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________________ ऊँच नीच गोत्र विषयक चर्चा वर्ष ३, किरण १२ ] खाद्य धन उसके पास हो गया । एक दिन वह किंनी वेश्या के द्वारके सामने होकर जा रहा था कि उसके एक जुवारी मित्रने उसे आवाज़ देकर वहाँ बुला लिया; जब वेश्या का उससे साक्षात् हुवा तो वेश्याने अपने हाव भाव कटाक्षोंसे उसे अपने में अनुरक्त कर लिया और वह वेश्या सेवन करने लगा । तथा चोरी द्वारा पर्याप्त धन ला ला कर वेश्याको देने लगा । वेश्या सेवन में त्रिषयानन्दकी वृद्धि के लिये मदिरा पानका चस्का भी वेश्या ने उसे लगा दिया और वह रात दिन मदिराके नशे में चूर रहने लगा | मदिराके नशे में खाद्या विचार भी उसे न रहा और वह वेश्याके साथ मांसादि अखाद्य वस्तुओं को भी भक्षण करने लगा | जब मांस भक्षणकी उसे आदत हो गई तो वह मांस प्राप्तिके लिये जंगलादिमें जाकर बिचारे दीननाथ एवं कायर पशुओं का वध ( शिकार ) भी करने लगा और मार मार कर उन्हें खाने लगा तथा अतिशय क्रूर परिणामी हो गया । क्रूर परीणामी हो जाने और नशे में चूर रहने के कारण वह परस्त्रियोंके साथ बलात्कार भी करने लगा और बल पूर्वक उनका सतीत्व हरण करके अतिशय व्यभिचारी और लोकनिंद्य हो गया | इस तरह पर एक जना व्यसनके लग जाने के कारण उसके सन्तान दर सन्तानरूप चौय्र्य्यादि व्यसनों के सेवनकी इच्छा और चत्राले परिणाम होने के कारण वह सातों व्यसनों का सेवन करने वाला अतिशय पापी, भ्रष्ट और परिणामको नीचे गिराने वाला दुर्गतिपात्र हो गया । इसी तरहसे एक जीव अपनी शुभ काललब्धिको पाकर नित्य निगोदसे निकलता है और अपने ऊँचेसे ऊँचे विशुद्ध परिणामों को करता हुआ मनुष्य पर्याय धारण करता है । मनुष्य पर्याय धारण करके आठ वर्ष 013 की अवस्था होने पर सम्यग् दर्शनको प्राप्त होकर योग्यता प्राप्त होने पर मुनिव्रत धारण करके और अपने परिणामों को सन्तान दर सन्तानरूप उतरोत्तर ऊँचेसे ऊँचे और विशुद्ध बनाता हुआ और समय प्रति समय विशुद्धता की वृद्धि करता हुआ अपनी परिणामधाराको ऊर्ध्व रूप में बाता हुआ केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है और अन्त में सम्पूर्ण कर्मोंसे सर्वथा मुक्ति लाभ करके अपने शुद्ध-बुद्ध सिद्ध स्वरूप में जा विराजता है । इस तरह पर मेरा विचार है कि जीवके, अपने स्वयंके एकके कारण से दूसरे और दूसरे के कारण से तीसरे होनें वाले शुभाशुभ आचरण को दी संतानक्रमसे आया हुआ जीवका आवरण कहते हैं। यदि मेरा उपर्युक्त विचार जिनागमसे विरुद्ध नहीं है तो क्या मैं यह कह संकता हूँ कि इससे गोत्र कर्मोदयके सम्बन्ध में लगाने हुये सम्पूर्ण दोषों का अपहार हो जावेगा ? गोत्र कर्मव्यवस्था प्रकृति-विकाशके विरुद्ध है, वह सार्वकालिक और चतुर्गतिके सारे जीवों पर लागू होने वाली नहीं है, वह केवल मनुष्यों और मनुष्यो में भी केवल भारतवासियों के व्यवहारानुसार बनी है, इत्यादि और भी जो दोष गोत्र-कर्म-व्यवस्था पर लगाये जाते हैं, वे सब दोष श्री गोमट्टसार कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथाका उपर्युक्त अर्थ मानने पर दूर हो सकेंगे, यदि सब दोष दूर हो सकेंगे तो २३ वीं गाथाका उपर्युक्त अर्थ ही सर्वाङ्गी अर्थ कहलाएगा । अस्तु । संक्षेप में गोमट्टसार कर्मकाण्डकी १३ वीं गाथाकी व्याख्या करने और यह चतलाने के बाद कि 'ऊँच-नीच गोत्र कर्मोदय क्या है ?', अब मैं चारों गतियों के जीवों में गोत्रकर्मके उदयकी कुछ व्याख्या करना चाहता हूँ । देवोंमें ऊँच-नीच गोत्रोदय जैन सिद्धान्तमें, देवों में जो ऊँच गोत्रका उदय
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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