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________________ ७६० अनेकान्त [ आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ कितनी कितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं यह बतलाते हुए उत्तर प्रकृतियों की कुल संख्या १४८ दी है; परन्तु इन १४८ प्रकृतियों में से बहुत कम प्रकृतियों के नामादिकका वर्णन दिया है, और जो वर्णन दिया है वह अपने कथन के पूर्व सम्बन्ध के बिना बहुत कुछ खटकता हुआ जान पड़ता है, इस बातको मैंने अपने पूर्व लेख में विस्तार के साथ प्रकट किया था । एक ग्रन्थकार खास प्रकृतियोंका अधिकार लिखने बैठे और उसमें सब प्रकृतियों के नाम तक भी न देवे यह बात कुछ भो जो को लगती हुई मालूम नहीं होती । प्रकृति-विषयक जो अधिकार पंचसंग्रह प्राकृत, पंच संग्रह संस्कृत और धवलादि ग्रंथों में पाये जाते हैं उन सबमें भी कर्मकी १४८ प्रकृतियों का नामोल्लेख पूर्वक वर्णन पाया जाता है । इससे मुद्रित कर्मकांडके उक्त अधिकार में सम्पूर्ण उत्तर प्रकृतियों का वर्णन न होना जरूर ही उसके त्रुटित होने को सूचित करता है । प्रोफे.. सर साहबने इस बात पर कोई खास लक्ष्य न देकर जैसे तैसे यह बतलाने की चेष्टा की है कि यदि उक्त गाथाएँ इस ग्रन्थ में न रहें तो कोई विशेष हानि नहीं । कहीं तो आपने यह लिख दिया है कि अमुक "गाथाओं की कोई विशेष आवश्यकता दिखाई नहीं देती," कहीं यह कह दिया है कि अमुक "गाथाएँ २१ वीं गाथाके स्पष्टीकरणार्थटीकारूप भले ही मान ली जावें किन्तु सारग्रन्थ के मूलपाठ में उनकी गुंजाइश नहीं दिखाई देती," कहीं यह भी लिख दिया है कि अमुक "गाथाओं के न रहने से कोई बड़ा प्रकाश व अन्धकार नहीं उत्पन्न होता, " कहीं यह सूचित किया है कि अमुक गाथाका आशय अमुक गाथासे निकाला १४१६ ) में बनकर समाप्त हुई थी। ऐसी हालत में यह अनुमान करना निरापद् नहीं हो सकता कि इन टीकाओं में चामुण्डरायकृत देशीका आश्रय लिया गया है। बाकी यह कल्पना तो प्रोफ़ेसर साहबकी बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है कि “जहाँ (जिस चित्रकूट में ) यह (संस्कृत) टीका रची गई थी वह संभवतः वही चित्रकूट था जहाँ सिद्धान्ततत्त्वज्ञ एलाचार्यने 'धवला' टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढ़ाया था, ऐसी परिस्थिति में यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त टीकाके निर्माणकालमें व उससे पूर्व कर्मकांड में से उसकी आवश्यक अंगभूत कोई गाथाएँ छूट गई हों या जुदी पड़ गई हों” ! क्योंकि वह चित्रकूट आज भी मौजूद है, आज यदि कोई वहाँ बैठकर ग्रन्थ बनाने लगे तो क्या उसके सामने वह सब दफ्तर अथवा साधन सामग्री- मय शास्त्रभंडार मौजूद होगा, जो एलाचार्य और वीरसेन के समयमें था ? यदि नहीं तो एलाचार्य के और वीरसेनसे कोई सातसौ वर्ष पीछे टीका बनाने वाले नेमिचन्द्र के सामने वह सब दफ्तर अथवा शास्त्र - भंडार कैसे हो सकता है ? यदि नहीं हो सकता तो फिर उस चित्रकूट स्थान पर इस टीकाके बनने मात्र से यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह जिस कर्मकाण्डकी टीका है उसमें उसके बनने से पहले कोई गाथाएँ त्रुटित नहीं हुईं थीं । अतः पहली बात जो प्रोफेसर साहबने विरोध में कही है वह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती । (२) मुद्रित कर्मकाण्डके प्रथम अधिकार 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' में कर्मकी मूल आठ प्रकृतियोंके नामादिक दिये हैं और प्रत्येक मूलप्रकृतिको
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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