना है, और न कर्मप्रकृतिके गोम्मटसारके कर्ता द्वारा ही भी सहज नहीं होती कि बीचका भाग किसी तरह रचित होनेके कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर होते हैं। छूट गया है। ऐसी अवस्थामें उन गाथाओं के कर्मकाण्डमें शामिल कर प्रोफेसर साहबने यह लिखा है कि-"यदि लिपिदेनेका प्रस्ताव हमें बड़ा साहसिक प्रतीत होता है।" कारोंके प्रमादसे वे ( गाथाएँ) छूट गई होती तो टीका.
अब मैं प्रोफेसर साहबकी उक्त तीनों बातों पर कार अवश्य उस ग़लतीको पकड़ कर उन गाथाओंको संक्षेपमें विचार करता हुआ कुछ विशेष प्रकाश डालता यथास्थान रख देते, और यदि वे प्रसंगके लिये अत्यन्त हूँ और उसके द्वारा यह बतलाना चाहता हूँ कि प्रो. श्रावश्यक थीं तो वे जान बूझकर तो उन्हें छोड़ ही साहबका विचार इस विषयमें ठीक नहीं हैं:-- नहीं सकते थे।" यह ठीक है कि कोई टीकाकार जान
( १ ) पश्चातके लिपिकारों द्वारा ७५ गाथाओंका बझकर ऐसा नहीं कर सकता, परन्तु यदि उस टीकाकार मूलग्रंथसे छूट जाना कोई असंभब नहीं है । जिन को टीकासे पहले ऐसी ही मूल ग्रन्थ प्रति उपलब्ध हुई विद्वानोंको प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथ प्रतियोंको हो जिसमें उक्त गाथाएँ न हों और त्रुटित गाथाओंको देखनेका अवसर मिला है वे इन लिपिकारोंकी कर्तृतसे मालूम करनेका उसके पास कोई साधन भी न हो तो भली भाँति परिचित है, और अनेक बार उस पर फिर वह टीकाकार उन त्रुटित गाथाओं की पूर्ति कैसे कर प्रकाश डालते रहते हैं । इसका एक ताजा उदाहरण सकता है ? फिर भी, कर्मकाण्डके प्रस्तुत टीकाकारने न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमारजीके 'सत्य शासन-परीक्षा' उन गाथाओंके विषयकी पूर्ति अन्य ग्रन्थों परसे की है विषयक लेखसे भी मिलता है,जो अनेकान्तकी गत११वीं और उस पूर्ति परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वह किरण में ही प्रकाशित हुआ है । इस लेख में उन्होंने वहां उस विषयको त्रुटित समझता था; क्योंकि उसका यह स्पष्टरूपसे प्रकट किया है कि ग्रंथमें 'शब्दाद्वैत' की वह कथन प्रकृत गाथाको व्याख्या न होकर कथनका परीक्षाका पूरा प्रकरण छूटा हुआ है, 'पुरुषाद्वैत' की पूर्वापरसम्बन्ध मिलानेकी दृष्टिको लिये हुए है। यदि समाप्ति पर एक पंक्तिके लायक स्थान छोड़कर 'विज्ञा. मूल ग्रंथमें कथन सुसम्बद्ध होता तो संस्कृत टीकाकारके नाद्वैत' की परीक्षा प्रारम्भ कर दीगई है, जब कि दोनों लिये त्रुटित गाथाओं वाले विषयको अपनी टीकामें देने के मध्य में क्रमप्राप्त 'शब्जाद्वैत' की परीक्षा होना की कोई जरूरत नहीं थी। चाहिये थी । आरा की जिस प्रति परसे उन्होंने परि- एक उदाहरण द्वारा मैं इस विषयको और भी स्पष्ट चय दिया है उसमें एक पंक्तिके करीब जो स्थान छुटा कर देना चाहता हूँ। और वह यह है कि-श्री अमृत हुश्रा है वह इस बातको सूचित करता है कि मध्यका चन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य दोनोंने 'समय-सार' तथा भाग नहीं लिखा जा सका, जिसका कारण उस अंशके 'प्रवचन-सार' की टीकाएँ लिखी हैं, जिनमें से अमृतचन्द्र पत्रोंका त्रुटित हो जाना आदि ही हो सकता है। पारा की टीकाएँ पहलेकी बनी हुई हैं । परन्तु दोनों प्राचार्यों
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वर्ष ३ किरण १२]
गो० कर्मकांडकी त्रुटि पर्तिके विचार पर प्रकाश
