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________________ वर्ष. ३, किरण ]......... ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा ७.१. विषयोंकी उन्नतिकी सीमा बतलाने का एक तरहका गोत्र' कहते हैं । और नीचे आचरणको 'नीच गोत्र' प्रकार है,और नीचगोत्री कहलाना भी अपने २ असंयमा- कहते हैं । इस गाथामें "संतानक्रमेणागत" पद पड़ा चरणोंकी उन्नति ( वृद्धि ) को श्रादि लेकर नाना हुवा है, जो जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण विषयोंकी अवनतिकी हदको कह कर समझानेका एक है; यह पद जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण तरहका तरीका है। होनेसे इसका अर्थ अपने पिता प्रपितादिकोंके कुलकी गाथोक्त ऊँचनीचगोत्रका सर्वांगी अर्थ परिपाटीसे चला आया हुअा .आचरण नहीं हो सकता; बल्कि जीवके अपने स्वयं के पूर्व पूर्व आचरणोंके संसार-स्थित आत्माके अन्दर गोत्र कर्म नामका भी संस्कार-जन्य इच्छासे उत्पन्न संतानरूप अपर-अपर एक धर्म है, जिसका आत्माके सम्यक् चारित्रकी अाचरण होता है। इसलिये "संतान-क्रमेणागतजीवाउन्नति होनेसे सम्बन्ध है । यह गोत्रकर्म, अग्रवाल, चरणस्य गोत्रमिति संज्ञा" इस गाथार्धका साफ अर्थ खंडेलवाल, परवार अादि, और गोयल, सिंहल, वत्सल, हुआ-"पूर्व पूर्वके आचरणोंके संस्कार-जन्य इच्छासे सोनी, सेठी, पाटोदी, काशलीवाल आदि; तथा ब्राह्मण, उत्पन्न अपर-अपर आचरणोंके संतानक्रमसे आये हुये क्षत्रिय, वैश्यादि; मूलसंघ, सेनसंघ श्रादि और दूसरे जीवके अपने स्वयंके आचरणकी गोत्र संज्ञा है" । भी अनेक गण-गच्छादि भेद-प्रभेदोंको लिये हुए मनुष्य यहाँ जीवके अपने स्वयंके पाचरणोंके संतानक्रमको समूहोंके बतलाने वाले संसारके सांकेतिक और व्यवहारिक और समझ लेना चाहिये । नीचे उसीका स्पष्टीकरण गोत्रधर्मोसे 'सर्वथा भिन्न है । इसके जैन सिद्धान्त में किया जाता है:ऊँच गोत्र और नीच गोत्र ऐसे दो भेद माने गये हैं, इस प्रत्येक जीवात्माके अंदर आचरणोंकी दो प्रकारकी कारणसे यह आत्माका स्वतन्त्र धर्म न रह कर सापेक्ष धारायें बहती हैं -एक अधोधारा और दूसरी ऊर्ध्वधारा। धर्म हो जाता है । अर्थात् नीच गोत्रके सद्भावमें ऊँच बहती हुई परिणामोंकी ऊर्ध्वधाराको जब कोई बुरा. का होना और ऊँच गोत्रके सद्भावमें नीच गोत्रका कारण मिल जाता है तो उस बुरे कारणका निमित्त पाहोना तथा नीच गोत्रके अभाव में ऊंच गोत्रका न होना कर ऊर्ध्वधाराका प्रवाह मुड़कर अधोरूपमें बहना प्रारम्भ और ऊंच गोत्रके अभावमें नीच गोत्रका न होना, इस हो जाता है और बहते२ अधोस्थानके अंत तक वह धारा प्रकारकी व्यवस्था वाला धर्म हो जाता है । इसका वर्णन पहुँच जाती है, और यदि बीच में ही उसे कोई अच्छा श्री गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा नं० १३ में किया कारण मिल गया तो वह उस अच्छे कारणका निमित्त गया है, जिसकी संस्कृत छाया इस प्रकार है पाकर पुनः अधःसे ऊर्ध्वरूपमें बहने लगती है और संतानक्रमेणणागत-जीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा। बहते २ ऊर्ध्वस्थानके अन्तको प्राप्त हो जाती है, तथा उच्चं नाच्चं चरणं उच्चैर्नीच्चैर्भवेत् गोत्रम् ॥१३॥ आत्माको अपने शुद्ध-बुद्ध-सिद्धस्वरूपमें विराजमान इसका अर्थ बिलकुल साफ़ है और वह यह है कर देती है । इसी तरहसे बहती हुई परिणामोंकी कि-जीवके अपने स्वयं के ( कि पिता-प्रपितादिकोंके) अधोधाराको जब कोई अच्छा कारण मिल जाता है तो आचरणकी ‘गोत्र' संज्ञा है, ऊंचे आचरणको 'ऊँच उस अच्छे कारणका निमित्त पाकर उस अधोधाराका
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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