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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
अर्थात्-यह बात सब प्रकारसे सिद्ध है कि अर्थात्-उस मावद्ययोग ( अन्तर्बाह्य हिंसक प्राणियों पर दया करना 'बाह्यव्रत है' और कषायों उपयोग ) के अभाव होनेका नाम ही निवृत्ति का (रागादिकोंका) त्याग करना अंतर्बत है । तथा कहलाती है, उसीका नाम व्रत है । यदि सावद्ययोग यही अन्तर्वत निजात्मापर दयाभाव कहलाता है। की निवृत्ति अंश (अणु ) रूपसे है तो व्रत भी
इमी 'अन्तवत' को 'इंद्रिय निरोधसंयम' अंश ( अणु ) रूपसे है, और यदि मावद्य योगकी और 'वाह्यव्रत' को 'प्राणिरक्षणसंयम' भी कहते निवृत्ति मवीश ( महान् ) रूपम है तो व्रत भी हैं। यथा
सर्वाश । महान् ) रूपमै है। सत्यमक्षार्थसम्बन्धाज्ज्ञानं नाऽसंयमाय तत।
भावार्थ-व्रतक पालकजन दो प्रकारके हैं, तत्र रागादिबुद्धिर्या सयमस्तनिरोधनम् ॥
अणुव्रतक पालक गृहस्थ हैं जिनकी 'उपासक' त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मनः । सज्ञा है, और महान व्रतकं पालक वनस्थ हैं जिनकी न वचो न वपुः क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।। 'साधक-साधु संज्ञा है ।।
-पंचा० २, ११२२-२३ तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह अर्थात-इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्धसे जो अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय, पाँच चारित्र, और ज्ञान होता है वह असंयम नहीं करता है। किन्तु बारह प्रकारकं तप, ये अंतव्रत प्रधान या निवृत्ति इन्द्रिय और पदार्थके सम्बन्ध होने पर यम पदार्थमें प्रधान महान धर्मके अंग हैं। जो राग द्वेष परिणाम होते हैं वे ही असंयमको औषधि, आहार, ज्ञानसाधन और अभय, इन करने वाले हैं। उन राग-द्वेष रूप परिणामोंको -
गृहस्थके व्रतको 'अणुव्रत' कहने से यह नहीं रोकना ही 'इन्द्रिय-निरोध-संयम' है । तथा त्रस
समझना चाहिये कि-अणुव्रती गृहस्थको हिंसा स्वरूप और स्थावर जीवोंको मारने के लिये मन वचन
पांच पाप अणुप्रमाण अंशमें करनेकी तो मनाई है और कायकी कभी प्रवृत्ति नहीं करना ही प्राणि संरक्षण'
शेष अंशमें करनेकी छुट्टी है । ऐसा समझ लेने या प्रगट संयम है।
होनेसे तो हम दो तरहसे अपना अहित कर बैलेंगे। ____ एक खुलासा और है कि अहिंसाधर्म-व्रत
एक तो हम पंच पाप करनेमें अधिकांशमें प्रवृत्त हो के पालक दो तरहके होते हैं । यथा -
जायेंगे, दूसरे राजन्यायालय हमारी ज़बानका एतबार तस्याभावोनिवृत्तिः स्याद् व्रतं चार्थादिति स्मृतिः ।
' ' नहीं करेगा, जिससे कि हमारा न मालूम कितने प्रसंगों अंशात्साप्यंशतस्तत्सा सर्वतः सर्वतोपि तत् ॥
पर अहित हो जाना संभव है। अतएव हमें पंच पापोंसे - --पंचा०२-७५२
कमसे कम राज-कानूनकी मंशाके अनुसार तो बराबर
- * दर्शन, ज्ञान और चारित्र 'बन्धके कारण नहीं, (सर्वाशमें ) बचना ही चाहिये । ऐसा करनेसे हम किंतु बंधका कारण राग है।
राज-कानून भंगका फल ( दंड ) भी नहीं पायेंगे और (देखो, पु० सि० श्लोक २१२ से २१४) हमारी राजन्यायालय में वचन-साख भी कायम रहेगी।