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________________ • अनेकान्त [आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६ प्रवाह मुड़कर ऊर्ध्वरूपमें बहने लगता है और बहते २ रूप होने लगते हैं । जब एक परिणाम, असंयमाचरण ऊर्ध्वस्थानके अन्त तक वह धारा पहुँच जाती है, और रूप होता है तब उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे यदि बीचमें ही उसे कोई बुरा कारण मिल गया तो उसकी संतान-रूप, उससे गिरता हुआ, नीचेका दूसरा वह उस बुरे कारणका निमित्त पाकर पुनः ऊर्ध्वमे परिणाम होता है । जब दूसरा परिणाम होता है तब अधोरूपमें बहने लगती है और बहते बहते अधःस्थान उसका निमित्त पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, के अन्तको प्राप्त हो जाती है और आत्माको अपने उससे गिरता हुआ नीचे का तीसरा परिणाम होता है। निम्मेदके अविनाशी पर्याय ज्ञानमें स्थापन कर देती है। जब तीसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त पाकर, अर्थात् प्रत्येक प्रात्माके अन्दर दो प्रकारके परिणाम उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे गिरता हुश्रा, होते हैं, एक संयमाचरणरूप परिणाम और दूसरे नीचेका चौथा परिणाम होता है। इस तरह पर्व पूर्व असंयमाचरणरूप परिणाम । काल-लब्धिका निमित्त परिणामों के संस्कारसे, उनकी संतान दर संतानरूप, पाकर जब यह आत्मा नित्य निगोदसे निकलता है तब उत्तर उत्तर परिणाम, नीचेसे नीचे असंयमाचरणरूप अहिंसा, सत्य, शीलादिके अभ्यास साधनका अच्छा (यदि बीच में कोई अहिंसा-सत्य-शीलादिके अभ्यास निमित्त पाकर इसके परिणाम संयमाचरणरूप होने साधनका अच्छा निमित्त नहीं मिला तो ) होते चले लगते हैं। जब एक परिणाम संयमाचरणरूप होता है जाते हैं, और होते होते अन्तमें नीचताकी सीमाको प्राप्त तब उसका निमित्त पाकर उसके संस्कारसे, उसकी कर लेते हैं और आत्माको अपने अविनाशी स्वरूप संतानरूप, उससे ऊपरका, ऊँचा तीसरा परिणाम होता वाले निगोदके पर्यायज्ञानमें स्थापन कर देते हैं। है; जब तीसरा परिणाम होता है तब उसका निमित्त अब यहाँ पर परिणामोंके संतान दरसंतान रूपसे पाकर, उसके संस्कारसे, उसकी संतानरूप, उससे ऊपर अधोरूपमें गिरने, और उर्ध्वरूपमें चढ़नेको दृष्टान्तों का ऊँचा चौथा परिणाम होता है । इस तरह पर पूर्वर द्वारा स्पष्ट किया जाता हैपरिणामोंके संस्कारसे उनका सन्तान दर सन्तानरूप किसी मनुष्यको दुःसंगति के कारण जुवा खेलनेका उत्तर-उत्तर परिणाम ऊँचेसे ऊँचे संयमाचरणरूप व्यसन लग गया । और वह अपने मित्र जुवारियोंमें ( यदि बीचमें कोई हिंसा झूठ चौर्यादिके अभ्यास-साधन जाकर प्रति दिन जुवा खेलने लगा । जब अपना का निमित्त नहीं मिला तो) होते चले जाते हैं और होते सारा धन जवेमें हार गया तो उसे फिर जबा खेलने होते अन्तमें उच्चताकी सीमाको प्राप्त कर लेते हैं और के लिये धनकी आवश्यकता हुई तब उसने सोचा कि आत्माको अपने सच्चिदानन्दरूप मोक्ष स्वभावमें स्थित चोरी द्वारा धन प्राप्त करके जवा खेलना चाहिये, कर देते हैं। __ ऐसा सोच कर वह चोरी करने लगा और चोरी में इसी तरह पर जब यह आत्मा मुनिपद धारण करके धन प्राप्त कर करके जुवा खेलने लगा । जब चोरी और ग्यारहवें गुणस्थानको प्राप्त होकर वहाँसे गिरता है करने में अतिशय निपुण हो जाने के कारण चोरीमें उसे तब प्रमाद, कषाय, असत्य, कुशीलादिके अभ्यास-साधन पर्याप्त धन मिलने लगा तो जुवा खेलनेमें हार जाने के का बुरा निमित्त पाकर इसके परिणाम असंयमाचरण उपरान्त भी उसके पास धन बचने लगा और बहुतसा
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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