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वर्ष ३ किरण १२]
गो० कर्मकांडकी त्रुटि पर्तिके विचार पर प्रकाश
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की टीकाओं में मूल गाथाओं की संख्या एक नहीं है। 'चिरकालं' पदके आगे पीछे आशीर्वादात्मक कोई अमृतचन्द्राचार्यकी समय-सार टीकासे जयसेनाचार्यकी पद भी नहीं है। संभव है कि इसका मूलरूप कुछ समय-सार टीका में २८ गाथाएँ अधिक हैं, और अमृत- दूसरा ही रहा हो और यह अन्तमें किसी चन्द्राचार्य की प्रवचनसार टीकासे जयसेनकी प्रवचन-सार प्रकारसे प्रक्षिप्त होकर कर्मकाण्डमें रक्खी गई हो। टीकामें २२ गाथाएँ अधिक हैं । अब प्रश्न होता है कि चामुण्डरायकी बनाई हुई वैसी कोई टीका इससमय यदि वे गाथाएँ जो जयसेनाचार्य की टोकामें अधिक उपलब्ध नहीं है और न उक्त गाथाके आधारके पाई जाती हैं मूज ग्रन्थकी गाथाएँ हैं तो क्या फिर अतिरिक्त दूसरा कोई स्पष्ट प्रमाण ही उसके आचार्य अमतचन्द्रने उन्हें जान बूझकर छोड़ दिया है ? रचे जानेका देखने में आता है। थोड़ी देरके लिये और यदि जान बूझकर नहीं छोड़ा तो उन्हें अपनी यदि यह मान भी लिया जाय कि चामुंडरायने टीकामें क्यों नहीं दिया ? और यदि वे गाथाएँ लिपि- उसी समय गोम्मटसार कम काण्ड पर कोई टीका कारोंसे छूट गई थीं तो क्यों उनकी पूर्ति नहीं की? लिखी थी तो भी यह कैसे कहा जा सकता है कि और यदि वे मूल ग्रंथकी गाथाएं नहीं हैं तो जयसेना- ३००-४०० वर्षके पीछे बनो हुई केशववर्णीकी चार्यने उन्हें क्यों मूलग्रंथ की गाथा प्रकट किया ? इन कनडीटीका बिल्कुल उसीके आधार पर बनी हैप्रश्नोंके उत्तर. परसे ही ग्रोफेसर साहब के उक्त कथनका उन्हें वह देशी टीका प्राप्त थी और उसमें उस वक्त सहज-समाधान हो जाता है।
तक कोई अंश त्रुटित नहीं हुआ था ? अथवा इस कर्मकाण्डसे गाथाओंके न छूटनेकी एक युक्ति लम्बे चौड़े समय के भीतर उस देशी टीकाकी प्रति प्रोफेसर साहबने यह भी दी है कि-गोम्मटसार और दूसरी मूल प्रतियोंमें, जो केशववर्णीको की टोकाकी परम्परा उसके कर्ता के जीवनकाल में अपनी टीका के लिये प्राप्त हुई थीं, मूल पाठ अविही, ग्रन्थकी रचनाके साथ साथ ही प्रारम्भ हो कल रूपमे चला आया था और उसमें किसी भी गई थी अर्थात चामुण्डरायने उसकी देशी (टीका) कारणवश कोई गाथा त्रुटित नहीं हुई थी ? प्रस्तुत कर डाली थी, उसमे कोई ३०० वर्ष पश्चात् केशव- संस्कृत टीका तो केशववर्णीकी टीकासे कोई१५०वर्ष वर्णीने कनड़ी टीका लिखी और फिर कनड़ी टीका बाद बनी है; क्योंकि इसके कर्ता नेमिचन्द्र भट्टारक के आधार परसे वह 'जोवतत्त्वप्रबोधनी' टीका ज्ञानभूषण के शिष्य थे और ज्ञानभूषण का अस्तिलिखी गई, जिस टीकाकी प्रशस्तिक कुछ वाक्य त्व वि० सं० १५७५ तक पाया जाता है * । तथा
आपने उद्धृत किये हैं। चामुण्डराय द्वारा देशीके केशववर्णीकी टीका.शक सं० १२८१ (वि० सं० लिखे जानेकी एक गाथा भी आपने उद्धृत - की है, जो कर्मकाण्ड में अंतिम गाथाके रूपसे सं० १५७५ में ज्ञानभूषण भट्टारकको ज्ञानादर्ज है, और जो अपनी स्थिति परसे बहुत कुछ वकी एक प्रति ब्रह्म तेजपालने लाकर भेंट की थी, ऐसा संदिग्ध जान पड़ती है। क्योंकि उसमें प्रयक्त हुए मुख्तारसाहबके ऐतिहासिक खातोंके रजिष्टरपरसे मालूम 'जा' पद का कोई सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता और होता है।