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वर्ष ३, किरण १२]
श्रीभद्रबाहु स्वामी
प्रन्थकार तो एक ही व्यक्ति मानकर हर एक आद्य भद्रबाहु श्री यशोभद्रसूरिके शिष्य थे, प्रसंगको पंचम श्रुतकेवली के नाम पर ही बतलाते हैं चतुर्दशपूर्वधर (पंचमश्रुतकेवली) थे,मौर्यवंशीयां परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिमे देखते हुए और चन्द्रगुप्तके समयमें हुए थे, और उन्होंने वीर अनेक इतर साधनों द्वारा सूक्ष्मावलोकन करते निर्वाण दिवससे १७० वें वर्ष में देवलोक प्राप्त हुए आधुनिक विद्वानोंको भद्रबाहु नामके दो भिन्न किया था। इनके जीवन विषयमें मेरी धारणाके व्यक्ति मालूम होते हैं ।
अनुसार प्राचीनसे प्राचीन उल्लेख परिशिष्टपर्वमें
दृष्टिगोचर होता है । उसमें श्री स्थूलभद्रको पूर्वकी ता है कि-'भद्रबाहुस्वामिनश्चर्तुदशपर्वधरत्वाद्दश- वाचना देनेकी हक़ीक़त है परन्तु नियुक्ति वगैरह पर्वधरादीना न्यनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति? ग्रन्थों तथा वराहमिहरक सम्बन्धमें नाम निशान परन्तु उस समय ऐतिहासिक साधनोंकी दुर्लभता भी नहीं हैं । यदि निर्य क्तियाँ वगैरह उनकी कृति होने के कारण पारंपरिक प्रघोष के अनुसार नियुक्ति होती तो समर्थ विद्वान् श्रीहेमचन्द्राचार्य उनका कारको चतुर्दशपूर्व धरत्वकी कल्पना कर यथामति
उल्लेख किये बिना नहीं रहते। न
. .. शंकाका समाधान करता है। वह अप्रस्तुत होनेसे ।
__ दूसरे भद्रबाहु विक्रमकी छठी शताब्दीमें हो यहाँ नहीं लिखा जाता। दशवैकालिकस्य च नियुक्तिश्चतर्दशपर्व विदा भद्रबाह गये हैं, वे जातिमें ब्राह्मण थे, प्रसिद्ध ज्योतिषी स्वामिना कृता।
वराहमिहर इनका भाई था; परन्तु यह नहीं कहा मलयगिरी, पिण्डनिर्याक्तिवृत्ति जा सकता कि वे किसके शिष्य थे । नियुक्तियां अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधुवर्गस्य आदि सर्वकृतियाँ इनके बुद्धिवैभवमेंसे उत्पन्न नित्योपयोगितांच विज्ञाय चतुर्दशपर्वधरेण श्रीभद्रबाहु हुई हैं । स्वामिना तद्व्याख्यानरूपा 'आभिनिबोहियनाणं प्राचीन मान्यताके अनुसार नियुक्तिकारको सुअनाणं चेव ओहिनाणं च, इत्यादि प्रसिद्धग्रंथरूपा चतुर्दशपूर्वधर कहा जाता है, परन्तु आवश्यक नियुक्ति।
+ चन्द्रगुप्त का राज्यारोहणकाल वीर-निर्वाणसे -मलधारी हेमचन्द्रमूरि-विशेषावश्यकवृ०
१५५ वें वर्ष में है । देखो, परिशिष्टपर्व सर्ग ८ वे का + देखो इतिहासप्रेमी मुनि कल्याणविजयजी द्वारा
निम्नलिखित श्लोक-- लिखी हुई 'वीर निर्वाण-संवत् और जैन कालगणना'
एवं च श्रीमहावीरमुक्तेर्वर्षशते गते । नामकी हिन्दी पुस्तक, तथा न्या० व्या० तीर्थ पं० बेचर
___पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः॥ दास जीवराज-द्वारा संशोधित पूर्णचन्द्राचार्य-विरचित उपसग्गहरं स्तोत्र लघुवत्ति-जिनसूरमुनिरचित प्रियं- वीरमोक्षाद्वर्षशते सप्त्यग्रे गते सति । करनृपकथा समेत में की प्रस्तावना (शारदाविजय- भद्रबाहुरपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ॥ ग्रन्थमाला, भावनगर द्वारा प्रकाशित) ।
परि० स०९, श्लोक ११२