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वर्ष ३, किरण १२]
तामिल भाषाका जैन साहित्य
के द्वारा रचित था । कथाका क्या ढाँचा था,लेखक हित्यके समय-निर्णयमें सीमालिंगका काम देनेवाला कौन था और वह कब विद्यमान था, ये सब बातें समझा जाता है। उसके लेखक चेरके युवराज हैं,जो केवल कल्पनाकी विषय रह गई हैं। इसी प्रकार 'लंगोवडिगल' नामके जैन मुनि हो गए थे। बौद्ध ग्रन्थ कुंडलकशिके लेखक अथवा उसके समय यह महान् ग्रंथ साहित्यिक रिवाजोंके विषयमें के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात नहीं है । नीलकेशि ग्रंथमें प्रमाणभत गिना जाता है और बादके टीकाकारांके उद्धृत पद्योंस यह स्पष्ट होता है कि कुण्डलकेशि द्वारा इसी रूपमें उद्धृत किया जाता है । इसका एक दार्शनिक ग्रंथ था, जिसमें वैदिक तथा जैन सम्बन्ध नगरपुहार, कावेरिपूमपट्टणमके, जो चोल दर्शन जैसे अन्य दर्शनोंका खण्डन करके बौद्ध राज्यकी राजधानी था, महान् वणिक परिवारसे दर्शनको प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गई है। बताया जाता है । करणकी नामकी नायिका इमी दुर्भाग्यसं इन दोनों महाकाव्योंकी उपलब्धिकी कोई वैश्य वंशकी थी और वह अपने शील तथा पतिआशा नहीं है । प्रकाण्ड तामिल विद्वान डा. वी. भक्ति के लिए प्रख्यात थी । चूंकि इस कथामें पांड्य स्वामिनाथ अय्यरके प्रशंसनीय परिश्रमसं केवल राज्यकी राजधानी मदुरामें नूपुर (anklet ) तीन अन्य ग्रन्थ ही इस समय उपलब्ध हैं । यद्यपि अथवा शिलम्बु बेचने का प्रसंग है, इसलिए यह काव्योंकी गणनामें चिंतामणिका गौरवपूर्ण स्थान दुःखान्त रचना नपुर अथवा शिलम्बुका महाकाव्य है, क्योंकि उस ग्रंथराजको सर्वमान्य साहित्यिक कही जाती है। चूंकि इस कथामें तीन महाराज्यों कीर्ति है, परन्तु इसम यह कल्पना नहीं की जा का सम्बन्ध है अतः लेखक, जो चेर-युवराज्य है, सकती कि यह गणना ऐतिहासिक क्रम पर अव. पुहार, मदुरा तथा वनजी नामकी तीन बड़ी लम्बित है । प्रायःवलैयापति एवं कुंडलकेशि नामक राजधानियोंका विस्तारके साथ वर्णन करता है, लुप्त ग्रन्थ दूसरोंकी अपेक्षा ऐतिहासिक दृष्टिस जिनमेंसे वनजी चेरराज्यकी राजधानी थी। पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं, किन्तु इन ग्रंथोंके विषयों इस ग्रंथके रचियिता लंगोबडिगल चेरलादन कुछ भी विदित नहीं है, अत: हम निश्चयपूर्वक कुछ नामक चेर नरेशके लघ पुत्र थे, जिसकी राजधानी भी नहीं कह सकते हैं। अवशिष्ट तीन ग्रंथों में वनजी थी। ल्लंगोवाडिगल चेरलादनके पश्चात होने शिनप्पडिकारम् तथा मणिमेकले परम्पराके द्वारा वाले नरेश शेनगुटटुवनका अनुज था; इसीसे समकालीन बताए जाते हैं, किन्तु चिंतामणि प्रायः उसका नाम ल्लंगोवाडिगल अर्थात् छोटा युवराज पश्चात्तवर्ती है । मण ने कलै के बौद्ध ग्रंश होनेके था। जब वह मुनि हुए तब उन्हें लंगोवाडिगल कारण हम अपनी आलोचनामें उसे स्थान नहीं दे कहते थे, 'अडिगल' शब्द मुनिका उल्लेख करने सकते, यद्यपि कथाका सम्बन्ध शिलप्पडिकारम वाला एक सम्मानपूर्ण शब्द है । एक दिन जब से है जो कि स्पष्टतया जैन प्रन्थ है।
यह साधु युवराज वनजी नामकी राजधानीमें स्थित शिलप्पडिकारम्-'नपुरका महाकाव्य' अत्यन्त जिनमन्दिरमें थे, तब कुछ पहाड़ी लोग उनके पास महत्वपूर्ण तामिल ग्रंथ है, कारण वह तामिल सा- गए और उनने उस आश्चर्यकारी दृश्यका वर्णन