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वर्ष ३, किरण १२]
श्रीभद्रबाहु स्वामी
६८.
करता, इसलिये नियुक्तिकार भद्रबाहुका समय वीर उपलब्ध होते हैं। उनमें अन्तका ग्रन्थ खगोल निर्वाणसं १७० वर्ष बाद नहीं हो सकता। शास्त्रका व्यावहारिक ज्ञान कराने वाला 'पंचसिद्धाश्री संघतिलक सूरिकृत सम्यक्त्वमप्ततिका
. न्तिका' है। उसमें उसका रचनाकाल शक संवत
४२७ बताया है। वृत्तिक, श्री जिनप्रभसूरिकृत 'उपसर्गहरें' स्तोत्र
देखो, उमकी निम्न लिखित आर्यावृत्ति तथा मेरुतुंगाचार्यकृत प्रबन्ध चिन्तामणि वगैरह श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें भद्रबाहुका प्रखर
सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । ' ज्योतिषी वराहमिहरके भाईके तौर पर वर्णन किया
अर्धस्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये ॥ है । वराहमिहरके रचे हुए चार ग्रन्थ । इस समय
वराहमिहरका समय ईस्वी सन्की छठी
शताब्दी है (५०५ से ५८५ तक)। इससे भद्रबाहुका * तत्थ य चउदस विज्जाठाणपारगो छक्कम्म
समय भी छठी शताब्दी निर्विवाद सिद्ध होता है । मम्मविऊ ‘पयईए' भद्दों 'भद्दबाहू' नाम 'माहणो
___ श्री भद्रबाहु स्वामी नियुक्ति वगैरह किसी भी हुत्था । तस्स य परमपिम्म सरिसीरुहमिहरो वराह- .
ग्रन्थमें अपना रचनाकाल नहीं बताते हैं; मात्र मिहरो नाम सहोयरो।
कल्प सूत्रमें-संघति० सम्यक्त्व सप्त० वराहमिहरका जन्म उजैनके आस पास हश्रा था। , समएस्स भगवश्री महावीरस्स जाव सवदक्खइसने गणितका काम ई० सन् ५०५ में करना प्रारम्भ प्पहीएस्स नववाससयाइं विइकताइं, दसमस्स य किया था और इसके एक टीकाकारके कथनानुसार
वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ । उसका ई० स०.५८७ में मरण हुअा था।
* वायणंतरे पुण अयं ते एउए संवच्छरे काले -प्रो० ए० मेक्डानल्ड-संस्कृत साहित्यका इतिहास ५६४ गच्छइ। (सूत्र १४८)
। बृहत्संहिता ( जो १८६४-१८६५ की * इस वाक्यका अर्थ कल्पसूत्रके टीकाकार भिन्न Bibiothica Indiea में कर्नने प्रसिद्ध की है भिन्न रीतिसे उत्पन्न करते हैं । परन्तु ठीक हकीकत तो और Journal of Asiatic Society की ऐसी मालूम होती है कि उस समय विक्रम सम्वत् ५१० चौथी पुस्तकमें इसका अनुवाद हुआ है। इसी चालू होगा, और उस विक्रमके राज्यारोहण दिवससे तथा ग्रन्थकी भट्टोत्पलनी टीका के साथकी नई श्रावृत्ति १८९५. सम्वत्सरकी प्रवृत्तिदिवससे गणना सम्बन्धी मत भेद ६७ में एस० द्विवेदीने बनारसमें प्रसिद्ध की है)। होगा । श्री महावीर प्रभुके निर्वाणसे ४७० वर्ष में विक्रम होराशास्त्र ( जिसका मद्रासके सी० आयरने १८८५ राजा गद्दी पर बैठा, उसके बाद १३ में वर्ष में सम्वत्सर में अनुवाद किया है )। लघुजातक ( जिसके थोड़े प्रवर्तीया था, इसलिये विक्रम सम्वत्में ४७० जोड़नेसे वीर भागका वेबर और जेकोबीने १८७२ में भाषान्तर किया सं०९८० अाता है और ४८३ जोड़नेसे ६६३ वर्ष श्राता है) और पंचसिद्धान्तिकाको बनारसमें थीवो और एस. है। इस बात के समर्थन के लिए देखो, कालिकाचार्यकी द्विवेदीने १८८६ में प्रसिद्ध किया है और उसके मोटे परम्परामें होने वाले श्रीभावदेवसूरि द्वारा रचित कालिभाग का अनुवाद भी किया है।
काचार्यको कथाको निम्नलिखित गाथाएं- .