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की टीकाओं में मूल गाथाओं की संख्या एक नहीं है। 'चिरकालं' पदके आगे पीछे आशीर्वादात्मक कोई अमृतचन्द्राचार्यकी समय-सार टीकासे जयसेनाचार्यकी पद भी नहीं है। संभव है कि इसका मूलरूप कुछ समय-सार टीका में २८ गाथाएँ अधिक हैं, और अमृत- दूसरा ही रहा हो और यह अन्तमें किसी चन्द्राचार्य की प्रवचनसार टीकासे जयसेनकी प्रवचन-सार प्रकारसे प्रक्षिप्त होकर कर्मकाण्डमें रक्खी गई हो। टीकामें २२ गाथाएँ अधिक हैं । अब प्रश्न होता है कि चामुण्डरायकी बनाई हुई वैसी कोई टीका इससमय यदि वे गाथाएँ जो जयसेनाचार्य की टोकामें अधिक उपलब्ध नहीं है और न उक्त गाथाके आधारके पाई जाती हैं मूज ग्रन्थकी गाथाएँ हैं तो क्या फिर अतिरिक्त दूसरा कोई स्पष्ट प्रमाण ही उसके आचार्य अमतचन्द्रने उन्हें जान बूझकर छोड़ दिया है ? रचे जानेका देखने में आता है। थोड़ी देरके लिये और यदि जान बूझकर नहीं छोड़ा तो उन्हें अपनी यदि यह मान भी लिया जाय कि चामुंडरायने टीकामें क्यों नहीं दिया ? और यदि वे गाथाएँ लिपि- उसी समय गोम्मटसार कम काण्ड पर कोई टीका कारोंसे छूट गई थीं तो क्यों उनकी पूर्ति नहीं की? लिखी थी तो भी यह कैसे कहा जा सकता है कि और यदि वे मूल ग्रंथकी गाथाएं नहीं हैं तो जयसेना- ३००-४०० वर्षके पीछे बनो हुई केशववर्णीकी चार्यने उन्हें क्यों मूलग्रंथ की गाथा प्रकट किया ? इन कनडीटीका बिल्कुल उसीके आधार पर बनी हैप्रश्नोंके उत्तर. परसे ही ग्रोफेसर साहब के उक्त कथनका उन्हें वह देशी टीका प्राप्त थी और उसमें उस वक्त सहज-समाधान हो जाता है।
तक कोई अंश त्रुटित नहीं हुआ था ? अथवा इस कर्मकाण्डसे गाथाओंके न छूटनेकी एक युक्ति लम्बे चौड़े समय के भीतर उस देशी टीकाकी प्रति प्रोफेसर साहबने यह भी दी है कि-गोम्मटसार और दूसरी मूल प्रतियोंमें, जो केशववर्णीको की टोकाकी परम्परा उसके कर्ता के जीवनकाल में अपनी टीका के लिये प्राप्त हुई थीं, मूल पाठ अविही, ग्रन्थकी रचनाके साथ साथ ही प्रारम्भ हो कल रूपमे चला आया था और उसमें किसी भी गई थी अर्थात चामुण्डरायने उसकी देशी (टीका) कारणवश कोई गाथा त्रुटित नहीं हुई थी ? प्रस्तुत कर डाली थी, उसमे कोई ३०० वर्ष पश्चात् केशव- संस्कृत टीका तो केशववर्णीकी टीकासे कोई१५०वर्ष वर्णीने कनड़ी टीका लिखी और फिर कनड़ी टीका बाद बनी है; क्योंकि इसके कर्ता नेमिचन्द्र भट्टारक के आधार परसे वह 'जोवतत्त्वप्रबोधनी' टीका ज्ञानभूषण के शिष्य थे और ज्ञानभूषण का अस्तिलिखी गई, जिस टीकाकी प्रशस्तिक कुछ वाक्य त्व वि० सं० १५७५ तक पाया जाता है * । तथा
आपने उद्धृत किये हैं। चामुण्डराय द्वारा देशीके केशववर्णीकी टीका.शक सं० १२८१ (वि० सं० लिखे जानेकी एक गाथा भी आपने उद्धृत - की है, जो कर्मकाण्ड में अंतिम गाथाके रूपसे सं० १५७५ में ज्ञानभूषण भट्टारकको ज्ञानादर्ज है, और जो अपनी स्थिति परसे बहुत कुछ वकी एक प्रति ब्रह्म तेजपालने लाकर भेंट की थी, ऐसा संदिग्ध जान पड़ती है। क्योंकि उसमें प्रयक्त हुए मुख्तारसाहबके ऐतिहासिक खातोंके रजिष्टरपरसे मालूम 'जा' पद का कोई सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता और होता है।
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७६०
अनेकान्त
[ आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६
