SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०२ अनेकान्त बघेरवाल वंशमें श्री सल्लक्षण नामक पिता और श्रीरत्नी माता से जैनधर्म में श्रद्धा रखने वाले पण्डित आशाधरका जन्म हुआ । १ अपने आपको जिस तरह सरस्वती (वाग्देवता) में प्रकट किया उसी तरह जिसने अपनी पत्नी सरस्वतीमें छाहड़ नामक गुणी पुत्रको जन्म दिया, जिसने मालव- नरेश अर्जुनवर्मदेवको प्रसन्न किया | २ [ आश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६ होजाने पर सदाचार-नाशके डर से जो बहुत से परिजनों या परिवार के लोगों के साथ बिन्ध्यवर्मा राजाकं † मालव मण्डल में आकर धारानगरी में बस गया और जिसने वादिराज पण्डित घर सेनके शिष्य शहाबुद्दीन ग़ोरी हो है । इसने वि० सं० १२४६ ( ई० सं० ११९२ ) में पृथ्वीराजको हराकर दिल्लीको अपनी राजधानी बनाया था। उसी वर्ष अजमेरको भी अपने अधीन करके और अपने एक सरदारको सारा कारबार सौंपकर वह गज़नी लौट गया था । शहाबुद्दीनने पृथ्वीराज चौहान से दिल्लीका सिंहासन छीनते ही अजमेर पर धावा किया होगा; क्योंकि अजमेर भी कवियोंके सुहृद्उदयसेन मुनिद्वारा जो प्रीति पूर्वक इन शब्दोंद्वारा अभिनन्दित किया गया— बघेरवाल वश-सरोवरका हंस, सल्लक्षणका पुत्र, काव्यामृतके पानसे तृप्त, नय- विश्वचक्षु, और पृथ्वीराज के अधिकार में था और उसी समय सपादलक्ष देश उसके अत्याचारोंसे व्याप्त हो रहा होगा । इसी समय कलिकालिदास पण्डित आशाधरकी जय हो ।” अर्थात् विक्रम संवत् १२४६ के लगभग पं० शाधर और मदनकीर्ति यतिपतिने जिसे 'प्रज्ञापुंज' कहकर मांडलगढ़ छोड़कर धारा में आये होंगे । अभिहित कियो । ३-४ म्लेच्छ नरेशके द्वारा सपादलक्ष देश के व्याप्त चौहान राजाओंको 'सपादलक्षीय नृपति' विशेषण दिया जाने लगा । साँभरको ही शाकंभरी कहते हैं । साँभर झील जो नमकका आकार है, उस समय सवालख देश की सिंगार थी, अर्थात् साँभरका राज्य भी तब सवालख में शामिल था । मण्डलकर दुर्ग अर्थात् मांडलगढ़ का किला इस समय मेवाड़ राज्य में है, परन्तु उस समय मेवाड़का सारा पूर्वीय भाग चौहानों के अधीन था। चौहान राजाओंके बहुतसे शिलालेख वहां पर मिले हैं। पृथ्वीराजके समय तक वहांके अधिकारी चौहान रहे हैं। अजमेर जब मुसलमानोंके क़ब्जे में आया तब माँडलगढ़ भी उनके हाथ चला गया । धर्मामृतक टीका में इस म्लेच्छ राजाको "साहिबुद्दीन तुरुष्क” बतलाया है । यह गज़नीका बादशाह + नगारधर्मामृत की मुद्रित टीका में विन्ध्यभूपतिका खुलासा 'विजयवर्म मालवाधिपतिः ' किया है; परन्तु हमारे अनुमानसे लिपिकार के दोषसे अथवा प्रूफसंशोधककी असावधानीसे ही 'विन्ध्यवर्म की जगह 'विजयवर्म' हो गया है । परमारवंशकी वंशावलियों और शिलालेखों में विन्ध्यवर्माका 'विजयवर्मा' नामान्तर नहीं मिलता । श्रीयुक्त लेले और कर्नल लुग्रर्डने विन्ध्यवर्माका समय वि० सं०१२१७ से १२३७ तक निश्चित किया है; परन्तु पं० श्राशाधरजीके उक्त कथनसे कमसे कम १२४९ तक विन्ध्यवर्माका राज्यकाल माना जाना चाहिए । उक्त विद्वानोंने विन्ध्यवर्मा के पुत्र और उत्तराधिकारी सुभटवर्मा ( सोहड़ ) का समय १२३७ से १२६७ तक माना है, परन्तु सुभटवर्मा १२३७ में राजा था, इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है, वह १२४६ के बाद ही राजपद पर आया होगा ।
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy