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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
इस प्रकार उल्लेख देखनेमें आता है, यह बात लघुबन्धुका विशेषणा देता है। खास ध्यानमें रखने योग्य है । हम इस ग्रन्थको इससे उम्र सम्बन्धी शंका फिर विशेष मजबूत यदि इनकी प्राथमिक कृति के रूपमें मानलें, तो हो जाती है। आचार्यश्रीने अपनी १५ वर्ष लगभगकी किशोर वीर निर्वाण संवत ९८० ( वाचनांतर ९९३) अवस्थामें ग्रन्थरचना की शुरुआत की होगी ओर- वर्ष में देवगिणि* क्षमा श्रमणने पुस्तक लिखवाने तेहि नाणबलेण बराहमिहरवंतरस्स दुचिट्ठ नाऊण- की प्रवृत्ति प्रारम्भ की, उस समय उसने यह सिरिपास सामिणो 'उवसग्गहर'थवणं काऊणसंघकए स्थविरावली (पट्टावली) बनाई है, ऐसा भी मानने पेसियं
-संघति०-सम्यक्त्वस० में आता है। परन्तु यह मान्यता दोष रहित नहीं इस वर्णनकी तरफ लक्ष्य खींचनेसे वराह- है। दूसरेके किये हुए ग्रन्थमें दूसरेके प्रकरण वगैरह मिहरके अवसान ( ई० सं० ५८५) के चार पाँच को जोड़ने में उस ग्रन्थकी महत्ताको हानि पहुँचती वर्ष बाद तक आचार्यश्री जीवित रहे होंगे, ऐमा है, ऐसा कार्य शिष्ट पुरुष कभी भी नहीं करते। मानिए तो इनकी कुल आयु १२५ वर्षसे ऊपर और थोड़े समय के लिये हम स्थविरावलिको देवर्द्धिगणि१५०के बीचकी निर्धारित की जा सकती है। परन्तु क्षमाश्रमण कृत मान भी लें तो फिर उसके अन्तमें इतनी लम्बी आयके लिये शंकाको ठीक स्थान दी हुईमिलता है।
सुत्तत्त्थरयणभरिये खमदममद्दवगुणेहि संपुगणे । वराहमिहरने ई० स०५०५ से गणितका काम
देवड्डि खमासमणे कासवगुते पणिवयामि ॥ . करना प्रारम्भ किया और वह ई० स० ५८७ तक इस गाथाकी क्या दशा होवे ? कोई भी जीवित था, उसने लगभग १५-२० वर्षकी अवस्था विद्वान स्वयं अपने लिये ऐसे शब्दोंको क्या उच्चारण में यदि कार्य प्रारम्भ किया हो तो उसकी उम्र भी करेगा ? इसलिये यह गाथा जरूर अन्यकृत १०० वषसे ऊपरकी कल्पित की जा सकती है। माननी पड़गा। श्री भद्रबाहु उससे बीस तीस वर्ष बड़े हों तो नीट
" श्रीभद्रबाहुनामानं जैनाचार्य कनीयांस सोदरम् । उपर्युक्त आयुका मेल बराबर बैठ जाता है । परन्तु
-प्रबन्धचि० सर्ग ५ प्रबन्धचिन्तामणिकार ( मेरुतुगाचार्य ) इनको
* एतत्सूत्रं श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः प्रक्षिप्तविक्कमरज्जरम्भा पुरओ सिरिवीरनिव्वुइ भणिया । मिति क्वचित् पर्यषणाकल्पाव चूर्णी, तदभिमात्रेण सुन्नमुणिवेद्य(४७०) जुत्तं विक्कमकालाउ जिणकानें श्रीवीरनिर्वाणात नवशताशीतिवर्षातिक्रमे सिद्धान्तं विक्कमरज्जाणंतर तेरसबासेसु (१३ ) वच्छरपक्ती। पुस्तके न्यसद्भिः श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः श्रीपर्यषसिरिवीरमुक्खो सा चउसयतेसीइं (४८३)वासा र णकल्पस्यापि वाचना पुस्तके न्यस्ता तदानीं पुस्तक जिणमुक्खा चउवरिसे(४)परामरो दूसम उय सजाओ लिखनकालज्ञापनायैतत् सूत्रं लिखितमिति । अरया चउसयगुणसी (४७६) वासेहि विक्कम वासं ॥ -कल्पदीपिका (सं० १६७७ ) जयविजय