कितनी कितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं यह बतलाते हुए उत्तर प्रकृतियों की कुल संख्या १४८ दी है; परन्तु इन १४८ प्रकृतियों में से बहुत कम प्रकृतियों के नामादिकका वर्णन दिया है, और जो वर्णन दिया है वह अपने कथन के पूर्व सम्बन्ध के बिना बहुत कुछ खटकता हुआ जान पड़ता है, इस बातको मैंने अपने पूर्व लेख में विस्तार के साथ प्रकट किया था । एक ग्रन्थकार खास प्रकृतियोंका अधिकार लिखने बैठे और उसमें सब प्रकृतियों के नाम तक भी न देवे यह बात कुछ भो जो को लगती हुई मालूम नहीं होती । प्रकृति-विषयक जो अधिकार पंचसंग्रह प्राकृत, पंच संग्रह संस्कृत और धवलादि ग्रंथों में पाये जाते हैं उन सबमें भी कर्मकी १४८ प्रकृतियों का नामोल्लेख पूर्वक वर्णन पाया जाता है । इससे मुद्रित कर्मकांडके उक्त अधिकार में सम्पूर्ण उत्तर प्रकृतियों का वर्णन न होना जरूर ही उसके त्रुटित होने को सूचित करता है । प्रोफे.. सर साहबने इस बात पर कोई खास लक्ष्य न देकर जैसे तैसे यह बतलाने की चेष्टा की है कि यदि उक्त गाथाएँ इस ग्रन्थ में न रहें तो कोई विशेष हानि नहीं । कहीं तो आपने यह लिख दिया है कि अमुक "गाथाओं की कोई विशेष आवश्यकता दिखाई नहीं देती," कहीं यह कह दिया है कि अमुक "गाथाएँ २१ वीं गाथाके स्पष्टीकरणार्थटीकारूप भले ही मान ली जावें किन्तु सारग्रन्थ के मूलपाठ में उनकी गुंजाइश नहीं दिखाई देती," कहीं यह भी लिख दिया है कि अमुक "गाथाओं के न रहने से कोई बड़ा प्रकाश व अन्धकार नहीं उत्पन्न होता, " कहीं यह सूचित किया है कि अमुक गाथाका आशय अमुक गाथासे निकाला
१४१६ ) में बनकर समाप्त हुई थी। ऐसी हालत में यह अनुमान करना निरापद् नहीं हो सकता कि इन टीकाओं में चामुण्डरायकृत देशीका आश्रय लिया गया है। बाकी यह कल्पना तो प्रोफ़ेसर साहबकी बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है कि “जहाँ (जिस चित्रकूट में ) यह (संस्कृत) टीका रची गई थी वह संभवतः वही चित्रकूट था जहाँ सिद्धान्ततत्त्वज्ञ एलाचार्यने 'धवला' टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढ़ाया था, ऐसी परिस्थिति में यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त टीकाके निर्माणकालमें व उससे पूर्व कर्मकांड में से उसकी आवश्यक अंगभूत कोई गाथाएँ छूट गई हों या जुदी पड़ गई हों” ! क्योंकि वह चित्रकूट आज भी मौजूद है, आज यदि कोई वहाँ बैठकर ग्रन्थ बनाने लगे तो क्या उसके सामने वह सब दफ्तर अथवा साधन सामग्री- मय शास्त्रभंडार मौजूद होगा, जो एलाचार्य और वीरसेन के समयमें था ? यदि नहीं तो एलाचार्य के और वीरसेनसे कोई सातसौ वर्ष पीछे टीका बनाने वाले नेमिचन्द्र के सामने वह सब दफ्तर अथवा शास्त्र - भंडार कैसे हो सकता है ? यदि नहीं हो सकता तो फिर उस चित्रकूट स्थान पर इस टीकाके बनने मात्र से यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह जिस कर्मकाण्डकी टीका है उसमें उसके बनने से पहले कोई गाथाएँ त्रुटित नहीं हुईं थीं । अतः पहली बात जो प्रोफेसर साहबने विरोध में कही है वह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती ।
(२) मुद्रित कर्मकाण्डके प्रथम अधिकार 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' में कर्मकी मूल आठ प्रकृतियोंके नामादिक दिये हैं और प्रत्येक मूलप्रकृतिको
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वर्ष ३, किरण १२]
गोकर्मकांडको त्रुटि पूर्तिके विचार पर प्रकाश
जा सकता है-परिशेष न्यायसे अमुक गाथाका लगा कर स्पर्श तक पचाश कर्म प्रकृतियाँ होती आशय लिया जा सकता है, और हैं।" जैसा कि प्रोफेसर साहबने समझ लिया एक स्थान पर यहाँ तक भी लिखा है कि "यहाँ है, बल्कि कथनका आशय यह है कि देहसे स्पर्श तथा आगामी त्रुटि-पूर्ण अँचने वाले स्थलों पर पर्यंत जो प्रकृतियाँ होती हैं उनमें से ५० प्रकृतियाँ कर्ताका विचार स्वयं भेदोपभेदों के गिनानेका यहाँ पुद्गलविपाकीके रूपमें ग्रहणकी जानी नहीं था। वह सामान्य कथन या तो उनकी रचना चाहिये । शरीर मे सशं पर्यंत प्रकृतियोंकी संख्या में आगे पीछे आचुका है या उन्होंने उसे सामान्य जरूर ५२ होती है और उनमें विहायोगतिकी जानकर छोड़ दिया है"। परन्तु यह कहीं भी प्रशस्त-अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकृतियाँ भी शामिल हैं; नहीं वताया कि उक्त गाथाओंको ग्रन्थमें त्रुटित परन्तु ये दोनों प्रकृतियां कर्मकाण्डकी ४९-५० नं० मानकर शामिल कर लेनेमें क्या विशेष बाधा की गाथाओंमें जीवविपाकी प्रकृतियोंको संख्यामें उत्पन्न हो सकती है ? सिर्फ एक स्थल पर थोड़ा. गिनाई गई हैं। इस विशेष विधानके अनुसार सा विरोध प्रदर्शित किया है, जो वास्तवमें विरोध उन ५२ प्रकृतियोंमेंसे इन दो प्रकृतियोंको, जो कि न होकर विरोध-सा जान पड़ता है और जिसका उस वर्गकी नहीं हैं-पुद्गलविपाकी नहीं हैंस्पष्टीकरण इस कार है:
निकाल देने पर शेष प्रकृतियाँ ५० ही रह जाती हैं, कर्मकांडमें 'देहादी फासंता परणासा' नामकी जिनकी गणना पुद्गलविपाकी प्रकृतियां की गई एक गाथा नं ४७ पर है, जिसमें पुद्गलविपाकी है। चुनाँचे कर्मप्रकृति ग्रन्थके टिप्पणमें भी, जो ६२ प्रकृतियोंकी गणना करते हुए देहसे स्पर्श सं० १५२७ को लिखी हुई शाहगढ़की प्रति पर पर्यंत नामकर्मकी जो प्रकृतियाँ हैं उनमेंसे पचास पाया जाता है, ऐसा ही आशय व्यक्त किया गया प्रकृतियोंके ग्रहण करने का विधान है । इस गाथा है । यथाःको लेकर प्रोफेसर साहब यह आपत्ति करते हैं- देहादिस्पर्शपयंतप्रकृतीनां मध्ये विहायोगति व्याकृत्य ____ "कर्मकांडकी गाथा नं० ४७ में स्पष्ट कहा है शेषपंचाशत् प्रकृतीनां संख्याऽत्र वाक्ये विवक्षिता" कि देहस लेकर स्पर्श तक पचास प्रकृतियाँ होती हैं इससे स्पष्ट है कि गाथा नं० ४७ के जिस किन्तु कर्मप्रकृतिकी गाथा नं० ७५ में दो प्रकारकी आशयको लेकर प्रोफेसर साहबने जो आपत्ति विहायोगति भी गिना दी गई है, जिससे वहाँ खड़ी की है वह उसका आशय नहीं है और शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या ५२ हो गई इसलिये वह आपत्ति भी नहीं बन सकती। है, अब यदि इन (७५ से २ तक ) गाथाओंको यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना हम कर्मकांड में रख देते हैं तो गाथा नं०४७ के चाहता हूँ कि प्रोफेसर साहबने गोम्मटसारको वचनसे विरोध पड़ जाता है।"
जिस अर्थमें सार प्रन्थ समझा है उस अर्थमें वह . यह आपकी आपत्ति ठीक नहीं है क्योंकि सार ग्रन्थ नहीं है, वह वास्तवमें एक संग्रह ग्रंथ है, गाथा नं० ४७ में यह नहीं कहा गया कि-"देहसे जिसे मैं 'गोम्मटसार संग्रह ग्रन्थ है' इस शीर्षकके
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अनेकान्त
पुनः
अपने लेख (अनेकान्त वर्ष ३, किरण ४,५०२९७ ) में विस्तार के साथ प्रकट भी कर चुका हूँ । मूल ग्रन्थ में भी 'गोम्मटसंगहसुत्त' नामसे ही उसका उल्लेख है । उसमें अनेक गाथाएँ दूसरे ग्रन्थों पर से संग्रह की गई हैं और अनेक गाथाओंको कथन-प्रसंग की दृष्टि से पुन: पुन: भी देना पड़ा है । इसलिये 'कर्मप्रकृति' की उन ७५ गाथाओं में से यदि कुछ गाथाएँ 'जीव काण्ड' में आ चुकी हैं तो इससे उनके कर्मकाण्ड में आजाने मात्र से पुनरावृत्ति-जैसी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती; क्योंकि कर्मप्रकृति की गाथाको छोड़कर कर्मकाण्ड में दूसरी भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो पहले जीवकाण्ड में आ चुकी हैं, जैसे कर्मकाण्ड के 'त्रिकरणचूलिका' नामके अधिकारकी १७ गाथाओं में से ७ गाथाएँ पहले जी काण्ड में चुकी हैं । इसके सिवाय, खुद कर्मकाण्ड में भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो कर्मकाण्ड में एक से अधिक स्थानों पर उपलब्ध होती हैं । उदाहरण के लिये जो गाथाएँ १५५ नं० से १६२ नं० तक पहले आ चुकी हैं वे ही गाथाएँ पुनः नं० ९१४ से ९२१ तक दी गई हैं। और कथनों की पुनरावृत्तिकी तो कोई बात ही नहीं, वह तो अनेक स्थानों पर पाई जाती है । उदाहरण के लिये गाथा नं० ५० में नामकर्म की जिन २७ प्रकृतियों का उल्लेख है उन्हें ही प्रकारान्तर से नं० २१ की गाथा में दिया गया है । ऐसी हालत में उन ७५ गाथाओं मेंसे कुछ गाथाओं पर पुनरावृत्तिका आरोप लगा
* वे ७ गाथाएँ जीवनकांडमें नं० ४७, ४८, ४६, ५०, ५३, ५६, ५७, पर पाई जाती हैं; और कर्मकांड नं० ८७, ८, १६, १०८, १०, ११, ११२ पर उपलब्ध होती हैं ।
: [ आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६
कर यह नहीं कहा जा सकता कि वे कर्मकाण्डकी गाथाएँ नहीं हैं अथवा उनके कर्मकाण्ड में शामिल होनेसे कोई बाधा आती है।
चूंकि हाल में 'कर्मकाण्ड' की ऐसी प्रतियाँ भी उपलब्ध हो गई है जिनमें वे सब विवादस्य ७५ गाथाएँ मौजूद हैं जिन्हें 'कर्मप्रकृति' परसे वर्तमान मुद्रित कर्मकाण्ड के पाठ में शामिल करने के लिये कहा गया था, और उन प्रतियोंका परिचय आगे इस लेखमें दिया जायगा, अतः इस नम्बर पर मैं और अधिक लिखने की कोई जरूरत नहीं समझता ।
( ३ ) जिस कर्म प्रकृति ग्रन्थके आधार पर मैंने ७५ गाथाओंका कर्मकाण्ड में त्रुटित होना बतलाया था उसमें मैंने गोम्मटसारकी अधिकांश गाथाओं को देखकर कर्ताका निश्चय नहीं किया था बल्कि उसमें कर्ताका नेमिचन्द्र सिद्धान्ती, नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ऐसा स्पष्ट नाम दिया हुआ है । सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से भिन्न दूसरे नहीं कहलाते । इसके सिवाय, हाल में शाहगढ़ जि० सागर के सिंघईजी के मन्दिर से 'कर्मप्रकृति' की सं० १५२७ की लिखी हुई जो एकादशपत्रात्मक टिप्पण प्रति मिली उसकी अन्तकी पुष्पिका कर्ताका नाम स्पष्टरूप से नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती दिया हुआ है और साथ ही उसे कर्मकांडका प्रथम अंश भी प्रकट किया है जिससे दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं- ए - एक तो यह कि कर्मप्रकृति नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तिकी ही कृति है और दूसरी यह कि वह नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की कोई भिन्नकृति नहीं है बल्किवह उनकी प्रधानकृति कर्मकाण्डका ही प्रथम अंश है और इसलिये
मैं जिस कर्मप्रकृति के आधार पर मुद्रितकर्मकाण्ड में
