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________________ वर्ष ३, किरण १२] पंडितप्रवर पाशाधर परमारवंश-समुद्रके चन्द्रमा श्री देवपाल श्री नेमिनाथ-चैत्यालयमें यह ग्रंथ वि० सं० १२९२ राजाके पुत्र जैतुगिदेव जब अपने खड्गबलसे अव- में सिद्ध हुआ ॥ १२-१३ ॥ खण्डेलवालवंशके महम न्तीका पालन कर रहे हैं तब यह टीका नलकच्छ- (पिता) और कमलश्री (माता) के पुत्र सदृष्टि पुरके . श्रीनेमिनाथ चैत्यालयमें वि० सं० १३०० घीनाककी वृद्धि हो, जिसने इस प्रन्थकी पहली कार्तिक सुदी पंचमी सोमवारके दिन समाप्त प्रति लिखी ॥ १४॥ हुई ॥ ३०-३१॥ ___ इस मुख्य प्रशस्तिसे अधिक जो पद्य अन्य जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिका भावार्य ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में हैं, उनका भी सारांश आगे प्राचीन प्रतिष्ठाशास्त्रोंकी अच्छी तरह चर्चा करके दे दिया जाता है । मूल पद्य मुख्य-प्रशस्तिके नीचे आलोचना करके और इन्द्रसम्बन्धी व्यवहारको टिप्पणीके तौर पर दिये जा चुके हैं। देखकर आम्नायविच्छेदरूप अन्धकारको नष्ट करने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रकी प्रशस्तिका भावार्थ वाला यह युगानुरूप प्रन्थ उसने बनाया ॥ १८ ॥ - खण्डेलवाल वंशके भूषण, अल्हणके पुत्र, श्रावक जिसने धर्मामृतादि शास्त्र कुशाग्र बुद्धिवालोंके धर्ममें रत, नलकच्छपुरके रहनेवाले, परोपकारी, लिये और सिद्धयक महाकाव्य (भरतेश्वराभ्युदय) जिनपूजा, पात्रदान, और समयोद्योतक प्रतिष्ठा रसिकोंके आनन्दके लिये लिखा ॥६॥ उसी करनेवालोंमें अगुए, पापा साहू ने बारबार अनुरोध आशाधरने सहधर्मियोंके कण्ठको अलंकृत करनेके करके यह बनवाया ॥१९॥ आश्विन सुदी १५ वि० लिए यह पञ्जिका टीकायुक्त पवित्र ग्रन्थ रचा सं० १२८५ को परमारकुलशेखर देवपालके सुराज्य ॥७॥ कहाँ तो आर्ष ( महापुराणरूप ) समुद्र में, जिनका दूसरा नाम साहसमल है, यह ग्रंथ और कहाँ मेरी बुद्धि, तो भी सज्जनोंके लिए मैंने नलकच्छपुरके नेमि-चैत्यालयमें सिद्ध हुआ ॥२०॥ उसमेंसे कथा रत्नोंको उद्धृत करके इस शास्त्रमें बहुत-सी प्रतिष्ठायें करानेवाले केल्हणादिने सूक्तियों प्रथित कर दिया है ॥ ८॥ प्रतिदिनके स्वाध्यायके या सुभाषितके अनुरागसे पढ़कर इसका जल्दी ही लिए पुराणोंको संक्षिप्त कर दीजिये, पं० जाजाककी प्रचार किया। खण्डेलवाल वंशके ये न्यासवित् इस विज्ञप्तिने मुझे प्रेरित किया ॥ ९॥ इसमें मेरी केल्हण प्रसन्न रहें जिन्होंने इसकी यह पहली प्रति छद्मस्थताके कारण यदि कुछ स्खलन हुआ हो तो पाठ करने के लिए लिखी ॥ २१-२२ ॥ जिनशासनभक्त उसको सुधार कर पढ़ें ॥ १० ॥ इस महापुराणके अन्तस्तत्त्वसंग्रहके पढ़नेवालों पर सागारधर्मामृत-टीकाकी प्रशस्तिका सम्यग्दृष्टि देवी प्रसन्न हो ॥ ११ ॥ परमारवंश-संमुद्रके चन्द्रमा देवपाल राजाके ___ भावार्थ पुत्र जैतुगिदेव जब अपनी तलवारके जोरसे अवन्ती यह भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका नलकच्छपुरके (मालवा) पर शासन कर रहे हैं तब नलकच्छपुरके नेमि-चैत्यालयमें पौष वदी सप्तमी सं० १२९६ को
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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