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समाप्त हुई || २०-२१ ॥ पौरपाट ( परवार) वंशरूप आकाशका चन्द्रमा और समुद्धर श्रेष्ठीका पुत्र महीचन्द्र प्रसन्न रहे, जिसकी प्रार्थना से आशाधरने यह श्रावकधर्मका दीपक ग्रंथ बनाया और जिसने इसकी पहली प्रति लिखी ॥ २२ ॥
इष्टोपदेश - टीकाकी प्रशस्तिका भावार्थ
अनेकान्त
विनयचन्द्र मुनिके कहने से और भव्यों पर दया करके पं० आशाधरने यह इष्टोपदेश टीका बनाई । साक्षात् उपशमकी मूर्तिके तुल्य सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र हुए जो सज्जन चकोरोंके लिए चन्द्र हैं, पवित्रचरित्र हैं और जिनकी वाणी अमृतगर्भा और शास्त्रसन्दर्भगर्भा है ॥ २ ॥
जगद्वन्द्य श्री नेमिनाथ के चरणकमल जयवन्त हों, जिनके आश्रयसे धूल भी राजाओं के सिर पर चढ़ती है ॥ ३ ॥
परिशिष्ट
उक्त लेख के छप चुकने के बाद मैं अपने कुछ पुराने काग़जात देख रहा था कि उनमें स्व० पं० पन्नालालजी बाकलीवाल की भेजी हुई कुछ ग्रन्थ प्रशस्तियाँ मिलीं, जो उन्होंने जयपुर के कई पुस्तक भंडारोंसे नकल करके भेजी थीं। उनसे पता चला
[ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
कि वहाँ के पाटोदीजी के मन्दिर में भूपालचतुर्वि - शतिकाकी टोका और जिनयज्ञकल्प सटीक मौजूद हैं। पहले प्रन्थ में १४ पत्र और ४०० श्लोक हैं । उसका प्रारंभ इस प्रकार होता हैप्रणम्य जिनमज्ञानां सज्ञानाय प्रचचयते । अशाधरो जिनस्तोत्रं श्रीभूपालकवेः कृति ॥ १॥ अन्त में लिखा है
* यह लेख 'दि० जैन पुस्तकालय' सूरत से शीघ्र प्रकाशित होने वाली 'सागार धर्मामृत भाषा टीका' की भूमिका के लिये लिखा गया है। - लेखक
उपशम इव मूर्त्तिः पूतकीर्तिः स तस्मादनि विन (न) यचन्द्रः सच्च कोरे कचन्द्रः । नगदमतसगर्भाः शास्त्रसन्दर्भगर्भाः शुचिसिनो (वरिष्णो) यस्य धिन्वन्ति are: विनयचन्द्रस्यार्थमित्याशाधरविरचिता भूपालचतुर्वि - शतिजिनेन्द्रस्तुतेष्टीका परिसमाप्ता ।
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दूसरे ग्रंथ में १०२ पत्र हैं और श्लोक संख्या है । उसका प्रारंभ इस प्रकार होता है-. नत्था परापरगुरून्मन्दधियामर्थतत्त्वसंवित्तै । विदधेल्पशो निबन्धं स्वकृतेर्जिनयज्ञकल्पस्य ॥ अन्त में लिखा है
इत्याशाधरब्धे जिनयज्ञकल्पनिबन्धे कल्पदीपकनाग्नि षष्ठोध्यायः ॥ ६
इत्याशाधर विरचितो जिनयज्ञकल्पनिबन्धो कल्पदीपको नाम समाप्तः । संवत् १४१५ शाके १३६० वर्ष माघ वदि = गुरुवासरे ।