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वर्ष ३, किरण १२]
गोकर्मकांड की त्रुटि-पूर्तिके विचार पर प्रकाश
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७५ गाथाओंका त्रुटित होना बतलाया था उसमें शाहगढ़ के उक्त मंदिर-भण्डारसे कर्मकाण्डकी अब कोई सन्देह बाको नहीं रहता। कर्मप्रकृतिकी भी एक प्रति मिली है, जो अधूरी है और जिसमें उस प्रतिका वह अंतिम अंश, जिसके साथ ग्रन्थ. शुरूके दो अधिकार पूरे और तीसरे अधिकारकी प्रति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार है.- कुल ४० गाथाओं में से २५ गाथाएँ हैं । यह ग्रन्थ
"इति श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तञ्चक्रवर्तिविरचितकर्म- प्रति बहुत जीर्ण-शीर्ण है,हाथ लगानेसे पत्र प्रायःटूट काण्डस्य प्रथमोंशः समाप्तः। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः जाते हैं । इसका शेष भाग इसी तरह टूट-टाट कर अथ संवत ११२० वर्षे माघवदी १४ रविवासरे नष्ट हुआ जान पड़ता है । इसके पहले 'प्रकृति
यहाँ पर इस कमप्रकृतिको प्रति की विशेषताके समुत्कीर्तन' अधिकारमें भी १६० गाथाएँ हैं, सम्बन्धमें इतना और भी नोट कर देना आवश्यक प्रत्येक गाथा पर अलग अलग नं० न देकर अधिहै कि इसकी टिप्पणियों में 'सिय अस्थि णस्थि' और कार के अन्त में १६० नं० दिया है । इस प्रकरणमें 'घम्मा-वंसा-मेघा' इन दो गाथाओंको प्रक्षिप्त
भी उक्त कर्मप्रकृति वाली ७६ गाथाएँ (७५+१) सूक्षित किया है और उन्हें सिद्धान्तगाथा बताया
ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। है, जिनमें से 'सिय अस्थि णस्थि' नामकी गाथा
___कर्मकांडकी एक दूसरी प्रति, जिसकी पत्र कुन्द कुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय' की १४ नं० की
संख्या ५३ है और जो सं० १७०४ में मुगल बादगाथा है । साथ ही,इस प्रकरणकी कुल गाथाओंकी
शाह शाहजहाँके राज्यकालमें लिखी हुई है अपने संख्या १६० दी है अर्थात आरा-सिद्धान्त भवनकी
घर पर ही पिताजीके संग्रहमे उपलब्ध हुई है । प्रतिसे इसमें निम्न एक गाथा अधिक है:
यह संस्कृतटीका-सहित है । इसमें कर्मकाण्डका
प्रथम अधिकार ही है, गाथा संख्या १६० दी है वराण-रस-गंध फासा-चर चउ इग-सत्त सम्ममिच्छत्त ।
और इसमें भी वे ७६ गाथाएँ ज्योंकी त्यों पाई होति प्रबंधा-बंधण पण-पण संघाद-सम्मत्तं ॥
जाती हैं। संस्कृत टीका ज्ञानभूषण-सुमतिकीर्ति यहाँ पर यह बात भी नोट कर लेने की है कि की बनाई हुई है। इसके अन्तके दो अंश नीचे कर्मप्रकृतिको यह प्रति जिस सं० १५२७ की लिखी दिये जाते हैं:हुई है उसी वक्त के करीबकी बनी हुई नेमिचन्द्रा
"इति सिद्धांतज्ञानचक्रवर्तिश्रीनेमिचन्द्रविरचित. चार्यकी 'जीवतत्वप्रबोधनी' नामको संस्कृत टीका है, जिसके वाक्योंको प्रोफेसर साहबने उद्धृत
कर्मकांडस्य टीका समाप्तं (सा) ॥" किया है और यह कल्पनाकी है कि उसका वर्तमान
“मूलसंघे महासाधुर्लघमीचंद्रो यतीश्वरः। : में उपलब्ध होने वाला पाठ पूर्व-परम्पराका पाठ तस्य पादस्य वीरेंदुर्विबुद्धो विश्ववेदितः ॥ १॥ है । और इससे यह मालूम होता है कि कर्मकांडके तदन्वये दयांभोधिनिभूषो गुणाकरः। प्रथम अधिकारमें उक्त ७५ गाथाएँ पहलेसे हो टीका हि कर्मकांडस्य चक्र सुमतिकीर्तियुक् ॥ २॥" संकलित और प्रचलित हैं।
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अनेकान्त ..
