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अनेकान्त
पाँच नियम हैं, और जो गृहस्थ तथा मुनियोंके लिए आवश्यक हैं। ये अहिंसा, अस्तेय, सत्य, ब्रह्मचर्य तथा परिमित परिग्रह कहे जाते हैं । ये सदाचार-सम्बन्धी पंचव्रत कहे जाते हैं, और अरनंरिश्वारम् नामक ग्रन्थ में इनका वर्णन है ।
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२. पलमोलि अथवा सूक्तिएँ - इसके रचयिता मुनरुनैयर अनार नामक जैन हैं। इसमें नालदियारके समान वेणवा वृत्त में ४०० पद्य हैं। इसमें बहुमूल्य पुरातन सूक्तियाँ हैं, जो न केवल सदाचार के नियम ही बताती हैं बल्कि बहुत अंश में लौकिक बुद्धित्तासे परिपूर्ण हैं । तामिलके नीतिविषयक अष्टादश ग्रन्थोंमें कुरल, नालदियारके बाद इसका तीसरा नंबर है ।
३. इस अष्टादश ग्रंथ-समुदाय में सम्मिलित “तिनैमालैनूरैम्वतु” नामका एक और ग्रन्थ हैं जिसका रचयिता है करिणमेदैयार । यह जैन लेखक भी संगमके कवियोंमें अन्यतम हैं । यह प्रन्थ शृंगार तथा युद्ध के सिद्धान्तों का वर्णन करता है तथा पश्चात्वर्ती महान् टीकाकारों के द्वारा इस ग्रंथके अवतरण बखूबी लिए जाते रहे हैं । नश्चिन किनियार तथा अन्य ग्रन्थकारोंने इस ग्रन्थ के अवतरण दिए हैं।
[ श्राश्विन, वीर निर्वाण सं० २४६६
सुगंधित काष्ट, चन्दन तथा मधुके सुगन्धपूर्ण संग्रहको घोषित करता है । ग्रन्थ के इस नामकरणका कारण यह हैं कि इसके प्रत्येक पद्य में ऐसे ही सुरभिपूर्ण पाँच विषयों का वर्णन है । इस ग्रन्थका मूल जैन है | ग्रन्थकारका नाम कणिमेडैयार है जिनकी विद्वत्ता सबके द्वारा प्रशंमित है । यह संगम साहित्यकं अष्टादश लघुग्रंथों में अन्यतम है । लेखक के सम्बन्ध में केवल इतना ही मालूम है, कि वह माक्कानारका शिष्य तथा तामिलाशिरियरका पुत्र है, जो मदुरा संगम के सदस्य थे । साधारणतया वे ग्रंथ यद्यपि उन अष्टादशलघुग्रन्थोंमें शामिल किए जाते हैं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं हैं, कि वे उसी शताब्दी के हैं। ये अनेक शताब्दियों के होने चाहिएँ । हम कुछ दृढ़ता के साथ इतना ही कह सकते हैं, कि ये दक्षिण भारत में हिन्दूधर्म के पुनरुद्धार काल के पूर्ववर्ती हैं। अतः इनका समय सातवीं सदी के पूर्वका होना चाहिए ।
अब हम काव्य साहित्यका वर्णन करेंगे । महाकाव्य और लघुकाव्यके भेदसे काव्य - साहित्य दो प्रकारका है । महाकाव्य संख्या में पाँच हैं - चितामणि शिलप्पडिकारम् मणिमेखलै, वलैयापति और कुंडलकेशि । इन पांच काव्यों में चिंतामणि, सिलप्पडिकारम, और वलैतापति तो जैन लेखकों की कृति हैं और शेष दो बौद्ध विद्वानोंकी कृति हैं। इन पांच मेंसे केवल तीन ही अब उपलब्ध होते हैं; कारण वलैयापति तथा कुंडलकेशि तो इस जगत से लुप्त हो गए हैं। टीकाकारों द्वारा इधर-उधर उद्धृत कतिपय पद्योंके 'सिवाय इन ग्रंथोंके सम्बन्ध में कुछ भी विदित नहीं है । प्रकीर्णक रूपमें प्राप्त कतिपय पद्योंसे यह स्पष्ट है कि 'वलैया पति' जैन ग्रन्थकार
४. इस समुदायका एक ग्रन्थ 'नान्मणिक्कडिगे' अर्थात् रस्नचतुष्टय-प्रापक है । इसके लेखक जैन विद्वान विलम्बिनथर हैं । यह वेणूबा छन्द में है, जो अन्य ग्रन्थों में प्रसिद्ध है । प्रत्येक पद्य में रत्नतुल्य सदाचार के नियम चतुष्टयका वर्णन है और इसीसे इसका नाम नान्मणिक्कडिगे है ।
५. इसके बाद एलाति तथा दूसरे ग्रंथ आते हैं एलाति शब्द इलायची, कर्पूरे, ईरीकारसू नामक