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
"भट्टारक श्रीज्ञानभूषणनामांकिता सूरिसुमति- लखने में कुछ भी सार मालम नहीं होता किकीतिविरचिता कर्मकांडटीका समाप्ता ॥ ॥ संवतु “यदि वह कृति ( कर्मप्रकृति ) गोम्मटसारके कर्ता १७०४ वर्षे जेठ बदि १४ रविदिवसे सुभनक्षित्रे की ही है तो वह अब तक प्रसिद्धिमें क्यों नहीं श्रीमूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्री आई ।"वह काफी तौरसे प्रसिद्धि में आई जान पड़ती
आचाये कुंदाकुंदान्वये श्रीब्रह्मजिनदासउपदेसे है । इस विषयमें मुख्तार साहब ( सम्पादक धर्मापुरी अस्थाने मालवदेसे पातिसाहि मुगल 'अनेकान्त')से भी यह मालूम हुआ है कि उन्हें बहुत श्री साहिजहां ॥"
से शास्त्र भण्डारोंमें कर्मप्रकृति नामसे कर्मकाण्डके . कर्मकाँडकी तीसरी प्रति पं० हेमराजजीकी प्रथम अधिकारको प्रतियोंको देखने का अवसर भाषोटीकासहित, तिगोड़ा जि० सागर के मंदिरके मिला है। शास्त्रभंडारसे मिली है, जो संवत् १८२९ की ,
इस सम्पूर्ण विवेचन और प्रतियों के परिचयकी लिखी हुई है, पत्र संख्या ५४ है । यह टीका भी रोशनी परसे मैं समझता हूँ इस विषयमें अब कोई कर्मकाण्डके प्रथम अधिकार 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन'की सन्देह नहीं रहेगा कि कर्मकाण्डका मुद्रित प्रथम है और इसमें भी १६० गाथाएँ हैं जिनमें उक्त ७६ अधिकार जरूर त्रुटित है, और इसलिये प्रोफेसर गाथाएँ भी शामिल हैं।
साहबने मेरे लेख पर जो आपत्तिकी है वह किसी कर्मप्रकृतिकी अलग प्रतियों और कर्मकाण्डकी
र तरह भी ठीक नहीं है। आशा है प्रोफेसर साहब उक्त प्रथमाधिकारकी टीकाओं परसे यह स्पष्ट है
का इससे समाधान होगा और दूसरे विद्वानोंके कि कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारका अलग रूपमें ।
हृदयमं भी यदि थोड़ा बहुत सन्देह रहा होतो वह बहुत कुछ प्रचार रहा है । किसीने उसे 'कर्मप्रकति भी दूर हो सकेगा। विद्वानोंको इस विषय पर के नामसे किसीने 'कर्मकाण्ड के प्रथम अंश'के नामसे अब अपनी स्पष्ट सम्मति प्रकट करनेकी जरूर
और किसीने 'कर्मकाण्ड' के ही नामसे उल्लेखित कृपा करना चाहिय । किया है। ऐसी हालतमें प्रोफेसर साहबके इस वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-१०-१९४०
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निवेदन
इस १२वीं किराके साथ 'अनैकान्त' के कृपाल ग्राहकों द्वारा भेजा हुआ शुल्क समाप्त हो गया है। अब देहली से 'अनेकात' का प्रकाशन बंद किया जी रही है । अतः अनेकान्त' के स
}
पत्र व्यवहार उसके सम्पादक पं० जुगल किशोरजी मुख्तारं श्रधिष्ठाता 'वीरसेवामंदिर' सरसावा जिοसहारनपुर से करना चाहिये। इन दो वर्षो में अनेक व्यवस्था सम्बंधी जी अनेक भूल हुई हैं उनके लिये में क्षमा प्रार्थी हूँ ।
moro गीयलीय,
911471
व्यवस्थापक
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________________ Registered. No. L. 4328 क्रान्तिकारी ऐतिहासिक पुस्तकें [ले. अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] 1. राजपूतानेके जैनवीर अतीत गौरवके एक अंशका चित्र अंकित हुए पढ़ने के लिये हाथ भरके कलेजे की जरूरत बिना न रहेगा। ऐसा कौन अभागा भारतवासी है। मदोंकी बात जाने दीजिये भीरु और कायर होगा जो अयोध्याप्रसादजी गोयलीयकी लिखी भी इसे पढ़ते पढ़ते मैंछों पर ताव न देने लगें तो भारतकी करीब साढ़े बाईससौ वर्ष पुरानी इस हमारा जिम्मा / राजपूतानेमें जैनवीरोंकी तलवार सारगर्भित और सच्ची गौरव-गाथाको सुनकर कैसी चमकी ? धनवीरोंने सरसे कफन बान्धकर उत्साहित न होगा।" पृष्ठ 173 मू० छह पाना / आतताइयोंके घुटने क्योंकर टिकवाये ? धर्म और 3. हमारा उत्थान और पतन- . देशके लिये कैसे कैसे अभूतपूर्व बलिदान किये, “चान्द" के शब्दोंमें--"इस पुस्तकमें महाभारत यही सब रोमांचकारी ऐतिहासिक विवरण 352. से लेकर सन् 1200 ईस्वी तकके भारतीय इतिहास पष्टोंमें पढिये। सचित्र, मूल्य केवल दो काया। . पर एक दृष्टि डाली गई है। भारतवासियोंके चारि त्रमें जो त्रुटियाँ उत्पन्न हो गई थीं और जिनके 2. मौर्य साम्राज्यके जैनवीर--- कारण उनको विदेशियोंके सन्मुख पदानत होना / भूमिका-लेखक साहित्याचार्य प्रो० विश्वेश्वर- पड़ा उन पर मार्मिकताके साथ विचार किया गया नाथ रेउके शब्दोंमें-"इस पुस्तककी भाषा मनको है। पुस्तक पठनीय है और अत्यन्त सुलभ मूल्यमें फड़काने वाली, युक्तियाँ सप्रमाण और ग्राम तथा बेची जाती है।" "विश्वामित्र' लिखता हैविचारशैली साम्प्रदायिकतासे रहित समयोपयोगी "पुस्तककी भाषा सजीव और दृष्टिकोण सुन्दर और उच्च है / हमें पूर्ण विश्वास है कि इसे एक है। यह काफी उपयोगी पुस्तक है / " "भारत बार आद्योपान्त पढ़ लेनेसे केवल जैनोंके ही नहीं कहता है--"लेखककी लेखनीमें भोज और प्रवाह प्रत्युत भारतवासी मात्रकेहृत पटपर अपने देशके पर्याप्त मात्रामें है।" पृष्ठ 144 मू० छह आना। स्फूर्तिदायक जीवनज्योति जगाने वाली पुस्तकें 4. अहिंसा और कायरता मूल्य० एक आना 7. क्या जैन समाज जिन्दा है ? मू० एक आना , 5. हमारी कायरताके कारण " " 8. गौरव-गाथा " " 6. विश्वप्रेम सेवाधर्म " " 6. जैन-समाजका ह्रास क्यों ? " छह पैसा यदि यह पुस्तकें आपने नहीं देखी हैं तो आज ही मंगाइये, मन्दिरों, पुस्तकालयों, साधुओंको * भेटस्वरूप दीजिये, उपहारमें बाटिये जैनेतरोंमें बाँटिये / व्यवस्थापक-हिन्दी विद्यामन्दिर, पो०बो० नं०४८, न्यू देहली। वीर प्रेस आफ इण्डिया, कनॉर सर्कस, न्यू देहनी /